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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 5 - Skand 7, Adhyay 5

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अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना

व्यासजी बोले- उन अश्विनीकुमारोंकी वह बात सुनकर मितभाषिणी राजपुत्री सुकन्या थर-थर काँपने लगी और धैर्य धारण करके उनसे बोली ॥ 1 ॥

हे देवताओ! आप दोनों सूर्यपुत्र हैं आपलोग सर्वज्ञ तथा देवताओं में सम्मान्य हैं। मुझ पतिव्रता तथा धर्मपरायणा स्त्रीके प्रति आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ॥ 2 ॥

हे सुरश्रेष्ठो मेरे पिताजीने मुझे इन्हीं योग परायण मुनिको सौंप दिया है, तब मैं व्यभिचारिणी स्त्रियोंके द्वारा सेवित उस मार्गका अनुसरण कैसे करूँ ? ॥ 3 ॥कश्यपसे उत्पन्न हुए भगवान् सूर्य समस्त प्राणियोंके कर्मोंके साक्षी हैं। ये सब कुछ देखते रहते हैं। [ इन्हींके साक्षात् पुत्ररूप] आपलोगोंको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ॥ 4 ॥

कोई भी कुलीन कन्या अपने पतिको छोड़कर किसी अन्य पुरुषको इस सारहीन जगत्में भला कैसे स्वीकार कर सकती है ? धर्मसिद्धान्तोंको जाननेवाले आप दोनों अपनी इच्छाके अनुसार जहाँ चाहें चले जाइये, अन्यथा हे निष्पाप देवताओ! मैं आपलोंगोको शाप दे दूँगी; पतिकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाली मैं महाराज शर्यातिकी पुत्री सुकन्या हूँ ॥ 5-6 ॥

व्यासजी बोले - [हे राजन्!] सुकन्याकी यह बात सुनकर अश्विनीकुमार बहुत विस्मयमें पड़ गये। | उसके बाद मुनि च्यवनके भयसे सशंकित उन दोनोंने सुकन्यासे कहा- ॥ 7 ॥

सुन्दर अंगोंवाली हे राजपुत्रि ! तुम्हारे इस पतिधर्मसे हम दोनों परम प्रसन्न हैं। हे सुश्रोणि! तुम वर माँगो, हम तुम्हारे कल्याणार्थ अवश्य देंगे ॥ 8 ॥

हे प्रमदे ! तुम यह निश्चय जान लो कि हम देवताओंके श्रेष्ठ वैद्य हैं। हम [अपनी चिकित्सासे] तुम्हारे पतिको रूपवान् तथा युवा बना देंगे। हे चातुर्यपण्डिते! जब हम ऐसा कर दें, तब तुम समानरूप और देहवाले हम तीनोंमेंसे किसी एकको पति चुन लेना ॥ 9-10॥

तब उन दोनोंकी बात सुनकर सुकन्याको बड़ा आश्चर्य हुआ। अपने पतिके पास जाकर वह सुकन्या | अश्विनीकुमारोंके द्वारा कही गयी वह अद्भुत बात उनसे कहने लगी ॥ 11 ॥

सुकन्या बोली- हे स्वामिन्! आपके आश्रममें सूर्यपुत्र दोनों अश्विनीकुमार आये हुए हैं। हे भृगुनन्दन ! दिव्य देहवाले उन देवताओंको मैंने स्वयं देखा है ॥ 12 ॥

मुझ सर्वांगसुन्दरीको देखते ही वे दोनों कामासक्त हो गये। हे स्वामिन्! उन्होंने मुझसे यह बात कही 'हमलोग तुम्हारे पति इन च्यवनमुनिको निश्चय ही नवयौवनसे सम्पन्न, दिव्य शरीरवाला तथा नेत्रोंसे युक्त बना देंगे, इसमें यह एक शर्त है, उसे तुम मुझसे सुनलो। जब हम तुम्हारे पतिको अपने समान अंग तथा रूपवाला बना दें, तब तुम्हें हम तीनोंमेंसे किसी एकको पति चुन लेना होगा' ।। 13-15 ।।

उनकी यह बात सुनकर आपसे इस अद्भुत कार्यके विषयमें पूछने के लिये मैं यहाँ आयी हूँ। है साधो ! अब आप मुझे बतायें कि इस संकटमय कार्यके आ जानेपर मुझे क्या करना चाहिये ? | देवताओंकी माया बड़ी दुर्बोध होती है उन दोनोंके इस छद्मको मैं नहीं समझ पा रही हूँ। अतः हे सर्वज्ञ ! अब आप ही मुझे आदेश दीजिये, आपकी जो इच्छा होगी, मैं वही करूँगी ।। 16-17 ॥

च्यवन बोले- हे कान्ते हे सुव्रते। मेरी आज्ञाके अनुसार तुम देवताओंके श्रेष्ठ चिकित्सक अश्विनी कुमारोंके समीप जाओ और उन्हें मेरे पास शीघ्र ले आओ तुम उनकी शर्त तुरंत स्वीकार कर लो, इसमें किसी प्रकारका सोच-विचार नहीं करना चाहिये 183 ॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार च्यवनमुनिकी आज्ञा पा जानेपर वह अश्विनीकुमारोंके पास जाकर उनसे बोली- हे देवश्रेष्ठ अश्विनीकुमारो ! आपलोग प्रतिज्ञाके अनुसार शीघ्र ही कार्य करें ।। 193 ।।

सुकन्याकी बात सुनकर वे अश्विनीकुमार वहाँ आये और राजकुमारीसे बोले- 'तुम्हारे पति इस सरोवरमें प्रवेश करें।' तब रूपप्राप्तिके लिये च्यवनमुनि शीघ्रतापूर्वक सरोवरमें प्रविष्ट हो गये। उनके बादमें दोनों अश्विनीकुमारोंने भी उस उत्तम सरोवरमें प्रवेश किया ॥ 20-213 ॥

तदनन्तर वे तीनों तुरंत ही उस सरोवरसे बाहर निकल आये। उन तीनोंका शरीर दिव्य था, वे समान रूपवाले थे और एकसमान युवा बन गये थे। शरीरके सभी समान अंगोंवाले वे तीनों युवक दिव्य कुण्डलों तथा आभूषणोंसे सुशोभित थे । ll 22-23 ॥

वे सभी एक साथ बोल उठे-'हे वरवर्णिनि ! हे भद्रे! हे अमलानने! हम लोगोंमें जिसे तुम चाहती हो, उसका पतिरूपमें वरण कर लो। हे वरानने! जिसमें तुम्हारी सबसे अधिक प्रीति हो, उसे पतिरूपमें चुन लो ॥ 243 ॥व्यासजी बोले- देवकुमारोंके समान प्रतीत होनेवाले उन तीनोंको रूप, अवस्था, स्वर, वेषभूषा तथा आकृतिमें पूर्णतः एक जैसा देखकर वह सुकन्या बड़े असमंजसमें पड़ गयी ॥ 25-26 ॥

।। वह अपने पति [ च्यवनमुनि] को ठीक-ठीक पहचान नहीं पा रही थी, अतः व्याकुल होकर सोचने लगी- मैं क्या करूँ? ये तीनों देवकुमार एक जैसे हैं। अतः मैं यह नहीं समझ पा रही हूँ कि इनमेंसे मैं पतिरूपमें किसका वरण करूँ? मैं तो बड़े संशयकी स्थितिमें पड़ गयी हूँ। दोनों देवताओं (अश्विनीकुमारों) ने यह विचित्र इन्द्रजाल यहाँ रच डाला है इस स्थितिमें मुझे अब क्या | करना चाहिये? मेरे लिये तो यह मृत्यु ही उपस्थित हो गयी है। मैं अपने पतिको छोड़कर किसी दूसरेको कभी नहीं चुन सकती, चाहे वह कोई परम सुन्दर देवता ही क्यों न हो-यह मेरा दृढ विचार है ।। 27- 293 ॥

इस प्रकार मनमें भलीभाँति सोचकर क्षीण कटि प्रदेशवाली वह सुकन्या कल्याणस्वरूपिणी पराम्बा भगवती भुवनेश्वरीके ध्यानमें लीन हो गयी और उनकी स्तुति करने लगी ॥ 303 ॥

सुकन्या बोली - हे जगदम्बे ! मैं महान् कष्टसे पीड़ित होकर आपकी शरणमें आयी हैं। आप मेरे पातिव्रत्य धर्मकी रक्षा करें; मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करती हे पद्मोद्भवे! आपको नमस्कार है। हे शंकरप्रिये है देवि! आपको नमस्कार है। हे विष्णुकी प्रिया लक्ष्मी! हे वेदमाता सरस्वती! आपको नमस्कार है। 31-326॥ आपने ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत्का सृजन किया है। आप ही सावधान होकर जगत्का पालन करती हैं और [ प्रलयकालमें] लोक-शान्तिके लिये इसे अपनेमें लीन भी कर लेती हैं ॥ 333 ॥

आप ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशकी सुसम्मत जननी हैं। आप अज्ञानियोंको बुद्धि तथा ज्ञानियोंको सद मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं। परम पुरुषके लिये प्रिय दर्शनवाली आप आज्ञामयी तथा पूर्ण प्रकृतिस्वरूपिणी हैं। आप श्रेष्ठ विचारवाले प्राणियोंको भोग तथा मो प्रदान करती हैं। आप ही अज्ञानियोंको दुःख देती हैं तथा सात्विक प्राणियों के सुखका साधन भी आप हो हैं है माता आप ही योगिजनोंको सिद्धि, विजय तथा कीर्ति भी प्रदान करती हैं ।। 34-39 ॥हे माता! महान् असमंजसमें पड़ी हुई मैं इस समय आपकी शरण में आयी हूँ। आप मेरे पतिको दिखानेकी कृपा करें। मैं इस समय शोक-सागरमें डूबी हुई हूँ; क्योंकि इन दोनों देवताओं (अश्विनीकुमारों) ने अत्यन्त कपटपूर्ण चरित्र उपस्थित कर दिया है। मेरी बुद्धि तो कुण्ठित हो गयी है। मैं इनमें किसका वरण करूँ? हे सर्वज्ञे ! मेरे पातिव्रत्यपर सम्यक् ध्यान देकर आप मेरे पतिका दर्शन करा दें ।। 37-383 ॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार सुकन्याके स्तुति करनेपर भगवती त्रिपुरसुन्दरीने शीघ्र ही सुखका उदय करनेवाला ज्ञान उसके हृदयमें उत्पन्न कर दिया ॥ 393 ॥ तदनन्तर [अपने पतिको पा लेनेका] मनमें निश्चय करके साध्वी सुकन्याने समान रूप तथा अवस्थावाले उन तीनोंपर भलीभाँति दृष्टिपात करके अपने पतिका वरण कर लिया ॥ 403 ॥

इस प्रकार सुकन्याके द्वारा च्यवनमुनिके वरण कर लिये जानेपर वे दोनों देवता परम सन्तुष्ट हुए और सुकन्याका सतीधर्म देखकर उन्होंने उसे अति प्रसन्नतापूर्वक वर प्रदान किया ॥ 413 ॥ तत्पश्चात् भगवतीकी कृपासे प्रसन्नताको प्राप्त वे दोनों देवश्रेष्ठ अश्विनीकुमार मुनिसे आज्ञा लेकर तुरंत वहाँसे प्रस्थान करनेको उद्यत हो गये ॥ 42 ॥ सुन्दर रूप, नेत्र, यौवन तथा अपनी भार्याको पाकर च्यवनमुनि अत्यन्त हर्षित हुए। उन महातेजस्वी मुनिने अश्विनीकुमारोंसे यह वचन कहा- हे देववरो! आप दोनोंने मेरा यह महान् उपकार किया है। क्या कहूँ, ऐसा हो जानेसे इस सुन्दर संसारमें अब मुझे परम सुख मिल गया है। इसके पूर्व मुझ अन्धे, अत्यन्त वृद्ध तथा भोग-सामर्थ्यसे हीन पुरुषको ऐसी सुन्दर केशपाशवाली भार्या पाकर भी इस वनमें सदा दुःख ही दुःख रहता था ll 43-453 ll

आपलोगोंने मुझे नेत्र, युवावस्था तथा अद्भुत रूप प्रदान किया है, अतः मैं भी आपका कुछ उपकार करूँ; इसके लिये आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ। हे देवताओ! जो मनुष्य उपकार करनेवाले मित्रका किसी प्रकारका उपकार नहीं करता, उस मनुष्यको धिक्कार है। ऐसा मनुष्य पृथ्वीलोकमें अपने उपकारी मित्रका ऋणी होता है ।। 46-473 ।।अतएव हे देवेश्वरो ! मुझे नूतन शरीर प्रदान करनेके आपके ऋणसे मुक्तिके लिये मैं इस समय आपकी कोई अभिलषित वस्तु आपको प्रदान करना चाहता हूँ। मैं आप दोनोंको वह अभीष्ट वस्तु प्रदान करूँगा, जो देवताओं तथा दानवोंके लिये भी अलभ्य है। मैं आपलोगोंके इस उत्तम कार्यसे बहुत प्रसन्न हूँ; अब आपलोग अपना मनोरथ व्यक्त करें ।। 48-493 ॥

च्यवनमुनिका वचन सुनकर परस्पर विचार विमर्श करके वे दोनों अश्विनीकुमार सुकन्याके साथ बैठे हुए उन मुनिश्रेष्ठसे कहने लगे-हे मुने! पिताजीकी | कृपासे हमारा सारा मनोरथ पूर्ण हो चुका है, किंतु देवताओंके साथ सम्मिलित होकर सोमरस पीनेकी हमारी इच्छा शेष रह गयी है। एक बार सुमेरुपर्वतपर ब्रह्माजीके महायज्ञमें इन्द्रदेवने हम दोनोंको 'वैद्य' कहकर सोमपात्र ग्रहण करनेसे रोक दिया था। अतएव हे धर्मज्ञ ! हे तापस! यदि आप समर्थ हों तो हमारा यह कार्य कर दीजिये। हे ब्रह्मन्! हमारी इस प्रिय इच्छापर विचार करके आप हम दोनोंको सोमपानका अधिकारी बना दीजिये। सोमपानकी अभिलाषा हमारे लिये अत्यन्त दुर्लभ हो गयी है, वह आपसे शान्त हो जायगी । ll 50 - 543 ॥

उन दोनोंकी यह बात सुनकर च्यवनमुनिने मधुर वाणीमें कहा- आप दोनोंने मुझ वृद्धको रूपवान् तथा युवावस्थासे सम्पन्न बना दिया है और [ आपके अनुग्रहसे] मैंने साध्वी भार्या भी प्राप्त कर ली है। अतः मैं अमित-तेजस्वी राजा शर्यातिके विशाल यज्ञमें देवराज इन्द्रके समक्ष ही आप दोनोंको प्रसन्नतापूर्वक सोमपानका अधिकारी बना दूंगा; मैं यह सत्य कह रहा हूँ। यह बात सुनकर अश्विनीकुमारोंने हर्षपूर्वक स्वर्गके लिये प्रस्थान किया और च्यवनमुनि भी सुकन्याको साथ लेकर अपने आश्रमपर चले गये ॥ 55-59 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति