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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 24 - Skand 7, Adhyay 24

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चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना

शौनक बोले- हे श्रेष्ठ सूतजी ! चाण्डालके घर जाकर राजा हरिश्चन्द्रने क्या किया ? आप मेरे प्रश्नका उत्तर शीघ्र ही दीजिये ॥ 1 ॥

सूतजी बोले- विश्वामित्रको वह दक्षिणाद्रव्य देकर चाण्डाल प्रसन्नचित्त हो गया। तत्पश्चात् विप्र विश्वामित्रके चले जानेपर वह चाण्डाल नरेशको बाँधकर 'तुम पुनः झूठ बोलोगे'- ऐसा कहकर उन्हें दण्डसे मारने लगा। दण्डके प्रहारसे घबड़ाये हुए तथा अत्यन्त व्याकुल इन्द्रियोंवाले और अपने इष्ट मित्रोंके वियोगसे दुःखित उन हरिश्चन्द्रको अपने गृहमें लाकर तथा जंजीरमें बाँधकर वह चाण्डाल स्वयं निश्चिन्त होकर सो गया ॥ 2-4॥

जंजीरमें जकड़े हुए वे राजा हरिश्चन्द्र चाण्डालके घरमें रहते हुए अन्न और जलका परित्याग करके निरन्तर मनमें यह सोचते रहते थे- 'उदास मुखवाली मेरी दुर्बल स्त्री दीन मुखवाले बालकको सम्मुख देखकर असीम कष्टसे भर जाती होगी और मुझे याद करके सोचती होगी कि धन अर्जित करके प्रतिज्ञा की गयी दक्षिणा ब्राह्मणको देकर वे राजा हम दोनोंको बन्धनसे मुक्त कर देंगे। रोते हुए पुत्रको देखकर वह मुझे पुकारती होगी; पुनः 'हे तात! हे तात!'- ऐसा कहते हुए तथा रोते हुए बालकसे कहती होगी कि मैं तुम्हारे पिताके पास तुम्हें ले चल रही हूँ, किंतु वह मृगनयनी यह नहीं जानती कि मैं चाण्डालकी दासताको प्राप्त हो गया हूँ ॥ 5-86 ॥

राज्य नष्ट हो गया, इष्ट मित्र अलग हो गये, स्त्री एवं पुत्र बिक गये, मुझे चाण्डालता स्वीकार करनी पड़ी। अहो ! यह विधिकी कैसी दुःख-परम्परा है। इस प्रकार चाण्डालके घर रहते हुए तथा निरन्तर स्त्री और पुत्रका स्मरण करते हुए दैवके विधानसे परम दुःखी उन नरेशने चार दिन व्यतीत किये। पाँचवें दिन चाण्डालने उन्हें बन्धनसे मुक्त किया। तत्पश्चात् चाण्डालने उन्हें [श्मशानपर] मृत व्यक्तियोंके वस्त्र लेनेको आज्ञा दी। उस क्रोधी चाण्डालने अत्यन्त कठोर वचनोंका प्रयोग करके बार-बार डाँटते | हुए हरिश्चन्द्रसे कहा- काशीके दक्षिणभागमें महान् श्मशान है। तुम न्यायपूर्वक उसकी रखवाली करो, तुम्हें कभी भी वहाँसे हटना नहीं चाहिये। इस जर्जर दण्डको लेकर तुम अभी वहाँ चले जाओ, विलम्ब मत करो। तुम भलीभाँति घोषित कर दो कि यह दण्ड | वीरबाहुका है।9-14 ॥

सूतजी बोले- [हे शौनक !] कुछ समयके अनन्तर राजा हरिश्चन्द्र उस चाण्डालके वशवर्ती होकर श्मशानमें मृतकोंके वस्त्र (कफन) ग्रहण करनेवाले हो गये ॥ 15 ॥

मृतकोंका वस्त्र लेनेवाले उस चाण्डालने राजाको आज्ञा प्रदान की, तब उससे आदेश पाकर वे श्मशानमें चले गये । 16 ।।

वह भयानक श्मशान काशीपुरीके दक्षिण भागमें था। वहाँ शवकी मालाएँ बिखरी रहती थीं, वह , दुर्गन्धयुक्त था तथा अत्यधिक धुएँसे भरा हुआ था। सर्वत्र भयंकर चीत्कार हो रहा था। सैकड़ों सियारिनोंसे व्याप्त था । गीधों और सियारोंसे सारा स्थान भरा था। वह श्मशान कुत्तोंसे सदा घिरा रहता था, चारों ओर हड्डियाँ बिखरी पड़ी थीं, महान् दुर्गन्धसे भरा हुआ था, अधजले शवोंके मुख निकले हुए दाँतोंसे हँसते जैसे दीख रहे थे। चिताके मध्य स्थित शवकी ऐसी दशा थी ॥ 17 – 193 ॥

मरे हुए लोगोंके अनेक सुहृदजनोंके रुदनकी ध्वनि तथा महान् कोलाहलसे वह स्थान व्याप्त था। 'हा मेरे पुत्र, मित्र, बन्धु, भ्राता, वत्स, प्रिया ! इस समय मुझे छोड़ रहे हैं। हा पूज्य भागिनेय, मातुल, पितामह, मातामह, पिता, पौत्र! आप कहाँ चले गये हैं; हे बान्धव! लौट आइये' – इस प्रकार वहाँ | उपस्थित सभी लोगोंके भीषण शब्दोंसे वह श्मशान व्याप्त था। जलते हुए मांस, वसा और मेदसे साँय सौंपकी ध्वनि निकलती थी। अग्निमेंसे चट-चटानेका जहाँ भयंकर शब्द होता रहता था, इस प्रकारका वह | श्मशान अत्यन्त भीषण तथा प्रलयकालीन स्वरूपवाला था 20-233 ॥

वहाँ पहुँचकर राजा हरिश्चन्द्र दुःखपूर्वक इस प्रकार सोचने लगे- हाय, मेरे भृत्य तथा मन्त्रीगण ! तुम कहाँ हो ? कुल परम्परासे प्राप्त मेरा राज्य कहाँ गया? हे प्रिये! हे अबोध पुत्र ! मुझ अभागेको छोड़कर ब्राह्मणके कोपसे तुमलोग दूर कहाँ चले गये ? धर्मके बिना मनुष्यका कभी कल्याण नहीं हो सकता। अतएव मनुष्यको चाहिये कि यत्नपूर्वक धर्मको धारण करे ॥ 24- 263 ॥

इन बातों तथा चाण्डालके कहे हुए वचनोंको वे पुनः पुनः सोचते रहते थे। मैलसे लिप्त शरीरवाले तथा लकड़ीके समान दुर्बल देहवाले वे राजा शवोंको देखनेके लिये जाते थे तथा इधर-उधर दौड़ते भी रहते थे। इस शवसे यह मूल्य मिला, पुनः दूसरेसे सौ मुद्रा मूल्य मिलेगा, यह मेरा है, यह राजाका और यह चाण्डालका – इस प्रकार सोचते हुए वे राजा महान् दुर्गतिको प्राप्त हुए । 27 – 293 ॥

उनके शरीरपर एक ही पुराना वस्त्र था, जिसमें बहुत-सी गाँठें लगी थीं। एकमात्र कन्था (गुदड़ी) ही उनके पास थी। उनके मुख, हाथ, उदर और पैर चिताकी राख एवं धूलसे धूसरित थे। हाथकी अँगुलियाँ तरह-तरहके मेद, वसा और मज्जासे सनी रहती थीं और वे दुर्गन्धयुक्त श्वास लेते रहते थे । शवोंके पिण्डदानार्थ जो भात बनता था, उससे वे अपनी भूख मिटाते थे। शवोंकी माला पहनकर अपने मस्तकको मण्डित किये रहते थे। 'हाय-हाय' ऐसा बार-बार कहते हुए न वे दिनमें सो पाते थे और न रातमें ही इस प्रकार महाराज हरिश्चन्द्रने बारह महीने सौ वर्षके समान व्यतीत किये 30-33 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति