व्यासजी बोले- हे राजन् ! अपनी धर्मपत्नीके द्वारा बार-बार प्रेरित किये जानेपर राजा हरिश्चन्द्रने कहा—हे भद्रे! मैं अत्यन्त निष्ठुर होकर तुम्हारे विक्रयकी बात स्वीकार करता हूँ । यदि तुम्हारी वाणी ऐसा निष्ठुर वचन बोलनेके लिये तत्पर है तो जिस | कामको महान् से महान् क्रूर भी नहीं कर सकते, | उसे मैं करूँगा ॥ 1-2 ॥
ऐसा कहकर नृपश्रेष्ठ राजा हरिश्चन्द्र शीघ्रतापूर्वक नगरमें गये और वहाँ नाटक आदि दिखाये जानेवाले स्थानपर अपनी भार्याको प्रस्तुत करके आँसुओंसे रुँघे | हुए कण्ठसे उन्होंने कहा- हे नगरवासियो ! आपलोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनिये । आपलोगोंमेंसे किसीको भी यदि मेरी इस प्राणप्रिया भार्यासे दासीका काम | लेनेकी आवश्यकता हो तो वह शीघ्र बोले। मैं जितना धन चाहता हूँ, उतनेमें कोई भी इसे खरीद ले। इसपर वहाँ उपस्थित बहुतसे विद्वान् पुरुषोंने पूछा- 'अपनी पत्नीका विक्रय करनेके लिये यहाँ आये हुए तुम कौन | हो ? ' ॥ 3–53 ॥
राजा बोले- आपलोग मुझसे यह क्यों पूछते हैं—'तुम कौन हो ?' मैं मनुष्य नहीं; बल्कि महान् क्रूर हूँ, अथवा यह समझिये कि एक भयानक राक्षस हूँ, तभी तो ऐसा पाप कर रहा हूँ ॥ 63 ॥
व्यासजी बोले—उस शब्दको सुनकर विश्वामित्र | एक वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण करके राजा हरिश्चन्द्रके सामने अचानक आ गये और बोले—मैं धन देकर इस दासीको खरीदनेके लिये तत्पर हूँ, अत: इसे मुझे दे दीजिये ।। 7-8 ।।
मेरे पास बहुत धन है। मेरी पत्नी बहुत ही सुकुमार है, इसलिये वह गृहकार्य नहीं कर पाती, अतः इसे आप मुझे दे दीजिये। मैं इस दासीको स्वीकार तो कर लूंगा, किंतु मुझे इसके बदले आपको धन कितना देना होगा ? ॥ 93 ॥
ब्राह्मणके इस प्रकार कहनेपर राजा हरिश्चन्द्रका हृदय दुःखसे विदीर्ण हो गया और वे कुछ भी नहीं बोले ॥ 103 ॥
विप्रने कहा- आपकी भार्याके कर्म, आयु रूप और स्वभावके अनुसार यह धन दे रहा हूँ, इसे स्वीकार कीजिये और स्त्री मुझे सौंप दें धर्मशास्त्रोंमें स्त्री तथा पुरुषका जो मूल्य निर्दिष्ट है, वह इस प्रकार है- यदि स्त्री बत्तीसों लक्षणोंसे सम्पन्न, दक्ष, शीलवती और गुणोंसे युक्त हो तो उसका मूल्य एक करोड़ स्वर्णमुद्रा है और उसी प्रकारके पुरुषका मूल्य दस करोड़ स्वर्णमुद्रा होता है ।। 11-13 ।।
उस ब्राह्मणकी यह बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र महान् दुःखसे व्याकुल हो उठे और उनसे कुछ भी नहीं कह सके ॥ 14 ॥
तत्पश्चात् उस ब्राह्मणने राजाके सामने वल्कलके ऊपर धन रखकर रानीके बालोंको पकड़कर उन्हें खींचना आरम्भ कर दिया || 15 ||
रानीने कहा- हे आर्य! जबतक मैं अपने पुत्रको भलीभाँति देख न लूँ तबतकके लिये आप मुझे छोड़ दीजिये, छोड़ दीजिये क्योंकि हे विप्र फिरसे इस पुत्रका दर्शन तो दुर्लभ ही हो जायगा ॥ 16 ॥
[ तत्पश्चात् रानीने कहा-] हे पुत्र ! अब दासी बनी हुई अपनी इस माँकी ओर देखो। हे राजपुत्र तुम मेरा स्पर्श मत करो; क्योंकि अब मैं तुम्हारे स्पर्शके योग्य नहीं रह गयी हूँ ॥ 17 ॥
तदनन्तर [ब्राह्मणके द्वारा] खींची जाती हुई माताको सहसा देखकर उस बालकके नेत्रोंमें अश्रु भर आये और वह 'माँ-माँ' कहता हुआ उनकी ओर दौड़ा || 18 ॥
कौवेके पंखके समान केशवाला वह राजकुमार जब हाथसे माताका वस्त्र पकड़कर गिरते हुए साथ चलने लगा, तब वह ब्राह्मण उस आये हुए बालकको क्रोधपूर्वक मारने लगा, फिर भी उस बालकने 'माँ माँ' कहते हुए अपनी माताको नहीं छोड़ा ॥ 196 ॥
रानी बोलीं- हे नाथ! मुझपर कृपा कीजिये और इस बालकको भी खरीद लीजिये; क्योंकि | आपके द्वारा खरीदी गयी भी मैं इसके बिना आपका | कार्य सिद्ध करनेमें समर्थ नहीं रहूँगी। हे प्रभो ! मुझ मन्दभागिनीपर इस प्रकारको कृपा आप अवश्य कीजिये ॥ 20-21 ॥
ब्राह्मणने कहा- यह धन लीजिये और अपना पुत्र मुझे दे दीजिये धर्मशास्त्रज्ञोंने स्त्री-पुरुषका | मूल्य निर्धारित कर दिया है-जैसे सौ, हजार, लाख और करोड़। उसी प्रकार अन्य विद्वानोंने शुभ लक्षणोंसे युक्त, कुशल तथा सुन्दर स्वभाववाली स्त्रीका मूल्य एक करोड़ तथा वैसे ही गुणोंवाले पुरुषका मूल्य दस करोड़ बताया है ॥ 22-233 ॥
सूतजी बोले- तब ब्राह्मणने उसी प्रकार बालकका मूल्य भी सामने रखे हुए वस्त्रपर फेंक दिया और फिर बालकको पकड़कर उसे माताके साथ ही बन्धनमें बाँध दिया। इसके बाद वह ब्राह्मण उन्हें साथ लेकर हर्षपूर्वक शीघ्र ही अपने घरकी ओर चल दिया ।। 24-25 ।।
उस समय अत्यन्त दयनीय अवस्थाको प्राप्त रानी राजा हरिश्चन्द्रकी प्रदक्षिणा करके दोनों घुटनोंके सहारे झुककर उन्हें प्रणामकर स्थित हो गयी और नेत्रोंमें आँसू भरकर यह वचन बोली- यदि मैंने दान दिया हो, हवन किया हो तथा ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट किया हो तो उस पुण्यके प्रभावसे राजा हरिश्चन्द्र पुनः मुझे पतिरूपमें प्राप्त हो जायें ॥ 26-27॥
अपने प्राणसे भी बढ़कर प्रिय रानीको चरणोंपर पड़ी हुई देखकर 'हाय, हाय' – ऐसा कहते हुए व्याकुल इन्द्रियोंवाले राजा हरिश्चन्द्र विलाप करने लगे। सत्य, शील और गुणोंसे सम्पन्न मेरी यह भार्या मुझसे अलग कैसे हो गयी ? वृक्षकी छाया भी उस | वृक्षको कभी नहीं छोड़ती ॥ 28-29 ॥
इस प्रकार परस्पर घनिष्ठता प्रकट करनेवाला यह वचन भार्यासे कहकर राजाने उस पुत्रसे | ऐसा कहा मुझे छोड़कर तुम कहाँ जाओगे, फिर मैं किस दिशा में जाऊँगा और मेरा दुःख कौन दूर | करेगा ? ॥ 303 ॥
हे द्विज। राज्यका परित्याग करने और वनवास करनेमें मुझे वह दुःख नहीं होगा, जो पुत्रके वियोगसे हो रहा है-ऐसा उस राजाने कहा। [ तत्पश्चात् रानीको लक्ष्य करके राजा कहने लगे-] इस लोकमें पत्नियाँ सदा अपने उत्तम पतिके सहयोगहेतु होती हैं, फिर भी हे कल्याणि मैंने तुम्हारा परित्याग कर दिया है और तुम्हें दुःखी बना दिया है ।। 31-323 ॥
इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न तथा राज्यके सम्पूर्ण सुख सुविधाओंसे सम्पन्न मुझ जैसे पतिको पाकर भी तुम दासी बन गयी हो। हे देवि! विस्तृत पौराणिक आख्यानोंके द्वारा इस महान् शोकरूपी सागरमें डूब रहे मुझ दीनका उद्धार अब कौन करेगा ? ।। 33-343 ॥
सूतजी बोले- तदनन्तर राजर्षि हरिश्चन्द्रके सामने ही कोड़ेसे निष्ठुरतापूर्वक पीटते हुए वह विप्रश्रेष्ठ उन्हें ले जानेका प्रयत्न करने लगा 356 ॥
