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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 5, अध्याय 29 - Skand 5, Adhyay 29

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रक्तबीजका वध और निशुम्भका युद्धक्षेत्रके लिये प्रस्थान

व्यासजी बोले- हे राजन्! किसी समय शंकरजीने उस दानव रक्तबीजको यह बड़ा ही अद्भुत वर दे डाला था, मैं उसे बता रहा हूँ; आप सुनिये ॥ 1 ॥ उस दानवके शरीरसे जब रक्तकी बूँद पृथ्वीपर गिरती थी, तब उसीके रूप तथा पराक्रमवाले दानव तुरंत उत्पन्न हो जाते थे। भगवान् शंकरने उसे यह बड़ा ही अद्भुत वर दे दिया था कि तुम्हारे रक्तसे असंख्य महान् पराक्रमी दानव उत्पन्न हो जायँगे ।। 2-3 ।।

के उस वरदान कारण अभिमानमें भरा हुआ वह दैत्य अत्यन्त कुपित होकर कालिकासमेत अम्बिकाको मारनेके लिये बड़े वेगसे रणभूमिमें पहुँचा ॥ 4 ॥

गरुडपर विराजमान वैष्णवी शक्तिको देखकर | उस दैत्येन्द्रने उन कमलनयनी देवीपर शक्ति (व) से प्रहार कर दिया ॥ 5 ॥

तब उस शक्तिशालिनी वैष्णवी शक्तिने अपनी गदासे उस प्रहारको विफल कर दिया और अपने चक्रसे महान् असुर रक्तबीजपर आघात किया ॥ 6 ॥

उस चक्रके लगनेपर रक्तबीजके घायल शरीरसे रक्तकी विशाल धारा बह चली मानो वज्रप्रहारसे घायल पर्वतके शिखरसे गेरूकी धारा बह चली हो ॥ 7 ॥

पृथ्वीतलपर जहाँ-जहाँ रक्तकी बूँदें गिरती थीं, वहाँ-वहाँ उसीके समान आकारवाले हजारों पुरुष उत्पन्न हो जाते थे ॥ 8 ॥ तदनन्तर इन्द्रकी शक्ति ऐन्द्रीने क्रोधमें भरकर
उस महान् असुर रक्तबीजपर वज्रसे आघात किया,
जिससे उसके शरीरसे और रक्त निकलने लगा ॥ 9 ॥

तब उसके रक्तसे अनेक रक्तबीज उत्पन्न हो गये, जो उसीके समान पराक्रमी तथा आकारवाले थे। वे सब-के-सब शस्त्रसम्पन्न तथा युद्धोन्मत्त थे ॥ 10 ॥

ब्रह्माणीने कुपित होकर उसे ब्रह्मदण्डसे बहुत मारा और देवी माहेश्वरीने अपने त्रिशूलसे उस दानवको विदीर्ण कर दिया। देवी नारसिंहीने अपने नखोंके प्रहारोंसे उस महान् असुरको बाँध डाला, देवी वाराहीने क्रुद्ध होकर उस अधम राक्षसको अपने तुण्डप्रहारसे चोट पहुँचायी और भगवती कौमारीने अपनी शक्तिसे उसके वक्षपर प्रहार किया । 11-123 ॥

तब वह दानव रक्तबीज भी क्रुद्ध होकर अलग | अलग उन सभी देवियोंको तीखे बाणोंकी घोर वर्षा | तथा गदा और शक्तिके प्रहारोंसे चोट पहुँचाने लगा।उसके आघातसे कुपित होकर सभी देवियोंने बाणोंके प्रहारसे उसको बाँध डाला। भगवती चण्डिकाने अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उसके शस्त्रोंको काट डाला और अत्यन्त कुपित होकर वे अन्य बाणोंसे उस दानवको मारने लगीं ॥। 13-15 ॥

अब उसके शरीरसे अत्यधिक रक्त निकलने लगा। उस रक्तसे उसी रक्तबीजके समान हजारों वीर उत्पन्न हो गये। इस प्रकार उस रुधिर राशिसे उत्पन्न रक्तबीजोंसे सारा जगत् भर गया; वे सब कवच पहने हुए थे, आयुधोंसे सुसज्जित थे और अद्भुत युद्ध कर रहे थे । 16-17 ॥

उन असंख्य रक्तबीजोंको प्रहार करते देखकर देवता भयभीत, आतंकित, विषादग्रस्त और शोकसंतप्त हो गये। [वे सोचने लगे] इस समय रक्तबीजके रकसे उत्पन्न ये हजारों विशालकाय और महापराक्रमी दानव किस प्रकार विनष्ट होंगे ? यहाँ रणभूमिमें केवल भगवती चण्डिका है और उनके साथ में देवी काली तथा कुछ मातृकाएँ हैं; केवल इन्हीं देवियोंको मिलकर सभी दानवोंको जीतना है- यह तो महान् कष्ट है। इसी समय यदि अचानक शुम्भ अथवा निशुम्भ भी सेनाके साथ संग्राममें आ जायगा, तब तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जायगा 18-21 ॥

व्यासजी बोले - [ हे राजन्!] इस प्रकार जब सभी देवता भयसे व्याकुल होकर अत्यधिक चिन्तित हो उठे, तब भगवती अम्बिकाने कमलसदृश नेत्रोंवाली कालीसे कहा- हे चामुण्डे! तुम शीघ्रतापूर्वक अपना मुख पूर्णरूपसे फैला लो और मेरे शस्त्राघातके द्वारा [रक्तबीजके शरीरसे] निकले रक्तको जल्दी जल्दी पीती जाओ। तुम दानवोंका भक्षण करती हुई इच्छानुसार युद्धभूमिमें विचरण करो। मैं तीक्ष्ण बाणों, गदा, तलवार तथा मुसलोंसे इन दैत्योंको मार डालूँगी । 22-24 ॥

हे विशाल नयनोंवाली! तुम इस प्रकारसे इस दैत्यके रुधिरका पान करो, जिससे कि अब एक भी बूँद रक्त भूमिपर न गिरने पाये; तब इस ढंगसे भक्षण किये जानेपर दूसरे दानव उत्पन्न नहीं हो सकेंगे। इस प्रकार इन दैत्योंका नाश अवश्य हो जायगा, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है ।। 25-26 ॥

जब मैं इस दैत्यको मारू, तब तुम शत्रुसहारा इस कार्य प्रयत्नशील होकर सारा रच शीघ्रतापूर्वक इसका भक्षण कर जाना। इस प्रकार दैत्यवध करके स्वर्गका सारा राज्य इन्द्रकी देकर हम सब आनन्दपूर्वक हाँसे चली जायेंगी ॥ 27-28॥

व्यासजी बोले- भगवती अम्बिका ऐसा कहने प्रचण्ड पराक्रमवाली देवी चामुण्डा रक्तबीजके शरीरसे निकले हुए समस्त रुधिरको पीने लगी। जगदम्बा खड्ग तथा मुसलसे उस दैत्यको मारने लगों और उसके शरीरके कटे हुए अंगोंका कृशोदरी चामुण्डा शरीरके कटे भक्षण करने लगीं ॥। 29-30 ॥

अब वह रक्तबीज भी कुपित होकर गढ़ प्रहारोंसे चामुण्डाको घायल करने लगा, फिर भी वे शीघ्रतापूर्वक उसका रुधिर पीती रहीं और उसका भक्षण करती रहीं ॥ 31 ॥

उस दैत्यके रुधिरसे उत्पन्न हुए अन्य जो भी महाबली और क्रूर रक्तबीज थे, उन्हें भी चामुण्डाने मार डाला। वे देवी उनका भी रक्त पी गर्यो और उन सबको खा गयीं ॥ 32 ॥

इस प्रकार भगवतीने जब सभी कृत्रिम रक्तबीजोंका भक्षण कर लिया, तब जो वास्तविक रक्तबीज था, उसे भी मारकर उन्होंने खड्गसे उसके अनेक टुकड़े करके भूमिपर गिरा दिया ।। 33 ।।

तत्पश्चात् भयंकर रक्तबीजका वध हो जानेपर जो अन्य दानव रणभूमिमें थे, वे भयसे काँपते हुए भाग करके शुम्भके पास पहुँचे। उनका चित्त बहुत व्याकुल था, उनका शरीर रुधिरसे लथपथ था, वे शस्त्रविहीन हो गये थे और अचेत से हो गये थे। वे हाय, हाय ऐसा पुकारते हुए शुम्भसे कहने लगे - हे राजन् ! अम्बिकाने उस रक्तबीजको मार डाला और चामुण्डा उसकी देहसे निकला सारा रुधिर पी गयी। जो अन्य दानववीर थे, उन सबको देवीके वाहन सिंहने बड़ी तेजीसे मार डाला और शेष दानवोंको भगवती काली खा गयीं ॥ 34-37॥

हे राजन्! हमलोग आपको युद्धका वृत्तान्त | तथा संग्राममें देवीके द्वारा प्रदर्शित किये गये उनके अत्यन्त अद्भुत चरित्रको बतानेके लिये आपके पास | आये हुए हैं॥ 38||

हे महाराज! यह देवी दैत्य, दानव, गन्धर्व, असुर, यक्ष, पन्नग, उरग और राक्षस-इन सभीसे सर्वथा अजेय है ॥ 39 ॥

हे महाराज ! इन्द्राणी आदि अन्य प्रमुख देवियाँ भी वहाँ आयी हुई हैं। वे अपने-अपने वाहनोंपर सवार होकर नानाविध आयुध धारण करके घोर युद्ध कर रही हैं। हे राजेन्द्र उन देवियोंने अपने उत्तम अस्त्रोंसे दानवोंकी सारी सेनाका विध्वंस कर डाला और रक्तबीजको भी बड़ी शीघ्रतासे मार गिराया ।। 40-41 ।।

एकमात्र देवी अम्बिका ही हमलोगोंके लिये असा थी, और फिर जब वह उन देवियोंके साथ हो गयी है तब कहना ही क्या ? असीम तेजवाला उसका वाहन सिंह भी संग्राममें राक्षसोंका वध कर रहा है ।। 42 ।।

अतएव मन्त्रियोंके साथ विचार-विमर्श करके जो उचित हो, वह कीजिये। इसके साथ शत्रुता उचित नहीं है, अपितु सन्धि कर लेना ही सुखदायक होगा ।। 43 ।।

यह आश्चर्य है कि एक स्त्री राक्षसों का संहार कर रही है। रक्तबीज भी मार डाला गया! देवी चामुण्डा उसका सारा रक्त भी पी गयी! हे नृप ! अम्बिकाने संग्राममें अन्य दैत्योंको मार डाला और देवी चामुण्डा उनका सम्पूर्ण मांस खा गयी ।। 44-45 ।।

हे महाराज ! अब हमलोगोंके लिये या तो पाताल चला जाना श्रेयस्कर है अथवा उसकी दासता स्वीकार कर लेना; किंतु उस अम्बिकाके साथ युद्ध नहीं करना चाहिये। यह साधारण स्त्री नहीं है, यह | देवताओंका कार्य सिद्ध करनेवाली है और यह मायारूपिणी शक्तिसम्पन्न देवीके रूपमें दैत्योंका नाश करनेके लिये प्रकट हुई है ।। 46-47 ।।

व्यासजी बोले- उन सैनिकोंकी यह यथार्थ बात सुनकर कालसे मोहित तथा मरनेके लिये उद्यत वह काँपते हुए ओठोंवाला शुम्भ उनसे कहने लगा ॥ 48 ॥

शुम्भ बोला- तुमलोग भयभीत होकर पाताल चले जाओ अथवा उसकी शरणमें चले जाओ, किंतु मैं तो युद्धमें पूर्णरूपसे तत्पर रहते हुए उस अम्बिका तथा उन देवियोंको आज ही मार डालूँगा ।। 49 ।।

रणभूमिमें सभी देवताओंको जीतकर तथा विशाल राज्यका भोग करके भला एक स्त्रीके भयसे होकर मैं पाताल क्यों चला जाऊँ? रक्तबीज आदि प्रमुख पार्षदोंको रणमें मरवाकर और अपनी विशद कीर्तिका नाश करके प्राणरक्षाके लिये में पाताल क्यों
चला जाऊँ ? ।। 50-51 ॥

कालके द्वारा निर्धारित प्राणियोंकी मृत्यु तो अनिवार्य है। जन्मके साथ ही मृत्युका भय प्राणीके साथ लग जाता है। तब भला कौन (बुद्धिमान्) व्यक्ति दुर्लभ यशका त्याग कर सकता है ? ॥ 52 ॥

हे निशुम्भ! मैं रथपर सवार होकर युद्धभूमिमें जाऊँगा और उसे मारकर ही वापस आऊँगा और यदि मैं उसे मार न सका तो फिर वापस नहीं लौटूंगा ॥ 53 ॥

हे वीर! तुम भी सेना साथमें लेकर चलो और युद्धमें मेरे सहायक बनो। वहाँ अपने तीक्ष्ण बाणोंसे मारकर तुम उस स्त्रीको शीघ्र ही यमलोक पहुँचा दो ॥ 54 ॥

निशुम्भ बोला- मैं अभी युद्धक्षेत्रमें जाकर दुष्ट कालिकाको मार डालूँगा और उस अम्बिकाको लेकर | शीघ्र ही आपके पास आ जाऊँगा ॥ 55 ॥

हे राजेन्द्र ! आप उस बेचारीके विषयमें चिन्ता मत कीजिये। कहाँ यह एक साधारण स्त्री और कहाँ पूरे विश्वको अपने वशमें कर लेनेवाला मेरा बाहुबल! हे भाई! आप इस भारी चिन्ताको छोड़कर सर्वोत्तम सुखोंका उपभोग कीजिये। मैं आदरकी पात्र उस मानिनीको अवश्य ही ले आऊँगा ।। 56-57 ।।

हे राजन् मेरे रहते युद्धक्षेत्रमें आपका जाना उचित नहीं है। आपका कार्य सिद्ध करनेके लिये मैं वहाँ जाकर विजयश्री अवश्य ही प्राप्त करूंगा ॥ 58 ॥

व्यासजी बोले- बड़े भाई शुम्भसे ऐसा कहकर अपने बलपर अभिमान रखनेवाले छोटे भाई निशुम्भ | कवच धारण कर लिया और अपनी सेना साथमें | लेकर एक विशाल रथपर आरूढ़ हो स्वयं अनेकविध आयुध लेकर वह पूरी तैयारीके साथ तुरंत बड़ी तेजीसे युद्धभूमिकी ओर चल पड़ा। उस समय मंगलाचार किया जा रहा था और बन्दीजन तथा चारण उसका यशोगान कर रहे थे । 59-60 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] व्यासजीद्वारा त्रिदेवोंकी तुलनामें भगवतीकी उत्तमताका वर्णन
  2. [अध्याय 2] महिषासुरके जन्म, तप और वरदान प्राप्तिकी कथा
  3. [अध्याय 3] महिषासुरका दूत भेजकर इन्द्रको स्वर्ग खाली करनेका आदेश देना, दूतद्वारा इन्द्रका युद्धहेतु आमन्त्रण प्राप्तकर महिषासुरका दानववीरोंको युद्धके लिये सुसज्जित होनेका आदेश देना
  4. [अध्याय 4] इन्द्रका देवताओं तथा गुरु बृहस्पतिसे परामर्श करना तथा बृहस्पतिद्वारा जय-पराजयमें दैवकी प्रधानता बतलाना
  5. [अध्याय 5] इन्द्रका ब्रह्मा, शिव और विष्णुके पास जाना, तीनों देवताओंसहित इन्द्रका युद्धस्थलमें आना तथा चिक्षुर, बिडाल और ताम्रको पराजित करना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णु और शिवके साथ महिषासुरका भयानक युद्ध
  7. [अध्याय 7] महिषासुरको अवध्य जानकर त्रिदेवोंका अपने-अपने लोक लौट जाना, देवताओंकी पराजय तथा महिषासुरका स्वर्गपर आधिपत्य, इन्द्रका ब्रह्मा और शिवजीके साथ विष्णुलोकके लिये प्रस्थान
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माप्रभृति समस्त देवताओंके शरीरसे तेज:पुंजका निकलना और उस तेजोराशिसे भगवतीका प्राकट्य
  9. [अध्याय 9] देवताओंद्वारा भगवतीको आयुध और आभूषण समर्पित करना तथा उनकी स्तुति करना, देवीका प्रचण्ड अट्टहास करना, जिसे सुनकर महिषासुरका उद्विग्न होकर अपने प्रधान अमात्यको देवीके पास भेजना
  10. [अध्याय 10] देवीद्वारा महिषासुरके अमात्यको अपना उद्देश्य बताना तथा अमात्यका वापस लौटकर देवीद्वारा कही गयी बातें महिषासुरको बताना
  11. [अध्याय 11] महिषासुरका अपने मन्त्रियोंसे विचार-विमर्श करना और ताम्रको भगवतीके पास भेजना
  12. [अध्याय 12] देवीके अट्टहाससे भयभीत होकर ताम्रका महिषासुरके पास भाग आना, महिषासुरका अपने मन्त्रियोंके साथ पुनः विचार-विमर्श तथा दुर्धर, दुर्मुख और बाष्कलकी गर्वोक्ति
  13. [अध्याय 13] बाष्कल और दुर्मुखका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  14. [अध्याय 14] चिक्षुर और ताम्रका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  15. [अध्याय 15] बिडालाख्य और असिलोमाका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  16. [अध्याय 16] महिषासुरका रणभूमिमें आना तथा देवीसे प्रणय-याचना करना
  17. [अध्याय 17] महिषासुरका देवीको मन्दोदरी नामक राजकुमारीका आख्यान सुनाना
  18. [अध्याय 18] दुर्धर, त्रिनेत्र, अन्धक और महिषासुरका वध
  19. [अध्याय 19] देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  20. [अध्याय 20] देवीका मणिद्वीप पधारना तथा राजा शत्रुघ्नका भूमण्डलाधिपति बनना
  21. [अध्याय 21] शुम्भ और निशुम्भको ब्रह्माजीके द्वारा वरदान, देवताओंके साथ उनका युद्ध और देवताओंकी पराजय
  22. [अध्याय 22] देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति और उनका प्राकट्य
  23. [अध्याय 23] भगवतीके श्रीविग्रहसे कौशिकीका प्राकट्य, देवीकी कालिकारूपमें परिणति, चण्ड-मुण्डसे देवीके अद्भुत सौन्दर्यको सुनकर शुम्भका सुग्रीवको दूत बनाकर भेजना, जगदम्बाका विवाहके विषयमें अपनी शर्त बताना
  24. [अध्याय 24] शुम्भका धूम्रलोचनको देवीके पास भेजना और धूम्रलोचनका देवीको समझानेका प्रयास करना
  25. [अध्याय 25] भगवती काली और धूम्रलोचनका संवाद, कालीके हुंकारसे धूम्रलोचनका भस्म होना तथा शुम्भका चण्ड-मुण्डको युद्धहेतु प्रस्थानका आदेश देना
  26. [अध्याय 26] भगवती अम्बिकासे चण्ड ड-मुण्डका संवाद और युद्ध, देवी सुखदानि च सेव्यानि शास्त्र कालिकाद्वारा चण्ड-मुण्डका वध
  27. [अध्याय 27] शुम्भका रक्तबीजको भगवती अम्बिकाके पास भेजना और उसका देवीसे वार्तालाप
  28. [अध्याय 28] देवीके साथ रक्तबीजका युद्ध, विभिन्न शक्तियोंके साथ भगवान् शिवका रणस्थलमें आना तथा भगवतीका उन्हें दूत बनाकर शुम्भके पास भेजना, भगवान् शिवके सन्देशसे दानवोंका क्रुद्ध होकर युद्धके लिये आना
  29. [अध्याय 29] रक्तबीजका वध और निशुम्भका युद्धक्षेत्रके लिये प्रस्थान
  30. [अध्याय 30] देवीद्वारा निशुम्भका वध
  31. [अध्याय 31] शुम्भका रणभूमिमें आना और देवीसे वार्तालाप करना, भगवती कालिकाद्वारा उसका वध, देवीके इस उत्तम चरित्रके पठन और श्रवणका फल
  32. [अध्याय 32] देवीमाहात्म्यके प्रसंगमें राजा सुरथ और समाधि वैश्यकी कथा
  33. [अध्याय 33] मुनि सुमेधाका सुरथ और समाधिको देवीकी महिमा बताना
  34. [अध्याय 34] मुनि सुमेधाद्वारा देवीकी पूजा-विधिका वर्णन
  35. [अध्याय 35] सुरथ और समाधिकी तपस्यासे प्रसन्न भगवतीका प्रकट होना और उन्हें इच्छित वरदान देना