व्यासजी बोले- [ हे महाराज !] तदनन्तर शुम्भसे | ऐसा आदेश पाकर महाबली चण्ड-मुण्ड विशाल सेनाके साथ बड़े वेगसे रणभूमिकी ओर चल पड़े ॥ 1 ॥ तब देवताओंका हित करनेवाली देवीको वहाँ | युद्धभूमिमें विद्यमान देखकर वे दोनों महापराक्रमी दानव उनसे सामनीतियुक्त वचन बोले- ॥ 2 ॥ हे बाले ! क्या तुम देवताओंकी सेनाका नाश करनेवाले शुम्भ तथा इन्द्रपर विजय प्राप्त करनेके | कारण उद्धत स्वभाववाले महापराक्रमी निशुम्भको नहीं जानती हो ? ॥ 3॥
हे सुन्दरि तुम यहाँ अकेली हो हे दुर्बुद्धे ! तुम मात्र कालिका और सिंहको साथ लेकर सभी प्रकारकी | सेनाओंसे सम्पन्न शुम्भको जीतना चाहती हो ! ॥ 4॥
क्या कोई स्त्री या पुरुष तुम्हें सत्परामर्श देनेवाला नहीं है ? देवतालोग तो तुम्हारे विनाशके लिये ही तुम्हें प्रेरित कर रहे हैं ॥ 5 ॥
हे सुकुमार अंगोंवाली! तुम अपने तथा शत्रुके बलके विषय में सम्यक विचार करके ही कार्य करो। अठारह भुजाओंके कारण तुम अपनेपर व्यर्थ ही अभिमान करती हो ॥ 6 ॥
देवताओंको जीतनेवाले तथा समरभूमिमें पराक्रम दिखानेवाले शुम्भके समक्ष तुम्हारी इन बहुत-सी व्यर्थ भुजाओं तथा श्रम प्रदान करनेवाले आयुधोंसे क्या लाभ? अतः तुम ऐरावतकी सूँड़ काट डालनेवाले, हाथियोंको विदीर्ण करनेवाले और देवताओंको जीत लेनेवाले शुम्भका मनोवांछित कार्य करो ।। 7-8 ।।
हे कान्ते! तुम वृथा गर्व करती हो। हे विशालाक्षि ! तुम मेरी प्रिय बात मान लो, जो तुम्हारे लिये हितकर, सुखद तथा दुःखोंका नाश करनेवाली है ॥ 9 ॥
शास्त्रोंका तत्त्व जाननेवाले विद्वान् तथा बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि दुःख देनेवाले कार्योंका दूरसे ही त्याग कर दें और सुख प्रदान करनेवाले कार्योंका सेवन करें ॥ 10 ॥
हे कोयलके समान मधुर बोलनेवाली ! तुम तो बड़ी चतुर हो। तुम देवताओंके मर्दनसे अभ्युदयको प्राप्त तथा महान् शुम्भबलको प्रत्यक्ष देख लो। प्रत्यक्ष प्रमाणका त्याग करके अनुमानका आश्रय लेना बिलकुल व्यर्थ है। किसी सन्देहात्मक कार्यमें विद्वान् पुरुष प्रवृत्त नहीं होते ।। 11-12 ॥
शुम्भ देवताओंके महान् शत्रु हैं। वे संग्राममें अजेय हैं। इसीलिये दैत्येन्द्र शुम्भके द्वारा प्रताड़ित किये गये देवता तुम्हें युद्धके लिये प्रेरित कर रहे हैं ॥ 13 ॥
हे सुन्दर मुसकानवाली। तुम देवताओंके मधुर वचनोंसे ठग ली गयी हो। तुम्हारे प्रति देवताओंकी यह शिक्षा उनका कार्य सिद्ध करनेवाली तथा तुम्हें | दुःख प्रदान करनेवाली है ॥ 14 ॥
अपना ही कार्य साधनेमें तत्पर रहनेवाले मित्रका त्यागकर धर्ममार्गपर चलनेवाले मित्रका ही अ | करना चाहिये। देवता बड़े ही स्वार्थी है, चतुर तुमसे यह सत्य कहा है, अतः तुम देवताओं शासक, विजेता, तीनों लोकोंके स्वामी, सुन्दर, वीर और कामशास्त्रमें प्रवीण शुम्भको स्वीकार कर लो। शुम्भके अधीन रहनेसे तुम सम | लोकोंका वैभव प्राप्त करोगी। अतएव दृढ़ निश्चय | करके तुम सौन्दर्यसम्पन्न शुम्भको अपना पति बना लो ।। 15-17॥
व्यासजी बोले- चण्डकी यह बात सुनकर जगदम्बाने मेघ के समान गम्भीर ध्वनिमें गर्जन की और ये बोलीं- धूर्त भाग जाओ; तुम यह | छलयुक्त बात व्यर्थ क्यों बोल रहे हो? विष्णु शिव आदिको छोड़कर में शुम्भको अपना पति किसलिये बनाऊँ ? ।। 18-19 ।।
न तो मुझे किसीको पति बनाना है और न तो पतिसे मेरा कोई काम ही है क्योंकि जगत्के सभी प्राणियोंकी स्वामिनी मैं ही हूँ; इसे तुम सुन लो ॥ 20 ॥
मैंने हजारों-हजार शुम्भ तथा निशुम्भ देखे हैं। और पूर्वकालमें मैंने सैकड़ों दैत्यों तथा दानवोंका वध किया है ॥ 21 ॥
प्रत्येक युगमें अनेक देवसमुदाय मेरे सामने हो नष्ट हो चुके हैं। दैत्योंके समूह अब फिर विनाशको प्राप्त होंगे। दैत्योंका विनाशकारी समय अब आ ही गया है। अतएव तुम अपनी सन्ततिकी रक्षाके लिये। व्यर्थ प्रयत्न कर रहे हो ।। 22-23 ।।
हे महामते! तुम वीरधर्मकी रक्षाके लिये मेरे साथ युद्ध करो। मृत्यु तो अवश्यम्भावी है, इसे टाला नहीं जा सकता। अतः महात्मा लोगोंको यशकी रक्षा करनी चाहिये ॥ 24 ॥
दुराचारी शुम्भ तथा निशुम्भसे तुम्हारा क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? अतः अब तुम श्रेष्ठ वीरधर्मका आश्रय लेकर देवलोक स्वर्ग चले जाओ ॥ 25 ॥
अब शुम्भ, निशुम्भ तथा तुम्हारे जो अन्य | बन्धुबान्धव हैं, वे सब भी बादमें तुम्हारा अनुसरण | करते हुए वहाँ पहुँचेंगे ।। 26 ।।
मन्दात्मन् ! मैं अब क्रमशः सभी दैत्योंका संहार कर डालूंगी हे विशांपते अब विवाद त्यागो और मेरे साथ युद्ध करो ॥ 27
मैं इसी समय तुम्हारा तथा तुम्हारे भाईका वध कर दूँगी। तत्पश्चात् शुम्भ, निशुम्भ, मदोन्मत्त रक्तबीज तथा अन्य दानवोंको रणभूमिमें मारकर मैं अपने धामको चली जाऊँगी। अब तुम यहाँ ठहरो अथवा | शीघ्र भाग जाओ ॥ 28-29 ।।
व्यर्थ ही स्थूल शरीर धारण करनेवाले हे दैत्य! तुरंत शस्त्र उठा लो और मेरे साथ अभी युद्ध करो। कायरोंको सदा प्रिय लगनेवाली व्यर्थ बातें क्यों बोल रहे हो ? ॥ 30 ॥
व्यासजी बोले- देवीके इस प्रकार उत्तेजित करनेपर दैत्य चण्ड-मुण्ड क्रोधसे भर उठे और अपने बलके अभिमानमें चूर उन दोनोंने वेगपूर्वक अपने धनुषकी प्रत्यंचाकी भीषण टंकार की ॥ 31 ॥
उसी समय दसों दिशाओंको गुंजित करती हुई भगवतीने भी शंखनाद किया और बलवान् सिंहने भी कुपित होकर गर्जन किया। उस गर्जनसे इन्द्र आदि देवता, मुनि, यक्ष, गन्धर्व, सिद्ध, साध्य और किन्नर बहुत हर्षित हुए 32-33 ॥
