व्यासजी बोले- [हे महाराज!] यह बात कहकर धूम्रलोचन चुप हो गया। तब भगवती काली हँसकर सुन्दर वचन बोलीं- धूर्त ! तुम तो पूरे विदूषक हो और नटों जैसी बात करते हो। मधुर बोलते हुए तुम व्यर्थ ही मनमें अनेकविध कामनाएँ कर रहे हो।। 1-2 ॥
हे मूढमते! दुष्टात्मा शुम्भने तुझ बलवान्को सेनासे सुसज्जित करके युद्धहेतु भेजा है, अतः अब युद्ध करो और व्यर्थको बातें छोड़ दो ॥ 3 ॥
ये देवी कुपित होकर शुम्भ, निशुम्भ तथा तुम्हारे अन्य बलवान् दैत्योंका अपने बाणोंके प्रहारसे संहार करके अपने धामको चली जायेंगी ॥ 4 ॥
कहाँ वह मन्दमति शुम्भ और कहाँ ये विश्व मोहिनी जगदम्बा ! इन दोनोंका विवाह इस संसारमें सर्वथा अनुपयुक्त है ॥ 5 ॥
क्या अत्यधिक कामार्त होनेपर भी सिंहिनी सियारको हथिनी किसी गर्दभको अथवा सुरभि किसी सामान्य वृषभको अपना पति बना सकती है ? ॥ 6 ॥ अब तुम शुम्भ निशुम्भके पास चले जाओ और उनसे मेरी यह सच्ची बात कह दो कि 'तुम मेरे साथ युद्ध करो; अन्यथा इसी समय शीघ्र पाताललोक चले जाओ' ॥ 7 ॥
व्यासजी बोले- हे महाभाग! देवी कालिकाका यह वचन सुनते ही वह दैत्य धूम्रलोचन क्रोधके मारे आँखें लाल करके उनसे कहने लगा दुर्दर्शे! अभी तुझे तथा इस मदोन्मत्त सिंहको युद्धमें | मारकर और इस स्त्रीको लेकर में राजा शुभकाम अवश्य चला जाऊँगा ।। 8-9 ।।
कलहमें अनुराग रखनेवाली हे काली! रसमें भंग पढ़नेकी शंकासे में इस समय डर रहा हूँ, नहीं तो | अपने तीक्ष्ण बाणोंसे तुम्हें अभी मार डालता ॥ 10 ॥
कालिका बोलीं- हे मन्दबुद्धि ! तुम अनर्गल प्रलाप क्यों कर रहे हो, धनुर्धर वीरोंका यह धर्म नहीं है। तुम अपनी पूरी शक्तिसे बाण चलाओ। तुम तो अभी यमलोक जानेवाले हो ॥ 11 ॥
व्यासजी बोले- यह वचन सुनकर वह दैत्य लोचन अपना सुदृढ़ धनुष लेकर भगवती कालिका के ऊपर पत्थरकी सानपर चढ़ाकर तेज किये गये वाणोंकी घोर वर्षा करने लगा ॥ 12 ॥
उस समय इन्द्र आदि प्रधान देवता उत्तम विमानोंमें बैठकर यह युद्ध देख रहे थे। वे देवीकी स्तुति करते हुए उनकी जयकार कर रहे थे ॥ 13 ॥
परस्पर उन दोनोंमें बाण, खड्ग, गदा, शक्ति तथा मुसल आदि शस्त्रोंसे अत्यन्त भीषण तथा उग्र युद्ध होने लगा ॥ 14 ॥
भगवती कालिकाने पहले अपने बाण-प्रहारोंसे [उसके रथमें जुते] खच्चरोंको मारकर बादमें उसके सुद्द रथको भी चूर्ण कर दिया, फिर वे बार-बार अट्टहास करने लगीं ॥। 15 ।।
हे भारत! क्रोधाग्निमें जलता हुआ-सा वह दानव भूम्रलोचन दूसरे रथपर सवार हो गया और | कालिकाके ऊपर भयंकर बाण वृष्टि करने लगा ॥ 16 ॥
उसके बाग भगवती के पास पहुँच भी नहीं पाते थे कि वे उन बाणोंको काट डालती थीं। तत्पश्चात् | वे कालिका अन्य तीव्रगामी बाण उस दानवके ऊपर छोड़ने लगीं ॥ 17 ॥
उन बाणोंसे उसके हजारों सहायक सैनिक मारे गये। तत्पश्चात् देवी कालिकाने उसके खच्चरों तथा सारथिको शीघ्रतापूर्वक मारकर उस रथको भी नष्ट कर दिया। उसके बाद देवीने अपने सर्प-सदृश बाणोंसे सीतापूर्वक उसका धनुष काट डाला। ऐसा करके | देवीने देवताओंको आनन्दित कर दिया और वे शंखनाद करने लगीं ।। 18-19 ॥
अब रथसे विहीन वह धूम्रलोचन कुपित होकर एक लोहमय मजबूत परिघ लेकर देवीके रथके सन्निकट आ गया ॥ 20 ॥
कालसदृश भयंकर वह धूम्रलोचन वाणीसे भगवती कालीको फटकारते हुए कहने लगा 'कुरूपा तथा पिंगलनेत्रोंवाली। मैं तुम्हें अभी मार डालूंगा' ऐसा कहकर वह ज्यों ही कालिकापर परिघ चलानेको उद्यत हुआ, देवीने अपने हुंकारमात्रसे उसे तुरंत भस्म कर दिया ।। 21-22 ॥
तब दैत्य धूम्रलोचनको भस्म हुआ देखकर सभी सैनिक भयाक्रान्त होकर 'हा तात'-ऐसा कहते हुए तुरंत मार्ग पकड़कर भाग चले ॥ 23 ॥
उस धूम्रलोचनको मारा गया देखकर आकाशमें विद्यमान देवगण प्रसन्न होकर भगवतीपर पुष्प बरसाने लगे ॥ 24 ॥
हे राजन्! मरे हुए दानवों, घोड़ों, खच्चरों और हाथियोंसे [पट जानेके कारण] वह रणभूमि उस समय बड़ी भयानक लग रही थी। युद्धभूमिमें पड़े हुए मृत दानवोंको देखकर गीध, कौए, बाज, सियार और पिशाच नाचने तथा कोलाहल करने लगे ।। 25-26 ॥
अब भगवती अम्बिकाने उस रणभूमिको छोड़कर वहाँसे कुछ दूरीपर जाकर अत्यन्त तीव्र तथा भयदायक शंखनाद किया ॥ 27 ॥
अपने महलमें स्थित शुम्भको भी वह भयानक शंख-ध्वनि सुनायी पड़ी। उसी समय उसने भागकर आये हुए बहुत-से दैत्योंको देखा। उनमेंसे बहुतोंके अंग भंग हो गये थे और वे रक्तसे लथपथ थे। अनेक दैत्योंके हाथ-पैर कट गये थे और नेत्र भग्न हो गये थे। कुछ दैत्य तो शय्या आदिपर लादकर लाये जा रहे थे; बहुतोंकी पीठ, कमर और गर्दन टूट गयी थी। सब-के-सब जोर-जोरसे चीख रहे थे। उन्हें देखकर शुम्भ निशुम्भने सैनिकोंसे पूछा-'धूम्रलोचन कहाँ गया ? तुमलोग इस तरह अंग-भंग होकर क्यों आये हो और उस सुन्दर मुखवाली स्त्रीको क्यों नहीं ले आये? हे मूर्खो! सही-सही बताओ कि मेरी सेना कहाँ गयी और भयको बढ़ानेवाला यह किसका शंखनाद इस समय सुनायी पड़ रहा है ?' ||28-31||
गण बोले—सम्पूर्ण सेना मार डाली गयी और नका भी संहार कर दिया गया। रणभूमि अमानुषिक कार्य कालिकाके द्वारा किया गया है ॥ 32 ॥
सम्पूर्ण उसी अम्बिकाकी यह शंखध्वनि है, जो स नभमण्डलको व्याप्त करके सुशोभित हो रही है। यह ध्वनि देवगणोंके लिये हर्षप्रद और दानवोंके लिये कष्टदायक है ॥ 33 ॥
हे विभो ! जब देवीके सिंहने सारे सैनिकोंका | विनाश कर डाला और उनके बाण प्रहारोंसे दैत्योंके | रथ टूट गये तथा घोड़े मार डाले गये, तब आकाशमें स्थित देवता प्रसन्न होकर पुष्प वृष्टि करने लगे ॥ 346 ॥
इस प्रकार समस्त सेनाका विनाश तथा धूम्रलोचनका वध देखकर हमलोगोंने निश्चय कर लिया कि अब हमारी विजय नहीं हो सकती। अतएव हे राजेन्द्र ! अब आप मन्त्रणाका उत्तम ज्ञान रखनेवाले अपने मन्त्रियोंसे इस विषयपर विचार कर लीजिये। हे महाराज! यह आश्चर्य है कि जगदम्बास्वरूपिणी वह मदमत्त बाला बिना किसी सेनाके ही सिंहपर सवार होकर निर्भयभावसे आपसे युद्ध करनेके लिये रणभूमिमें अकेली खड़ी है। हे महाराज ! हमें तो यह सब बड़ा विचित्र और अद्भुत प्रतीत हो रहा है। अतएव अब आप शीघ्र मन्त्रणा करके सन्धि, युद्ध, उदासीन होकर स्थित रहना अथवा पलायन-इनमेंसे अपनी रुचिके चाहें, वह कार्य करें ।। 35-39 ।। अनुसार जो
