नारदजी बोले - हे प्रभो ! मैंने भगवान् श्रीहरिका कल्याणप्रद गुणानुवाद, उनका उत्तम ज्ञान तथा भगवती लक्ष्मीका अभीष्ट उपाख्यान सुना। अब उन | देवीके ध्यान तथा स्तोत्रके विषयमें बताइये ॥ 1 ॥
श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] प्राचीन कालकी बात है। इन्द्रने क्षीरसमुद्रके तटपर तीर्थस्नान करके दो स्वच्छ वस्त्र धारण करनेके बाद कलशकी स्थापना करके श्रीगणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव तथा पार्वती - इन छः देवताओंकी विधिवत् पूजा की। गन्ध, पुष्प आदिसे भक्तिपूर्वक इन देवोंकी पूजा करके देवेश्वर इन्द्रने ब्रह्माजी तथा अपने पुरोहित गुरु बृहस्पतिके द्वारा निर्दिष्ट विधानके अनुसार परम ऐश्वर्यमयी भगवती महालक्ष्मीका आवाहन करके उनकी पूजा की। हे मुने! उस समय उस पावन स्थलपर अनेक मुनि, ब्राह्मणसमुदाय, गुरु बृहस्पति, श्रीहरि, देवगण तथा ज्ञानानन्द भगवान् शिव आदि विराजमान थे ॥ 2-5 ॥
हे नारद! इन्द्रने पारिजातका चन्दन-चर्चित | पुष्प लेकर पूर्वकालमें भगवान् श्रीहरिने ब्रह्माजीको सामवेद में वर्णित जो ध्यान बतलाया था, उसी ध्यानके द्वारा भगवती महालक्ष्मीका ध्यान करके उनका पूजन किया, मैं वही ध्यान तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ।। 6-7 ।।
'ये पराम्बा महालक्ष्मी सहस्रदलवाले कमलपर स्थित कर्णिकाके ऊपर विराजमान हैं, वे श्रेष्ठ | भगवती शरत्पूर्णिमाके करोड़ों चन्द्रमाओंकी कान्तिका | हरण करनेवाली हैं, अपने ही तेजसे देदीप्यमान हैं, इन मनोहर देवीका दर्शन अत्यन्त सुखप्रद है, यसाध्वी महालक्ष्मी मूर्तिमान् होकर तपाये हुए सुवर्णके समान शोभित हो रही हैं, रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत तथा पीताम्बरसे सुशोभित हो रही हैं, इनके प्रसन्न मुखमण्डलपर मन्द मन्द मुसकान विराज रही है, ये सर्वदा स्थिर रहनेवाले यौवनसे सम्पन्न हैं ऐसी कल्याणमयी तथा सर्वसम्पत्तिदायिनी महालक्ष्मीकी मैं उपासना करता हूँ' ॥ 8 - 106 ॥
हे नारद! इस प्रकार ध्यान करके इन्द्रने ब्रह्माजीके कथनानुसार सोलह पूजनोपचारोंसे अनेक गुणोंवाली उन भगवती महालक्ष्मीकी पूजा की, उन्होंने भक्तिके साथ मन्त्रपूर्वक विधानके अनुसार प्रत्येक उपचार अर्पित किया। इन्द्रने विविध प्रकारके प्रशस्त, उत्कृष्ट तथा श्रेष्ठ उपचार इस प्रकार समर्पित किये ।। 11-123
हे महालक्ष्मि ! विश्वकर्माके द्वारा निर्मित अमूल्य रत्नसारस्वरूप इस विचित्र आसनको ग्रहण कीजिये ॥ 133 ॥
हे कमलालये पापरूपी ईंधनको जलानेके लिये वह्निस्वरूप, सबके द्वारा वन्दित तथा अभिलषित और परम पवित्र इस गंगाजलको [पाद्यके रूपमें] स्वीकार कीजिये ॥ 143 ॥
हे पद्मवासिनि पुष्प, चन्दन, दूर्वा आदिसे युक्त इस शंखमें स्थित गंगाजलको सुन्दर अर्घ्यके रूपमें ग्रहण कीजिये ॥ 153 ॥
हे श्रीहरिप्रिये! सुगन्धित पुष्पोंसे सुवासित तैल तथा सुगन्धपूर्ण आमलको चूर्ण-इन देहसौन्दयके बीजरूप स्नानीय उपचारोंको आप ग्रहण कीजिये। हे देवि ! कपास तथा रेशमसे निर्मित इस वस्त्रको आप स्वीकार कीजिये ।। 16-17 ॥
हे देवि! स्वर्ण तथा रत्नोंसे निर्मित, देहसौन्दर्यकी वृद्धि करनेवाले, ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, सम्पूर्ण सुन्दरताके कारणस्वरूप तथा शीघ्र ही शोभा प्रदान करनेवाले इस श्रेष्ठ रत्नमय आभूषणको अपनी | शोभाके लिये आप ग्रहण कीजिये। हे श्रीकृष्णकान्ते ! वृक्षसे रसके रूपमें निकले हुए तथा सुगन्धित द्रव्योंसे युक्त यह पवित्र धूप आप ग्रहण करें। हे देवि ! सुगन्धसे परिपूर्ण तथा सुखप्रद इस चन्दनको आप स्वीकार कीजिये ।। 18-20 ॥हे सुरेश्वरि ! जगत्के लिये चक्षुस्वरूप, अन्धकार | दूर करनेवाले, सुखरूप तथा परम पवित्र इस दीपकको आप स्वीकार कीजिये ॥ 21 ॥
नाना प्रकारके उपहारस्वरूप अनेकविध रोंये युक्त तथा अत्यन्त स्वादिष्ट इस नैवेद्यको आप स्वीकार कीजिये अन्न ब्रह्मस्वरूप होता है, यह प्राणरक्षाका परम कारण है, तुष्टि तथा पुष्टि प्रदान करता है, अतः हे देवि! आप इस अन्नको ग्रहण कीजिये ।। 22-23 ॥
हे महालक्ष्मि शर्करा और गोघृत मिलाकर अगहनी चावलसे तैयार किये गये इस स्वादिष्ट पक्वान्नको परमान्नके रूपमें आप स्वीकार करें। हे परमेश्वरि शर्करा और घृतमें पकाया गया यह स्वादिष्ट तथा अत्यन्त मनोहर स्वस्तिक नामक नैवेद्य आप ग्रहण करें ।। 24-25 ।।
हे अच्युतप्रिये ! ये अनेक प्रकारके सुन्दर पक्वान्न तथा फल और सुरभीधेनुके स्तनसे दुहे गये मृत्युलोकके लिये अमृतस्वरूप, अत्यन्त मनोहर तथा सुस्वादु दुग्धको आप स्वीकार कीजिये। ईखसे निकाले गये अत्यन्त स्वादिष्ट रसको अग्निपर पकाकर निर्मित किये गये इस परम स्वादिष्ट गुड़को आप स्वीकार कीजिये। हे देवि! जौ, गेहूँ आदिके चूर्ण में गुड़ तथा गायका मृत मिलाकर भलीभाँति पकाये गये इस | मिष्टान्नको आप ग्रहण कीजिये। मैंने धान्यके चूर्णसे बनाये गये तथा स्वस्तिक आदिसे युक्त यह पका हुआ नैवेद्य आपको भक्तिपूर्वक अर्पण किया है, इसे | स्वीकार करें ॥ 26- 293 ॥
हे कमले! शीतल वायु प्रदान करनेवाला और उष्णकालमें परम सुखदायक यह पंखा तथा स्वच्छ | चैवर ग्रहण कीजिये ॥ 303 ॥
कर्पूर आदि सुगन्धित पदार्थोंसे सुवासित तथा की जड़ताको दूर करनेवाले इस उत्तम ताम्बूलको आप स्वीकार करें ।। 313 ॥