अपनी भार्या तथा पुत्रको ब्राह्मणके द्वारा ले जाते हुए देखकर वे राजा हरिश्चन्द्र अत्यन्त दुःखसे व्याकुल होकर बार-बार उष्ण श्वास लेकर विलाप करने लगे - अबतक जिसे वायु, सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वीके लोग देख नहीं सके थे, वही मेरी यह भार्या आज दासी बन गयी ! हाथोंकी कोमल अँगुलियोंवाला यह बालक, जो सूर्य वंशमें उत्पन्न है, आज बिक गया। मुझ दुर्बुद्धिको धिक्कार है। हा प्रिये! हा बालक! हा वत्स! मुझ अधमकी दुर्नीतिके कारण ही तुम सब इस दैवाधीन दशाको प्राप्त हुए हो, फिर भी मेरी मृत्यु नहीं हुई, अतः मुझे धिक्कार है ॥ 36-396 ॥
व्यासजी बोले- उन दोनोंको लेकर ऊँचे ऊँचे वृक्ष, घर आदिको पार करते हुए वे ब्राह्मण इस तरह विलाप कर रहे राजाके सामनेसे शीघ्रतापूर्वक अन्तर्धान हो गये। इसी समय महान् तपस्वी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र अपने शिष्यके साथ वहाँ आ पहुँचे; उस समय वे कौशिकेन्द्र अत्यन्त निष्ठुर तथा क्रूर दृष्टिगत हो रहे थे । 40-416 ॥
विश्वामित्र बोले- हे राजन्! हे महाबाहो ! यदि आपने सत्यको सदा स्वीकार किया है तो राजसूययज्ञकी जिस दक्षिणाका वचन आपने पहले दे रखा है, उसे अब दे दीजिये ॥ 423 ॥
हरिश्चन्द्र बोले- हे राजर्षे! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे अनघ! राजसूययज्ञके अवसरपर पहले मैंने जिस दक्षिणाकी प्रतिज्ञा की थी, यह अपनी दक्षिणा आप ग्रहण कीजिये ।। 433 ॥
'विश्वामित्र बोले- हे राजन्! दक्षिणाके निमित्त जो यह धन आप दे रहे हैं, उसे आपने कहाँसे प्राप्त किया है? आपने जिस तरहसे यह धन अर्जित किया है, उसे मुझे साफ-साफ बताइये ॥ 443 ॥
राजा बोले- हे महाभाग ! हे अनघ ! अब यह सब बतानेसे क्या प्रयोजन; क्योंकि उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हे विप्र ! इसे सुननेसे आपका शोक ही बढ़ेगा ।। 453 ॥
ऋषि बोले- हे राजन् ! मैं दूषित धन कदापि ग्रहण नहीं करता, मुझे पवित्र धन दीजिये और जिस उपायसे द्रव्य प्राप्त हुआ हो, उसे यथार्थरूपसे बता दीजिये ॥ 46 ॥
राजा बोले- हे विप्र ! मैंने अपनी उस साध्वी भार्याको एक करोड़ स्वर्णमुद्रामें और अपने रोहित नामक पुत्रको दस करोड़ स्वर्णमुद्रामें बेच दिया है। हे विप्र ! इस प्रकार मेरे पास एकत्र इन ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राओंको आप स्वीकार करें ।। 47-48 ।।
सूतजी बोले- स्त्री और पुत्रको बेचनेपर प्राप्त हुए धनको अल्प समझकर विश्वामित्रने क्रोधित होकर शोकग्रस्त राजा हरिश्चन्द्रसे कहा- ॥ 49 ॥
ऋषि बोले- राजसूययज्ञकी इतनी ही दक्षिणा नहीं होती, अतः शीघ्र ही और धनका उपार्जन | कीजिये, जिससे वह दक्षिणा पूर्ण हो सके। क्षत्रियधर्मका पालन करनेसे विमुख हे राजन् ! यदि आप मेरी | दक्षिणाको इतने द्रव्यके ही तुल्य मानते हैं तो फिर मेरे परम तेजको शीघ्र ही देख लीजिये। अत्यन्त | पवित्र अन्तःकरणवाले मुझ ब्राह्मणकी कठोर तपस्या | तथा मेरे विशुद्ध अध्ययनके प्रभावको आप अभी देख लें ॥ 50-52 ॥
राजा बोले-हे भगवन्! मैं इसके अतिरिक्त और भी दक्षिणा दूँगा, किंतु कुछ समयतक प्रतीक्षा कीजिये। अभी-अभी मैंने अपनी पत्नी तथा अबोध पुत्रको बेचा है ॥ 53 ॥
विश्वामित्र बोले- हे नराधिप । दिनका चौथा प्रहर उपस्थित है यही प्रतीक्षाका अन्तिम समय है। इसके बाद फिर आप मुझसे कुछ न | कहियेगा ॥ 54 ॥