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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 26 - Skand 7, Adhyay 26

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रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना

सूतजी बोले- तत्पश्चात् राजा हरिश्चन्द्र नीचेकी ओर मुख करके रानीसे कहने लगे- हे बाले! मुझ पापीके सामने यहाँ आकर बैठ जाओ। यदि मेरा हाथ मारनेमें समर्थ हो सका तो मैं तुम्हारा सिर काट लूँगा ॥ 13 ॥

ऐसा कहकर हाथमें तलवार लेकर रानीको मारनेके लिये राजा हरिश्चन्द्र उनकी ओर गये । उस समय राजा न तो अपनी पत्नीको पहचान रहे थे और न तो रानी राजाको ही पहचान रही थीं। तब अत्यन्त दुःखसे पीड़ित रानी अपनी मृत्युकी इच्छा रखती हुई कहने लगीं ॥2-3॥

स्त्रीने कहा- हे चाण्डाल ! यदि तुम थोड़ा भी उचित समझते हो तो मेरी बात सुनो। इस नगरसे बाहर थोड़ी ही दूरीपर मेरा पुत्र मृत पड़ा है। मैं जबतक उस बालकको आपके पास लाकर उसका दाह न कर दूँ, तबतकके लिये मेरी प्रतीक्षा कीजिये, इसके बाद मुझे तलवारसे मार डालियेगा ॥ 4-5 ॥

'बहुत अच्छा' ऐसा कहकर उसने रानीको बालकके पास भेज दिया। वे अत्यन्त शोकसे सन्तप्त होकर करुण विलाप करती हुई वहाँसे चली गयीं ॥ 6 ॥

उन राजा हरिश्चन्द्रकी भार्या 'हा पुत्र! हा वत्स! हा शिशो!' ऐसा बार-बार कहती हुई सर्पसे हँसे हुए उस बालकको लेकर तुरंत श्मशानभूमिमें आकर उसे जमीनपर लिटाकर स्वयं बैठ गयी। उस समय उनका शरीर दुर्बल हो गया था, उनका वर्ण विकृत था, उनका शरीर मलिन था और सिरके बाल धूलसे धूमिल हो गये थे ॥ 7-8 ॥

[रानी यह कहकर विलाप कर रही थी] हे राजन्! अपने मित्रोंके साथ खेलते समय क्रूर सर्पके द्वारा डँस लिये जानेसे मरे हुए पुत्रको आज आप पृथ्वीतलपर पड़ा हुआ देख लीजिये। तब उनके रुदनकी वह ध्वनि सुनकर राजा हरिश्चन्द्र शवके समीप आये और उन्होंने उसके ऊपरका वस्त्र हटाया। दीर्घ समयसे प्रवास सम्बन्धी दुःख भोगनेके कारण दूसरे स्वरूपमें परिणत उन विलाप करती हुई अपनी अबला भार्याको उस समय राजा नहीं पहचान सके पहले सुन्दर केशोंवाले उन नृपश्रेष्ठको अब जटाधारीके रूपमें तथा शुष्क वृक्षकी छाल सदृश देखकर वे रानी भी उन्हें नहीं पहचान पायीं ॥ 9-11 ॥

सर्पके विषसे ग्रस्त होकर धरतीपर पड़े हुए बालकको देखकर वे महाराज हरिश्चन्द्र उसके राजोचित लक्षणोंपर विचार करने लगे-इसका मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाके सदृश है इसकी नासिका अत्यन्त सुन्दर, उन्नत तथा व्रणरहित है और इसके दर्पण के | समान चमकीले तथा ऊँचे दोनों कपोल अनुपम शोभा दे रहे हैं। इसके केश कृष्णवर्ण, पराले अग्रभागवाले स्निग्ध, लम्बे तथा लहरोंके समान हैं। इसके दोनों नेत्र कमलके समान हैं। इसके दोनों ओठ बिम्बाफलके | सदृश हैं। यह बालक चौड़े वक्ष:स्थल, विशाल नेत्र, सम्बी भुजाओं और ऊँचे स्कन्धोंवाला है। इसके बड़े-बड़े पैर हैं, इसकी छोटी-छोटी अँगुलियाँ हैं और | यह गम्भीर स्वभाववाला कोई राजलक्षणयुक्त बालक जान पड़ता है। यह कमलनाल-सदृश चरणोंवाला, गहरी नाभिवाला और ऊँचे कन्धोंवाला है। अहो, महान् कष्टकी बात है कि किसी राजाके कुलमें उत्पन्न हुए इस बालकको दुरात्मा यमराजने अपने कालपाश में बाँध लिया ॥ 12-166 ॥

सूतजी बोले- माताकी गोदमें पड़े हुए उस बालकको देखकर ऐसा विचार करनेके उपरान्त राजा हरिश्चन्द्रको पूर्वकालकी स्मृति हो आयी और वे 'हाय, हाय'- ऐसा कहकर अश्रुपात करने लगे। वे कहने लगे कि 'कहीं मेरे ही पुत्रकी यह दशा तो नहीं हो गयी है और क्रूर यमराजने उसे अपने अधीन कर लिया है', इस प्रकार विचार करके वे राजा हरिश्चन्द्र कुछ समयके लिये ठहर गये। तत्पश्चात् अत्यन्त शोक सन्तप्त रानी ऐसा कहने लगीं ॥। 17-193 ॥

रानी बोलीं- हा वत्स! किस पाप या अनिष्ट चिन्तनके परिणामस्वरूप यह महान् दारुण दुःख मेरे सामने आ पड़ा है ? इसका कारण भी समझमें नहीं आ रहा है। हे नाथ! हे राजन्! मुझ अत्यन्त दुःखिनीको छोड़कर इस समय आप किस स्थानपर विद्यमान हैं? आप किस कारणसे निश्चिन्त हैं ? राजर्षि हरिश्चन्द्रको राज्यसे हाथ धोना पड़ा, उनके सुहृदवर्ग अलग हो गये और उन्हें भार्या तथा पुत्रतकको बेच देना पड़ा। हा विधाता! तुमने यह क्या कर दिया ? 20-226 ॥

तब रानीकी यह बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र अपने स्थानसे उठकर उनके समीप आ गये। तत्पश्चात् अपनी साध्वी पत्नी तथा मृत पुत्रको पहचानकर वे कहने लगे-'महानू कष्ट है कि यह स्त्री मेरी ही पत्नी है और यह बालक भी मेरा ही पुत्र है ।। 23-24 ॥

यह सब जानकर असीम दुःखसे सन्तप्त राजा हरिश्चन्द्र मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े और वे रानी भी उन्हें पहचानकर उसी स्थितिको प्राप्त हो गर्यो ये दुःखके मारे मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं और उनकी समस्त इन्द्रियाँ चेष्टारहित हो गयीं। पुन: कुछ समय बाद चेतना आनेपर शोकके भारसे पीडित राजा और रानी दोनों अत्यन्त दुःखित होकर एक साथ विलाप करने लगे 25-263 ॥

राजा बोले- हा वत्स! कुंचित अलकावली से घिरा हुआ तुम्हारा मुख बड़ा ही सुकुमार है। तुम्हारे दीन मुखको देखकर मेरा हृदय विदीर्ण क्यों नहीं हो जाता? पहले तुम 'तात, तात' - ऐसा मधुर वाणीमें बोलते हुए मेरे पास स्वयं आ जाते थे, किंतु अब मैं तुम्हें बाहोंमें भरकर 'वत्स, वत्स'-ऐसा प्रेमपूर्वक कब पुकारूँगा ? अब भूमिकी पीतवर्णवाली धूलसे सने हुए किसके घुटने मेरी चादर, गोद और शरीरके अंगोंको मलिन करेंगे ? हे हृदयनन्दन ! मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं हो सका; (क्योंकि जिसने सामान्य वस्तुकी भाँति तुम्हें बेच दिया था, उसी पितासे तुम पितावाले बने थे।) बहुतसे बन्धु बान्धवों तथा अपार धन सहित मेरा सम्पूर्ण राज्य चला गया। (आज दुर्भाग्यके कारण मुझ निर्दयीको अपना ही पुत्र दिखायी पड़ गया।) विषधर सर्पके द्वारा डँसे गये पुत्रके कमलसदृश मुखको देखता हुआ मैं इस समय स्वयं भीषण विषसे ग्रस्त हो गया हूँ ॥ 27-313॥

इस प्रकार विलाप करके आँसूसे भरे हुए कण्ठवाले राजा हरिश्चन्द्रने उस बालकको उठा लिया और वे उसे वक्षःस्थलसे लगाकर मूर्च्छासे अचेत होकर गिर पड़े ॥ 323 ॥

तदनन्तर पृथ्वीपर गिरे हुए उन राजाको देखकर रानी शैव्याने मनमें ऐसा सोचा कि पुरुषोंमें श्रेष्ठ ये | महानुभाव तो अपने स्वरसे ही पहचानमें आ जाते हैं। इसमें अब कोई सन्देह नहीं कि ये विद्वानोंके मनको प्रसन्न करनेवाले चन्द्रमारूपी हरिश्चन्द्र ही हैं। इन परम यशस्वी महात्मा पुरुषकी सुन्दर तथा ऊँची नासिका तिलके पुष्पके समान शुभ है और इनके दाँत | पुष्पोंकी अधखिली कलियोंकी भाँति प्रतीत हो रहे हैं। इस प्रकार यदि ये वे ही राजा हरिश्चन्द्र हैं, तो इस श्मशानपर वे कैसे आ गये ? ॥ 33-356 ॥

