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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 20 - Skand 7, Adhyay 20

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हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना

हरिश्चन्द्र बोले- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हे मुनिवर ! आप विषाद छोड़िये, मेरी प्रतिज्ञा है कि आपको बिना स्वर्ण दिये मैं भोजन नहीं करूँगा ॥ 1 ॥ मैं सूर्यवंशमें उत्पन्न एक क्षत्रिय राजा हूँ। मनुष्योंकी सारी अभिलाषा पूर्ण करनेवाला मैं राजसूययज्ञ सम्पन्न कर चुका हूँ ॥ 2 ॥

हे स्वामिन्! इच्छानुसार दान दे करके मैं 'नहीं' ऐसा शब्द किस प्रकार उच्चारित कर सकता हूँ। हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं आपका ऋण अवश्य चुका दूँगा आप निश्चिन्त रहें, मैं आपका मनोवांछित स्वर्ण आपको अवश्य दूँगा, किंतु जबतक मुझे धन उपलब्ध नहीं हो जाता, तबतक कुछ समयके लिये आप प्रतीक्षा करें ॥ 3-4 ॥

विश्वामित्र बोले- हे राजन् ! अब आपको धनप्राप्ति कहाँसे होगी? आपका राज्य, कोष, सेना तथा अर्थोपार्जनका समस्त साधन - यह सब [ आपके अधिकारसे] चला गया। अतः हे राजन् ! धनके लिये आपको आशा करना व्यर्थ है। हे नृप! इस स्थितिमें मैं क्या करूँ? मैं धनके लोभसे आप-जैसे निर्धन व्यक्तिको पीड़ित भी कैसे करूँ? इसलिये हे राजन्! आप कह |दीजिये-'अब मैं नहीं दे सकूँगा।' तब मैं धनप्राप्तिकी आशा त्यागकर यहांसे इच्छानुसार चला जाऊँगा। है | राजेन्द्र ! 'अब मेरे पास स्वर्ण नहीं है, तो आपको क्या टू- ऐसा बोल दीजिये और पत्नी तथा पुत्रके साथ अपने इच्छानुसार चले जाइये ॥ 5-8 ॥

व्यासजी बोले- [हे राजन्!] ब्राह्मणकी यह बात सुनकर उस समय जा रहे राजा हरिश्चन्द्रने मुनिको उत्तर दिया- हे ब्रह्मन् ! आप धैर्य रखिये, मैं | आपको धन अवश्य दूंगा। हे द्विज! अभी भी मेरा, मेरी पत्नी तथा मेरे पुत्रका शरीर स्वस्थ है; मैं उस शरीरको बेचकर आपका ऋण अवश्य चुका दूंगा। है विप्रवर हे प्रभो आप वाराणसी पुरीमें किसी ग्राहकका अन्वेषण कीजिये, मैं अपनी पत्नी तथा पुत्रसहित उसका दास बन जाऊँगा। हे मुने! हे भूधर ! उसके हाथों हमें बेचकर आप हमारे मूल्यसे ढाई भार सोना ले लीजिये और सन्तुष्ट हो जाइये ॥ 9-12 ॥

ऐसा कहकर राजा हरिश्चन्द्र अपनी भार्या तथा पुत्रके साथ उस काशीपुरीमें गये, जहाँ साक्षात् भगवान् शिव अपनी प्रिया उमाके साथ विराजमान रहते हैं ॥ 13 ॥

मनको आह्लादित करनेवाली उस दिव्य पुरीको देखकर उन्होंने कहा कि इस परम तेजोमयी काशीपुरीका | दर्शन पाकर मैं कृतार्थ हो गया ॥ 14 ॥

तत्पश्चात् गंगातटपर आकर स्नान करके उन्होंने देवता आदिका तर्पण किया। इसके बाद | देवताओंकी पूजासे निवृत्त होकर वे चारों ओर | घूमकर देखने लगे ॥ 15 ॥

राजा हरिश्चन्द्र उस दिव्य वाराणसीपुरीमें प्रविष्ट होकर सोचने लगे कि यह पुरी मानवोंके भोगकी वस्तु नहीं है; क्योंकि यह भगवान् शिवकी | सम्पदा है। दुःखसे अधीर होकर घबराये हुए | राजा हरिश्चन्द्र अपनी भायकि साथ पैदल ही चलते रहे। पुरीमें प्रवेश हो जानेपर राजा आश्वस्त हो | गये ।। 16-17 ।।

उसी समय उन्होंने दक्षिणाकी अभिलाषा रखनेवाले ब्राह्मणवेशधारी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रको देखा उन महामुनिको सामने उपस्थित देखकर महाराज हरिश्चन्द्र विनयावनत हो गये और दोनों हाथ जोड़कर उनसे कहने लगे-हे मुने मेरे प्राण, पुत्र तथा प्रिय पत्नी सब उपस्थित हैं। इनमेंसे जिससे भी आपकी कार्यसिद्धि हो सके, उसे आप शीघ्रतापूर्वक अभी ले लीजिये। साथ ही हे द्विजश्रेष्ठ ! हमसे आपका अन्य जो भी कार्य बन सकता हो, उसे भी आप बतानेकी कृपा करें 18-20 ॥

विश्वामित्र बोले- [हे राजन्!] आपका कल्याण हो। वह महीना पूर्ण हो गया, इसलिये यदि आपको अपने वचनका स्मरण हो तो पूर्वमें की गयी प्रतिज्ञाकी दक्षिणा चुका दीजिये ॥ 21 ॥

राजा बोले- ज्ञान और तपके बलसे सम्पन्न हे ब्रह्मन्! आज अवश्य ही महीना पूर्ण हो गया, किंतु अभी दिनका आधा भाग अवशिष्ट है। अतः आप तबतक प्रतीक्षा करें, इसके बाद नहीं ॥ 22 ॥

विश्वामित्र बोले- हे महाराज ! ऐसा ही हो, मैं पुनः आऊँगा। किंतु यदि आपने आज दक्षिणा नहीं दी, तो मैं आपको शाप दे दूँगा ॥ 23 ॥

ऐसा कहकर जब विप्ररूप विश्वामित्र चले गये, तब राजा हरिश्चन्द्र सोचने लगे कि इन विप्रदेवके लिये जिस दक्षिणाकी प्रतिज्ञा में कर चुका हूँ, उसे अब इन्हें कैसे दूँ ? ॥ 24 ॥

इस समय कहाँसे मेरे धनसम्पन्न मित्र मिल जायेंगे अथवा इतनी सम्पत्ति ही कहाँसे मिल जायगी। साथ ही किसीसे धन लेना मेरे लिये दोषकारक है. अतः धनकी याचना भी कैसे की जा सकती है ? धर्मशास्त्रोंमें राजाओंके लिये तीन प्रकारकी ही सुनिश्चित वृत्तियाँ (दान देना, विद्याध्ययन करना तथा यज्ञ करना) बतायी गयी हैं। यदि दक्षिणा दिये बिना ही प्राणत्याग कर देता हूँ तो ब्राह्मणका धन अपहरण करनेके कारण मुझ अधमसे भी अधम पापीको दूसरे जन्ममें कीड़ा होना पड़ेगा अथवा मैं प्रेतयोनिमें चला जाऊँगा । अतः अपनेको बेच डालना ही मेरे लिये श्रेयस्कर है । 25 – 27 ॥

सूतजी बोले- उस समय व्याकुल हाव | ओर मुख करके ऐसा सोचते हुए दयनीय दशाको प्राप्त राजा हरिश्चन्द्रसे उनकी पत्नी अश्रुके कारण | रुँधे कंठसे गद्गद वाणीमें कहने लगीं - ॥ 28 ॥

चिका हे महाराज! आप चिन्ता छोड़िये और अपने | धर्मका पालन कीजिये; क्योंकि सत्यसे बहिष्कृत मनुष्य प्रेतके समान त्याज्य है ॥ 29 ॥

हे हे पुरुषव्याघ्र ! अपने सत्य वचनका अनुपालनरूप जो धर्म है, उससे बढ़कर दूसरा कोई अन्य धर्म मनुष्यके लिये नहीं कहा गया है ॥ 30 ॥

जिस व्यक्तिका वचन मिथ्या हो जाय, उसके अग्निहोत्र, वेदाध्ययन, दान आदि सभी कृत्य निष्फल हो जाते हैं ॥ 31 ॥

जिस प्रकार धर्मशास्त्रोंमें पुण्यात्माओंके उद्धारके लिये सत्यपालनको विशेष कारण बताया गया है, उसी प्रकार दुराचारियोंके पतनके लिये मिथ्याको परम हेतु कहा गया है ॥ 32 ॥

सैकड़ों अश्वमेध तथा राजसूययज्ञ आदरपूर्वक करके भी मात्र एक बार मिथ्या बोल देनेके कारण एक राजाको स्वर्गसे च्युत हो जाना पड़ा था ॥ 33 ॥ राजा बोले- हे गजगामिनि ! वंशकी वृद्धि करनेवाला यह बालक पुत्र तो विद्यमान है ही, अतः | तुम जो भी बात कहना चाहती हो, उसे कहो; मैं उसे

माननेके लिये तैयार हूँ ॥ 34 ॥ पत्नी बोली- हे राजन्! आपकी वाणी असत्य नहीं होनी चाहिये। स्त्रियाँ पुत्रप्रसव कर देनेपर सफल हो जाती हैं, अतः आप मुझे बेचकर उस धनसे विप्रकी दक्षिणा चुका दें ॥ 35 ॥

व्यासजी बोले - [हे राजा जनमेजय!] पत्नीकी यह बात सुनकर राजा मूच्छित हो गये, पुनः चेतनामें आनेके बाद वे बहुत दुःखी होकर इस प्रकार विलाप करने लगे-हे भद्रे ! यह मेरे लिये महान् दुःखप्रद जो तुम मुझसे ऐसा बोल रही हो। क्या तुम्हारे है, मुसकानयुक्त वचन मुझ पापीको विस्मृत हो गये हैं ? हे शुचिस्मिते। ऐसा बोलना तुम्हारे लिये भला कैसे ठीक है ? हे भामिनि। इस प्रकारकी अप्रिय बात तुम क्यों बोल रही हो ? ।। 36-38 ॥

स्त्रीविक्रयकी बातसे अधीरताको प्राप्त नृपतिश्रेष्ठ |महाराज हरिश्चन्द्र यह कहकर पृथ्वीपर गिर पड़े और मूर्च्छासे अत्यधिक व्याकुल हो गये ॥ 39 ॥

राजाको मूर्च्छाके कारण भूमिपर पड़ा हुआ देखकर राजपुत्री अत्यन्त दुःखित हो गयीं और वे उनसे परम करुणामय वचन कहने लगीं- हे महाराज! किसके अनिष्टचिन्तनसे यह संकट आ पड़ा है, जिसके परिणामस्वरूप शरणदाता होते हुए भी आप दरिद्रकी भाँति पृथ्वीपर पड़े हैं। जिन्होंने करोड़ोंकी सम्पत्ति ब्राह्मणोंको दान कर दी, वे ही पृथ्वीनाथ मेरे पति आज पृथ्वीपर सो रहे हैं। हाय, महान् कष्ट है। हे दैव ! इन महाराजने आपका क्या कर दिया, जिसके कारण आपने इन्द्र तथा उपेन्द्रकी तुलना करनेवाले इन नरेशको इस पापमयी दशामें पहुँचा दिया है ॥ 40–43 ॥

ऐसा कहकर अपने स्वामीके असहनीय महान् दुःखके भारसे अत्यधिक सन्तप्त वे सुन्दर कटिप्रदेशवाली रानी भी मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं ॥ 44 ॥

उस समय क्षुधासे पीड़ित बालक रोहित यह देखकर अत्यन्त दुःखित होकर यह वचन कहने लगा- हे तात! हे तात! मुझे अन्न दीजिये, हे माता मुझे भोजन दीजिये इस समय मुझे अत्यधिक भूख लगी है और मेरी जिह्वाका अग्रभाग तेजीसे सूखा जा रहा है 45-46

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति