View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 25 - Skand 7, Adhyay 25

Previous Page 183 of 326 Next

सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना

सूतजी बोले- [हे शौनक!] एक समयकी बात है, वह रोहित नामक राजकुमार लड़कोंके साथ बाहर खेलनेके लिये वाराणसीके समीप चला गया ॥ 1 ॥

तत्पश्चात् वहाँपर वह खेलने के बाद कु उखाड़ने लगा। उसने अपनी शक्तिके अनुसार अल्प | जड़वाले तथा अग्रभागसे युक्त बहुतसे कोमल कुश उखाड़े। इससे मेरे आर्य (स्वामी) प्रसन्न होंगे- ऐसा | बोलते हुए वह बड़ी सावधानीसे दोनों हाथोंसे कुश उखाड़ता था। साथ ही वह उत्तम लक्षणोंवाली समिधाओं तथा ईंधन हेतु श्रेष्ठ लकड़ियों और यज्ञहेतु कशों तथा अग्निमें हवन करनेके लिये पलाश काष्ठोंको आदरपूर्वक एकत्र करके सम्पूर्ण बोझ मस्तकपर रखकर दुःखित होता हुआ पैदल चलने | लगा और वह बालक प्याससे व्याकुल हो गया। वह | शिशु एक जलाशयके पास पहुँचकर बोझको जमीनपर रखकर जल-स्थानपर गया और इच्छानुसार जल | पीकर मुहूर्तभर विश्राम करके वल्मीकके ढेरपर रखे उस बोझको उठाने लगा ॥ 2-6 ॥

उसी समय विश्वामित्रकी प्रेरणासे एक प्रचण्ड रूपवाला डरावना महाविषधर काला सर्प उस वल्मीकसे निकला ॥ 7 ॥

उस सर्पने बालक रोहितको हँस लिया और वह उसी समय भूमिपर गिर पड़ा। रोहितको मृत | देखकर भयसे व्याकुल सभी बालक शीघ्रतापूर्वक ब्राह्मणके घर गये और रोहितकी माताके सामने खड़े होकर कहने लगे- हे विप्रदासि ! आपका पुत्र हमलोगोंके साथ खेलनेके लिये बाहर गया हुआ था। वहाँ उसे सौंपने काट लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी ।। 8-93 ।।

वज्रपात-सदृश वह बात सुनकर रानी मूच्छित हो गयीं और जड़से कटे हुए केलेके वृक्षकी भाँति वे भूमिपर गिर पड़ीं 103 ॥

इससे ब्राह्मण कुपित हो गया और उनपर जलसे छींटे मारने लगा। थोड़ी देरमें उन्हें चेतना आ गयी, तब ब्राह्मण उनसे कहने लगा ॥ 113 ॥ ब्राह्मण बोला- हे दुष्टे! सायंकालके समय

रोना निन्दनीय तथा दरिद्रता प्रदान करनेवाला होता है-ऐसा जानती हुई भी तुम इस समय रो रही हो । | क्या तुम्हारे हृदयमें लज्जा नहीं है ? ॥ 123 ॥

ब्राह्मणके ऐसा कहनेपर वे कुछ भी नहीं बोलीं। पुत्र-शोक सन्तप्त तथा दीन होकर वे करुण क्रन्दन करने लगीं। उनका मुख आँसुओंसे भीग गया था, उनकी दशा अत्यन्त दयनीय थी, वे धूल-धूसरित हो गयी थीं तथा उनके सिरके केश अस्त-व्यस्त हो गये थे ॥ 13-14 ॥

तब क्रोधमें आकर ब्राह्मणने उस रानीसे कहा दुष्टे! तुम्हें धिक्कार है; क्योंकि अपना मूल्य लेकर भी तुम मेरे कार्यकी उपेक्षा कर रही हो। यदि तुम काम करनेमें असमर्थ थी, तो मुझसे वह धन तुमने क्यों लिया ? ॥ 156 ॥

इस प्रकार उस ब्राह्मणके द्वारा निष्ठुर वचनोंसे बार-बार फटकारनेपर रानीने रोते हुए गद्गद वाणीमें [अपने रुदनका] कारण बताते हुए कहा- हे स्वामिन्! [क्रीडाहेतु] बाहर गये हुए मेरे पुत्रको सर्पने डँस लिया और वह मर गया। मैं उस बालकको देखने जाऊँगी। अतः आप मुझे आज्ञा दीजिये। हे सुव्रत ! अब मेरे लिये | उस पुत्रका दर्शन दुर्लभ हो गया है ।। 16-18 ॥

इस प्रकार करुणापूर्ण वचन कहकर रानी फिर रोने लगी, इसपर वह ब्राह्मण कुपित होकर उन राजमहिषीसे फिर कहने लगा ॥ 19 ॥

ब्राह्मण बोला- कुटिल व्यवहारवाली हे शठे! क्या तुम्हें इस पापका ज्ञान नहीं है कि जो मनुष्य अपने स्वामीसे वेतन लेकर उसके कार्यकी उपेक्षा करता है, वह महारौरव नरकमें पड़ता है, एक कल्पतक नरकमें रहकर वह मुर्गेकी योनिमें जन्म लेता है ॥ 20-21 ॥

अथवा इस धार्मिक चर्चासे मेरा क्या प्रयोजन है क्योंकि पापी, मूर्ख, क्रूर, नीच, मिथ्याभाषी एवं शठके प्रति वह वचन उसी प्रकार निष्फल होता है, जैसे उसरमें बोया गया बीज अतः यदि तुम्हें परलोकका कुछ भी भय हो तो आओ, अपना कार्य करो ।। 22-23 ।।

उसके ऐसा कहनेपर [भयके कारण] थर-थर काँपती हुई रानी ब्राह्मणसे यह वचन बोलीं- हे नाथ! मुझपर दया कीजिये, अनुग्रह कीजिये प्रसन्नमुखाले होइये। मुझे मुहूर्तभरके लिये वहाँ जाने दीजिये, | जिससे मैं अपने पुत्रको देख सकूँ॥ 243 ॥

ऐसा कहकर पुत्रशोक सन्तप्त वे रानी ब्राह्मणके चरणोंपर सिर रखकर करुण विलाप करने लगीं। इसपर क्रोधसे लाल नेत्रोंवाला वह ब्राह्मण कुपित होकर रानीसे कहने लगा ॥ 25-26 ॥

विप्र बोला- तुम्हारे पुत्रसे मेरा क्या प्रयोजन, तुम मेरे घरका कार्य सम्पन्न करो। क्या तुम कोड़ेके प्रहारका | फल देनेवाले मेरे क्रोधको नहीं जानती हो ? ॥ 27 ॥

इस प्रकार ब्राह्मणके कहनेपर रानी धैर्य धारण करके उसके घरका काम करनेमें संलग्न हो गयीं। | इस तरह पैर दबाने आदि कार्य करते रहनेमें उनकी आधी रात बीत गयी ॥ 28 ॥

इसके बाद ब्रह्मणने उनसे कहा- अब तुम अपने पुत्रके पास जाओ और उसका दाह संस्कार आदि | सम्पन्न करके शीघ्र पुनः वापस आ जाना, जिससे मेरा प्रातःकालीन गृहकार्य बाधित न हो ॥ 293 ॥

तब रानी अकेली ही रातमें विलाप करती हुई गयीं और अपने पुत्रको मृत देखकर अत्यन्त शोकाकुल हो उठीं। | उस समय वे झुण्डसे बिछड़ी हुई हिरनी अथवा बिना | बछड़ेकी गायकी भाँति प्रतीत हो रही थीं ॥ 30-31 ॥

थोड़ी ही देरमें वाराणसीसे बाहर निकलनेपर काष्ट, कुश और तृणके ऊपर अपने पुत्रको रंककी भाँति भूमिपर सोया हुआ देखकर वे दुःखसे अत्यन्त अधीर हो गर्यो और अत्यन्त निष्ठुर शब्द करके विलाप करने लगीं- मेरे सामने आओ और बताओ कि तुम इस समय मुझसे क्यों रूठ गये हो? पहले तुम बार-बार 'अम्बा'-ऐसा कहकर मेरे सामने नित्य आया करते थे। इसके बाद लड़खड़ाते हुए पैरोंसे कुछ दूर जाकर वे मूर्च्छित होकर उसके ऊपर गिर पड़ीं ॥ 32-34 ॥

तत्पश्चात् सचेत होनेपर बालकको दोनों हाथों में | भरकर और उसके मुखसे अपना मुख लगाकर वे करुण स्वरमें रुदन करने लगीं और दोनों हाथोंसे अपना सिर तथा वक्षःस्थल पीटने लगीं- [वे ऐसा कहकर रो रही थीं] हा पुत्र ! हा शिशो! हा वत्स! हा सुन्दर कुमार हा राजन्! आप कहाँ चले गये ? मृत होकर भूमिपर पड़े हुए अपने प्राणोंसे भी बड़का | प्रिय पुत्रको देख तो लीजिये ॥ 35-37॥

तत्पश्चात् 'कहीं बालक जीवित तो नहीं है' इस शंकासे वे उसका मुख बार-बार निहारने लगीं, किंतु मुखकी चेष्टासे उसे निष्प्राण जानकर पुनः मूर्च्छित | होकर वे गिर पड़ीं। इसके बाद हाथमें बालकका मुख लेकर उन्होंने इस प्रकार कहा- हे पुत्र ! तुम इस भयंकर निद्राका त्याग करो और शीघ्र जागो! आधी रातसे भी अधिक समय हो रहा है, सैकड़ों सियारिनें बोल रही हैं; भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी आदिके समूह ध्वनि कर रहे हैं। सूर्यास्त होते ही तुम्हारे सभी मित्र चले गये; केवल तुम्हीं यहाँ कैसे रह गये ? ॥ 38 - 40 3 ॥

सूतजी बोले- ऐसा कहकर दुर्बल शरीरवाली रानी पुनः इस प्रकार करुण रुदन करने लगीं- 'हा शिशो हा बालक हा वत्स! हा रोहित नामवाले कुमार हे पुत्र! तुम मेरी बातका उत्तर क्यों नहीं दे रहे हो ? ' ।। 41-42 ॥

हे वत्स! क्या तुम यह नहीं जानते कि मैं तुम्हारी माता हूँ मेरी ओर देखो। हे पुत्र मुझे अपना देश छोड़ना पड़ा, राज्यविहीन होना पड़ा और पतिके द्वारा बेच दिये जानेपर दासी बनना पड़ा, फिर भी हे पुत्र! केवल तुम्हें देखकर जी रही हूँ। तुम्हारे जन्मके समय ब्राह्मणोंने भविष्यके सम्बन्धमें बताया था कि यह बालक दीर्घ आयुवाला, पृथ्वीका शासक, पुत्र पौत्रसे सम्पन्न, पराक्रम तथा दानके प्रति अनुराग रखनेवाला, बलवान्, ब्राह्मण-गुरु-देवताका उपासक, माता-पिताको प्रसन्न रखनेवाला, सत्यवादी और जितेन्द्रिय होगा, किंतु हे पुत्र यह सब इस समय असत्य सिद्ध हो गया । 43-46 ॥

हे पुत्र ! तुम्हारी हथेली में चक्र, मत्स्य, छत्र, श्रीवत्स, स्वस्तिक, ध्वजा, कलश तथा चामर आदिके चिह्न और हे सुत! अन्य जो भी शुभ लक्षण तुम्हारे हाथमें विद्यमान हैं, वे सब इस समय निष्फल हो गये हैं ।। 47-48 ॥

हा राजन् ! हा पृथ्वीनाथ! आपका राज्य, आपके मन्त्री, आपका सिंहासन, आपका छत्र, आपका खड्ग, आपका वह धन-वैभव, वह अयोध्या, राजमहल, हाथी, घोड़े, रथ और प्रजा-ये सब कहाँ चले गये ? हे पुत्र ! इन सबके साथ ही तुम भी मुझे छोड़कर कहाँ चले गये ? ।। 49-50 ॥

हा कान्त ! हा राजन्! आइये, अपने इस प्रिय पुत्रको देख लीजिये, जो [ खेलते-खेलते] आपके वक्षपर चढ़कर कुमकुमसे लिप्त उस विशाल वक्षको अपने शरीरमें लगे भूल तथा कीचड़से मलिन कर देता था, आपकी गोद में बैठकर जो बालसुलभ स्वभावके कारण आपके ललाटपर लगे हुए कस्तूरीमिश्रित चन्दनके तिलकको मिटा देता था। हे भूपते! जिसके मिट्टी लगे मुखको मैं स्नेहपूर्वक चूम लेती थी, उसी मुखको आज मैं देख रही हूँ कि कीड़ोंने उसे विकृत कर दिया है और उसपर मक्खियाँ बैठ रही हैं। हे राजन् ! अकिंचनकी भाँति पृथ्वीपर पड़े इस मृत | पुत्रको देख लीजिये ॥ 51-54 ॥

हादेव मैंने पूर्वजन्म कौन-सा कार्य कर दिया था | कि उस कर्म-फलका अन्त मैं देख नहीं पा रही हूँ ! ॥ 55 ॥ 'हा पुत्र ! हा शिशो! हा वत्स! हा सुन्दर कुमार!' उस रानीका ऐसा विलाप सुनकर नगरपालक जाग गये और वे अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर शीघ्र ही उनके पास पहुँचे ॥ 563 ॥

जनोंने कहा- तुम कौन हो, यह बालक किसका है, तुम्हारे पति कहाँ हैं और रातमें निर्भय होकर तुम | अकेली यहाँ किस कारणसे रो रही हो ? ॥ 57 ॥

उनके ऐसा कहनेपर उस कृशकाय रानीने कुछ भी बात नहीं कही। उनके पुनः पूछनेपर भी वे चुप रहीं और स्तब्ध जैसी हो गयीं। वे अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगीं और उनकी आँखोंसे शोकके आँसू निरन्तर निकलते रहे ।। 58-59 ॥

तब उनके मनमें रानीके प्रति सन्देह उत्पन्न हो गया, उनके शरीरके रोंगटे खड़े हो गये और वे भयभीत हो उठे; तब हाथोंमें | परस्पर कहने लगे- ॥ 60 ॥

आयुध लिये हुए वे निश्चय ही यह स्त्री नहीं है; क्योंकि यह कुछ भी बोल नहीं रही है। यह बालकोंको मार डालनेवाली कोई राक्षसी है. अतः यत्नपूर्वक इसका वध कर देना चाहिये। यदि यह कोई उत्तम स्त्री होती तो इस अर्धरात्रिमें घरसे बाहर क्यों रहती? यह निश्चितरूपसे किसीके शिशुको खानेके लिये यहाँ ले आयी है ।। 61-62 ॥

ऐसा कहकर उनमेंसे कुछने शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक रानीके केश पकड़ लिये, कुछ अन्य व्यक्तियोंने उनकी दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और कुछने गर्दन पकड़ ली। 'यह खेचरी [कहीं] भाग जायगी' ऐसा कहकर हाथोंमें शस्त्र धारण किये हुए बहुतसे पहरेदार रानीको घसीटते हुए चाण्डालके घर ले गये और उसे चाण्डालको सौंप दिया [और कहा] हे चाण्डाल! - इस बालघातिनीको हमलोगोंने बाहर देखा तुम बाहर किसी स्थानपर शीघ्र ही ले जाकर इसे मार डालो, मार डालो ।। 63-65 ॥

रानीको देखकर चाण्डालने कहा- मैं इसे जानता हूँ; यह लोकमें प्रसिद्ध है। इसके पहले किसीने भी इसे देखा नहीं था। इसने अनेक बार लोगोंके बच्चोंका भक्षण कर लिया है। आपलोगोंने इसे पकड़कर महान् पुण्य अर्जित किया है। इससे आपलोगोंका यश जगत्में सर्वदा बना रहेगा। अब आपलोग यहाँसे सुखपूर्वक चले जाइये ॥ 66-67 ॥

जो मनुष्य ब्राह्मण, स्त्री, बालक तथा गायका वध करता है; स्वर्णकी चोरी करता है; आग लगाता है; मार्गमें अवरोध उत्पन्न करता है; मदिरा पान करता है; गुरुपत्नीके साथ व्यभिचार करता है और श्रेष्ठजनोंके साथ विरोध-भाव रखता है, उसका वध कर देनेसे पुण्य प्राप्त होता है। ऐसे कार्यमें तत्पर ब्राह्मणका अथवा स्त्रीका भी वध कर डालनेमें दोष नहीं लगता। अतः इसका वध मेरी दृष्टिमें उचित है-ऐसा कहकर चाण्डालने दृढ़ बन्धनोंसे बाँधकर और केश पकड़कर उन्हें रस्सियोंसे पीटा। इसके बाद उसने हरिश्चन्द्रको बुलाकर उनसे कठोर वाणीमें कहा- 'हे दास! इस पापात्मा स्त्रीका तत्काल वध कर दो; इसमें सोच-विचार मत करो ॥ 68-71 ॥

वज्रपातके समान उस वचनको सुनकर स्त्री वधकी आशंकासे राजा हरिश्चन्द्र थर-थर काँपते हुए उस चाण्डालसे बोले- मैं ऐसा करनेमें समर्थ नहीं हूँ, अतः मुझे कोई दूसरा कार्य करने की आज्ञा दीजिये। इसके अतिरिक्त आप जो भी कठिन-से कठिन कार्य करनेको कहेंगे, उसे मैं सम्पन्न कर दूँगा ।। 72-73 ॥

उनके द्वारा कही गयी यह बात सुनकर चाण्डालने यह वचन कहा- तुम बिलकुल मत डरो। तलवार उठाओ और इसका वध कर दो; क्योंकि ऐसी स्त्रीका वध अत्यन्त पुण्यदायक माना गया है। बालकोंको भय पहुँचानेवाली यह स्त्री कभी भी रक्षाके योग्य नहीं है । 743 ॥

चाण्डालकी वह बात सुनकर राजाने यह वचन | कहा- जिस किसी भी उपायसे स्त्रियोंकी रक्षा करनी चाहिये, उनका वध कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि धर्मपरायण मुनियोंने स्त्रीवधको पाप बताया है। जो पुरुष जानकर अथवा अनजानमें भी स्त्रीकी हत्या करता है, वह महारौरव नरकमें गिरकर यातना भोगता है ॥ 75- 77 ॥

चाण्डाल बोला- 'यह सब मत बोलो, विद्युत्के समान चमकनेवाली यह तीक्ष्ण तलवार उठा लो; क्योंकि यदि एकका वध कर देनेसे बहुत प्राणियोंको सुख हो तो उसकी की गयी हिंसा निश्चय ही पुण्यप्रद होती है। यह दुष्टा संसारमें बहुत से बच्चोंको खा चुकी है, अतः शीघ्र ही इसका वध कर दो, जिससे लोक शान्तिमय हो जाय ॥ 78-793 ॥

राजा बोले- हे चाण्डालराज! मैंने आजीवन स्त्रीवध न करनेका कठोर व्रत ले रखा है, अतः मैं स्त्रीवधके लिये प्रयत्न नहीं कर सकता; अपितु आपका अन्य कोई कार्य सम्पन्न करूँगा ॥ 80 ॥

चाण्डाल बोला- अरे दुष्ट ! स्वामीके इस कार्यको छोड़कर तुम्हारे लिये दूसरा कौन-सा कार्य है ? वेतन लेकर मेरे कार्यकी उपेक्षा क्यों कर रहे हो? जो सेवक स्वामीसे वेतन लेकर उसके कार्यकी उपेक्षा करता है, उसका दस हजार कल्पोंतक नरकसे उद्धार नहीं होता। 81-823॥

राजा बोले- हे चाण्डालनाथ! आप मुझे कोई | अन्य अत्यन्त कठिन कार्य करनेका आदेश दीजिये। आप अपने किसी शत्रुको बतायें, मैं उसे निःसन्देह शीघ्र ही मार डालूँगा और उस शत्रुका वध करके उसकी भूमि आपको सौंप दूंगा। हे देव! देवताओं, नागों, सिद्धों और गन्धवसहित इन्द्रको भी तीक्ष्ण बाणोंसे मारकर उन्हें जीत लूँगा ।। 83-85 ॥

तब राजा हरिश्चन्द्रका यह वचन सुनकर उस चाण्डालने क्रुद्ध होकर थर-थर काँप रहे उन राजासे कहा ॥ 86 ॥

चाण्डाल बोला- (सेवकोंके लिये जो बात कही गयी है, वह बात तुम्हारे व्यवहारमें लक्षित नहीं होती) चाण्डालकी दासता करके तुम देवताओं जैसी बात करते हो। अरे दास! अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन? तुम मेरी बात ध्यानसे सुनो। निर्लज्ज! यदि तुम्हारे हृदयमें थोड़ा भी पापका भय था, तो चाण्डालके घरमें दासता करना तुमने स्वीकार ही क्यों किया ? अतः इस तलवारको उठाओ और इसके कमलवत् सिरको काट दो ऐसा कहकर चाण्डालने राजाको तलवार पकड़ा दी ॥ 87-89 ।।

Previous Page 183 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति