नारदजी बोले - हे ब्रह्मन् ! गोलोकसे जो सुरभिदेवी आयी थीं, वे कौन थीं? मैं ध्यानपूर्वक उनका जन्मचरित्र सुनना चाहता हूँ ॥ 1 ॥
श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] वे देवी सुरभि गोलोकमें प्रकट हुईं। वे गौओंकी अधिष्ठात्री | देवी, गौओंकी आदिस्वरूपिणी, गौओंकी जननी तथा गौओंमें प्रधान हैं। मैं सभी गौओंकी आदिसृष्टिस्वरूपा उन सुरभिके चरित्रका वर्णन कर रहा हूँ, आप ध्यानपूर्वक सुनिये। पूर्वकालमें वृन्दावनमें सुरभिका प्रादुर्भाव हुआ था ॥ 2-3॥
एक समयकी बात है, गोपांगनाओंसे घिरे हुए परम कौतुकी राधिकापति श्रीकृष्ण राधाके साथ पुनीत वृन्दावनमें गये हुए थे। वहाँ वे एकान्तमें क्रीडापूर्वक विहार करने लगे, तभी सहसा उन स्वेच्छामय प्रभुको दुग्धपानकी इच्छा हो गयी ॥ 4-5 ॥ उसी समय उन्होंने अपने वामभागसे लीलापूर्वक बछड़ेसहित दुग्धवती सुरभि गौको प्रकट कर दिया।
उस बछड़ेका नाम मनोरथ था ॥ 6 ॥ बछड़ेसहित उस गायको देखकर श्रीदामाने एक नवीन पात्रमें उसका दूध दुहा जन्म, मृत्यु तथा बुढ़ापाको हरनेवाला वह दुग्ध अमृतसे भी बढ़करथा। सुरभिसे दुहे गये उस स्वादिष्ट दूधको स्वयं गोपीपति भगवान् श्रीकृष्ण पीने लगे। तभी पात्रके गिरकर फूट जानेसे चारों ओर सौ योजनकी लम्बाई तथा चौड़ाईवाला एक विशाल दूधका सरोवर हो गया। यही सरोवर गोलोकमें क्षीरसरोवर नामसे प्रसिद्ध है ।। 7-9 ॥
वह सरोवर गोपिकाओं तथा राधाका क्रीडावापी हो गया। वापीके [ घाट आदि] पूर्णरूपसे श्रेष्ठ रत्नोंसे निर्मित थे। भगवान् श्रीकृष्णकी इच्छासे उसी समय सहसा लाखों-करोड़ों कामधेनु गौएँ प्रकट हो गयीं। वहाँ जितने गोप थे वे सभी उस सुरभिके रोमकूपोंसे प्रकट हुए थे। तत्पश्चात् उन गौओंकी असंख्य सन्तानें उत्पन्न हो गयीं। इस प्रकार उस सुरभिसे गायोंकी सृष्टि कही गयी है; उसीसे यह जगत् व्याप्त है ॥ 10-12 ॥
हे मुने! पूर्वकालमें भगवान् श्रीकृष्णने देवी सुरभिकी पूजा की थी, उसी समयसे तीनों लोकोंमें उस सुरभिकी | दुर्लभ पूजाका प्रचार हो गया। दीपावलीके दूसरे दिन भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे देवी सुरभि पूजित हुई थीं- यह मैंने धर्मदेवके मुखसे सुना है ।। 13-14॥ हे महाभाग ! अब मैं आपको देवी सुरभिका वेदोक्त ध्यान, स्तोत्र, मूलमन्त्र तथा जो-जो पूजाका विधिक्रम है, उसे बता रहा हूँ, ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ 15 ॥ 'ॐ सुरभ्यै नमः '- यह उनका षडक्षर मन्त्र है। एक लाख जप करनेपर यह मन्त्र सिद्ध होकर भक्तोंके लिये कल्पवृक्षतुल्य हो जाता है ॥ 16 ॥
देवी सुरभिका ध्यान यजुर्वेदमें वर्णित है। उनकी पूजा सब प्रकारसे ऋद्धि, वृद्धि, मुक्ति तथा समस्त अभीष्ट प्रदान करनेवाली है ॥ 17 ॥
[ ध्यान इस प्रकार है- ] 'लक्ष्मीस्वरूपा, परमा, राधाकी सहचरी, गौओंकी अधिष्ठात्री देवी, गौओंकी आदिस्वरूपिणी, गौओंकी जननी, पवित्ररूपिणी, पावन, भक्तोंके सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करनेवाली तथा जिनसे सम्पूर्ण जगत् पावन बना हुआ है—उन पराभगवती | सुरभिकी मैं आराधना करता हूँ' ॥ 18-19 ॥
द्विजको चाहिये कि कलश, गायके मस्तक, गायोंके बाँधनेके स्तम्भ, शालग्रामशिला, जल अथवा | अग्निमें सुरभिकी भावना करके उनकी पूजा करे ॥ 20 ॥जो मनुष्य दीपावलीके दूसरे दिन पूर्वाह्नकालमें भक्तिसे युक्त होकर सुरभिकी पूजा करता है, वह पृथ्वीलोकमें पूज्य हो जाता है ॥ 21 ॥
एक समयकी बात है, वाराहकल्पमें भगवान् विष्णुकी मायासे देवी सुरभिने तीनों लोकोंमें दूध देना बन्द कर दिया, जिससे समस्त देवता आदि चिन्तित हो गये। ब्रह्मलोकमें जाकर उन्होंने ब्रह्माकी स्तुति की, तब ब्रह्माजीकी आज्ञासे इन्द्र सुरभिकी स्तुति करने लगे ।। 22-23 ॥
पुरन्दर बोले- देवीको नमस्कार है, महादेवी सुरभिको बार-बार नमस्कार है। हे जगदम्बिके! गौओंकी बीजस्वरूपिणी आपको नमस्कार है ॥ 24 ॥ राधाप्रियाको नमस्कार है, देवी पद्मांशाको बार-बार नमस्कार है, कृष्णप्रियाको नमस्कार है और गौओंकी जननीको बार-बार नमस्कार है ।। 25 ।। हे परादेवि ! सभी प्राणियोंके लिये कल्पवृक्षस्वरूपिणी, दुग्ध देनेवाली, धन प्रदान करनेवाली तथा बुद्धि देनेवाली आपको बार-बार नमस्कार है ॥ 26 ॥ शुभा, सुभद्रा तथा गोप्रदाको बार-बार नमस्कार है। यश, कीर्ति तथा धर्म प्रदान करनेवाली भगवती सुरभिको बार-बार नमस्कार है ॥ 27 ॥
इस स्तोत्रको सुनते ही जगज्जननी सनातनी देवी सुरभि सन्तुष्ट तथा प्रसन्न होकर उस ब्रह्मलोकमें प्रकट हो गयीं ॥ 28 ॥
देवराज इन्द्रको दुर्लभ वांछित वर प्रदान करके वे गोलोकको चली गयीं और देवता आदि अपने अपने स्थानको चले गये ।। 29 ।।
नारद! उसके बाद विश्व दुग्धसे परिपूर्ण हो गया। दुग्ध होनेसे घृतका प्राचुर्य हो गया और उससे यज्ञ होने लगा, जिससे देवताओंको सन्तुष्टि होने लगी ॥ 30 ॥
जो भक्तिपूर्वक इस परम पवित्र स्तोत्रका पाठ करता है, वह गौओंसे सम्पन्न, धनवान्, यशस्वी तथा पुत्रवान् हो जाता है। उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान | कर लिया तथा वह सभी यज्ञोंमें दीक्षित हो गया। वह इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीकृष्णके धाममेंचला जाता है। वह वहाँ दीर्घकालतक निवास करता है और भगवान् श्रीकृष्णकी सेवामें संलग्न रहता है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता, वह ब्रह्मपुत्र ही हो जाता है ॥ 31–33 ॥