तदनन्तर चण्डिका और चण्डमें परस्पर बाण, तलवार, गदा आदिके द्वारा भीषण संग्राम होने लगा; जो कायरोंके लिये भयदायक था ||34||
चण्डिकाने दैा चण्डके द्वारा छोड़े गये बाणोंको अपने तीक्ष्ण बाणोंसे काट दिया और फिर वे चण्डपर अपने सर्पसदृश भयंकर बाण छोड़ने लगीं ॥ 35 ॥ उस समय संग्राममें आकाशमण्डल बाणोंसे उसी प्रकार आच्छादित हो गया, जैसे वर्षाऋतुके अन्तमें किसानोंको भय प्रदान करनेवाली टिड्डियोंसे आकाश छा जाता है ॥ 36 ॥
उसी समय अतीव भयंकर मुण्ड भी सैनिकोंके साथ बड़ी तेजीसे रणभूमिमें आ पहुँचा और क्रोधित होकर बाणोंकी वर्षा करने लगा 37 ॥
तब [मुण्डके द्वारा प्रक्षिप्त ] महान् बाण समूहको देखकर अम्बिका बहुत कुपित हुई। क्रोके कारण उनका मुख मेघके समान काला, आँखें केलेके पुष्पके समान लाल और भौंहें टेढ़ी हो गयीं ॥ 383 ॥
उसी समय देवीके ललाटपटलसे सहसा भगवती काली प्रकट हुई। अत्यन्त क्रूर वे कालो व्याघ्रचर्म पहने थीं और गजचर्मके उत्तरीय वस्त्रोंसे सुशोभित थीं। उन भयानक कालीने गलेमें मुण्डमाला धारण कर रखी थी और उनका उदर सूखी बावलीक समान प्रतीत हो रहा था। अत्यन्त भाषण तथा भय | प्रदान करनेवाली वे भगवती काली हाथमे खड्ग, पाश तथा खट्वांग धारण किये हुई थीं। रौद्र रूपवाली वे काली साक्षात् दूसरी कालरात्रिके समान प्रतीत हो रही थीं ॥ 39-41 ॥
विशाल मुख तथा विस्तृत जघनप्रदेशवाली वे भगवती काली बार-बार जिह्वा लपलपाती हुई बड़े वेगसे असुर सैनिकोंका संहार करने लगीं ॥ 42 ॥
वे कुपित होकर बड़े-बड़े दैवीरोंको पकड़कर अपने मुखमें डाल लेती थीं और धीरे-धीरे उन्हें दाँतोंसे पीस डालती थीं ॥ 43 ॥
घंटा तथा आरोहियोंसमेत हाथियोंको अपने हाथमें पकड़कर वे देवी उन्हें मुखमें डाल लेती थीं और उन्हें चबा-चबाकर अट्टहास करने लगती थीं। उसी प्रकार वे घोड़ों, ऊँटों और सारथियोंसहित रथोंको अपने मुखमें डालकर दाँतोंसे अत्यन्त भयानक | रूपसे चबाने लगती थीं ।। 44-45 ।।
अपनी सेनाको मारे जाते देखकर महान् असुर चण्ड-मुण्डने निरन्तर बाण आच्छादित कर दिया ।। 46 ।। - वृष्टिके द्वारा भगवतीको
चण्डने सूर्यके समान तेजस्वी तथा भगवान् विष्णुके सुदर्शनचक्रके तुल्य प्रभाववाला चक्र बड़े वेगसे देवीपर चला दिया और वह बार-बार गरजने लगा ।। 47 ।।
उसे गर्जन करते देखकर कालीने अपने एक ही बाणसे उसके सूर्य-तुल्य तेजस्वी तथा सुदर्शनचक्र सदृश प्रभावाले चक्रको काट डाला ॥ 48 ॥
तत्पश्चात् भगवती चण्डिकाने पत्थरकी सानपर चढ़ाये हुए अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उस चण्डपर प्रहार | किया। देवीके बाणोंसे अत्यधिक घायल होकर वह | मूच्छित हो गया और पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ 49 ॥
उस समय अपने भाईको पृथ्वीपर गिरा हुआ | देखकर मुण्ड दुःखसे व्याकुल हो उठा और कुपित होकर कालिकाके ऊपर बाणोंकी वर्षा करने लगा ॥ 50
भगवती चण्डिकाने मुण्डके द्वारा की गयी अत्यन्त भीषण बाणवर्षाको अपने द्वारा छोड़े गये ईपिकास्वोंसे बलपूर्वक तिल-तिल करके क्षणभरमें ही नष्ट कर डाला ॥ 51 ॥
तत्पश्चात् चण्डिकाने एक अर्धचन्द्राकार बाणसे मुण्डपर पुनः प्रहार किया, जिससे वह महाशक्तिशाली दैत्य मदहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ 52 ॥
[ यह देखकर] उस समय दानवोंकी सेनामें महान् हाहाकार मच गया। आकाशमें विद्यमान सभी देवताओंकी व्यथा दूर हो गयी और वे हर्षसे भर उठे 53 ॥
इसके बाद कुछ देरमें मूर्च्छा दूर होनेपर चण्डने एक विशाल गदा लेकर बड़े वेगसे कालिकाकी दाहिनी भुजापर प्रहार किया ||54||
भगवती कालिकाने उसके गदाप्रहारको रोककर अभिमन्त्रित करके छोड़े गये वाण पाशसे उस महान् असुरको शीघ्र ही बाँध लिया || 55 ||
उधर जब मुण्ड चेतनामें आया तब अपने अनुजको पाशास्त्रमें बलपूर्वक बँधा देखकर कवच पहने हुए वह अपने हाथमें एक सुदृढ़ शक्ति लेकर आ गया ॥ 56 तब भगवती कालीने उस दूसरे भाई दानव मुण्डको बड़े वेग से अपनी ओर आता हुआ देखकर उसे भी बड़ी मजबूतीसे बाँध लिया ॥ 57 ॥
इस प्रकार महाबली चण्ड-मुण्डको खरगोशकी तरह पकड़कर जोर-जोरसे हँसती हुई वे कालिका अम्बिकाके पास जा पहुँची। उनके पास आकर कालिका कहने लगीं-हे प्रिये! मैं रणयज्ञमें पशुबलिके लिये इन रणदुर्जय दानवोंको यहाँ ले आयी हूँ, आप इन्हें स्वीकार करें ।। 58-59 ।।
तब उन लाये गये दोनों दानवोंको भेड़ियेकी तरह दीन-हीन देखकर भगवती अम्बिकाने कालिकासे मधुरताभरी वाणीमें कहा-हे रणप्रिये। न इनका वध करो और न छोड़ो ही तुम चतुर हो अतः किसी उपायसे अब तुम्हें शीघ्र ही देवताओंका कार्य सिद्ध करना चाहिये ।। 60-61 ॥
व्यासजी बोले- अम्बिकाकी यह बात सुनकर कालिकाने उनसे पुनः कहा- जिस प्रकार यज्ञभूमि यूप स्थापित किये जाते हैं, उसी प्रकार विख्यात युद्धयज्ञमें बलिदान-स्तम्भके रूपमें प्रतिष्ठित खड्गके | द्वारा मैं आलम्भनपूर्वक इस तरह इनका वध करूंगी जिससे हिंसा नहीं होगी ॥ 623 ॥
ऐसा कहकर देवी कालिकाने तुरंत तलवार से उन दोनोंका सिर काट लिया और वे आनन्दपूर्वक रुधिरपान करने लगीं ॥ 633 ॥
इस प्रकार उन दोनों दैत्योंको मारा गया देखकर अम्बिकाने प्रसन्न होकर कहा- तुमने आज देवताओंका महान् कार्य किया है इसीलिये मैं तुम्हें एक शुभ वरदान दे रही हूँ। हे कालिके! चूँकि तुमने चण्ड-मुण्डका वध किया है, इसलिये अब तुम इस पृथ्वीलोकमें 'चामुण्डा'-इस नामसे अत्यधिक विख्यात होओगी ।। 64-65 ॥