अब पुत्र-शोकका त्याग करके वे रानी भूमिपर गिरे हुए अपने पतिको देखने लगीं। उस समय पति और पुत्र दोनोंके दुःखसे पीडित असहाय उन रानीके मनमें विस्मय और हर्ष- दोनों उत्पन्न हो उठे। राजाको देखती हुई वे सहसा मूच्छित होकर पृथ्वीतलपर गिर पड़ीं और धीरे-धीरे चेतनामें आनेपर गद्गद वाणीमें कहने लगीं- अरे दयाहीन, मर्यादारहित तथा निन्दनीय दैव! तुम्हें धिक्कार है, जो कि तुमने देवतुल्य इन नरेशको चाण्डाल बना दिया। इनका राज्य नष्ट हो गया, इनके बन्धु बान्धव इनसे अलग हो गये और इन्हें अपनी पत्नी तथा पुत्रतक बेचने पड़े, ऐसी स्थितिमें पहुँचानेके बाद भी तुमने इन्हें चाण्डाल | बना दिया ॥ 36-393 ।।

[हे राजन्!] आज मैं आपके छत्र, सिंहासन, चामर अथवा व्यजन - कुछ भी नहीं देख रही हूँ; विधाताकी यह कैसी विडम्बना है । 40 3 ॥

पहले जिनके यात्रा करते समय राजालोग भी सेवाकार्यमें लग जाते थे और अपने उत्तरीय वस्त्रोंसे धूलयुक्त भूमिमार्गको स्वच्छ करते थे, वे ही ये महाराज इस समय दुःखसे व्यथित होकर अपवित्र श्मशानमें भटक रहे हैं; जहाँ सर्वत्र खोपड़ियाँ बिखरी पड़ी हैं, फूटे हुए घड़े तथा फटे वस्त्र पड़े हैं, जो मृतकोंके शरीरसे उतारे गये सूत्र तथा उनमें लगे हुए केशसे अत्यन्त भयंकर लगता है, जहाँकी भूमि शुष्क पर्मियोंकी विशाल स्थिर राशिसे पटी पड़ी है, जो भस्म, अंगारों, अधजली हड्डियों और मज्जाओंके समूहसे अति भीषण दिखायी पड़ता है, जहाँ गीध और सियार सदा बोलते रहते हैं, जहाँ क्षुद्र जातिके हृष्ट-पुष्ट पक्षी मँडराते रहते हैं, जहाँकी सभी दिशाएँ चितासे निकले धुएँरूपी मेघसे अन्धकारयुक्त रहती हैं और जहाँपर शवोंके मांसको खाकर प्रसन्नतासे युक्त निशाचर दृष्टिगोचर हो रहे हैं । 41-453 ।।

ऐसा कहकर दुःख तथा शोकसे सन्तप्त रानी शैव्या राजाके कण्ठसे लिपटकर कातर वाणीमें | विलाप करने लगी- हे राजन्! यह स्वप्न है अथवा सत्य, जिसे आप मान रहे हैं। हे महाभाग ! यह आप स्पष्ट बतायें; क्योंकि मेरा मन व्याकुल हो रहा है। हे धर्मज्ञ ! यदि ऐसा ही है तो धर्ममें, सत्यपालनमें, ब्राह्मण और देवता आदिके पूजनमें सहायता करनेकी शक्ति विद्यमान नहीं है। जब आप जैसे धर्मपरायण पुरुषको अपने राज्यसे च्युत होना पड़ा तो फिर धर्म, सत्य, सरलता और अनृशंसता (अहिंसा) का कोई | महत्त्व ही नहीं रहा । 46 – 493 ।।

सूतजी बोले- उनका यह वचन सुनकर जिस प्रकार राजाने उष्ण श्वास छोड़कर थे कण्ठसे उन कृ शरीरवाली शैव्यासे वह सब कुछ बताया, उन्हें चाण्डालत्व प्राप्त हुआ था। इसके बाद वह | वृत्तान्त सुनकर रानी अत्यन्त दुःखित होकर बहुत देरतक रोती रहीं; फिर उष्ण श्वास छोड़कर उन्होंने भीस्तापूर्वक अपने पुत्रके मरणसम्बन्धी वृत्तान्तका यथावत् वर्णन राजासे कर दिया। वह वृत्तान्त सुनते ही राजा पृथ्वीपर गिर पड़े और फिर उठकर मृतपुत्रको बाहोंमें लेकर बार-बार जिह्वासे उसके मुखका स्पर्श करने लगे ॥ 50-523 ॥

तत्पश्चात् शैव्याने हरिश्चन्द्रसे गद्गद वाणीमें कहा-अब आप मेरा सिर काटकर अपने स्वामीकी आज्ञाका पालन कीजिये, जिससे आपको स्वामिद्रोहका दोष न लगे और आप सत्यसे च्युत न हों। हे राजेन्द्र ! आपकी वाणी असत्य नहीं होनी चाहिये और दूसरोंके प्रति द्रोह भी महान् पाप है ।। 53-543 ॥

यह सुनते ही राजा हरिश्चन्द्रमूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। थोड़ी ही देरमें स होनेपर वे अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगे ॥ 553 ॥

राजा बोले- हे प्रिये! तुमने ऐसा अतिनिष्ठुर वचन कैसे कह दिया ? जो बात कही नहीं जा सकती, उसे कार्यरूपमें कैसे परिणत किया जाय ? 563

पत्नीने कहा- हे प्रभो! मैंने भगवती गौरीकी उपासना की है और उसी प्रकार मैंने देवताओं तथा ब्राह्मणोंकी भी भलीभाँति पूजा की है। उनके आशीर्वादसे आप अगले जन्म में भी मेरे पति होंगे ॥ 573 ॥

रानीकी यह बात सुनकर राजा भूमिपर गिर पड़े और दुःखित होकर अपने मरे हुए पुत्रका मुख चूमने लगे ॥ 583 ॥

राजा बोले- हे प्रिये! अब दीर्घ समयतक इस | प्रकारका कष्ट भोगना मुझे अभीष्ट नहीं है। अब मैं अपने शरीरको स्वयं बचाये रखने में समर्थ नहीं हूँ। हे तन्वंगि। मेरी मन्दभाग्यताको तो देखो कि यदि मैं

1) इस चाण्डालसे बिना आज्ञा लिये ही आगमें जल जाऊँ तो अगले जन्म में मुझे फिर चाण्डालकी दासता करनी पड़ेगी और मैं घोर नरकमें पड़कर भयंकर यातना भोगूँगा । इतना ही नहीं, महारौरव नरकमें भी गिरकर अनेक प्रकारके संताप सहने पड़ेंगे, फिर भी दुःखरूपी सागरमें डूबे हुए मुझ अभागेका अब प्राण त्याग देना ही श्रेयस्कर है । 59-62 ॥

वंशकी वृद्धि करनेवाला मेरा जो यह एकमात्र पुत्र था, वह भी आज बलवान् दैवके प्रकोपसे मर गया। इस प्रकारकी दुर्गतिको प्राप्त हुआ मैं पराधीन होनेके कारण प्राणोंका त्याग कैसे करूँ? फिर भी इस असीम दुःखसे ऊबकर अब मैं अपना शरीर त्याग ही दूँगा ।। 63-64 ।।

तीनों लोकोंमें, असिपत्रवनमें और वैतरणीनदीमें वैसा क्लेश नहीं है; जैसा पुत्रशोकमें है। अतः हे तन्वंगि! मैं पुत्र- देहके साथ प्रज्वलित अग्निमें स्वयं भी कूद पडूंगा, इसके लिये तुम मुझे क्षमा करना ।। 65-66 ॥

हे कमललोचने! पुनः कुछ भी मत कहना। हे तन्वंगि! सन्तप्त मनवाली तुम मेरी बात सुन लो। हे पवित्र मुसकानवाली प्रिये! अब तुम मेरी आज्ञाके अनुसार ब्राह्मणके घर जाओ। यदि मैंने दान किया है, हवन किया है और सेवा आदिसे गुरुजनोंको सन्तुष्ट किया है तो उसके फलस्वरूप परलोकमें तुम्हारे साथ और अपने इस पुत्रके साथ मेरा मिलन अवश्य होगा। इस लोकमें अभिलषित मिलन अब कहाँसे होगा ? ।। 67-69 ॥

हे शुचिस्मिते! अब यहाँसे प्रस्थान करते हुए मेरेद्वारा एकान्तमें हँसीके रूपमें जो कुछ भी अनुचित वचन तुम्हें कहा गया हो, उन सबको तुम क्षमा कर देना हे शुभे। 'मैं राजाकी पत्नी हूँ'- ऐसा सोचकर अभिमानपूर्वक तुम्हें मेरे उस ब्राह्मणकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये; क्योंकि स्वामीको | देवतुल्य समझकर पूर्ण प्रयत्नके साथ उन्हें सन्तुष्ट रखना चाहिये ।। 70-71 ॥

रानी बोली- हे राजर्षे! हे देव! अत्यधिक दुःखके भारको सहन करनेमें असमर्थ मैं भी इस आगमें कूद पड़ेंगी और आपके साथ ही चलूँगी। हे मानद ! आपके साथ जानेमें मेरा परम कल्याण है, इसमें सन्देह नहीं है। आपके साथ रहकर मैं स्वर्ग और नरक — सबकुछ भोगूँगी। यह सुनकर राजा | बोले- हे पतिव्रते ! ऐसा ही हो ।। 72-73 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति