View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 27 - Skand 7, Adhyay 27

Previous Page 185 of 326 Next

चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय

सूतजी बोले- तत्पश्चात् राजा हरिश्चन्द्रने चिता तैयार करके उसपर अपने पुत्रको लिटा दिया और भार्यासहित दोनों हाथ जोड़कर वे शताक्षी (सौ नेत्रावाली) परमेश्वरी, जगत्की अधिष्ठात्री, पंचकोशके भीतर सदा विराजमान रहनेवाली, पुच्छब्रह्मस्वरूपिणी, रक्तवर्णका वस्त्र धारण करनेवाली, करुणारसकी सागरस्वरूपा, अनेक प्रकारके आयुध धारण करनेवाली और जगत्की रक्षा करने में निरन्तर तत्पर जगदम्बाका ध्यान करने लगे ॥ 1-3 ॥

इस प्रकार ध्यानमग्न उन राजा हरिश्चन्द्रके समक्ष इन्द्रसहित सभी देवता धर्मको आगे करके तुरन्त उपस्थित हुए ॥ 4 ॥

वहाँ आकर उन सबने कहा- हे राजन्! हे महाप्रभो! सुनिये, [ब्रह्माने कहा-] मैं साक्षात् पितामह ब्रह्मा हूँ और ये स्वयं भगवान् धर्मदेव हैं; इसी प्रकार साध्यगण, विश्वेदेव, मरुद्गण, चारणोंसहित लोकपाल, नाग, सिद्ध, गन्धर्वोके साथ रुद्रगण, दोनों अश्विनीकुमार, महर्षि विश्वामित्र तथा अन्य ये बहुतसे देवता भी यहाँ उपस्थित हैं। जो धर्मपूर्वक तीनों लोककि साथ मित्रता करनेकी इच्छा रखते हैं, वे विश्वामित्र सम्यक् प्रकारसे आपका अभीष्ट सिद्ध करनेकी अभिलाषा प्रकट कर रहे हैं।। 5-73 ॥

धर्म बोले- हे राजन्! आप ऐसा साहस मत कीजिये । आपमें जो सहनशीलता, इन्द्रियोंपर नियन्त्रण रखनेकी शक्ति तथा सत्त्व आदि गुण विद्यमान हैं; उनसे परम सन्तुष्ट होकर मैं साक्षात् धर्म आपके पास आया हूँ ॥ 8 ॥

इन्द्र बोले- हे महाभाग हरिश्चन्द्र में इन्द्र आपके समक्ष उपस्थित हूँ। हे राजन्! आज स्त्री पुत्रसहित आपने सनातन लोकोंपर विजय प्राप्त कर ली है । अतः अब आप अपनी भार्या तथा पुत्रको साथमें लेकर अपने श्रेष्ठ कर्मोंके द्वारा प्राप्त करनेयोग्य तथा अन्य लोगोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ स्वर्गके लिये प्रस्थान कीजिये ॥ 9-10 ॥

सूतजी बोले- तत्पश्चात् इन्द्रने आकाशसे चिताके मध्यभागमें सोये हुए शिशु रोहितपर अपमृत्युका नाश करनेवाली अमृतमयी वृष्टि आरम्भ कर दी। उस समय पुष्पोंकी विपुल वर्षा तथा दुन्दुभियोंकी तेज ध्वनि होने लगी ॥ 11-12 ॥

महान् आत्मावाले उन राजा हरिश्चन्द्रके सुकुमार अंगोंवाले मृत पुत्र रोहित स्वस्थ, प्रसन्न तथा आनन्दचित्त हो गये। तब राजाने अपने पुत्रको हृदयसे लगा लिया। तत्पश्चात् पत्नीसहित वे राजा हरिश्चन्द्र दिव्य मालाओं तथा वस्त्रोंसे सहसा अलंकृत हो गये। उनके मनमें शान्ति छा गयी, उनके हृदय हर्षसे भर गये और वे परम आनन्दसे समन्वित हो गये। उस समय इन्द्रने राजासे कहा- हे महाभाग ! अब आप स्त्री- पुत्रसहित स्वर्गलोकके लिये प्रस्थान कीजिये । आपने परम सद्गति प्राप्त की है, यह आपके अपने ही कर्मोंका फल है ॥ 13 - 16 ॥

हरिश्चन्द्र बोले—हे देवराज अपने स्वामी चाण्डालसे बिना आज्ञा प्राप्त किये और बिना उनका प्रत्युपकार किये, मैं स्वर्गलोक नहीं जाऊँगा ॥ 17 ॥

धर्म बोले- आपके भावी क्लेशके सम्बन्धमें विचार करके मैं ही अपनी मायाके प्रभावसे चाण्डाल बन गया था। आपको जो चाण्डालका घर दिखायी पड़ा था, वह भी मेरी माया ही थी ॥ 18 ॥

इन्द्र बोले- हे हरिश्चन्द्र! पृथ्वीपर रहनेवाले मनुष्य जिस श्रेष्ठ स्थानकी प्राप्तिहेतु कामना करते हैं, पुण्यात्मा पुरुषोंके उस पवित्र स्थानके लिये अब आप प्रस्थान कीजिये ॥ 19 ॥

हरिश्चन्द्र बोले- हे देवराज! आपको नमस्कार " है। अब मेरी एक बात सुन लीजिये अयोध्या नगरमें रहनेवाले सभी मानव मेरे शोकसे सन्तप्त मनवाले हैं, उन्हें यहाँ छोड़कर मैं स्वर्ग कैसे जाऊँगा ? ब्रह्महत्या, सुरापान, गोवध और स्त्रीहत्या जैसे महापातकोंके ही समान अपने भक्तोंका त्याग भी महान् पाप बताया गया है। श्रद्धालु भक्त त्याज्य नहीं होता है, उसे त्यागनेवालेको सुख भला कैसे मिल सकता है? अतएव हे इन्द्र ! उन्हें छोड़कर मैं स्वर्ग नहीं जाऊँगा, अब आप स्वर्ग प्रस्थान करें। हे सुरेन्द्र! यदि मेरे साथ वे भी स्वर्ग चलें तो मैं स्वर्ग चल सकता हूँ। उनके साथ यदि नरकमें जाना हो तो मैं वहाँ भी चला
जाऊँगा ॥ 20-233 ॥

इन्द्र बोले- हे राजन्! उन अयोध्या के नागरिकोंके भिन्न-भिन्न प्रकारके पुण्य और पाप हैं। हे भूप! समस्त जन-समूहके लिये स्वर्ग उपभोगका साधन हो जाय-ऐसी इच्छा आप क्यों प्रकट कर | रहे हैं ? ॥ 24 ॥

हरिश्चन्द्र बोले- हे इन्द्र प्रजाके प्रभावसे ही राजा राज्यका भोग करता है, यह सुनिश्चित है और उन्होंकी सहायतासे ही राजा बड़े-बड़े यहाँके द्वारा देवताओंकी उपासना करता है और पूर्वकर्म (कुएँ तालाब आदिका निर्माण) करता है। मैंने भी उन्हींके बलपर यह सब कृत्य किया है। उनके द्वारा की गयी सहायताके कारण मैं स्वर्गके लोभसे उनका त्याग नहीं करूँगा। अतः हे देवेश! मैंने जो कुछ भी उत्तम कार्य किया हो; दान, यज्ञ और जप आदि किया हो, उसका फल हमें उन सभीके साथ प्राप्त हो; और मेरे उत्तम कर्मके फलस्वरूप बहुत समयतक भोग करनेका जो फल मिल रहा हो, वह भले ही एक दिनके लिये हो, उन नागरिकोंके साथ भोगने के लिये मुझे आपकी कृपासे मिल | जाय ॥ 25-283 ॥

सूतजी बोले- त्रिलोकीके स्वामी इन्द्रने 'ऐसा ही होगा - इस प्रकार कहा। इससे धर्म और गाधिपुत्र विश्वामित्रके मनमें प्रसन्नता छा गयी। 1 तदनन्तर वे सभी लोग चारों वर्णोंके लोगोंसे भरी हुई अयोध्या नगरीमें पहुँचे । वहाँपर सुरपति इन्द्रने राजा हरिश्चन्द्रके सन्निकट आकर कहा-हे नागरिको! अब आप सभी लोग परम दुर्लभ स्वर्गलोक चलिये। धर्मके फलस्वरूप ही आप सभीको यह स्वर्ग सुलभ हुआ है ।। 29-313 ॥

तत्पश्चात् धर्मपरायण राजा हरिश्चन्द्रने उन सभी नगरवासियोंसे कहा कि आप सभी लोग मेरे साथ स्वर्गलोक प्रस्थान कीजिये 323 ॥

सूतजी बोले- देवराज इन्द्र तथा राजा हरिश्चन्द्रका वचन सुनकर सभी नागरिक प्रफुल्लित हो उठे। जो नागरिक सांसारिकतासे विरक्त हो चुके थे, वे गृहस्थीका भार अपने पुत्रोंको सौंपकर प्रसन्न मनसे स्वर्ग जानेके लिये तैयार हो गये। वे सभी लोग उत्तम विमानोंपर चढ़ गये उनके शरीरसे सूर्यके समान तेज निकलने लगा। उस समय वे परम आनन्दित हो गये उदार चित्तवाले राजा हरिश्चन्द्र भी हृष्ट-पुष्ट नागरिकोंसे युक्त अयोध्या नामक रमणीक पुरोमें अपने रोहित नामसे प्रसिद्ध पुत्रका राज्याभिषेक करके अपने पुत्र तथा सुहृदोंका सम्मान पूजन करके और पुण्यसे प्राप्त होनेवाली तथा देवता आदिके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ महान् कीर्तिको प्राप्त करके छोटी-छोटी पण्टियोंसे सुशोभित तथा इच्छाके अनुसार चलनेवाले विमानपर बैठ गये । 33-38 ॥

यह सब देखकर दैत्योंकि आचार्य एवं सभी शस्त्रकि
अर्थों तथा तत्त्वोंको जाननेवाले महाभाग शुक्राचार्यने
यह श्लोकरूपी मन्त्र उच्चारित किया- ॥ 39 ॥

शुक्राचार्य बोले- अहो, सहिष्णुताकी ऐसी महिमा और दानका इतना महान् फल कि राजा हरिश्चन्द्रने इन्द्रका लोक प्राप्त कर लिया ॥ 40 ॥

सूतजी बोले- इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्रके सम्पूर्ण चरित्रका वर्णन मैंने आपलोगोंसे कर दिया। जो दुःखी प्राणी इस आख्यानका श्रवण करता है, वह सदा सुखी रहता है। इसका श्रवण करनेसे स्वर्गकीइच्छा रखनेवाला स्वर्ग प्राप्त कर लेता है, पुत्रकी अभिलाषा रखनेवाला पुत्र प्राप्त कर लेता है, पत्नीकी कामना करनेवाला पत्नी प्राप्त कर लेता है और राज्यकी वांछा रखनेवाला राज्य प्राप्त कर लेता है ॥ 41-42 ॥

Previous Page 185 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति