जनमेजय बोले- हे मुने! आपने भगवती चण्डिकाकी महिमाका भलीभाँति वर्णन किया। अब आप यह बतानेकी कृपा करें कि तीन चरित्रोंका प्रयोग करके पहले किसने भगवतीकी आराधना की थी ? ॥ 1॥
वे वरदायिनी भगवती किसके ऊपर प्रसन्न हुईं? सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाली देवीकी उपासना करके किसने महान् फल प्राप्त किया ? हे कृपानिधान! यह सब बताइये ॥ 2 ॥
हे ब्रह्मन् ! हे महाभाग ! जगदम्बाकी उपासनाविधि, पूजाविधि तथा हवनविधिका भी विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ 3 ॥
सूतजी बोले- राजाकी यह बात सुनकर सत्यवतीनन्दन कृष्णद्वैपायन प्रसन्न होकर उन्हें महामाया भगवतीका पूजन-विधान बताने लगे ॥ 4 ॥
व्यासजी बोले- पूर्वकालस्वामि सुरथ नामक एक राजा हुए, जो परम उदार प्रजापालनतत्पर, सत्यवादी, कर्मनिष्ठ, ब्रह्म उपासक, गुरुजनोंके प्रति भक्ति रखनेवाले, सदा अपनी ही भार्यामें अनुरक्त, दानशील, किसके | साथ विरोधभाव न रखनेवाले तथा धनुर्विद्यामें पूर्ण पारंगत थे। 5-63 ।।
इस प्रकार प्रजापालनमें तत्पर रहनेवाले राजा सुरथसे कुछ पर्वतवासी म्लेच्छोंने अनायास ही शत्रुता ठान ली। हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सैनिकोंसे सुसज्जित चतुरंगिणी सेना लेकर अभिमानमें चर के कोलाविध्वंसी सुरथके राज्यपर अधिकार करनेकी लालसासे वहाँ आ पहुँचे। सुरथ भी अपनी सेना लेकर सामने डट गये। उन महाभयंकर म्लेच्छोंके साथ राजा सुरथका भीषण युद्ध होने लगा ।। 7-96 ॥
यद्यपि म्लेच्छोको सेना बहुत थोड़ी थी तथा राजाकी सेना अत्यन्त विशाल थी, फिर भी दैवयोगसे उन्होंने राजा सुरथको युद्धमें जीत लिया। इस प्रकार उनसे पराजित हुए राजा सुरथ हताश होकर अपने दुर्गवेष्टित सुरक्षित नगरमें आ गये 10-11 ॥
तत्पश्चात् प्रतिभासम्पन्न तथा नीतिविशारद राजा सुरथ अपने मन्त्रियोंको शत्रुपक्षके अधीन देखकर अत्यन्त खिन्नमनस्क होकर विचार करने लगे कि मैं खाईं तथा किलेसे सुरक्षित किसी बड़े स्थानपर रहकर समयकी प्रतीक्षा करूँ अथवा मेरे लिये युद्ध करना उचित होगा। मेरे मन्त्री शत्रुके वशीभूत हो गये हैं, इसलिये वे अब परामर्श करनेयोग्य नहीं रह गये हैं, तो अब मैं क्या करूँ? वे राजा सुरथ पुनः मन-ही मन विचार करने लगे। कदाचित् वे पापी तथा शत्रुके। साथ मिले हुए मन्त्री मुझे पकड़कर शत्रुओंको सौंप देगे तब क्या होगा? पापबुद्धि पुरुषोंपर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि जो मनुष्य लोभके वशीभूत होते हैं वे क्या-क्या नहीं कर बैठते ? लोभपरायण मनुष्य अपने भाई, पिता, मित्र, सुबद सुहृद्, बन्धु बान्धव, पूजनीय गुरु तथा ब्राह्मणसे भी सदा द्वेष करता है। अतएव इस समय शत्रुपक्षके आश्रयको प्राप्त अत्यन्त पापपरायण अपने मन्त्रिसमुदायपर मुझे बिलकुल विश्वास नहीं करना चाहिये ॥ 12-18 ॥
इस प्रकार अपने मनमें भलीभाँति विचार करके अत्यन्त दुःखीचित्त राजा सुरथ घोड़ेपर आरूढ होकर अकेले ही उस नगरसे निकल पड़े ॥ 19 ॥
वे बिना किसी सहायकको साथ लिये ही नगरसे बाहर निकलकर एक घने जंगलमें चले गये। प्रतिभासम्पन्न राजा सुरथ सोचने लगे कि अब मुझे कहाँ चलना चाहिये ? ॥ 20 ॥
तपस्वी सुमेधाका पवित्र आश्रम यहाँसे मात्र तीन योजनकी दूरीपर है - यह जानकर राजा सुरथ वहाँ चले गये ॥ 21 ॥
बहुत प्रकारके वृक्षोंसे युक्त, नदीके तटपर विराजमान, वैरभावसे रहित होकर विचरण करनेवाले पशुओंसे समन्वित, कोयलोंकी मधुर ध्वनिसे मण्डित, अध्ययनरत शिष्योंके स्वरसे निनादित, सैकड़ों मृगसमूहोंसे घिरे हुए, भलीभाँति पके हुए नीवारान्नसे परिपूर्ण, सुन्दर फल-फूलसे लदे हुए पादपोंसे सुशोभित, होमके सुगन्धित धूमसे प्राणियोंको सदा आनन्दित करनेवाले, निरन्तर वेदध्वनिसे परिव्याप्त तथा स्वर्गसे भी मनोहर उस आश्रमको देखकर वे राजा अत्यन्त आनन्दित हुए और उन्होंने भय त्यागकर मुनिके आश्रम में विश्राम करनेका निश्चय कर लिया ॥ 22-25 ॥
तत्पश्चात् अपने घोड़ेको एक वृक्षमें बाँधकर उन्होंने विनम्रतापूर्वक आश्रममें प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने देखा कि मुनि एक सालवृक्षकी छायामें मृगचर्मके आसनपर बैठे हुए हैं, उनकी आकृति शान्त है, तपस्या करनेके कारण उनका शरीर क्षीण हो गया है, उनका स्वभाव अति कोमल है, वे शिष्योंको पढ़ा रहे हैं, वे वेद-शास्त्रोंके तत्त्वदर्शी विद्वान् हैं, क्रोध लोभ आदि विकारोंसे मुक्त हैं, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे परे हैं, ईर्ष्यारहित हैं, आत्मज्ञानके चिन्तनमें संलग्न हैं, सत्यवादी तथा जितेन्द्रिय हैं। उन्हें देखकर अश्रुपूरित नयनोंवाले राजा सुरथ प्रेमपूर्वक उनके आगे | दण्डकी भाँति भूतलपर गिर पड़े ॥ 26- 29 ॥
तब मुनिने उनसे कहा- उठिये उठिये आपका कल्याण हो। तत्पश्चात् गुरुसे आदेश पाकर एक | शिष्यने उन्हें आसन प्रदान किया ॥ 30 ॥
तब वे उठकर मुनिसे आज्ञा लेकर उस आसनपर बैठ गये। इसके बाद सुमेधाने अपादि उनका विधिपूर्वक सत्कार किया। मुनिने उनसे पूछ कि आप यहाँ कहाँसे आये हैं? आप कौन हैं तथा चिन्तित क्यों हैं? यहाँ आनेका जो भी कारण हो, उसे आप यथारुचि बतायें। आपके आगमनका प्रयोजन क्या है? आप अपने मनके विचारोंको अवश्य बताइये। आपका कोई असाध्य मनोरथ होगा तो उसे भी मैं पूर्ण करूँगा ॥ 31-33 ॥
राजा बोले-मैं सुरथ नामवाला राजा हूँ। शत्रुओंसे पराजित होकर मैं राज्य, महल तथा स्त्री-सब कुछ छोड़कर आपकी शरणमें आया हूँ ॥ 34 ॥
हे ब्रह्मन्। अब आप मुझे जो भी आज्ञा देंगे, मैं श्रद्धापूर्वक वही करूँगा। इस पृथ्वीतलपर आपके अतिरिक्त अब कोई दूसरा मेरा रक्षक नहीं है ॥ 35 ॥
हे मुनिराज ! हे शरणागतवत्सल ! शत्रुओंसे मुझे। महान् भय उपस्थित है, अतएव मैं आपके पास आया हूँ; अब आप मेरी रक्षा कीजिये 36 ऋषि बोले- हे राजेन्द्र ! आप निर्भीक होकर यहाँ रहिये। यह निश्चित है कि मेरी तपस्याके प्रभावसे आपके पराक्रमी शत्रु यहाँ नहीं आ सकेंगे ॥ 37 ॥
हे नृपश्रेष्ठ यहाँपर आपको हिंसा नहीं | करनी चाहिये और वनवासियोंकी भाँति पवित्र नीवार तथा फल-मूल आदिके द्वारा जीवन-निर्वाह करना चाहिये ।। 38 ।।
व्यासजी बोले – तब मुनिकी यह बात सुनकर राजा सुरथ निर्भय हो गये। अब वे फल-मूलका आहार करते हुए पवित्रताके साथ उस आश्रममें ही रहने लगे ॥ 39 ॥
किसी समय उस आश्रममें एक वृक्षकी छायामें बैठे हुए चिन्ताकुल राजा सुरथका चित्त घरकी ओर चला गया और वे सोचने लगे- ॥ 40 ॥
निरन्तर पापकर्ममें लगे रहनेवाले म्लेच्छ शत्रुओंने | मेरा राज्य छीन लिया है। उन दुराचारी तथा निर्लज्ज म्लेच्छोंक द्वारा मेरी प्रजा बहुत सतायी जाती होगी 41 ॥
मेरे सभी हाथी तथा घोड़े आहार न पाने तथा शत्रुसे प्रताड़ित किये जानेके कारण अत्यन्त दुर्बल हो गये होंगे इसमें तो कोई सन्देह नहीं है 42 ॥
अपने जिन सेवकका मैंने पहले पालन-पोषण किया था, वे सब शत्रुओंके अधीन हो जानेके कारण कष्टका अनुभव करते होंगे ॥ 43 ॥
उन अति दुराचारी तथा अपव्यय करनेके स्वभाववाले शत्रुओंने मेरा धन द्यूत, मदिरालय एवं वेश्यालयोंमें निश्चित रूपसे खर्च कर दिया होगा ।। 44 ।।
वे पापबुद्धि मेरा समस्त राजकोष व्यसनोंमें नष्ट कर डालेंगे, सत्पात्रोंको दान देनेकी योग्यता भी उन म्लेच्छों में नहीं है और मेरे मन्त्री भी अधीनतामें रहनेके कारण उन्होंके जैसे हो गये होंगे ।। 45 ।।
महाराज सुरथ वृक्षके नीचे बैठकर इसी चिन्तामें पड़े हुए थे कि उसी समय एक विषादग्रस्त वैश्य वहाँ आ पहुँचा ।। 46 ।।
राजाने उस वैश्यको सामने देख लिया। उन्होंने उसे अपने समीपमें बैठा लिया और पुनः उससे पूछा- आप कौन हैं तथा इस वनमें कहाँसे आये हैं? आप कौन हैं, आप उदास क्यों हैं ? चिन्ताग्रस्त रहनेके कारण आप तो पीले वर्णके हो गये हैं ? हे महाभाग सात पग एक साथ चलनेपर ही मैत्री समझ ली जाती है, अतः आप मुझे सब कुछ सच सच बता दीजिये ॥ 47-48 ॥
व्यासजी बोले- राजाका वचन सुनकर वह वैश्य श्रेष्ठ उनके पास बैठ गया और इसे सज्जनसमागम समझकर शान्तचित्त होकर उनसे कहने लगा ।। 49 ।।
वैश्य बोला हे मित्र! मैं वैश्यजातिमें उत्पन्न हूँ और समाधि नामसे प्रसिद्ध हूँ। मैं धनवान्, धर्मकार्यों में निपुण, सत्यवादी और ईर्ष्यासे रहित हूँ, फिर भी धनके लोभी और कुटिल स्त्री-पुत्रोंने मुझे घरसे निकाल दिया (उन्होंने मुझे कृपण कहकर कठिनाईसे टूटनेवाला माया बन्धन भी तोड़ दिया), अतः अपने कुटुम्बियोंसे परित्यक्त होकर मैं अभी-अभी इस बनमें आया हूँ। हे प्रिय आप कौन हैं? मुझे बतायें: आप भाग्यवान् प्रतीत होते हैं । 50-513 ॥
राजा बोले- मैं सुरथ नामका राजा हूँ, मैं दस्युओंसे पीड़ित हूँ। मन्त्रियोंके द्वारा ठगे जानेके कारण राज्यविहीन होकर मैं यहाँ आया हूँ । है वैश्यश्रेष्ठ! भाग्यवश आप मुझे यहाँ मित्रके रूपमें मिल गये हैं। अब हम दाना सुन्दर वृक्षोंसे युक्त इस वनमें विहार करेंगे। हे महाबुद्धिमान् | वैश्य श्रेष्ठ ! चिन्ता छोड़िये और प्रसन्नचित्त होइये ( अब आप मेरे साथ यहीँपर इच्छानुसार सुखपूर्वक रहिये) ॥ 52 - 54 ॥
वैश्य बोला— मेरा परिवार आश्रयरहित है, मेरे बिना परिवारके लोग अत्यन्त दुःखी होंगे। मेरे बारेमें चिन्ता करते हुए वे रोग तथा शोकसे व्याकुल हो जायँगे ॥ 55 ॥
हे राजन्! मेरी पत्नी तथा पुत्र शारीरिक सुख पा रहे होंगे अथवा नहीं, इसी चिन्तासे व्याकुल रहनेके कारण मेरा मन शान्त नहीं रह पाता ॥ 56 ॥ हे राजन्! मैं पुत्र, पत्नी, घर और स्वजनोंको कब देख सकूँगा? गृहकी चिन्तासे अत्यन्त व्याकुल मेरा मन स्वस्थ नहीं हो पाता है ॥ 57 ॥
राजा बोले- हे महामते! जिन दुराचारी तथा महामूर्ख पुत्र आदिके द्वारा आप घरसे निकाल दिये गये, उन्हें देखकर अब आपको कौन-सा सुख मिलेगा ? दुःख देनेवाले सुहृदोंकी अपेक्षा सुख देनेवाला शत्रु श्रेष्ठ है; अतः अपने मनको स्थिर करके आप मेरे साथ आनन्द कीजिये ।। 58-59 ।।
वैश्य बोला- हे राजन्! दुर्जनोंके द्वारा भी अत्यन्त कठिनतासे त्यागे जानेवाले कुटुम्बकी चिन्तासे अत्यन्त दुःखित मेरा मन इस समय स्थिर नहीं हो पा रहा है ॥ 60 ॥
राजा बोले- राज्यसम्बन्धी चिन्ता मेरे मनको भी दुःखी करती रहती है। अतः अब हम दोनों शान्त प्रकृतिवाले मुनिसे शोकके नाशकी औषधि पूछें ॥ 61 ॥
व्यासजी बोले- ऐसा विचार करके राजा और वैश्य-दोनों ही अत्यन्त विनम्र होकर शोकका कारण पूछनेके लिये मुनिके पास गये ॥ 62 ॥
वहाँ जाकर राजा सुरथ आसन लगाकर शान्त बैठे हुए मुनिश्रेष्ठको प्रणाम करके स्वयं भी सम्यक् रूपसे आसनपर बैठकर शान्तिपूर्वक उनसे कहने लगे ॥ 63 ॥