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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 6, अध्याय 21 - Skand 6, Adhyay 21

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आखेटके लिये वनमें गये राजासे एकावलीकी सखी यशोवतीकी भेंट, एकावलीके जन्मकी कथा

व्यासजी बोले- हे राजन् ! तत्पश्चात् राजा हरिवर्माने बालकके जातकर्म आदि संस्कार किये। भलीभाँति पालित-पोषित होनेके कारण वह बालक दिनोदिन शीघ्रतासे बढ़ने लगा ॥ 1 ॥

इस प्रकार पुत्रजनित सांसारिक सुख प्राप्त करके उन महात्मा नरेशने अपनेको अब तीनों ऋणोंसे मुक्त मान लिया ॥ 2 ॥

राजा हरिवर्माने छठें महीनेमें बालकका अन्नप्राशन संस्कार करके तीसरे वर्षमें शुभ मुण्डन संस्कार विधि-विधानके साथ सम्पन्न किया। इनमें ब्राह्मणोंकी | सम्यक् पूजा करके उन्हें विविध धन-द्रव्यों तथा गौओंका दान किया गया और अन्य याचकोंको भी नानाविध दान दिये ॥ 3-4 ॥

ग्यारहवें वर्षमें उस बालकका यज्ञोपवीत-संस्कार कराकर राजाने उसको धनुर्वेद पढ़वाया ॥ 5॥

राजा हरिवर्माने उस पुत्रको धनुर्वेद तथा राजधर्ममें पूर्ण निष्णात हुआ देखकर उसका राज्याभिषेक करनेका निश्चय किया ॥ 6 ॥तत्पश्चात् श्रेष्ठ राजाने पुष्यार्क- योगसे युक्त शुभ दिनमें बड़े आदरके साथ अभिषेकहेतु सभी सामग्रियाँ एकत्र करवायीं ॥ 7 ॥

सभी शास्त्रोंमें पूर्ण पारंगत तथा वेदवेता ब्राह्मणोंको बुलाकर उन्होंने विधिवत् अपने पुत्रका अभिषेक सम्पन्न किया। सभी तीर्थों तथा समुद्रोंसे जल मँगाकर राजाने शुभ दिनमें पुत्रका स्वयं अभिषेक किया ।। 8-9 ॥

तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको धन देकर तथा पुत्रको राज्य सौंपकर उन राजा हरिवर्माने स्वर्गप्राप्तिकी कामनासे वनके लिये शीघ्र ही प्रस्थान किया ॥ 10 ॥ इस प्रकार एकवीरको राजा बनाकर तथा योग्य मन्त्रियोंको नियुक्तकर इन्द्रियजित् राजा हरिवर्माने अपनी भार्याके साथ वनमें प्रवेश किया ॥ 11 ॥

मैनाकपर्वतके शिखरपर तृतीय आश्रम ( वानप्रस्थ) का आश्रय लेकर वे राजा प्रतिदिन वनके पत्तों तथा फलोंका आहार करते हुए भगवती पार्वतीकी आराधना करने लगे ॥ 12 ॥

इस प्रकार अपनी भार्याके साथ वानप्रस्थ आश्रमका पालन करके वे राजा प्रारब्ध कर्मके समाप्त हो जानेपर मृत्युको प्राप्त हुए और अपने पुण्यकर्मके प्रभावसे इन्द्रलोक चले गये ।। 13 ।।

पिता इन्द्रलोक चले गये ऐसा सुनकर हैहय एकवीरने वैदिक विधानके अनुसार उनका औदैहिक संस्कार सम्पन्न किया ll 14 ॥

पिताकी सभी श्राद्ध आदि क्रियाएँ सम्पन्न करके सबकी सहमतिसे पिताद्वारा दिये गये राज्यपर वह मेधावी राजकुमार एकवीर शासन करने लगा ।। 15 ।।

उत्कृष्ट राज्य प्राप्त करके धर्मपरायण एकवीर सभी मन्त्रियोंसे सम्मानित रहते हुए अनेकविध सुखोंका उपभोग करने लगे ll 16 ॥