हे देवि ! प्यास बुझानेवाले, अत्यन्त शीतल, सुवासित तथा जगत्के लिये जीवनस्वरूप इस जलको स्वीकार कीजिये ॥ 323 ॥हे देवि ! देहसौन्दर्यके मूल कारण तथा सदा शोभा बढ़ानेवाले इस सूती तथा रेशमी वस्त्रको आप ग्रहण करें ।। 333 ॥
हे देवि रक्तस्वर्णनिर्मित शरीरकी शोभा आदिकी वृद्धि करनेवाला, सौन्दर्यका आधार तथा कान्तिवर्धक यह आभूषण ग्रहण कीजिये ॥ 346 ॥
हे देवि! विविध ऋतुओंके पुष्पोंसे गूंथी गयी, अत्यधिक शोभाके आश्रयस्वरूप तथा देवराज इन्द्रके लिये भी परम प्रिय इस श्रेष्ठ तथा पवित्र मालाको आप स्वीकार करें 353 ॥
हे देवि ! सुगन्धित द्रव्योंसे सम्पन्न, सभी मंगलोंका भी मंगल करनेवाले, शुद्धि प्रदान करनेवाले तथा शुद्धस्वरूप इस दिव्य चन्दनको आप ग्रहण कीजिये ll 366 ॥
हे कृष्णकान्ते! यह पवित्र तीर्थजल स्वयं शुद्ध है तथा दूसरोंको भी सदा शुद्धि प्रदान करनेवाला है, इस दिव्य जलको आप आचमनके रूपमें ग्रहण कीजिये ॥ 373 ॥
हे देवि! अमूल्य रत्नोंसे निर्मित, पुष्प तथा चन्दनसे चर्चित और वस्त्र आभूषण तथा श्रृंगार सामग्रीसे सम्पन्न इस दिव्य शय्याको आप स्वीकार करें। हे देवि इस पृथ्वीपर जो भी अपूर्व तथा दुर्लभ द्रव्य शरीरकी शोभावृद्धिके योग्य हैं, उन समस्त द्रव्योंको आपको अर्पण कर रहा हूँ, आप ग्रहण | कीजिये ॥ 38-393॥
[हे मुने!] मूलमन्त्र पढ़ते हुए ये उपचार भगवतीको समर्पित करके देवराज इन्द्रने विधानके अनुसार भक्तिपूर्वक उनके मूल मन्त्रका दस लाख जप किया। उस दस लाख जपसे इन्द्रको मन्त्रकी सिद्धि हो गयी ।। 40-41 ॥
सभीके लिये कल्पवृक्षके समान यह मूलमन्त्र उन्हें ब्रह्माजीके द्वारा प्रदान किया गया था। पूर्वमें लक्ष्मीबीज (श्री), मायाबीज (ह्रीं), कामबीज (क्लीं) और वाणीबीज (ऐं) का प्रयोग करके कमलवासिनी इस शब्दके अन्तमें 'डे' (चतुर्थी) विभक्ति लगाकर पुनः 'स्वाहा' शब्द जोड़ देनेपर 'ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा'- यही मन्त्र वैदिक मन्त्रराजकेरूपमें प्रसिद्ध है। कुबेरने इसी मन्त्रके द्वारा परम ऐश्वर्य प्राप्त किया था और दक्षसावर्णि नामक मनुने | राजराजेश्वरका पद प्राप्त कर लिया था। मंगल इसी मन्त्रके प्रभावसे सात द्वीपोंके राजा हुए थे। हे नारद! प्रियव्रत, उत्तानपाद और केदार- ये सभी इसी मन्त्रके प्रभावसे परम सिद्ध राजाधिराज बने ॥ 42-45 ॥
