व्यासजी बोले- हे राजन् ! तत्पश्चात् वे वन प्रदेशमें हिमालयकी तलहटीमें स्थित रहकर समाहितचित्त हो मायाबीज (भुवनेश्वरीमन्त्र) - के जपमें तत्पर रहते हुए घोर तप करने लगे ॥ 1 ॥
हे राजन् ! एक लाख वर्षपर्यन्त उन पराशक्तिका ध्यान करते रहनेके उपरान्त देवी उनके ऊपर प्रसन्न हो गयीं और उन्होंने प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस समय उन्होंने अपने चारों हाथोंमें पाश, अंकुश, वर और | अभय मुद्रा धारण कर रखी थीं, वे तीन नेत्रोंसे युक्त थीं, वे करुणारससे परिपूर्ण थीं और उनका विग्रह सत्, चित् तथा आनन्दसे सम्पन्न था ॥ 23॥
उन सर्वजननीको देखकर विशुद्ध चित्तवाले वे मुनिगण उनकी स्तुति करने लगे- विश्वरूप तथा वैश्वानररूपवाली आपको नमस्कार है। जिसमें समग्र लिंगदेह ओत-प्रोत होकर व्यवस्थित है, उस सूत्ररूप विग्रहवाली तथा तेजसम्पन्न रूपवाली आपको बार बार नमस्कार है। प्राज्ञस्वरूपवाली आपको नमस्कार है, अव्यक्तस्वरूपवाली आपको नमस्कार है, प्रत्यकस्वरूप आपको नमस्कार है और परब्रह्मका स्वरूप धारण करनेवाली आपको नमस्कार है। समस्त रूपोंवाली आपको नमस्कार है तथा सभी प्राणियोंमें आत्ममूर्तिके रूपमें लक्षित होनेवाली आपको नमस्कार है ॥ 4–63॥
इस प्रकार भक्तियुक्त गद्गद वाणीसे उन | जगद्धात्रीकी स्तुति करके निर्मल मनवाले दक्ष आदि मुनियोंने भगवतीके चरण कमलमें प्रणाम किया। तब कोयलके समान मधुर वचन बोलनेवाली उन देवीने प्रसन्न होकर कहा हे महान् भाग्यशाली मुनियो ! आपलोग वर माँगिये, मैं सदा वर प्रदान करनेवाली मानी जाती है॥ 7-8
हे नृपश्रेष्ठ! उनकी वाणी सुनकर मुनियोंने यह वरदान माँगा कि शंकर तथा विष्णुका शरीर स्वस्थ हो जाय और उन्हें पुनः वही पूर्व शक्तियाँ प्राप्त हो जायें ॥ 93 ॥
इसके बाद दक्षने कहा- हे देवि! हे अम्ब! मेरे कुलमें आपका जन्म हो, जिससे मैं कृतकृत्य हो जाऊँ। हे परमेश्वरि ! आप अपने मुखसे अपने जप, ध्यान, पूजा तथा विविध स्थानोंके विषयमें बतानेकी कृपा कीजिये ॥ 10-113 ॥
देवी बोलीं- मेरी शक्तियोंका अपमान करनेसे ही उन दोनों (विष्णु तथा शिव) की यह दशा हुई है। उन्हें मेरे प्रति ऐसा अपराध कभी नहीं करना चाहिये। अब मेरी लेशमात्र कृपासे ही उन दोनोंके शरीरमें स्वस्थता आ जायगी। साथ ही गौरी और लक्ष्मी नामक वे दोनों शक्तियाँ आपके घरमें तथा क्षीरसागरमें जन्म लेंगी और मेरेद्वारा प्रेरित किये जानेपर वे - शक्तियाँ उन दोनोंको प्राप्त हो जायँगी ॥ 12-14 ॥
मुझे सदा प्रसन्न करनेवाला 'मायाबीज' ही मेरा प्रधान मन्त्र है। मेरे विराट् रूपका अथवा आपके समक्ष उपस्थित इस रूपका अथवा सच्चिदानन्द रूपका ध्यान करना चाहिये। सम्पूर्ण जगत् ही मेरा निवास स्थान है आपलोगोंको सर्वदा मेरा पूजन तथा ध्यान करना चाहिये ।। 15-16 ।।
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर मणिद्वीपमें निवास करनेवाली भगवती जगदम्बा अन्तर्धान हो गयीं। तब दक्ष आदि सभी मुनिगण ब्रह्माजीके पास लौट आये और उन्होंने ब्रह्माजीसे आदरपूर्वक सारा वृत्तान्त कह दिया 173 ॥
हे राजन्! तब पराम्बाकी कृपासे वे दोनों विष्णु तथा शिव स्वस्थ हो गये, उनमें अपने-अपने कार्य सम्पादनकी क्षमता आ गयी और वे अभिमानरहित भी हो गये । 186 ॥
हे महाराज ! कुछ समय व्यतीत होनेपर दक्षके भवनमें शक्तिसम्पन्न एक महान तेज प्रकट हुआ उस समय तीनों लोकोंमें उत्सव मनाया गया। सभी देवतागण प्रसन्न होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे और वे स्वर्गमें हाथोंसे आघात करके दुन्दुभियाँ बजाने लगे। हे नृप ! निर्मल मनवाले साधुपुरुषोंके मन प्रसन्न हो गये, नदियाँ मार्गोंमें जलधारा बहाने लगीं और भगवान् सूर्य मनोहर प्रभासे युक्त हो गये। इस प्रकार मंगलमयी भगवतीके प्रकट होनेपर सभी स्थानोंपर मंगल ही मंगल हो गया ॥ 19-22 ॥
दक्षने सत्यस्वरूप होने तथा ब्रह्मस्वरूपिणी होनेके कारण उस देवीका नाम 'सती' रखा और उन्हें पुनः शिवको समर्पित कर दिया; क्योंकि वे पूर्वमें भी उन्हीं शिवकी शक्ति थीं। हे राजन् ! वे ही सती पुनः दक्षके यज्ञमें दैवयोगसे अग्निमें जलकर भस्म हो गयीं ॥ 233 ॥
जनमेजय बोले- हे मुने! आपने यह तो बड़ा ही अनर्थकारी प्रसंग सुनाया। इस प्रकारकी महान् विभूति वे सती, जिनके नामके स्मरणमात्रसे मनुष्योंको संसाररूप अग्निका भय नहीं रहता, अग्निमें जलकर भस्म क्यों हो गयीं? दक्षके किस प्रतिकूल कर्मके कारण वे सती भस्म हो गयीं ? ।। 24-253
व्यासजी बोले- हे राजन् सतीके भस्म होनेका कारणसम्बन्धी प्राचीन वृत्तान्त सुनिये किसी समय ऋषि दुर्वासा [जम्बूनदके तटपर स्थित ] भगवती जाम्बूनदेश्वरीके समीप गये। उन्होंने वहाँ देवीका दर्शन किया और वहीं पर वे मायाबीज मन्त्रका जप करने लगे । 26-27 ॥
उससे प्रसन्न होकर देवेश्वरीने दिव्य पुष्पोंके परागसे परिपूर्ण होनेके कारण उसपर मँडराते हुए भ्रमरोंसे सुशोभित अपने गलेमें पड़ी हुई माला मुनिको दे दी और उन्होंने सिर झुकाकर प्रसादरूपमें प्राप्त उस मालाको स्वीकार कर लिया ॥ 28 ॥
तदनन्तर वहाँसे तत्काल निकलकर वे तपस्वी मुनि दुर्वासा जगदम्बाके दर्शनार्थ आकाशमार्गसे वहाँ आ गये, जहाँ साक्षात् सतीके पिता दक्ष विराजमान थे मुनिने सतीके चरणोंमें नमन किया ॥ 29-30 ॥
दक्षने उन मुनिसे पूछा- हे नाथ! यह अलौकिक माला किसकी है? पृथ्वीपर मनुष्योंके लिये परम | दुर्लभ यह माला आपने कैसे प्राप्त कर ली ? ॥ 31 ॥
उनका यह वचन सुनकर प्रेमसे विह्वलहृदय तथा अश्रुपूरित नेत्रोंवाले मुनि दुर्वासाने कहा- यह भगवतीका अनुपम प्रसाद है ॥ 32 ॥
तब सतीके पिता दक्षने उन मुनिसे उस मालाके लिये याचना की। 'तीनों लोकोंमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो देवीभक्तको न दी जा सके'-ऐसा विचार करके मुनिने वह माला दक्षको दे दी। दक्षने सिर झुकाकर उस मालाको ग्रहण कर लिया और उसे अपने घरमें जहाँपर पति-पत्नीकी अत्यन्त सुन्दर शय्या थी, वहीं पर रख दिया। उस मालाकी सुगन्धिसे मत्त होकर राजा दक्ष रातमें पशुकर्म (स्त्री समागम) में प्रवृत्त हुए। हे राजन्। उसी पाप कर्मके प्रभावसे वे कल्याणकारी शंकर तथा देवी सतीके प्रति द्वेषबुद्धिवाले हो गये । 33-36 ॥
हे राजन्! उसी अपराधके परिणामस्वरूप सतीने सतीधर्म प्रदर्शित करनेके लिये उन दक्षसे उत्पन्न अपने शरीर को योगाग्निसे भस्म कर दिया। फिर वही ज्योति हिमालयके पर प्रादुर्भूत हुई 37 ॥
जनमेजय बोले- [हे मुने!] जिन शिवके लिये सती प्राणोंसे भी अधिक प्रिय थीं, उन भगवान् शिवने सतीका शरीर भस्म हो जानेके उपरान्त उनके | वियोगसे व्याकुल होकर क्या किया ? ॥ 383 ॥
व्यासजी बोले – हे राजन्! उसके बाद जो 9 कुछ हुआ, उसे कह सकनेमें मैं असमर्थ हूँ। शिवकी कोपाग्निसे तीनों लोकोंमें प्रलयकी स्थिति उत्पन्न हो गयी। उस समय वीरभद्र प्रकट हुए और जब वे वीरभद्र, भद्रकाली आदि गणको साथ लेकर तीनों लोकोंको नष्ट करनेके लिये तत्पर हुए, तब ब्रह्मा आदि देवता भगवान् शंकरकी शरण में गये । 39-41 ॥
सर्वस्व नाश हो जानेपर भी करुणानिधि परमेश्वर शिवने उन देवताओंको अभय प्रदान कर दिया और बकरेका सिर जोड़कर उन दक्षप्रजापतिको जीवित कर दिया। तदनन्तर वे महात्मा शिव उदास होकर यज्ञस्थलपर गये और अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगे । 42-43 ॥
उन्होंने वहाँ चिन्मय शरीरवाली सतीको अग्निमें दग्ध होते हुए देखा। तब 'हा सती' - ऐसा बार-बार | बोलते हुए शिवने उस शरीरको अपने कन्धेपर रख लिया और भ्रमितचित्त होकर वे देश-देशमें भ्रमण करने लगे ॥ 44 ॥
इससे ब्रह्मा आदि देवता अत्यन्त चिन्तित हो उठे। विष्णुने शीघ्रतापूर्वक धनुष उठाकर बाणोंसे सतीके अंगोंको काट डाला। वे अंग जिन-जिन स्थानोंपर गिरे, उन-उन स्थानोंपर भगवान् शंकर अनेक विग्रह धारण करके प्रकट हो गये ।। 45-463 ॥
तत्पश्चात् शिवने देवताओंसे कहा कि जो लोग इन स्थानोंपर महान् श्रद्धाके साथ भगवती शिवाकी आराधना करेंगे, उनके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रहेगा; क्योंकि उन स्थानोंपर साक्षात् भगवती पराम्बा अपने अंगोंमें सदा निहित हैं। जो मनुष्य इन स्थानोंपर पुरश्चरण करेंगे; उनके मन्त्र, विशेषरूपसे मायाबीज मन्त्र अवश्य सिद्ध हो जायँगे ।। 47-49 ॥
हे नृपश्रेष्ठ! ऐसा कहकर सतीके विरहसे अधीर भगवान् शिव उन स्थानोंमें जप, ध्यान और समाधिमें संलग्न होकर समय व्यतीत करने लगे ॥ 50 ॥
जनमेजय बोले—हे अनध! वे कौनसे स्थान हैं, जो सिद्धपीठ हुए; वे संख्यामें कितने हैं, उनके क्या नाम है? मुझे बताइये हे कृपाकर! हे महामुने! उन स्थानोंपर विराजमान देवियोंके नाम भी शीघ्र बतला दीजिये, जिससे मैं कृतार्थ हो जाऊँ ॥ 51-52 ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् सुनिये अब में देवीपीठोंका वर्णन कर रहा हूँ, जिनके श्रवणमात्रसे मनुष्य पापरहित हो जाता है। सिद्धिकी अभिलाषा रखनेवाले तथा ऐश्वर्यकी कामना करनेवाले पुरुषोंके द्वारा जिन-जिन स्थानोंपर इन देवीकी उपासना तथा इनका ध्यान किया जाना चाहिये, उन स्थानोंको मैं तत्त्वत्पूर्वक बता रहा हूँ ॥ 53-54 ॥
वाराणसीमें गौरीके मुखमें निवास करनेवाली देवी विशालाक्षी प्रतिष्ठित हैं और नैमिषारण्यक्षेत्रमें वे लिंगधारिणी नामसे कही गयी हैं ॥ 55 ॥
उन्हें प्रयागमें 'ललिता' तथा गन्धमादनपर्वतपर 'कामुकी' नामसे कहा गया है। वे दक्षिण मानसरोवरमें 'कुमुदा' तथा उत्तर मानसरोवरमें सभी कामनाएँ पूर्ण करनेवाली भगवती 'विश्वकामा' कही गयी हैं। उन्हें गोमन्तपर देवी 'गोमती', मन्दराचलपर 'कामचारिणी', चैत्ररथ 'मदोत्कटा', हस्तिनापुरमें 'जयन्ती', कान्यकुब्जमें 'गौरी' तथा मलयाचलपर 'रम्भा' कहा गया है । 56-58 ॥
वे भगवती एकाम्रपीठपर'कीर्तिमती' नामवाली कही गयी हैं। लोग उन्हें विश्वपीठपर 'विश्वेश्वरी' और पुष्करमें 'पुरुहूता' नामवाली कहते हैं ॥ 59 ॥
वे देवी केदारपीठमें 'सन्मार्गदायिनी', हिमवत्पृष्ठपर 'मन्दा', गोकर्णमें 'भद्रकर्णिका', स्थानेश्वरमें 'भवानी', बिल्वकमें 'बिल्वपत्रिका', श्रीशैलमें 'माधवी' तथा भद्रेश्वरमें 'भद्रा' कही गयी हैं ।। 60-61 ॥
उन्हें वराहपर्वतपर 'जया' कमलालयमें 'कमला', रुद्रकोटिमें 'स्वाणी' कालंजरमें 'काली', शालग्राममें 'महादेवी', शिवलिंगमें 'जलप्रिया', महालिङ्गमें 'कपिला' और माकोटमें 'मुकुटेश्वरी' कहा गया है ।। 62-63 ।।
वे भगवती मायापुरीमें 'कुमारी', सन्तानपीठमें 'ललिताम्बिका', गया 'मंगला' और पुरुषोत्तमक्षेत्रमें 'विमला' कही गयी हैं। वे सहस्राक्षमें 'उत्पलाक्षी', हिरण्याक्षमें 'महोत्पला', विपाशामें 'अमोघाक्षी', पुण्ड्रवर्धनमें 'पाडला', सुपाश्वमें 'नारायणी', त्रिकूटमें 'स्वसुन्दरी' विपुलक्षेत्रमें 'विपुला', मलयाचलपर
देवी 'कल्याणी' ह्यादिपर्व'एकी', हरिश्चन्द्र'चन्द्रिका', रामतीर्थमें 'रमणा', यमुनामें 'मृगावती', कोटतीर्थमें 'कोटवी', माधववनमें 'सुगन्धा', गोदावरीमें 'त्रिसन्ध्या', गंगाद्वारमें 'रतिप्रिया', शिवकुण्डमें 'शुभानन्दा', देविकातटपर 'नन्दिनी', द्वारकामें 'रुक्मिणी', वृन्दावनमें 'राधा', मथुरामें 'देवकी', पातालमें 'परमेश्वरी', चित्रकूटमें 'सीता', विन्ध्याचलपर 'विन्ध्यवासिनी', करवीरक्षेत्रमें 'महालक्ष्मी', विनायकक्षेत्रमें देवी 'उमा', वैद्यनाथधाममें 'आरोग्या', महाकालमें 'महेश्वरी', उष्णतीर्थोंमें 'अभया', विन्ध्यपर्वतपर 'नितम्बा', माण्डव्यक्षेत्रमें 'माण्डवी' तथा माहेश्वरीपुरमें 'स्वाहा' नामसे प्रतिष्ठित हैं । 64-72 ।।
वे देवी छगलण्डमें 'प्रचण्डा', अमरकण्टकमें 'चण्डिका', सोमेश्वरमें 'वरारोहा' प्रभासक्षेत्रमें 'पुष्करावती', सरस्वतीतीर्थमें 'देवमाता', समुद्रतटपर 'पारावारा', महालयमें 'महाभागा' और पयोष्णीमें 'पिंगलेश्वरी' नामसे प्रसिद्ध हुई 73-74 ।।
वे कृतशौचक्षेत्रमें 'सिंहिका', कार्तिकक्षेत्रमें 'अतिशांकरी', उत्पलावर्तकमें 'लोला', सोनभद्रनदके संगमपर 'सुभद्रा', सिद्धवनमें माता 'लक्ष्मी', भरताश्रमतीर्थमें 'अनंगा', जालन्धरपर्वतपर 'विश्वमुखी', किष्किन्धापर्वतपर 'तारा', देवदारुवनमें 'पुष्टि', काश्मीर मण्डलमें 'मेधा', हिमाद्रिपर देवी 'भीमा', विश्वेश्वरक्षेत्रमें 'तुष्टि', कपालमोचनतीर्थमें 'शुद्धि', कामावरोहणतीर्थमें 'माता', शंखोद्धारतीर्थमें 'धारा' और पिण्डारकतीर्थमें 'धृति' नामसे विख्यात हैं । 75–78
चन्द्रभागानदीके तटपर 'कला', अच्छोदक्षेत्रमें 'शिवधारिणी', वेणानदीके किनारे 'अमृता', बदरीवनमें 'उर्वशी', उत्तरकुरुप्रदेशमें 'औषधि', कुशद्वीपमें 'कुशोदका', हेमकूटपर्वतपर 'मन्मथा', कुमुदवनमें 'सत्यवादिनी', अश्वत्थतीर्थमें वैश्रवणालयक्षेत्र में 'निधि', वेदवदनतीर्थमें 'गायत्री', भगवान् शिवके सांनिध्यमें 'पार्वती', देवलोकमें 'इन्द्राणी', ब्रह्माके मुखोंमें 'सरस्वती', सूर्यके बिम्बमें 'प्रभा' तथा मातृकाओंमें 'वैष्णवी' नामसे कही गयी हैं। सतियोंमें 'अरुन्धती', अप्सराओंमें 'तिलोत्तमा' और सभी शरीरधारियोंके चित्तमें 'ब्रह्मकला' नामसे वे शक्ति प्रसिद्ध हैं । 79-83 ॥
हे जनमेजय। ये एक सौ आठ सिद्धपीठ हैं और उन स्थानोंपर उतनी ही परमेश्वरी देवियाँ कही गये हैं। भगवती सतीके अंगोंसे सम्बन्धित पीठोंको मैंने बतला दिया साथ ही इस पृथ्वीतलपर और भी अन्य जो प्रमुख स्थान हैं, प्रसंगवश उनका भी वर्णन कर दिया ।। 84-85 ।।
जो मनुष्य इन एक सौ आठ उत्तम नामोंका स्मरण अथवा श्रवण करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर भगवतीके परम धाममें पहुँच जाता है ॥ 86 ॥
विधानके अनुसार इन सभी तीर्थोंकी यात्रा करनी चाहिये और वहाँ श्राद्ध आदि सम्पन्न करके पितरोंको सन्तृप्त करना चाहिये। तदनन्तर विधिपूर्वक भगवतीकी विशिष्ट पूजा करनी चाहिये और फिर जगद्धात्री जगदम्बासे [ अपने अपराधके लिये] बार बार क्षमा-याचना करनी चाहिये। हे जनमेजय। ऐसा करके अपने आपको कृतकृत्य समझना चाहिये। हे राजन् ! तदनन्तर भक्ष्य और भोज्य आदि पदार्थ सभी ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारिकाओं तथा बटुओं आदिको खिलाने चाहिये ।। 87-893 ॥
हे प्रभो! उस क्षेत्रमें रहनेवाले जो चाण्डाल आदि हैं, वे भी देवीरूप कहे गये हैं। अतः उन सबकी भी पूजा करनी चाहिये। उन सिद्धपीठक्षेत्रों में सभी प्रकारके दानग्रहण आदिका निषेध करना चाहिये। श्रेष्ठ साधकको चाहिये कि वह उन क्षेत्रों में यथाशक्ति मन्त्रका पुरश्चरण करे और मायाबीज मन्त्रसे उन-उन क्षेत्रोंकी अधिष्ठात्री देवेश्वरीकी निरन्तर उपासना करे। हे राजन्! इस प्रकार साधकको पुरश्चरणकर्ममें तत्पर रहना चाहिये। देवीकी भक्तिमें परायण पुरुषको चाहिये कि वह अनुष्ठान करते समय द्रव्यके व्ययमें कृपणता न करे ।। 90-93 ॥
जो मनुष्य इस प्रकार श्रीदेवीके सिद्धपीठोंकी प्रसन्न मनसे यात्रा करता है, उसके पितर हजार कल्पोंतक महत्तर ब्रह्मलोकमें निवास करते हैं और अन्तमें वह भी परम ज्ञान प्राप्त करके संसार-सागरसे मुक्त हो जाता है तथा देवीलोकमें निवास करता है ।। 94-95 ।।
इन एक सौ आठ नामोंके जपसे अनेक लोग सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। जहाँपर यह अष्टोत्तरशतनाम स्वयं लिखा हुआ अथवा पुस्तकमें अंकित रूपमें स्थित रहता है, उस स्थानपर ग्रहों तथा महामारी आदिके उपद्रवका भय नहीं रहता और पर्वपर जैसे समुद्र बढ़ता है, वैसे ही वहाँ सौभाग्यकी नित्य वृद्धि होती है ।। 96-97 ॥
इन एक सौ आठ नामका जप करनेवालेके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता; ऐसा वह देवीभक्तिपरायण निश्चय ही कृतकृत्य हो जाता है। देवता भी उसे नमस्कार करते हैं; क्योंकि उसे देवीका ही रूप कहा गया है। देवतागण सब तरहसे उसकी पूजा करते हैं, तो फिर श्रेष्ठ मनुष्योंकी बात ही क्या ! ।। 98-99
जो व्यक्ति अपने पितरोंके श्राद्धके समय इस उत्तम अष्टोत्तरशतनामका पाठ करता है, उसके सभी , पितर तृप्त होकर परम गति प्राप्त करते हैं 100 ॥ हे राजेन्द्र ! ये सिद्धपीठ प्रत्यक्षज्ञानस्वरूप तथा मुक्तिक्षेत्र हैं, अतः बुद्धिमान् मनुष्यको इनका आश्रय ग्रहण करना चाहिये || 101||
हे राजन्! आपने भगवती महेश्वरीके अत्यन्त निगूढ रहस्यके विषयमें जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने बता | दिया; अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 102 ॥