सूतजी बोले- इतनेमें यमराजके समान क्रोधयुक्त महान् तपस्वी विश्वामित्र मनमें संकल्पित अपना दक्षिणा-सम्बन्धी धन माँगनेके लिये वहाँ आ पहुँचे ॥ 1 ॥
उन्हें देखते ही हरिश्चन्द्र मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। विश्वामित्रने जलके छींटे देकर राजासे यह वचन कहा - हे राजेन्द्र उठिये, उठिये और अपनी अभीष्ट दक्षिणा दीजिये। ऋण धारण करनेवालोंका | दुःख दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही रहता है ॥ 2-3 ॥
तत्पश्चात् बर्फतुल्य शीतल जलके छींटेसे आप्यायित होकर राजा चेतनामें आ गये, किंतु विश्वामित्रको देखते ही वे पुनः मूच्छित हो गये। इससे मुनि कुपित हो उठे और राजा | हरिश्चन्द्रको आश्वासन देते हुए द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्र कहने लगे - ॥ 4-5 ॥
विश्वामित्र बोले- यदि आपको धैर्य अभीष्ट | है तो मेरी वह दक्षिणा दे दीजिये। सत्यसे ही सूर्य तपता है और सत्यपर ही पृथ्वी टिकी हुई है। परमधर्मको भी सत्यमें स्थित कहा गया है और स्वर्गकी प्रतिष्ठा भी सत्यसे ही है। यदि एक हजार अश्वमेधयज्ञ और सत्य तुलापर रखे जायँ तो सत्य उन हजार अश्वमेधयज्ञोंसे बढ़ जायगा। मेरे यह सब कहनेसे क्या प्रयोजन? हे राजन्! यदि आप मेरी दक्षिणा नहीं दे देते तो सूर्यास्त होते ही मैं आपको निश्चितरूपसे शाप दे दूँगा 6-9 ॥
ऐसा कहकर वे विप्र विश्वामित्र चले गये। इधर राजा हरिश्चन्द्र भयसे व्याकुल हो उठे और उन नृशंस मुनिके द्वारा पीड़ित वे निर्धन राजा दुःखित होकर पृथ्वीपर बैठ गये ॥ 10 ॥
सूतजी बोले- इसी बीच एक वेदपारंगत विद्वान् ब्राह्मण अनेक ब्राह्मणोंके साथ अपने घरसे बाहर निकले। तत्पश्चात् वहाँ आकर रुके हुए उन तपस्वी ब्राह्मणको देखकर रानीने राजासे धर्म और अर्थसे युक्त वचन कहा—ब्राह्मण तीनों वर्णोंका पिता कहा जाता है। पुत्रके द्वारा पितासे धन लिया जा सकता है, इसमें सन्देह नहीं है। अतः मेरी तो यह सम्मति है कि इस ब्राह्मणसे धनके लिये प्रार्थना की जाय ॥। 11 - 133 ॥
राजा बोले – हे सुमध्यमे ! मैं क्षत्रिय हूँ, इसलिये किसीसे दान लेनेकी इच्छा नहीं कर सकता। याचना करना ब्राह्मणोंका कार्य है, क्षत्रियोंका नहीं। ब्राह्मण चारों वर्णोंका गुरु हैं और सर्वदा पूजनीय है। इसलिये गुरुसे याचना नहीं करनी चाहिये। और क्षत्रियोंको विशेषरूपसे इसका पालन करना चाहिये ।। 14-153 ॥
यज्ञ करना, अध्ययन करना, दान देना, शरणमें आये हुए लोगोंको अभय देना और प्रजाओंका पालन करना-ये ही कर्म क्षत्रियोंके लिये विहित हैं 'मुझे कुछ दीजिये- ऐसा दीन वचन क्षत्रियको नहीं बोलना चाहिये। हे देवि! 'देता हूँ'- ऐसा | वचन मेरे हृदयमें सदा विद्यमान रहता है। अतः मैं कहीं से भी धन अर्जित करके उस ब्राह्मणको दूँगा || 16-18||
पत्नीने कहा- कालके प्रभावसे सम और विषम परिस्थितियाँ आया ही करती हैं। काल ही मनुष्यको सम्मान तथा अपमान प्रदान करता है। यह काल ही मनुष्यको दाता तथा याचक बना देता है ।। 19 ॥
एक विद्वान्, शक्तिशाली तथा कुपित ब्राह्मणने राजाको सौख्य तथा राज्यसे च्युत कर दिया, कालकी यह विचित्र गति तो देखिये ॥ 20 ॥
राजा बोले- तीक्ष्ण धारवाली तलवारसे | जीभके दो टुकड़े हो जाना ठीक है, किंतु सम्मानका त्याग करके 'दीजिये दीजिये'-ऐसा कहना ठीक नहीं है ॥ 21 ॥
हे महाभागे ! मैं क्षत्रिय है, अतः किसीसे कुछ भी माँग नहीं सकता, अपितु अपने बाहुबलसे अर्जित धनका नित्य दान करता हूँ ॥ 22 ॥
पत्नीने कहा- हे महाराज! यदि आपका मन याचना करनेमें समर्थ नहीं है तो इन्द्रसहित सभी देवताओंने न्यायपूर्वक मुझे आपको सौंपा है और आपने स्वामी बनकर मुझ आज्ञाकारिणी पत्नीकी सदा रक्षा की है। अतएव हे महाद्युते ! आप मेरा मूल्य लेकर गुरु विश्वामित्रकी दक्षिणा चुका दीजिये ।। 23-24
पत्नीकी यह बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र 'महान् कष्ट है, महान् कष्ट है' ऐसा कहकर अत्यन्त दुःखित हो विलाप करने लगे ॥ 25 ॥
तब उनकी धर्मपत्नीने पुनः कहा- 'आप मेरी यह बात मान लीजिये। अन्यथा विप्रके शापरूपी अग्निसे दग्ध हो जानेपर आपको नीचयोनिमें पहुँचना पड़ेगा। न तो द्यूतक्रीडाके लिये, न मदिरापानके लिये, न राज्यके निमित्त और न तो भोग-विलासके लिये ही आप ऐसा करेंगे। अतः मेरे मूल्यसे गुरुकी दक्षिणा चुका दीजिये और अपने सत्यरूपी व्रतको सफल बनाइये ॥ 26-27॥