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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 5, अध्याय 23 - Skand 5, Adhyay 23

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भगवतीके श्रीविग्रहसे कौशिकीका प्राकट्य, देवीकी कालिकारूपमें परिणति, चण्ड-मुण्डसे देवीके अद्भुत सौन्दर्यको सुनकर शुम्भका सुग्रीवको दूत बनाकर भेजना, जगदम्बाका विवाहके विषयमें अपनी शर्त बताना

व्यासजी बोले-[हे राजन् ! ] तब शत्रुओंसे सन्त्रस्त देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवतीने अपने शरीरसे एक दूसरा रूप प्रकट कर दिया ॥ 1 ॥

जब भगवती पार्वतीके विग्रहकोशसे अम्बिका प्रकट हुईं, तब वे सम्पूर्ण जगत् में 'कौशिकी' इस नामसे कही जाने लगीं। पार्वतीके शरीरसे उन भगवती कौशिकीके निकल जानेसे शरीर क्षीण हो जानेके कारण वे पार्वती कृष्णवर्णकी हो गयीं। अतः वे कालिका नामसे विख्यात हुईं ॥ 2-3 ॥

वे कालिका स्याहीके समान काले वर्णकी थीं तथा महाभयंकर प्रतीत होती थीं। दैत्योंके लिये भयवर्धिनी तथा [भक्तोंके लिये] समस्त मनोरथ पूर्ण करनेवाली वे भगवती 'कालरात्रि' इस नामसे पुकारी जाने लगीं ॥ 4 ॥

समस्त आभूषणोंसे मण्डित और लावण्यगुणसे सम्पन्न वह भगवतीका दूसरा रूप ( कौशिकी) अत्यन्त मनोहर प्रतीत हो रहा था ॥ 5 ॥

तदनन्तर अम्बिकाने मुसकराकर देवताओंसे यह कहा - आपलोग निर्भय रहें, मैं आपके शत्रुओंका वध अभी कर डालूंगी। आपलोगोंका कार्य मुझे सम्यक् प्रकारसे सम्पन्न करना है। मैं समरांगणमें विचरण करूँगी और आपलोगोंके कल्याणके लिये निशुम्भ आदि दानवोंका संहार करूँगी ॥ 6-7 ॥

तब ऐसा कहकर गर्वोन्मत्त वे भगवती कौशिकी सिंहपर सवार हो गयीं और देवी कालिकाको साथमें लेकर शत्रुके नगरकी ओर चल पड़ीं ॥ 8 ॥

कालिकासहित देवी अम्बिका वहाँ पहुँचकर नगरके उपवनमें रुक गयीं। तत्पश्चात् उन्होंने जगत्को मोहमें डालनेवालेको भी मोहित करनेवाला गीत गाना आरम्भ कर दिया ।। 9 ॥

उस मधुर गानको सुनकर पशु-पक्षी भी मोहित हो गये और आकाशमण्डलमें स्थित देवतागण अत्यन्त आनन्दित हो उठे ॥ 10 ॥

उसी समय शुम्भके चण्ड तथा मुण्ड नामक दो सेवक जो भयंकर दानव थे, स्वेच्छापूर्वक घूमते हुए वहाँ आ गये। उन्होंने देखा कि दिव्य स्वरूपवाली भगवती अम्बिका गायनमें लीन हैं और कालिका उनके सम्मुख विराजमान हैं ॥ 11-12 ॥

हे नृपश्रेष्ठ ! उन दिव्य रूपवाली भगवतीको देखकर दोनों दानव विस्मयमें पड़ गये। वे तुरंत शुम्भके पास जा पहुँचे ॥ 13 ॥

अपने महलमें बैठे हुए उस दानवराज शुम्भके पास जाकर उन दोनोंने सिर झुकाकर राजाको प्रणाम करके मधुर वाणीमें कहा- ॥ 14 ॥

हे राजन्! कामदेवको भी मोहित कर देनेवाली | एक सुन्दरी हिमालयसे यहाँ आयी हुई है। वह सिंहपर सवार है तथा सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है ॥ 15 ॥

ऐसी उत्तम स्त्री न स्वर्गमें है और न गन्धर्वलोकमें। सम्पूर्ण पृथ्वीपर ऐसी सुन्दरी न तो कहीं देखी गयी और न सुनी ही गयी ।। 16 ।।

हे राजन्! वह ऐसा गाती है कि उसके गानेपर सभी मुग्ध हो जाते हैं। उसके मधुर स्वरसे मोहित होकर मृग भी उसके पास बैठे रह जाते हैं॥ 17 ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! अब आप यह पता लगाइये कि यह किसकी पुत्री है और किसलिये यहाँ आयी हुई है ? [उसके बाद] उसे अपने यहाँ रख लीजिये; क्योंकि वह सुन्दरी आपके योग्य है ॥ 18 ॥

यह जानकारी प्राप्त करके आप उस सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रीको अपने घर ले आइये और अपनी भार्या बना लीजिये क्योंकि ऐसी स्त्री निश्चितरूपसे संसारमें नहीं है ॥ 19 ॥ हे राजन्! आप देवताओंके सम्पूर्ण रत्न अपने अधिकारमें कर चुके हैं, तो फिर हे नृपश्रेष्ठ! इस सुन्दरीको भी आप अपने अधिकारमें क्यों नहीं कर लेते ? ॥ 20 ॥

हे राजन्! आपने बलपूर्वक इन्द्रका ऐश्वर्ययुक्त ऐरावत हाथी, पारिजात वृक्ष और सप्तमुखवाला उच्चैःश्रवा घोड़ा छीन लिया ॥ 21 ॥

हे नृप। आपने ब्रह्माजीके हंसध्वजसम्पन्न दिव्य तथा रत्नमय अद्भुत विमानको बलपूर्वक अपने [अ0] 23 अधिकारमें कर लिया ॥ 22 ॥ हे राजन्! आपने बलपूर्वक कुबेरकी पद्म नामक निधिको छीन लिया है और वरुणके श्वेत छत्रको अपने अधिकारमें कर लिया है॥ 23 ॥

हे नृपश्रेष्ठ! आपके भाई निशुम्भने श्री वरुणको पराजित करके उसके पाशको हठपूर्वक छीन लिया है ।। 24 ।। हे महाराज! आपके भयसे समुद्रने कभी भी न मुरझानेवाली कमल-पुष्पोंकी माला और विविध प्रकारके रत्न आपको प्रदान किये हैं॥ 25 ॥

आपने मृत्युको जीतकर उसकी शक्तिको तथा यमराजको जीतकर उसके अति भीषण दण्डको अपने पूर्ण अधिकारमें कर लिया है। हे राजन्! आपके पराक्रमका और क्या वर्णन किया जाय ? समुद्रसे प्रादुर्भूत कामधेनु आपने छीन ली, जो इस समय | आपके पास विद्यमान है। हे राजन्! मेनका आदि | अप्सराएँ भी आपके अधीन पड़ी हुई हैं॥ 26-27 ॥

इस प्रकार जब आपने सभी रत्न बलपूर्वक छीन लिये हैं, तब नारियोंमें रत्नस्वरूपा इस सुन्दरीको भी अपने अधिकारमें क्यों नहीं कर लेते ? ॥ 28 ॥

हे भूपते ! आपके गृहमें विद्यमान समस्त विपुल रत्न इस सुन्दरीसे सुशोभित होकर यथार्थरूपमें रत्नस्वरूप हो जायँगे ॥ 29 ॥

हे दैत्यराज! तीनों लोकोंमें ऐसी सुन्दरी स्त्री नहीं है। अतः आप उस मनोहारिणी स्त्रीको शीघ्र ले आइये और अपनी भार्या बना लीजिये ॥ 30 ॥

व्यासजी बोले- चण्ड-मुण्डके मधुमय अक्षरोंसे युक्त यह मधुर वचन सुनकर प्रसन्न मुखमण्डल वाला शुम्भ अपने समीपमें बैठे हुए सुग्रीवसे कहने लगा- ॥ 31 ॥

हे बुद्धिसम्पन्न सुग्रीव! तुम दूत बनकर जाओ और मेरा यह कार्य सम्पन्न करो। वहाँ तुम ऐसी बातचीत करना, जिससे वह कृशोदरी यहाँ आ जाय ॥ 32 ॥

बुद्धिमान् पुरुषोंको स्त्रियोंके विषयमें साम और दान इन दो उपायोंका प्रयोग करना चाहिये- ऐसा श्रृंगाररसके विद्वानोंने कहा है ।। 33 ।।

भेदनीतिका प्रयोग करनेपर रसका आभासमात्र हो पाता है और दण्डनीतिका प्रयोग करनेपर रसभंग ही हो जाता है, अतः विद्वान् पुरुषोंने इन दोनोंको दोषपूर्ण बताया है ॥ 34 ॥

हे दूत ! ऐसी कौन स्त्री होगी, जो साम, दान इन मुख्य नीतियोंसे सम्पन्न, मधुर तथा हास परिहाससे परिपूर्ण वाक्योंके द्वारा कामपीड़ित होकर वशमें न हो जाय ।। 35 ।।

व्यासजी बोले- शुम्भके द्वारा कही गयी अत्यन्त प्रिय तथा चातुर्यपूर्ण बात सुनकर सुग्रीव बड़े वेगसे उधर चल पड़ा, जहाँ जगदम्बिका |विराजमान थीं ॥ 36 ॥

वहाँपर उसने देखा कि एक सुन्दर मुखवाली | युवती सिंहपर सवार है। तब जगदम्बिकाको प्रणाम करके वह मधुर वाणीमें कहने लगा- ॥ 37 ॥

दूत बोला- हे सुजघने! देवताओंके शत्रु राजा शुम्भ सर्वांगसुन्दर और पराक्रमी हैं। सबको जीतकर वे तीनों लोकोंके अधिपति हो गये हैं॥ 38 ॥ आपके सौन्दर्यके विषयमें सुनकर आपपर आसक्त मनवाले उन्हीं महाराज शुम्भने व्याकुल होकर मुझे आपके पास भेजा है ॥ 39 ॥

हे तन्वंगि! दैत्यपति शुम्भने आपको प्रणाम करके जो प्रेमपूर्ण वचन कहा है, उनके उस वचनको आप सुनें ॥ 40 ॥ हे कान्ते। मैंने सभी देवताओंको जीत लिया है, इस समय मैं तीनों लोकोंका स्वामी हूँ। मैं यहाँ रहते
हुए सदा यज्ञभाग प्राप्त करता हूँ ॥ 41 ॥

मैंने स्वर्गलोककी सभी सार वस्तुएँ छीन ली हैं और उसे रत्नविहीन कर दिया है। देवताओंके पास जो भी रत्न थे, उन सबको मैंने हर लिया है ॥ 42 ॥

हे भामिनि। तीनों लोकोंमें सभी रत्नोंका भोग करनेवाला एकमात्र मैं ही हूँ। देवता, दैत्य और मनुष्य- ये सब मेरे अधीन रहते हैं ।। 43 ।।

तुम्हारे गुणों का मार्ग मेरे हृदय प्रवेश करके मुझे पूर्णरूपसे तुम्हारे वशमें कर दिया है। अब मैं क्या करूँ? मैं तो तुम्हारा दास बन गया हूँ ।। 44 ।।

हे रम्भोरु! मैं तुम्हारे अधीन है, तुम मुझे जो भी आज्ञा प्रदान करो, उसे मैं करूंगा। हे सुन्दर अंगवाली मैं तुम्हारा दास हूँ, कामबाणसे मेरी रक्षा करो ।। 45 ।।

तुम हे मरालाक्षि ! तुम्हारे अधीन हुए मुझ कामातुरको स्वीकार कर लो और तीनों लोकोंकी स्वामिनी बनकर उत्कृष्ट सुखोंका उपभोग करो ॥ 46 ॥

हे कान्ते! मैं मरणपर्यन्त तुम्हारी आज्ञाका पालन करूंगा। हे वरारोहे में देवता, असुर तथ मनुष्योंसे अवध्य हूँ। हे सुमुखि ! [मुझे पति बनाकर ] तुम सदा सौभाग्यवती रहोगी हे सुन्दरि जहाँ तुम्हारा मन लगे, वहाँ विहार करना ॥ 47-48 ॥

मदसे अलसायी हुई हे कामिनि! [मेरे स्वामी ] उन शुम्भकी बातपर अपने मनमें भलीभाँति विचार करके तुम्हें जो कुछ कहना हो, उसे प्रेमपूर्वक मधुर वाणीमें कहो। हे चंचल कटाक्षवाली! मैं वह सन्देश तुरंत शुम्भसे निवेदन करूंगा ॥ 493 ॥

व्यासजी बोले- दूतका वह वचन सुनकर | देवताओंका कार्य सिद्ध करनेवाली भगवती अत्यन्त मधुर मुसकान करके मीठी वाणीमें उससे कहने लगीं ॥ 503 ॥

देवी बोलीं- मैं महाबली राजा शुम्भ तथा | निशुम्भ-दोनोंको जानती हूँ। उन्होंने सभी देवताओंको जीत लिया है और अपने शत्रुओंका संहार कर डाला है, वे सभी गुणोंकी राशि हैं और सब सम्पदाओंका भोग करनेवाले हैं। वे दानी, महापराक्रमी, सुन्दर, कामदेवसदृश रूपवाले बत्तीस लक्षणोंसे सम्पन्न और | देवताओं तथा मनुष्योंसे अवध्य हैं—यह जानकर मैं | उस महान् असुरको देखनेकी इच्छासे यहाँ आयी हूँ। जैसे रत्न अपनी शोभाको और अधिक बढ़ाने के लिये सुवर्णके पास आता है, वैसे ही मैं अपने पतिको देखनेके लिये दूरसे यहाँ आयी हूँ ॥ 51-546

सभी देवताओं, पृथ्वीलोकमें मान प्रदान करनेवाले सभी मनुष्यों, गन्धवों, राक्षसों तथा देखनेमें सुन्दर लगनेवाले जो भी अन्य लोग हैं; उन सबको मैंने देख लिया है। सब-के-सब शुम्भके आतंकसे डरे हुए हैं, भवके मारे काँपते रहते हैं और सदा आकुल रहते हैं ।। 55-56 ॥

शुम्भके गुण सुनकर उन्हें देखनेकी इच्छासे में | इस समय यहाँ आयी हुई हैं। हे महाभाग्यशाली दूत ! तुम जाओ और महाबली शुम्भसे एकान्त स्थानमें मधुर | वाणीमें मेरे शब्दों में यह बात कहो-हे राजन्! आपको बलवानोंमें सबसे बली, सुन्दरोंमें अति सुन्दर, दानी, गुणी, पराक्रमी, सभी विद्याओंमें पारंगत, सभी देवताओंको जीत लेनेवाला, कुशल, प्रतापी, श्रेष्ठ कुलवाला, समस्त रत्नोंका भोग करनेवाला, स्वतन्त्र तथा अपनी शक्तिसे | समृद्धिशाली बना हुआ जानकर मैं आपको पति बनानेकी इच्छुक हूँ। हे नराधिप। मैं भी निश्चितरूपसे आपके योग्य हूँ। हे महामते। मैं आपके इस नगरमें अपनी इच्छासे आयी हैं। किंतु हे राक्षस श्रेष्ठ मेरे विवाहमें कुछ शर्त है। हे राजन् पूर्वमें मैंने सखियोंके साथ खेलते समय बालस्वभाववश अपने शारीरिक बलके अभिमान के कारण संयोगसे उन सखियोंक समक्ष एकान्तमें यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि मेरे समान पराक्रम रखनेवाला जो वीर रणमें मुझे स्पष्टरूपसे जीत लेगा, उसके बलाबलको जानकर ही मैं पतिरूपमें उसका वरण करूँगी। मेरी यह बात सुनकर सखियोंके मनमें बड़ा विस्मय हुआ और वे जोर-जोरसे हँसने लगीं । [ वे कहने लगीं] 'इसने शीघ्रतापूर्वक यह कैसी भीषण तथा अद्भुत प्रतिज्ञा कर ली।' अतएव हे राजेन्द्र ! आप भी मेरे ऐसे पराक्रमको जानकर यहींपर अपने बलसे मुझे जीतकर अपना मनोरथ पूर्ण कर लीजिये। हे सुन्दर ! आप अथवा आपका छोटा भाई समरांगण में आकर युद्धके द्वारा मुझे जीतकर [मेरे साथ] विवाह कर लें ।। 57-66

