ऋषियोंने कहा—[हे सूतजी!] शुकदेवजीको जब परम सिद्धि प्राप्त हो गयी तब देवश्रेष्ठ व्यासजीने क्या किया? यह सब विस्तारपूर्वक हमसे कहिये ॥ 1 ॥
सूतजी बोले- उस समय व्यासजीके जितने वेदपाठी शिष्य थे, वे सब व्यासजीकी आज्ञा पाकर | पहले ही भूमण्डलमें इधर-उधर चले गये थे ॥ 2 ॥ असित, देवल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु आदि सभी तपोधन मुनि चले गये थे। उन ऋषियोंको अन्यत्र तथा अपने पुत्र शुकदेवको अन्तरिक्षमें गया हुआ देखकर शोकाकुल व्यासजीने वहाँसे चले जानेका विचार किया ॥ 3-4 ॥
उसी समय व्यासजीने मन-ही-मन निषादकन्या अपनी कल्याणकारिणी माताका स्मरण किया, जिन्हें उन्होंने शोकावस्थामें गंगाजीके तटपर ही छोड़ दिया था ॥ 5 ॥
अपनी माता सत्यवतीका स्मरण करके उस श्रेष्ठ पर्वतको त्यागकर महातेजस्वी व्यासजी अपने जन्मस्थानपर चले आये ॥ 6 ॥
इस प्रकार उन्होंने उस द्वीपपर जाकर लोगोंसे पूछा कि 'वे सुन्दर मुखवाली [मेरी माता ] कहाँ चली गयीं ?' तब निषादोंने बताया कि उस कन्याका तो निषादराजने राजा [ शन्तनु]-से विवाह कर दिया। तत्पश्चात् निषादराजने व्यासजीका प्रेमपूर्वक पूजन एवं सत्कार करके हाथ जोड़कर कहा- ॥ 7-8 ॥
दाशराज बोला- हे मुने! मेरा जन्म सफल हो गया और हमारा कुल पवित्र हो गया जो कि आज देवताओंके लिये दुर्लभ आपका दर्शन प्राप्त हुआ ।। 9 ।।
हे विप्रवर! आप जिस कामसे आये हैं, वह बताइये। हे विभो धन, पुत्र, कलत्र आदि - यह सब आपके अधीन है ॥ 10 ॥
[निषादराजके प्रार्थना करनेपर ] व्यासजीने सरस्वती नदीके सुन्दर तटपर अपना आश्रम बनाया और सावधान-चित्त हो वे पुनः तप करते हुए वहाँ रहने लगे ॥ 11 ॥
अपूर्व तेजस्वी महाराज शन्तनुको सत्यवतीके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न हुए। इन दोनोंको अपना भाई मानकर वनवासी व्यासजी अत्यन्त प्रसन्न हुए ।। 12 ।।
उनमें राजाका पहला पुत्र चित्रांगद रूपवान्, शत्रुओंको कष्ट देनेवाला तथा सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न था। शन्तनुके दूसरे पुत्रका नाम विचित्रवीर्य था। वह भी सर्वगुणसम्पन्न एवं शन्तनुके लिये सुखवर्द्धक हुआ ॥ 13-14॥ इसके पूर्व उन राजा शन्तनुको गंगासे भीष्म नामक बलशाली एवं पराक्रमी पुत्र पदा हुआ था। | उसी प्रकार सत्यवतीसे दो पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए ।। 15 ।।
उन सर्वलक्षणसम्पन्न तीनों पुत्रोंको देखकर महामना शन्तनु अपने आपको देवताओंसे अजेय समझने लगे थे ॥ 16 ॥
कुछ समय बीतनेपर यथासमय धर्मात्मा शन्तनुने उसी प्रकार अपना शरीर त्याग दिया, जिस प्रकार कोई मनुष्य अपना पुराना वस्त्र छोड़ देता है। शन्तनुके कालके वशीभूत हो जानेपर भीष्मने विधिवत् उनके समस्त प्रेतकार्य किये और विविध प्रकारके दान दिये ॥ 17-18 ॥
तदनन्तर पराक्रमी भीष्मने चित्रांगदको राज्यसिंहासनपर बैठाया। उन्होंने स्वयं राज्य नहीं किया, इसी कारण उनका नाम देवव्रत हुआ ॥ 19 ॥ सत्यवतीपुत्र चित्रांगद बलगर्वित, शत्रुसन्तापकर्ता, बलशाली, वीर तथा पवित्र थे ॥ 20 ॥
महाबाहु चित्रांगद एक बार महान् सेनासे युक्त होकर आखेटके लिये वनमें गये। वहाँ वध्य रुरुमृगोंको खोजते हुए वे विविध वन- प्रदेशों में घूम रहे थे। मार्गमें उन राजाको जाता हुआ देखकर चित्रांगद | नामक एक गन्धर्व अपने सुन्दर विमानसे भूमिपर | उनके समीप उतर पड़ा ।। 21-22 ॥
सूतजी बोले- हे तपस्वियो! उस समय कुरुक्षेत्रके उस विशाल मैदान में तीन वर्षतक समान बलवाले उन दोनोंमें घमासान युद्ध होता रहा ॥ 23 ॥
अन्तमें उस गन्धर्वके द्वारा राजा चित्रांगद युद्धमें मारे गये और उन्हें शीघ्र ही इन्द्रलोक प्राप्त हुआ। यह सुनकर भीष्मने उसी समय चित्रांगदका और्ध्वदैहिक संस्कार किया ॥ 24 ॥
तत्पश्चात् मन्त्रियोंने भीष्मको समझा-बुझाकर | शोकरहित किया। उन्होंने छोटे भाई विचित्रवीर्यको राजा बना दिया ॥ 25 ॥ मन्त्रियों, गुरुजनों एवं महात्माओंके समझानेके बाद शुभलक्षणा राजमाता सत्यवती अपने [ज्येष्ठ] | पुत्रकी मृत्युसे शोकाकुल होती हुई भी अपने छोटे पुत्र विचित्रवीर्यको राजसिंहासनपर बैठा देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई। व्यासजी भी अपने भ्राताके राजा होनेका समाचार पाकर प्रसन्न हुए ।। 26-27 ।
जब सत्यवतीके सुन्दर पुत्र विचित्रवीर्य पूर्ण युवा हुए तब भीष्म अपने कनिष्ठ भ्राताके विवाहकी चिन्ता करने लगे ॥ 28 ॥
उन दिनों काशिराजकी तीन कन्याएँ थीं— जो सभी शुभलक्षणोंसे युक्त थीं; उन राजाने विवाहके लिये उनका स्वयंवर रचाया ।। 29 ।।
हजारों पूज्यमान राजा तथा राजकुमार आमन्त्रित होकर उस इच्छास्वयंवरमें उपस्थित हुए थे तथा पराक्रमी भीष्मने अकेले ही रथपर बैठकर सभी राजाओंको रौंदकर बलपूर्वक उन कन्याओंका हरण कर लिया। वे महारथी तथा तेजस्वी भीष्म अपने बाहुबलसे उन सभी राजाओंको जीतकर उन कन्याओंको लेकर हस्तिनापुर चले आये 30-32
सुन्दर नेत्रोंवाली उन तीनों राजकुमारियोंमें माता, भगिनी एवं पुत्रीकी भावना रखते हुए भीष्म उन्हें ले आये और उन्हें सत्यवतीको सौंपकर शीघ्रतापूर्वक ज्योतिर्विदों तथा वेदके विद्वान् ब्राह्मणोंको बुलाकर उनसे विवाहका शुभ मुहूर्त पूछा ।। 33-34
विवाहकी तैयारी करके अपने छोटे भाई धर्मात्मा विचित्रवीर्यके साथ उन कन्याओंका विवाह करनेको जब भीष्म उद्यत हुए तब उन तीनोंमें सबसे बड़ी एवं सुन्दर नेत्रोंवाली कन्याने गंगापुत्र भीष्मसे लज्जित होते हुए इस प्रकार प्रार्थना की। हे गंगापुत्र ! हे कुरुश्रेष्ठ ! हे धर्मज्ञ ! हे कुलदीपक। मैंने स्वयंवरमें मन-ही-मन राजा शाल्वका पतिरूपमें वरण कर लिया था। उन राजाने भी प्रेमपूर्वक हृदयसे मुझे अपनी पत्नी मान लिया था। हे परन्तप। अब आप इस कुलकी परम्पराके अनुसार जैसा उचित हो, वैसा कीजिये । उन्होंने पहलेसे ही मुझे वरण कर लिया है। हे गांगेय। आप धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ तथा बलवान् हैं; आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये ॥ 35-39 ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार उस कन्याके कहनेपर कुरुनन्दन भीष्मजीने कुलवृद्धों, ब्राह्मणों, माता सत्यवती तथा मन्त्रियोंसे इस विषयमें परामर्श किया। सबकी अनुमति प्राप्त करके धर्मज्ञ गंगापुत्रने उस कन्यासे कहा- हे वरानने! तुम स्वेच्छापूर्वक जा सकती हो। 40-41 ।।
भीष्मसे विदा होकर वह सुन्दरी कन्या राजा शाल्वके घर गयी और अपने मनकी अभीष्ट | बात उनसे कहने लगी- हे महाराज ! आपके प्रति | आसक्तचित्त जानकर भीष्मने मुझे धर्मपूर्वक मुक्त कर दिया है। अब मैं आ गयी हूँ; आप मेरा पाणिग्रहण कीजिये। मैं आपकी पूर्णरूपसे धर्मपत्नी होऊँगी; मैंने पूर्वमें आपको चाहा है और आपने मुझे; इसमें | सन्देह नहीं है ॥ 42-44 ॥
शाल्वने कहा- हे सुन्दरि ! मेरे देखते-देखते भीष्मने तुम्हें पकड़ा और अपने रथपर बैठा लिया था, अतः अब मैं तुम्हारा पाणिग्रहण नहीं कर सकता। कौन बुद्धिमान् मनुष्य दूसरेके द्वारा उच्छिष्ट कन्याको स्वीकार करेगा ? अतः भीष्मके द्वारा मातृभावनासे भी त्यागी गयी तुम्हें मैं स्वीकार नहीं करूँगा ।। 45-46 ॥
महात्मा शाल्वने रोती तथा विलाप करती उस | कन्याका त्याग कर दिया और वह पुनः भीष्मके यहाँ आकर रोती हुई इस प्रकार कहने लगी- हे वीर ! आपके त्याग देनेके कारण शाल्व भी मुझे स्वीकार नहीं कर रहे हैं। हे महाभाग ! आप धर्मज्ञ हैं, इसलिये आप मुझे स्वीकार कीजिये, अन्यथा मैं प्राण दे दूँगी ।। 47-48 ।।
भीष्म बोले- हे वरवर्णिनि ! | आसक्त चित्तवाली हो, अतः मैं तुम्हें कैसे स्वीकार तुम दूसरे पर करूँ? हे वरारोहे! अब तुम चिन्ता त्यागकर शीघ्र अपने पिताके पास चली जाओ ॥ 49 ॥
भीष्मके ऐसा कहनेपर वह [ अपने पिताके घर न जाकर] वनमें चली गयी और वहाँ किसी निर्जन एवं परम पवित्र तीर्थमें तप करने लगी ॥ 50 ॥
काशिराजकी अन्य दो रूपवती तथा कल्याणमयी कन्याएँ अम्बिका एवं अम्बालिका विचित्रवीर्यकी रानियाँ बन गयीं ॥ 51 ॥
महाबली राजा विचित्रवीर्य भी उन दोनोंके साथ कभी राजभवनमें और कभी उपवनमें आनन्दपूर्वक | विहार करने लगे ॥ 52 ॥ इस प्रकार पूरे नौ वर्षतक मनोहर क्रीड़ा करते हुए राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मारोगसे ग्रसित हो गये। और अन्तमें मृत्युको प्राप्त हुए ॥ 53 ॥
उस समय पुत्रके मर जानेपर माता सत्यवतीको बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने मन्त्रियोंद्वारा पुत्रके सभी प्रेतकर्म सम्पन्न कराये ॥ 54 ॥
तत्पश्चात् एक दिन अत्यन्त दुःखी होकर सत्यवतीने भीष्मसे एकान्तमें कहा- हे महाभाग ! हे पुत्र! अब तुम अपने पिता शन्तनुका राज्य सम्भालो और अपनी भ्रातृजायाको स्वीकार करो और अपने वंशकी रक्षा करो, जिससे महाराज ययातिका वंश नष्ट न हो जाय ।। 55-56 ॥
भीष्म बोले- हे माता! अपने पिताजीके लिये मैंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे तो आप सुन चुकी हैं। अतः मैं न तो राज्य ग्रहण करूँगा और न तो विवाह ही करूँगा ॥ 57 ॥
सूतजी बोले- तब सत्यवती चिन्तित हो गयीं कि अब वंश कैसे चलेगा? अपने कर्तव्यके प्रति यदि मैं उदासीन रहूँ तो अराजकताके व्याप्त होनेपर मुझे सुख कैसे प्राप्त होगा ? ॥ 58 ||
[ इस प्रकार माताको चिन्तित देखकर] भीष्मने उनसे कहा- हे भामिनि ! आप चिन्ता न करें। विचित्रवीर्यकी पत्नीके गर्भसे क्षेत्रज पुत्र उत्पन्न कराइये। किसी कुलीन विद्वान् ब्राह्मणको बुलाकर वधूके साथ नियोग कराइये। इसमें कोई दोष नहीं है; क्योंकि वंशरक्षाका विधान वेदमें भी है। हे प्रसन्नवदने ! इस प्रकार पौत्र उत्पन्न कराकर आप उसीको राज्य सौंप दीजिये, मैं उसके राज्यशासनका - सम्यक् संरक्षण करता रहूँगा ।। 59-61 ॥
भीष्मकी वह बात सुनकर सत्यवतीने अपनी कुमारी अवस्थामें उत्पन्न अपने निर्दोष पुत्र द्वैपायन व्यासमुनिका स्मरण किया ॥ 62 ॥
स्मरण करते ही तपस्वी व्यासजी वहाँ आ पहुँचे और माताको प्रणाम करके वे तेजस्वी मुनि सामने खड़े हो गये ॥ 63 ॥
भीष्मने उनको भलीभांति पूजा का और माता सत्यवतीने भी आदर किया। उस समय महातेजस्वी | व्यासजी वहाँ इस प्रकार सुशोभित हुए मानो धूमरहित | साक्षात् दूसरे अग्निदेव ही हों ।। 64 ।। माता सत्यवतीने व्यासमुनिस कहा इस समय तुम विचित्रवीर्यके क्षेत्रमें अपने तेजसे सुन्दर पुत्र उत्पन्न करो ॥ 65 ॥ माताका वचन सुनकर व्यासजीने उसे आप्तवाक्य माना और 'ठीक है' कहकर वे वहाँपर ठहर गये और ऋतुकालकी प्रतीक्षा करने लगे ।। 66 ॥
जब अम्बिका ऋतुमती होकर स्नान कर चुकी तब उसने मुनि व्यासजीके तेजसे एक पुत्र उत्पन्न किया, जो महाबली और जन्मान्ध था। उस बालकको जन्मान्ध देखकर सत्यवतीको बड़ा दुःख हुआ। तब उन्होंने दूसरी वधू अम्बालिका से कहा कि तुम भी शीघ्र एक पुत्र उत्पन्न करो ॥ 67-68 ॥
ऋतुकाल प्राप्त होनेपर उस अम्बालिकाने व्यासजीसे गर्भ धारण किया। उससे उत्पन्न पुत्र भी |पाण्डुरोगसे ग्रसित होनेके कारण राजा होनेके योग्य नहीं था। इसलिये माताने वधू अम्बालिकाको एक | वर्षके बाद पुनः एक पुत्रके लिये प्रेरित किया। माता सत्यवतीने मुनिश्रेष्ठ व्यासजीका आह्वानकर उनसे | इसके लिये प्रार्थना की, परंतु उसने स्वयं न जाकर अपनी दासीको भेज दिया। उस दासीके गर्भसे धर्मके अंशसे युक्त शुभ विदुर उत्पन्न हुए ।। 69-72 ।।
इस प्रकार वंशकी रक्षाके लिये व्यासजीने धृतराष्ट्र आदि तीन महापराक्रमी पुत्र उत्पन्न किये। भ्रातृ-धर्मको जाननेवाले व्यासजीने ऐसा करके वंशकी रक्षा की हे पुण्यात्मा मुनिजनो। इस प्रकार उनकी वंशोत्पत्तिसे सम्बन्धित समस्त कथानक मैंने आपलोगोंसे | कह दिया ।। 73-74 ।।