एक दिन प्रतापी राजा एकवीर मन्त्रियोंके पुत्रोंके साथ घोड़ेपर आरूढ़ होकर गंगाके तटपर गये। वहाँ उन्होंने कोकिलोंकी कूजसे गुंजित, भ्रमरोंकी पंक्तियोंसे सुशोभित तथा फलों-फूलोंसे लदे मनोहर वृक्षों; वेदपाठकी ध्वनिसे निनादित, हवनके धुएँसे आच्छादित आकाश-मण्डलवाले, मृगोंके छोटे शिशुओंसे आवृतदिव्य मुनि आश्रमों; गोपिकाओंके द्वारा सुरक्षित तथा पके हुए शालिधान्यसे युक्त खेतों; विकसित कमलोंसे सुशोभित अनेक सरोवरों तथा मनको आकर्षित करनेवाले निकुंजोंको देखा। उन राजा एकवीरने प्रियाल, चम्पक, कटहल, बकुल, तिलक, नीप, पुष्पित मन्दार, शाल, ताल, तमाल, जामुन, आम और कदम्बके आदि वृक्षोंको देखते हुए कुछ दूर आगे जानेपर गंगाके जलमें उत्कृष्ट गन्धयुक्त एक खिला हुआ शतदल कमल देखा। राजाने उस कमलके दक्षिण भागमें कमलसदृश नेत्रोंवाली, स्वर्णके समान कान्तिवाली, सुन्दर केश पाशवाली, शंखतुल्य गर्दनवाली, कृश कटिप्रदेशवाली, बिम्बाफलके समान ओष्ठवाली, किंचित् स्फुट पयोधरवाली, मनोहर नासिकावाली तथा समस्त सुन्दर अंगोंवाली एक सुन्दरी कन्याको देखा। अपनी सखीसे बिछुड़ जानेसे व्याकुल होकर दुःखपूर्वक विलाप करती हुई, निर्जन वनमें आँखोंमें आँसू भरकर कुररी पक्षीकी भाँति क्रन्दन करती हुई उस कन्याको देखकर राजा एकवीरने उससे शोकका कारण पूछा ॥ 17-26 ॥ हे सुन्दर नासिकावाली! तुम कौन हो ? हे सुमुखि ! तुम किसकी पुत्री हो? तुम गन्धर्वकन्या हो अथवा देवकन्या ? हे सुन्दरि ! तुम क्यों रो रही हो ? यह मुझे बताओ ।। 27 ।।

हे बाले ! तुम यहाँ अकेली क्यों हो? हे पिकस्वरे! तुम्हें यहाँ किसने छोड़ दिया है ? हे प्रिये ! तुम्हारे पति अथवा पिता इस समय कहाँ चले गये हैं? मुझे बताओ ॥ 28 ॥

हे वक्र भौंहोंवाली! तुम्हें क्या दुःख है ? उसे मेरे सामने अभी व्यक्त करो। हे कृशोदरि ! मैं सब प्रकारसे तुम्हारा दुःख दूर करूँगा ॥ 29 ॥ हे तन्वंगि! मेरे राज्यमें कोई भी प्राणी किसीको पीड़ा नहीं पहुँचा सकता और हे कान्ते! कहीं न तो चोरोंका भय है और न राक्षसोंका ही भय है ॥ 30 ॥ मुझ नरेशके शासन करते हुए इस पृथ्वीपर भीषण उत्पात नहीं हो सकते; बाघ अथवा सिंहसे किसीको भय नहीं हो सकता और किसीको कोई भी भय नहीं रहता ॥ 31 ॥

हे वामोरु! असहाय होकर तुम गंगातटपर क्यों विलाप कर रही हो, तुम्हें क्या दुःख है ? मुझे बताओ ॥ 32 ॥हे कान्ते मैं जगत्के प्राणियोंके अत्यन्त भीषण दैविक तथा मानुषिक कष्टको भी दूर करता हूँ; यह मेरा अद्भुत व्रत है। हे विशालनयने! बताओ, मैं तुम्हारा वांछित कार्य करूँगा ।। 333 ।।

राजाके ऐसा कहनेपर उसे सुनकर मधुर भाषिणी कन्याने कहा- हे राजेन्द्र ! सुनिये, मैं आपको अपने शोकका कारण बता रही हैं। हे राजन्! विपदारहित प्राणी भला क्यों रोयेगा ? हे महाबाहो ! मैं जिसलिये रो रही हैं, वह आपको बता रही हूँ। आपके राज्यसे भिन्न दूसरे देशमें रैभ्य नामक एक महान् धार्मिक राजा हैं, वे महाराज सन्तानहीन हैं, उनकी पत्नी रुक्मरेखा- इस नामसे प्रसिद्ध हैं। वे परम रूपवती, बुद्धिमती पतिव्रता तथा समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं। पुत्रहीन होनेसे दुःखित रहनेके कारण वे अपने पतिसे बार-बार कहा करती थीं हे नाथ! मेरे इस जीवनसे क्या लाभ? इस जगत्में मुझ वन्ध्या, पुत्रहीन तथा सुखरहित नारीके इस व्यर्थ जीवनको धिक्कार है ॥ 34-39 ॥

इस प्रकार अपनी भार्यासे प्रेरणा पाकर राजा रैभ्यने यज्ञके ज्ञाता ब्राह्मणोंको बुलाकर विधिवत् उत्तम यज्ञ सम्पन्न किया ॥ 40 ॥

पुत्राभिलाषी राजा रैभ्यने शास्त्रोक्त रीतिसे प्रचुर धन दान दिया। घृतकी आहुति अधिक पड़ते रहने से तीव्र प्रभायुक्त अग्निसे सुन्दर अंगोंवाली, शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, बिम्बाफलके समान ओष्ठवाली, सुन्दर दाँतों तथा भाँहोंवाली, पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाली, स्वर्णके समान आभावाली, सुन्दर केशोंवाली, रक्त हथेलियोंवाली, कोमल, सुन्दर लाल नेत्रोंवाली, कृश शरीरवाली तथा रक्त पादतल [तलवे ] वाली एक कन्या प्रकट हुई ll 41 - 43 ll

तब होताने अग्निसे उत्पन्न हुई उस कन्याको स्वीकार कर लिया। इसके बाद उस सुन्दर कन्याको लेकर होताने राजा रैभ्यसे कहा- हे राजन् समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न इस पुत्रीको ग्रहण कीजिये। हवन करते समय अग्निसे उत्पन्न यह कन्या मोतियोंकी मालाके समान प्रतीत होती है। अतः हे राजन्! यहपुत्री जगत्में 'एकावली' नामसे प्रसिद्ध होगी। पुत्रतुल्य इस कन्याको प्राप्तकर आप सुखी हो जायें। राजेन्द्र ! सन्तोष कीजिये; भगवान् विष्णुने आपको यह कन्या दी है । 44-466 ॥

होताकी बात सुनकर राजाने उस सुन्दर कन्याकी ओर देखकर होताके द्वारा प्रदत्त उस कन्याको अति प्रसन्न होकर ले लिया। राजाने सुन्दर मुखवाली उस कन्याको ले करके अपनी पत्नी रुक्मरेखाको यह कहकर दे दिया कि हे सुभगे ! इस कन्याको स्वीकार करो। कमलपत्रके समान नेत्रोंवाली उस मनोहर कन्याको पाकर रानी बहुत हर्षित हुई; वे ऐसी सुखी हो गयीं मानो उन्हें पुत्र प्राप्त हो गया हो ।। 47-493 ॥

तत्पश्चात् राजाने उसके जातकर्म आदि सभी शुभ मंगल कार्य सम्पन्न किये तथा पुत्रजन्मके अवसरपर होनेवाले जो कुछ भी कार्य थे, वे सब उन्होंने विधिपूर्वक सम्पन्न कराये। यज्ञ सम्पन्न करके राजा रैभ्य ब्राह्मणोंको विपुल दक्षिणा देकर तथा सभी विप्रेन्द्रोंको विदाकर अत्यन्त आनन्दित हुए ।। 50-51 ॥

श्याम नेत्रोंवाली वह कन्या पुत्रवृद्धिके समान दिनोंदिन बढ़ने लगी। उसे देखकर उस समय रानी अपनेको पुत्रवती समझकर परम आनन्दित हुईं। उस दिन महलमें ऐसा उत्सव मनाया गया, जैसा पुत्रजन्मके अवसरपर मनाया जाता है। वह पुत्री उन दोनोंके लिये पुत्रके ही सदृश प्रिय हो गयी ।। 52-533 ॥

हे सुबुद्धे! हे कामदेवसदृश रूपवाले ! मैं उन्हीं | राजा रैभ्यके मन्त्रीकी पुत्री हूँ। मेरा नाम यशोवती है। मेरी तथा एकावलीको अवस्था समान है। उसके साथ खेलने के लिये राजाने मुझे उसकी सखी बना दिया। इस प्रकार मैं उसकी सहचरी बनकर प्रेमपूर्वक दिन रात उसके साथ रहने लगी ।। 54-553 ॥

एकावली जहाँ भी सुगन्धित कमल देखती थी, | वह बाला वहीं खेलने लग जाती थी; अन्यत्र कहीं भी उसे सुख नहीं मिलता था। [ एक बार] गंगाके तटपर बहुत दूर कमल खिले हुए थे। राजकुमारी | एकावली सखियोंसहित मेरे साथ घूमती हुई वहाँचली गयी । [ इससे चिन्तित होकर ] मैंने महाराज रैभ्यसे कहा - हे राजन्! आपकी पुत्री एकावली कमलोंको देखती हुई बहुत दूर निर्जन वनमें चली जाती है। तब उसके पिताने घरपर ही अनेक जलाशयोंका निर्माण कराकर उनमें पुष्पित तथा भौंरोंसे आवृत कमल लगवाकर उसे दूर जानेसे मना कर दिया। इसपर भी मनमें कमलोंके प्रति आसक्ति रखनेवाली वह कन्या बाहर निकल जाती थी। तब राजाने उसके साथ हाथोंमें शस्त्र धारण किये हुए रक्षक नियुक्त कर दिये। इस प्रकार रक्षित होकर वह सुन्दरी मेरे तथा सखियोंसहित क्रीडाके लिये गंगातटपर प्रतिदिन आया जाया करती थी ॥ 56–61॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] त्रिशिराकी तपस्यासे चिन्तित इन्द्रद्वारा तपभंगहेतु अप्सराओंको भेजना
  2. [अध्याय 2] इन्द्रद्वारा त्रिशिराका वध, क्रुद्ध त्वष्टाद्वारा अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे हवन करके वृत्रासुरको उत्पन्न करना और उसे इन्द्रके वधके लिये प्रेरित करना
  3. [अध्याय 3] वृत्रासुरका देवलोकपर आक्रमण, बृहस्पतिद्वारा इन्द्रकी भर्त्सना करना और वृत्रासुरको अजेय बतलाना, इन्द्रकी पराजय, त्वष्टाके निर्देशसे वृत्रासुरका ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये तपस्यारत होना
  4. [अध्याय 4] तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीका वृत्रासुरको वरदान देना, त्वष्टाकी प्रेरणासे वृत्रासुरका स्वर्गपर आक्रमण करके अपने अधिकारमें कर लेना, इन्द्रका पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकरके साथ वैकुण्ठधाम जाना
  5. [अध्याय 5] भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णुका इन्द्रको वृत्रासुरसे सन्धिका परामर्श देना, ऋषियोंकी मध्यस्थतासे इन्द्र और वृत्रासुरमें सन्धि, इन्द्रद्वारा छलपूर्वक वृत्रासुरका वध
  7. [अध्याय 7] त्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना
  8. [अध्याय 8] इन्द्राणीको बृहस्पतिकी शरणमें जानकर नहुषका क्रुद्ध होना, देवताओंका नहुषको समझाना, बृहस्पतिके परामर्शसे इन्द्राणीका नहुषसे समय मांगना, देवताओंका भगवान् विष्णुके पास जाना और विष्णुका उन्हें देवीको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेधयज्ञ करने को कहना, बृहस्पतिका शचीको भगवतीकी आराधना करनेको कहना, शचीकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीका प्रकट होना और शचीको इन्द्रका दर्शन होना
  9. [अध्याय 9] शचीका इन्द्रसे अपना दुःख कहना, इन्द्रका शचीको सलाह देना कि वह नहुषसे ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें आनेको कहे, नहुषका ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्रका पुनः स्वर्गाधिपति बनना
  10. [अध्याय 10] कर्मकी गहन गतिका वर्णन तथा इस सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका उदाहरण
  11. [अध्याय 11] युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन
  12. [अध्याय 12] पवित्र तीर्थोका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना
  13. [अध्याय 13] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्रसे प्राप्त वरुणमन्त्र जपसे शुनःशेपका मुक्त होना, परस्पर शापसे विश्वामित्र और वसिष्ठका बक तथा आडी होना
  14. [अध्याय 14] राजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना
  15. [अध्याय 15] भगवतीकी कृपासे निमिको मनुष्योंके नेत्र पलकोंमें वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियोंकी त्रिगुणात्मकताका वर्णन
  16. [अध्याय 16] हैहयवंशी क्षत्रियोंद्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणोंका संहार
  17. [अध्याय 17] भगवतीकी कृपासे भार्गव ब्राह्मणीकी जंघासे तेजस्वी बालककी उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियोंकी उत्पत्तिकी कथा
  18. [अध्याय 18] भगवती लक्ष्मीद्वारा घोड़ीका रूप धारणकर तपस्या करना
  19. [अध्याय 19] भगवती लक्ष्मीको अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुके दर्शन और उनका वैकुण्ठगमन
  20. [अध्याय 20] राजा हरिवर्माको भगवान् विष्णुद्वारा अपना हैहयसंज्ञक पुत्र देना, राजाद्वारा उसका 'एकवीर' नाम रखना
  21. [अध्याय 21] आखेटके लिये वनमें गये राजासे एकावलीकी सखी यशोवतीकी भेंट, एकावलीके जन्मकी कथा
  22. [अध्याय 22] यशोवतीका एकवीरसे कालकेतुद्वारा एकावलीके अपहृत होनेकी बात बताना
  23. [अध्याय 23] भगवतीके सिद्धिप्रदायक मन्यसे दीक्षित एकवीरद्वारा कालकेतुका वध, एकवीर और एकावलीका विवाह तथा हैहयवंशकी परम्परा
  24. [अध्याय 24] धृतराष्ट्रके जन्मकी कथा
  25. [अध्याय 25] पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन
  26. [अध्याय 26] देवर्षि नारद और पर्वतमुनिका एक-दूसरेको शाप देना, राजकुमारी दमयन्तीका नारदसे विवाह करनेका निश्चय
  27. [अध्याय 27] वानरमुख नारदसे दमयन्तीका विवाह, नारद तथा पर्वतका परस्पर शापमोचन
  28. [अध्याय 28] भगवान् विष्णुका नारदजीसे मायाकी अजेयताका वर्णन करना, मुनि नारदको मायावश स्त्रीरूपकी प्राप्ति तथा राजा तालध्वजका उनसे प्रणय निवेदन करना
  29. [अध्याय 29] राजा तालध्वजसे स्त्रीरूपधारी नारदजीका विवाह, अनेक पुत्र-पौत्रोंकी उत्पत्ति और युद्धमें उन सबकी मृत्यु, नारदजीका शोक और भगवान् विष्णुकी कृपासे पुनः स्वरूपबोध
  30. [अध्याय 30] राजा तालध्वजका विलाप और ब्राह्मणवेशधारी भगवान् विष्णुके प्रबोधनसे उन्हें वैराग्य होना, भगवान् विष्णुका नारदसे मायाके प्रभावका वर्णन करना
  31. [अध्याय 31] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना