View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 4, अध्याय 7 - Skand 4, Adhyay 7

Previous Page 74 of 326 Next

अप्सराओंके प्रस्तावसे नारायणके मनमें ऊहापोह और नरका उन्हें समझाना तथा अहंकारके कारण प्रह्लादके साथ हुए युद्धका स्मरण कराना

व्यासजी बोले- उन देवांगनाओंका वचन सुनकर धर्मपुत्र प्रतापी नारायण अपने मनमें विचार करने लगे कि इस समय मुझे क्या करना चाहिये ? यदि मैं इस समय विषयभोगमें लिप्त होता हूँ तो मुनिसमुदायमें उपहासका पात्र बनूँगा। अहंकारसे ही मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है; इसमें कोई संशय नहीं। धर्मके विनाशका मूल तथा प्रधान कारण अहंकार है। अतः महात्माओंने उसे संसाररूपी | वृक्षका मूल कहा है ॥ 1-23 ॥

इन वारांगनाओंके समूहको आया हुआ देखकर मैं मौन धारणकर स्थित नहीं रह सका और प्रसन्नतापूर्वक मैंने इनसे वार्तालाप किया, इसीलिये मैं दुःखका भाजन हुआ। अपने धर्मका व्यय करके मैंने उन उर्वशी आदि स्त्रियोंकी व्यर्थ रचना की। ये कामार्त अप्सराएँ मेरी तपस्यामें विघ्न डालनेमें प्रवृत्त है। मकड़ियोंके द्वारा बनाये गये जालकी भाँति अब अपने ही द्वारा उत्पादित सुदृढ़ जालमें मैं बुरी तरह फँस गया हूँ, अब मुझे क्या करना चाहिये ? यदि चिन्ता छोड़कर इन स्त्रियोंको अस्वीकार कर देता हूँ तो अपना मनोरथ निष्फल हुआ पाकर ये भ्रष्ट स्त्रियाँ मुझे शाप देकर चली जायँगी। तब | इनसे छुटकारा पाकर मैं निर्जन स्थानमें कठोर तप करूँगा। अतएव क्रोध उत्पन्न करके मैं इनका परित्याग कर दूँगा ॥ 373 ॥व्यासजी बोले- मुनि नारायणने ऐसा निश्चय करके अपने मनमें विचार किया कि सुख प्राप्तिके समस्त साधनोंमें [ अहंकारके बाद] यह क्रोध दूसरा प्रबल शत्रु है, जो अत्यन्त कष्ट प्रदान करता है। यह क्रोध संसारमें काम तथा लोभसे भी अधिक भयंकर है। क्रोधके वशीभूत प्राणी प्राणघातक हिंसातक कर डालता है, जो (हिंसा) सभी प्राणियोंके लिये | दुःखदायिनी तथा नरकरूपी बगीचेकी बावलीके तुल्य है। जिस प्रकार वृक्षोंके परस्पर घर्षणसे उत्पन्न अग्नि वृक्षको ही जला डालती है, उसी प्रकार शरीरसे उत्पन्न भीषण क्रोध उसी शरीरको जला डालता है । 8 - 113 ।। व्यासजी बोले- इस प्रकार खिन्नमनस्क होकर चिन्तन करते हुए अपने भाई नारायणसे उनके लघु भ्राता धर्मपुत्र नरने यह तथ्यपूर्ण वचन कहा ॥ 123 ॥ नर बोले- हे नारायण! हे महाभाग ! हे महामते! आप क्रोधका त्याग कीजिये और शान्तभावका आश्रय लेकर इस प्रबल अहंकारका नाश कीजिये; क्योंकि पूर्व समयमें इसी अहंकारके दोषसे हम दोनोंका तप विनष्ट हो गया था ॥ 13-14 ॥

अहंकार तथा क्रोध - इन्हीं दोनों भावोंके कारण हमलोगोंको असुरराज प्रह्लादके साथ एक हजार दिव्य वर्षोंतक अत्यन्त अद्भुत युद्ध करना पड़ा था। हे सुरश्रेष्ठ! उस युद्धमें हम दोनोंको महान् क्लेश मिला था। अतएव हे मुनीश्वर ! आप क्रोधका परित्याग करके शान्त हो जाइये ॥ 15-16 ॥ (मुनियोंने शान्तिको तपस्याका मूल बतलाया है।) व्यासजी बोले—उनकी यह बात सुनकर धर्मपुत्र नारायण शान्त हो गये ॥ 163 ll

जनमेजय बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! मेरे मनमें यह सन्देह उत्पन्न हो गया है कि शान्त स्वभाववाले विष्णुभक्त महात्मा प्रह्लादने पूर्वकालमें यह युद्ध क्यों किया और ऋषि नर-नारायणने भी संग्राम क्यों किया ? ।। 17-18 ॥

धर्मपुत्र नर-नारायण-ये दोनों ही अत्यन्त शान्त स्वभाववाले तपस्वी थे। ऐसी स्थितिमें दैत्यपुत्र प्रह्लाद तथा उन दोनों ऋषियोंका सम्पर्क कैसे हुआ ? ॥ 19 ॥प्रह्लाद भी अत्यन्त धर्मपरायण, ज्ञानसम्पन्न तथा विष्णुभक्त थे, तब महात्मा प्रह्लादने उन ऋषियोंके साथ युद्ध क्यों किया ? ॥ 20 ॥ तपस्वी नर-नारायण भी प्रह्लादकी ही भाँति सात्त्विक भावसे सम्पन्न थे। उन दोनों ऋषियों तथा प्रह्लादमें यदि परस्पर वैर उत्पन्न हो गया तो फिर उनकी तपस्या तथा धर्माचरणके पालनमें केवल परिश्रम ही उनके हाथ लगा। उस सत्ययुगमें भी उनके जप तथा घोर तप कहाँ चले गये थे ? ।। 21-22 ॥

वैसे वे महात्मा भी क्रोध और अहंकारसे भरे अपने मनको वशमें नहीं कर सके। अहंकाररूपी बीजके अंकुरित हुए बिना क्रोध तथा मात्सर्य उत्पन्न नहीं होते हैं। यह निश्चित है कि काम-क्रोध आदि अहंकारसे ही उत्पन्न होते हैं। हजार करोड़ वर्षोंतक घोर तपस्या करनेके पश्चात् भी यदि अहंकारका अंकुरण हुआ तो फिर सब कुछ निरर्थक हो जाता है। जिस प्रकार सूर्योदय होनेपर अन्धकार नहीं ठहरता, उसी प्रकार अहंकाररूपी अंकुरके समक्ष पुण्य नहीं ठहर पाता है । ll 23 - 253 ॥

हे महाभाग ! प्रह्लादने भी भगवान् नर-नारायणके साथ संग्राम किया, जिसके कारण पृथ्वीपर उनके द्वारा अर्जित समस्त पुण्य व्यर्थ हो गया ॥ 26 शान्त स्वभाववाले नर-नारायण भी अपनी कठिन तपस्या त्यागकर यदि युद्ध करनेमें तत्पर हुए तो फिर उनकी शान्तिवृत्ति तथा पुण्यशीलताका क्या महत्त्व रहा ? ॥ 273 ॥

हे मुने! जब सात्त्विक भावोंसे सम्पन्न इस प्रकारके वे दोनों महात्मा भी अहंकारपर विजय प्राप्त करनेमें असमर्थ रहे, तब मेरे-जैसे व्यक्तियोंके लिये अहंकार नष्ट करनेकी बात ही क्या है ? इस त्रिलोकमें ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो अहंकारसे मुक्त हो, इसी तरह ऐसा कोई भी न तो हुआ है और न होगा, जो अहंकारसे पूर्णतया मुक्त हो ॥ 28-293 ॥

काष्ठ तथा लोहेकी जंजीरमें बँधा हुआ व्यक्ति बन्धनमुक्त हो सकता है, किंतु अहंकारसे बँधा व्यक्ति कभी भी नहीं छूट सकता। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् अहंकारसे व्याप्त है ॥ 30-31llअहंकारी मनुष्य मल-मूत्रसे प्रदूषित इस संसार में चक्कर काटता रहता है, तो फिर इस मोहाच्छन संसारमें ब्रह्मज्ञानकी कल्पना ही कहाँ रह गयी ? ॥ 32 ॥

हे सुव्रत ! मुझे तो मीमांसकोंका कर्म-सिद्धान्त ही उचित प्रतीत होता है। हे मुने! जब महान्-से महान् लोग भी काम, क्रोध आदिसे सदा ग्रस्त रहते हैं, तब हे मुनिश्रेष्ठ! इस कलियुगमें मुझ जैसे लोगोंकी बात ही क्या ? ॥ 333 ॥

व्यासजी बोले- हे भारत (जनमेजय) ! कारणसे कार्य भिन्न कैसे हो सकता है? कड़ा तथा कुण्डल आकारमें भिन्न होते हुए भी स्वर्णके सदृश होते हैं। चराचरसहित समस्त ब्रह्माण्ड अहंकारसे उत्पन्न हुआ है। [ धागेसे निर्मित होनेके कारण ] वस्त्र उसके अधीन कहा गया है, अतएव वस्त्ररूपी कार्य तन्तुरूपी कारणसे पृथक् कैसे रह सकता है ? जब मायाके तीनों गुणोंद्वारा ही तिनकेसे लेकर पर्वततक स्थावर-जंगमात्मक यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विरचित है, तब सृष्टिके विषयमें खेद किस बातका ? हे नृपश्रेष्ठ ! ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भी अहंकारसे मोहित होकर इस अत्यन्त अगाध संसारमें भ्रमण करते रहते हैं। वसिष्ठ, नारद आदि परम ज्ञानी मुनिगण भी अहंकारके वशवर्ती होकर इस संसार में | बार-बार आते-जाते रहते हैं। हे नृपश्रेष्ठ! तीनों लोकोंमें ऐसा कोई भी देहधारी नहीं है जो मायाके इन गुणोंसे मुक्त होकर शान्ति धारण करता हुआ आत्मसुखका अनुभव कर सके। हे नृपश्रेष्ठ! अहंकारसे उत्पन्न काम, क्रोध, लोभ तथा मोह किसी भी | देहधारी प्राणीको नहीं छोड़ते ॥ 34-40 3 ॥

वेद-शास्त्रोंका अध्ययन, पुराणोंका पर्यालोचन, तीर्थभ्रमण, दान, ध्यान तथा देव-पूजन करके भी विषयासक्त प्राणी चोरोंकी भाँति सभी कर्म करता रहता है। काम, मोह और मदसे युक्त होनेके कारण प्राणी आरम्भमें कुछ विचार ही नहीं करता ॥ 41-423 ॥

हे कुरुनन्दन! सत्ययुग, त्रेता तथा द्वापरमें भी धर्मका विरोध किया गया था, तो आज कलियुग मेंउसकी बात ही क्या ! इसमें तो द्रोह, स्पर्धा, लोभ तथा क्रोध सर्वदा ही विद्यमान हैं। संसार ऐसे ही स्वभाववाला है; इस विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये। संसारमें मत्सरहीन साधु पुरुष विरले ही होते हैं। क्रोध तथा ईर्ष्यापर विजय प्राप्त कर लेनेवाले तो दृष्टान्तमात्रके लिये मिलते हैं। 43-453

राजा बोले- वे लोग धन्य तथा पुण्यात्मा हैं, जिन्होंने मद तथा मोहसे छुटकारा प्राप्त कर लिया है। जो सदाचारपरायण तथा जितेन्द्रिय हैं, उन्होंने मानो तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त कर ली है। अपने महात्मा पिताके पापका स्मरण करके मैं दु:खित रहता हूँ। उन्होंने बिना किसी अपराधके एक तपस्वीके गलेमें | मरा हुआ सर्प डाल दिया। अतः हे मुनिवर ! अब मेरे आगे उनकी क्या गति होगी? बुद्धिके मोहग्रस्त हो जानेपर क्या कार्य हो जायगा, यह मैं नहीं जानता। मूर्ख मनुष्य केवल मधु देखता है, किंतु उसके पास ही विद्यमान [गहरे] प्रपातकी ओर नहीं निहारता वह निन्दनीय कर्म करता रहता है और नरकसे नहीं डरता ।। 46–493 ॥

[हे] मुने!] अब आप मुझे विस्तारपूर्वक यह बताइये कि पूर्वकालमें प्रह्लादके साथ नर नारायणका घोर युद्ध क्यों हुआ था ? प्रह्लाद पाताल लोकसे सारस्वत महातीर्थ पवित्र बदरिकाश्रममें कैसे पहुँचे, यह भी मुझे बताइये शन्त स्वभाववाले मुनिश्रेष्ठ नर-नारायण तो महान् तपस्वी थे; तब हे मानद ! उन दोनोंने प्रह्लादके साथ युद्ध किस कारणसे किया ? ।। 50-523 ॥

प्रायः धन अथवा स्त्रीके लिये लोगोंमें परस्पर शत्रुता होती है। तब हर प्रकारकी इच्छाओंसे रहित उन दोनोंने वह भीषण युद्ध क्यों किया और उन नर नारायणको सनातन देवता जानते हुए भी महात्मा प्रह्लादने उनके साथ युद्ध क्यों किया? हे ब्रह्मन् मैं विस्तारपूर्वक इसका कारण सुनना चाहता हूँ 53-55 ॥

Previous Page 74 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] वसुदेव, देवकी आदिके कष्टोंके कारणके सम्बन्धमें जनमेजयका प्रश्न
  2. [अध्याय 2] व्यासजीका जनमेजयको कर्मकी प्रधानता समझाना
  3. [अध्याय 3] वसुदेव और देवकीके पूर्वजन्मकी कथा
  4. [अध्याय 4] व्यासजीद्वारा जनमेजयको मायाकी प्रबलता समझाना
  5. [अध्याय 5] नर-नारायणकी तपस्यासे चिन्तित होकर इन्द्रका उनके पास जाना और मोहिनी माया प्रकट करना तथा उससे भी अप्रभावित रहनेपर कामदेव, वसन्त और अप्सराओंको भेजना
  6. [अध्याय 6] कामदेवद्वारा नर-नारायणके समीप वसन्त ऋतुकी सृष्टि, नारायणद्वारा उर्वशीकी उत्पत्ति, अप्सराओंद्वारा नारायणसे स्वयंको अंगीकार करनेकी प्रार्थना
  7. [अध्याय 7] अप्सराओंके प्रस्तावसे नारायणके मनमें ऊहापोह और नरका उन्हें समझाना तथा अहंकारके कारण प्रह्लादके साथ हुए युद्धका स्मरण कराना
  8. [अध्याय 8] व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको प्रह्लादकी कथा सुनाना इस प्रसंग में च्यवनॠषिके पाताललोक जानेका वर्णन
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीका तीर्थयात्राके क्रममें नैमिषारण्य पहुँचना और वहाँ नर-नारायणसे उनका घोर युद्ध, भगवान् विष्णुका आगमन और उनके द्वारा प्रह्लादको नर-नारायणका परिचय देना
  10. [अध्याय 10] राजा जनमेजयद्वारा प्रह्लादके साथ नर-नारायणके बुद्धका कारण पूछना, व्यासजीद्वारा उत्तरमें संसारके मूल कारण अहंकारका निरूपण करना तथा महर्षि भृगुद्वारा भगवान् विष्णुको शाप देनेकी कथा
  11. [अध्याय 11] मन्त्रविद्याकी प्राप्तिके लिये शुक्राचार्यका तपस्यारत होना, देवताओंद्वारा दैत्योंपर आक्रमण, शुक्राचार्यकी माताद्वारा दैत्योंकी रक्षा और इन्द्र तथा विष्णुको संज्ञाशून्य कर देना, विष्णुद्वारा शुक्रमाताका वध
  12. [अध्याय 12] महात्मा भृगुद्वारा विष्णुको मानवयोनिमें जन्म लेनेका शाप देना, इन्द्रद्वारा अपनी पुत्री जयन्तीको शुक्राचार्यके लिये अर्पित करना, देवगुरु बृहस्पतिद्वारा शुक्राचार्यका रूप धारणकर दैत्योंका पुरोहित बनना
  13. [अध्याय 13] शुक्राचार्यरूपधारी बृहस्पतिका दैत्योंको उपदेश देना
  14. [अध्याय 14] शुक्राचार्यद्वारा दैत्योंको बृहस्पतिका पाखण्डपूर्ण कृत्य बताना, बृहस्पतिकी मायासे मोहित दैत्योंका उन्हें फटकारना, क्रुद्ध शुक्राचार्यका दैत्योंको शाप देना, बृहस्पतिका अन्तर्धान हो जाना, प्रह्लादका शुक्राचार्यजीसे क्षमा माँगना और शुक्राचार्यका उन्हें प्रारब्धकी बलवत्ता समझाना
  15. [अध्याय 15] देवता और दैत्योंके युद्धमें दैत्योंकी विजय, इन्द्रद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवतीका प्रकट होकर दैत्योंके पास जाना, प्रह्लादद्वारा भगवतीकी स्तुति, देवीके आदेशसे दैत्योंका पातालगमन
  16. [अध्याय 16] भगवान् श्रीहरिके विविध अवतारोंका संक्षिप्त वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायणद्वारा अप्सराओंको वरदान देना, राजा जनमेजयद्वारा व्यासजीसे श्रीकृष्णावतारका चरित सुनानेका निवेदन करना
  18. [अध्याय 18] पापभारसे व्यथित पृथ्वीका देवलोक जाना, इन्द्रका देवताओं और पृथ्वीके साथ ब्रह्मलोक जाना, ब्रह्माजीका पृथ्वी तथा इन्द्रादि देवताओंसहित विष्णुलोक जाकर विष्णुकी स्तुति करना, विष्णुद्वारा अपनेको भगवतीके अधीन बताना
  19. [अध्याय 19] देवताओं द्वारा भगवतीका स्तवन, भगवतीद्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुनको निमित्त बनाकर अपनी शक्तिसे पृथ्वीका भार दूर करनेका आश्वासन देना
  20. [अध्याय 20] व्यासजीद्वारा जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम
  21. [अध्याय 21] देवकीके प्रथम पुत्रका जन्म, वसुदेवद्वारा प्रतिज्ञानुसार उसे कंसको अर्पित करना और कंसद्वारा उस नवजात शिशुका वध
  22. [अध्याय 22] देवकीके छः पुत्रोंके पूर्वजन्मकी कथा, सातवें पुत्रके रूपमें भगवान् संकर्षणका अवतार, देवताओं तथा दानवोंके अंशावतारोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] कंसके कारागारमें भगवान् श्रीकृष्णका अवतार, वसुदेवजीका उन्हें गोकुल पहुँचाना और वहाँसे योगमायास्वरूपा कन्याको लेकर आना, कंसद्वारा कन्याके वधका प्रयास, योगमायाद्वारा आकाशवाणी करनेपर कंसका अपने सेवकोंद्वारा नवजात शिशुओंका वध कराना
  24. [अध्याय 24] श्रीकृष्णावतारकी संक्षिप्त कथा, कृष्णपुत्रका प्रसूतिगृहसे हरण, कृष्णद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवती चण्डिकाद्वारा सोलह वर्षके बाद पुनः पुत्रप्राप्तिका वर देना
  25. [अध्याय 25] व्यासजीद्वारा शाम्भवी मायाकी बलवत्ताका वर्णन, श्रीकृष्णद्वारा शिवजीकी प्रसन्नताके लिये तप करना और शिवजीद्वारा उन्हें वरदान देना