हे शत्रुतापन! यद्यपि उसके पास सेना नहीं है। फिर भी उसकी विपत्तिमें सभी देवता उसके सहायक बनकर उपस्थित हो जायँगे। ज्ञात हुआ है कि भगवान् विष्णु और शिव भी समयानुसार उसके पासमें विद्यमान रहते हैं; सभी लोकपाल आकाशमें | रहते हुए भी इस समय उस देवीके पास विद्यमान हैं। हे सुरतापन! राक्षसगण, गन्धर्व, किन्नर और मनुष्य इन सबको समय आनेपर उसका सहायक समझना चाहिये ॥ 40-42 ॥
हमारी बुद्धिसे तो हर तरहसे ऐसा जान पड़ता | है कि वे अम्बिका किसीसे भी कोई सहायता अथवा | कार्यकी अपेक्षा नहीं रखतीं। वे अकेली ही सम्पूर्ण चराचर जगत्का नाश करनेमें समर्थ हैं, तो फिर सब | दानवोंकी बात ही क्या यह सत्य है ॥ 43-44 ॥
हे महाभाग ! यह सब भलीभाँति समझ बूझकर आपकी जैसी रुचि हो, वैसा कीजिये । सेवकोंको तो अपने स्वामीसे हितकर, सत्य और नपी-तुलो बात कहनी चाहिये ।। 45 ।।
व्यासजी बोले- उनकी बात सुनकर शत्रुसेनाको विनष्ट कर डालनेवाले शुम्भने अपने छोटे भाई निशुम्भको एकान्त स्थानमें ले जाकर वहाँ स्थित हो उससे पूछा- हे भाई! आज कालिकाने अकेले ही धूम्रलोचनको मार डाला, सारी सेना नष्ट कर दी और शेष सैनिक अंग-भंग होकर भाग आये हैं। अभिमानमें चूर रहनेवाली वही अम्बिका शंखनाद कर रही है ।। 46-47ई ॥
कालकी गतिको पूर्णरूपसे समझना ज्ञानियोंके लिये भी अत्यन्त कठिन है। [कालकी प्रेरणासे] तृण वज्र बन जाता है, वज्र तृण बन जाता है और बलशाली प्राणी बलहीन हो जाता है; दैवकी ऐसी विचित्र गति है 48-49 ।।
हे महाभाग! मैं तुमसे पूछता हूँ कि अब आगे मुझे क्या करना चाहिये? ऐसा लगता है कि यह अम्बिका किसी उद्देश्यसे यहाँ आयी हुई है। अतः निश्चय ही वह हमारे भोगके योग्य नहीं है ॥ 50 ॥
हे वीर! तुम मुझे शीघ्र बताओ कि इस समय भाग जाना उचित है या युद्ध करना ? यद्यपि तुम छोटे हो, फिर भी इस संकटके समय मैं तुम्हें बड़ा मान रहा हूँ ॥ 51 ॥
निशुम्भ बोला- हे अनघ! इस समय न तो भागना उचित है और न तो किलेमें छिपना ही ठीक है। अब तो इस स्त्रीके साथ हर प्रकारसे युद्ध करना ही श्रेयस्कर है ॥ 52 ॥
श्रेष्ठ सेनापतियोंको लेकर मैं अपनी सेनाके साथ युद्धभूमिमें जाऊँगा और उस कालिकाको मारकर तथा अबला अम्बिकाको पकड़कर शीघ्र यहाँ ले आऊँगा और यदि बलवान् दैवके कारण इसके विपरीत हो जाय तो मेरे मर जानेपर बार-बार सोच-विचारकर ही आप कोई कार्य कीजियेगा ।। 53-54||
छोटे भाई निशुम्भकी यह बात सुनकर शुम्भने उससे कहा- अभी तुम ठहरो, पहले पराक्रमी चण्ड-मुण्ड जायँ । खरगोश पकड़नेके लिये हाथी छोड़ना उचित नहीं है। चण्ड-मुण्ड बड़े वीर हैं, अतः ये दोनों उसे मार डालनेमें हर तरहसे समर्थ हैं ।। 55-56 ॥
अपने भाई निशुम्भसे ऐसा कहकर और उससे परामर्श करके राजा शुम्भने समक्ष बैठे हुए महान् | बलशाली चण्ड-मुण्डसे कहा- हे चण्ड-मुण्ड ! तुम दोनों अपनी सेना लेकर उस निर्लज्ज और मदोन्मत्त अबलाका वध करनेके लिये शीघ्र जाओ। हे महाभागो ! रणभूमिमें पिंग-नेत्रोंवाली उस कालिकाको मारकर और अम्बिकाको पकड़कर यह महान् कार्य करके यहाँ लौट आओ। यदि वह मदोन्मत्त अम्बिका पकड़ी जानेपर भी नहीं आती तो अपने अत्यन्त तीक्ष्ण बाणोंसे उस रणभूषिताका भी वध कर देना ।। 57-60 ॥