व्यासजी बोले- राजा हरिश्चन्द्रसे इस प्रकारका दयाहीन एवं निष्ठुर वचन कहकर और वह सम्पूर्ण धन लेकर कुपित विश्वामित्र वहाँसे चले गये ॥ 1 ॥
विश्वामित्रके चले जानेपर राजा शोकसन्तप्त हो उठे। वे बार-बार दीर्घ साँसें लेते हुए तथा नीचेकी ओर मुख करके उच्च स्वरसे बोलने लगे-धनसे बिक जानेके लिये उद्यत प्रेतरूप मुझसे जिसका दुःख दूर हो सके, वह अभी शीघ्रता करके सूर्यके चौथे प्रहरमें रहते-रहते मुझसे बात कर ले ॥ 2-3॥
इतनेमें शीघ्र ही वहाँ चाण्डालका रूप धारण करके धर्मदेव आ पहुँचे। उस चाण्डालके शरीरसे दुर्गन्ध आ रही थी। उसका वक्ष भयानक था, उसकी विशाल दाढ़ी थी, उसके दाँत बड़े थे और वह बड़ा निर्दयी लग रहा था। उस नराधम तथा भयावने चाण्डालके शरीरका वर्ण काला था, उसका उदर लम्बा था, वह बहुत मोटा था, उसने अपने हाथमें एक जर्जर लाठी ले रखी थी और वह शवोंकी मालाओंसे अलंकृत था ॥ 4-5 ॥
चाण्डाल बोला- हे राजेन्द्र ! में 'प्रवीर' इस नामसे यहाँपर विख्यात एक चाण्डाल हूँ। मृत व्यक्तिका वस्त्र ग्रहण करना यहाँ तुम्हारा कार्य होगा और तुम्हें सदा मेरी आज्ञाका पालन करना पड़ेगा ॥ 8 ॥
चाण्डालके ऐसा कहनेपर राजाने यह वचन कहा, 'मेरा तो ऐसा विचार है कि ब्राह्मण या क्षत्रिय - कोई भी मुझे ग्रहण कर ले; क्योंकि उत्तम पुरुषके साथ उत्तमका, मध्यमके साथ मध्यमका और अधमके साथ अधमका धर्म स्थित रहता है'- ऐसा विद्वानोंने कहा है ॥ 9-10॥
चाण्डाल बोला- हे नृपश्रेष्ठ! हे राजन्! आपने इस समय मेरे समक्ष जो धर्मका स्वरूप व्यक्त किया है, वह बिना सोचे-समझे ही आपने कहा है। जो मनुष्य सम्यक् सोच-समझकर बोलता है, वह अभीष्ट फल प्राप्त करता है, किंतु हे अनघ ! आपने बिना विचार किये ही जो सामान्य बात है, उसे कह दिया। यदि आप सत्यको प्रमाण मानते हैं तो आप मेरे द्वारा खरीदे जा चुके हैं; इसमें कोई सन्देह नहीं है ।। 11-123 ॥
हरिश्चन्द्र बोले- असत्य भाषण करनेके कारण अधम मनुष्य शीघ्र ही भयानक नरकमें जाता है। अतः मेरे लिये चाण्डाल बन जाना उचित है, किंतु असत्यका आश्रय लेना श्रेष्ठ नहीं है ॥ 133 ॥
व्यासजी बोले- वे ऐसा बोल ही रहे थे कि क्रोध और अमर्षसे फैली हुई आँखोंवाले तपोनिधि | विश्वामित्र वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने राजासे यह कहा- यह चाण्डाल आपके मनके अनुसार धन | देनेके लिये यहाँ उपस्थित है, तब आप [ इससे अपना मूल्य लेकर ] यज्ञकी सम्पूर्ण दक्षिणा मुझे क्यों नहीं दे देते ? ।। 14-15 ॥
राजा बोले- हे भगवन्! हे कौशिक ! मैं अपनेको सूर्यवंशमें उत्पन्न समझता हूँ, अतः मैं धनके लोभसे चाण्डालके दासत्वको कैसे प्राप्त होऊँ ? ॥ 163 ॥
विश्वामित्र बोले- यदि आप स्वयंको चाण्डालके हाथ बेचकर उससे प्राप्त धन मुझे नहीं दे देते तो मैं आपको निःसन्देह शाप दे दूँगा । चाण्डाल अथवा ब्राह्मण-किसीसे भी द्रव्य लेकर मेरी दक्षिणा दे दीजिये फिर इस समय चाण्डालके अतिरिक्त | कोई अन्य व्यक्ति आपको धन देनेवाला है नहीं। और हे राजन्! यह भी निश्चित है कि मैं धन लिये बिना नहीं जाऊँगा। हे नृप ! यदि आप अभी मेरा धन नहीं देंगे तो दिनके चौथे प्रहरकी आधी घड़ी शेष रह जानेपर मैं शापरूपी अग्निसे आपको भस्म कर दूँगा 17 - 20
व्यासजी बोले- तब राजा हरिश्चन्द्रने जीवित रहते हुए भी मृतकके समान होकर 'आप प्रसन्न हों' ऐसा कहते हुए विकलतापूर्वक ऋषि विश्वामित्रके पाँव पकड़ लिये ॥ 21 ॥
हरिश्चन्द्र बोले हे विप्रर्षे मैं आपका दास - हूँ, अत्यन्त दुःखी है, दीन है और विशेषरूपसे आपका भक्त हूँ। चाण्डालके सम्पर्क में रहना बड़ा ही कष्टप्रद है, अतः मुझपर अनुग्रह कीजिये। अवशिष्ट धन चुकानेके लिये मैं आपके अधीन आपका सेवक बनूँगा। हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मनकी इच्छाओंके अनुसार कार्य करता हुआ मैं आपका सदा दास बना रहूँगा ।। 22-23 ।।
विश्वामित्र बोले- हे महाराज! ऐसा ही हो, आप मेरे ही दास हो जाइये, किंतु हे नराधिप ! आपको सदा मेरे वचनोंका पालन करना पड़ेगा ।। 24 ।।
व्यासजी बोले- विश्वामित्रके इस प्रकार कहनेपर राजा अत्यन्त हर्षित हो उठे और उन्होंने इसे अपना पुनर्जन्म समझा। वे विश्वामित्रसे कहने लगे-हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं सदा आपकी आज्ञाका पालन करूँगा; इसमें कोई संशय नहीं है। हे अनम आदेश दीजिये, आपका कौन-सा कार्य सम्पन्न करूँ ।। 25-26 ।।
विश्वामित्र बोले- हे चाण्डाल। इधर आओ, तुम मेरे इस दासका क्या मूल्य दोगे ? मूल्य लेकर मैं तुम्हें इसे इसी समय दे दूँगा। तुम इसे स्वीकार कर लो; क्योंकि मुझे दाससे कोई प्रयोजन नहीं है, मुझे तो केवल धनकी आवश्यकता है ।। 273 ॥
व्यासजी बोले- उनके इस प्रकार कहने पर चाण्डालके मनमें प्रसन्नता आ गयी। विश्वामित्रके | पास तत्काल आकर वह उनसे कहने लगा ॥ 283 ॥
चाण्डाल बोला- हे द्विजवर ! प्रयागके दस | योजन विस्तारवाले मण्डलकी भूमिको रत्नमय कराकर मैं आपको दे दूंगा। इसके विक्रयसे आपने मेरा यह महान् कष्ट दूर कर दिया ।। 29-30 ॥
व्यासजी बोले- तत्पश्चात् स्वर्ण, मणि और मोतियोंसे युक्त हजारों प्रकारके दिये गये रत्नोंको द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्रने प्राप्त किया ॥ 31 ॥
इससे राजा हरिश्चन्द्रके मुखपरसे उदासी दूर हो गयी और उन्होंने धैर्यपूर्वक यह मान लिया कि विश्वामित्र ही मेरे स्वामी हैं, मुझे तो केवल वही करना है जो ये करायेंगे ॥ 323 ॥
उसी समय सहसा अन्तरिक्षमें यह आकाशवाणी हुई कि हे महाभाग ! आपने मेरी वह दक्षिणा दे दी और अब आप ऋणसे मुक्त हो गये हैं॥ 333 ॥
इसके बाद राजा हरिश्चन्द्रके मस्तकपर आकाशसे पुष्पवर्षा होने लगी और इन्द्रसहित महान् ओजवाले सभी देवता उन महाराज हरिश्चन्द्रके प्रति 'साधु साधु' कहने लगे। तब अत्यन्त हर्षित होकर राजा हरिश्चन्द्र विश्वामित्रसे कहने लगे- 34-35 ।।
राजा बोले- हे महामते! आप ही मेरे माता-पिता तथा आप ही मेरे बन्धु हैं; क्योंकि आपने मुझे मुक्त कर दिया और क्षणभरमें ऋणरहित भी बना दिया। हे महाबाहो ! आपका वचन मेरे लिये कल्याणप्रद है । कहिये, अब मैं कौन-सा कार्य करूँ? राजाके इस प्रकार कहनेपर मुनि उनसे कहने लगे । 36-37 ॥
विश्वामित्र बोले- हे राजन्! आजसे इस | चाण्डालका वचन मानना आपका कर्तव्य होगा। आपका कल्याण हो उनसे ऐसा कहकर और वह धन लेकर विश्वामित्र वहाँसे चले गये ॥ 38 ॥
चाण्डाल बोला- मैं तुम्हें दासके रूपमें रखना चाहता हूँ; क्योंकि मुझे सेवककी अत्यन्त आवश्यकता है। शीघ्र बताओ कि इसके लिये तुम्हें कितना मूल्य देना होगा ? ॥ 6 ॥
व्यासजी बोले - [ हे राजन्!] अत्यन्त क्रूर दृष्टिवाले उस निष्ठुर तथा अविनीत चाण्डालको इस प्रकार बोलते हुए देखकर महाराज हरिश्चन्द्रने यह पूछा—'तुम कौन हो ? ' ॥ 7 ॥