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] व्यासजीद्वारा त्रिदेवोंकी तुलनामें भगवतीकी उत्तमताका वर्णन
  2. [अध्याय 2] महिषासुरके जन्म, तप और वरदान प्राप्तिकी कथा
  3. [अध्याय 3] महिषासुरका दूत भेजकर इन्द्रको स्वर्ग खाली करनेका आदेश देना, दूतद्वारा इन्द्रका युद्धहेतु आमन्त्रण प्राप्तकर महिषासुरका दानववीरोंको युद्धके लिये सुसज्जित होनेका आदेश देना
  4. [अध्याय 4] इन्द्रका देवताओं तथा गुरु बृहस्पतिसे परामर्श करना तथा बृहस्पतिद्वारा जय-पराजयमें दैवकी प्रधानता बतलाना
  5. [अध्याय 5] इन्द्रका ब्रह्मा, शिव और विष्णुके पास जाना, तीनों देवताओंसहित इन्द्रका युद्धस्थलमें आना तथा चिक्षुर, बिडाल और ताम्रको पराजित करना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णु और शिवके साथ महिषासुरका भयानक युद्ध
  7. [अध्याय 7] महिषासुरको अवध्य जानकर त्रिदेवोंका अपने-अपने लोक लौट जाना, देवताओंकी पराजय तथा महिषासुरका स्वर्गपर आधिपत्य, इन्द्रका ब्रह्मा और शिवजीके साथ विष्णुलोकके लिये प्रस्थान
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माप्रभृति समस्त देवताओंके शरीरसे तेज:पुंजका निकलना और उस तेजोराशिसे भगवतीका प्राकट्य
  9. [अध्याय 9] देवताओंद्वारा भगवतीको आयुध और आभूषण समर्पित करना तथा उनकी स्तुति करना, देवीका प्रचण्ड अट्टहास करना, जिसे सुनकर महिषासुरका उद्विग्न होकर अपने प्रधान अमात्यको देवीके पास भेजना
  10. [अध्याय 10] देवीद्वारा महिषासुरके अमात्यको अपना उद्देश्य बताना तथा अमात्यका वापस लौटकर देवीद्वारा कही गयी बातें महिषासुरको बताना
  11. [अध्याय 11] महिषासुरका अपने मन्त्रियोंसे विचार-विमर्श करना और ताम्रको भगवतीके पास भेजना
  12. [अध्याय 12] देवीके अट्टहाससे भयभीत होकर ताम्रका महिषासुरके पास भाग आना, महिषासुरका अपने मन्त्रियोंके साथ पुनः विचार-विमर्श तथा दुर्धर, दुर्मुख और बाष्कलकी गर्वोक्ति
  13. [अध्याय 13] बाष्कल और दुर्मुखका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  14. [अध्याय 14] चिक्षुर और ताम्रका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  15. [अध्याय 15] बिडालाख्य और असिलोमाका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  16. [अध्याय 16] महिषासुरका रणभूमिमें आना तथा देवीसे प्रणय-याचना करना
  17. [अध्याय 17] महिषासुरका देवीको मन्दोदरी नामक राजकुमारीका आख्यान सुनाना
  18. [अध्याय 18] दुर्धर, त्रिनेत्र, अन्धक और महिषासुरका वध
  19. [अध्याय 19] देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  20. [अध्याय 20] देवीका मणिद्वीप पधारना तथा राजा शत्रुघ्नका भूमण्डलाधिपति बनना
  21. [अध्याय 21] शुम्भ और निशुम्भको ब्रह्माजीके द्वारा वरदान, देवताओंके साथ उनका युद्ध और देवताओंकी पराजय
  22. [अध्याय 22] देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति और उनका प्राकट्य
  23. [अध्याय 23] भगवतीके श्रीविग्रहसे कौशिकीका प्राकट्य, देवीकी कालिकारूपमें परिणति, चण्ड-मुण्डसे देवीके अद्भुत सौन्दर्यको सुनकर शुम्भका सुग्रीवको दूत बनाकर भेजना, जगदम्बाका विवाहके विषयमें अपनी शर्त बताना
  24. [अध्याय 24] शुम्भका धूम्रलोचनको देवीके पास भेजना और धूम्रलोचनका देवीको समझानेका प्रयास करना
  25. [अध्याय 25] भगवती काली और धूम्रलोचनका संवाद, कालीके हुंकारसे धूम्रलोचनका भस्म होना तथा शुम्भका चण्ड-मुण्डको युद्धहेतु प्रस्थानका आदेश देना
  26. [अध्याय 26] भगवती अम्बिकासे चण्ड ड-मुण्डका संवाद और युद्ध, देवी सुखदानि च सेव्यानि शास्त्र कालिकाद्वारा चण्ड-मुण्डका वध
  27. [अध्याय 27] शुम्भका रक्तबीजको भगवती अम्बिकाके पास भेजना और उसका देवीसे वार्तालाप
  28. [अध्याय 28] देवीके साथ रक्तबीजका युद्ध, विभिन्न शक्तियोंके साथ भगवान् शिवका रणस्थलमें आना तथा भगवतीका उन्हें दूत बनाकर शुम्भके पास भेजना, भगवान् शिवके सन्देशसे दानवोंका क्रुद्ध होकर युद्धके लिये आना
  29. [अध्याय 29] रक्तबीजका वध और निशुम्भका युद्धक्षेत्रके लिये प्रस्थान
  30. [अध्याय 30] देवीद्वारा निशुम्भका वध
  31. [अध्याय 31] शुम्भका रणभूमिमें आना और देवीसे वार्तालाप करना, भगवती कालिकाद्वारा उसका वध, देवीके इस उत्तम चरित्रके पठन और श्रवणका फल
  32. [अध्याय 32] देवीमाहात्म्यके प्रसंगमें राजा सुरथ और समाधि वैश्यकी कथा
  33. [अध्याय 33] मुनि सुमेधाका सुरथ और समाधिको देवीकी महिमा बताना
  34. [अध्याय 34] मुनि सुमेधाद्वारा देवीकी पूजा-विधिका वर्णन
  35. [अध्याय 35] सुरथ और समाधिकी तपस्यासे प्रसन्न भगवतीका प्रकट होना और उन्हें इच्छित वरदान देना