इस मन्त्रके सिद्ध हो जानेपर भगवती महालक्ष्मीने इन्द्रको दर्शन दिया। उस समय वे वरदायिनी भगवती सर्वोत्तम रत्नसे निर्मित विमानपर विराजमान थीं, उन्होंने अपने तेजसे सात द्वीपोंवाली सम्पूर्ण पृथ्वीको व्याप्त कर रखा था, उनका श्रीविग्रह श्वेत चम्पाके पुष्पकी आभाके समान था, वे रत्नमय आभूषणोंसे सुशोभित थीं, उनका मुखमण्डल मन्द मन्द मुसकान तथा प्रसन्नतासे युक्त था, वे भक्तोंपर कृपा करनेके लिये परम आतुर थीं, उन्होंने रत्नमयी माला धारण कर रखी थी और वे करोड़ों चन्द्रमाओंके समान कान्तिसे युक्त थीं। उन शान्त स्वभाववाली जगज्जननी भगवती महालक्ष्मीको देखकर इन्द्रके सभी अंग पुलकित हो उठे और वे दोनों हाथ जोड़कर अश्रुपूरित नेत्रोंसे ब्रह्माजीसे प्राप्त तथा सम्पूर्ण अभीष्ट प्रदान करनेवाले इस वैदिक स्तोत्रराजके द्वारा उन महालक्ष्मीकी स्तुति करने लगे ॥ 46-50 ॥
पुरन्दर बोले- भगवती कमलवासिनीको नमस्कार है। देवी नारायणीको नमस्कार है, कृष्णप्रिया महालक्ष्मीको | निरन्तर बार-बार नमस्कार है ॥ 51 ॥ कमलपत्रके | समान नेत्रवाली और कमलके समान मुखवालीको | बार-बार नमस्कार है। पद्मासना, पद्मिनी और वैष्णवीको बार-बार नमस्कार है 52 ॥ सर्वसम्पत्स्वरूपा तथा सबकी आराध्या देवीको बार-बार नमस्कार है। भगवान् श्रीहरिकी भक्ति प्रदान करनेवाली तथा हर्षदायिनी भगवती लक्ष्मीको बार-बार नमस्कार | है ॥ 53 ॥ हे रत्नपद्ये हे शोभने! श्रीकृष्णके वक्षःस्थलपर | सुशोभित होनेवाली तथा चन्द्रमाकी शोभा धारण करनेवाली आप कृष्णेश्वरीको बार-बार नमस्कार | है ॥ 54 ॥ सम्पत्तिकी अधिष्ठात्री देवीको नमस्कार है। महादेवीको नमस्कार है। बुद्धिस्वरूपिणी भगव महालक्ष्मीको नमस्कार है। वृद्धि प्रदान करनेवाली महालक्ष्मीको बार-बार नमस्कार है ॥ 55 ॥हे भगवति! आप वैकुण्ठमें महालक्ष्मी, क्षीरसागरमें लक्ष्मी, इन्द्रके भवनमें स्वर्गलक्ष्मी, राजाओंके भवनमें राजलक्ष्मी, गृहस्थोंके घरमें गृहलक्ष्मी और गृहदेवता, सागरके यहाँ सुरभि तथा यज्ञके पास दक्षिणाके रूपमें विराजमान रहती हैं ॥ 56-57 ॥ आप अदिति, देवमाता, कमला तथा कमलालया नामसे प्रसिद्ध हैं और हवि प्रदान करते समय स्वाहा तथा कव्य प्रदान करते समय स्वधा नामसे कही गयी हैं ॥ 58 ॥ सम्पूर्ण जगत्को धारण करनेवाली विष्णुस्वरूपिणी पृथ्वी आप ही हैं। आप भगवान् नारायणकी आराधनामें सदा तत्पर रहनेवाली तथा विशुद्ध सत्त्वसम्पन्न हैं। आप क्रोध तथा हिंसासे रहित, वर प्रदान करनेवाली, बुद्धि प्रदान करनेवाली, मंगलमयी, श्रेष्ठ, परमार्थ तथा भगवान्का दास्य प्रदान करनेवाली हैं । 59-60 ॥ आपके बिना सम्पूर्ण जगत् भस्मीभूत तथा सारहीन है। आपके बिना यह समग्र विश्व सर्वथा जीते-जी मरे हुएके समान है ॥ 61 ॥ आप समस्त प्राणियोंकी श्रेष्ठ माता, सबकी बान्धवस्वरूपिणी और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष (पुरुषार्थचतुष्टय) की मूल कारण हैं ॥ 62 ॥ जिस प्रकार माता शैशवावस्थामें स्तनपायी शिशुओंकी सदा रक्षा करती है, उसी प्रकार आप सभी प्राणियोंकी माताके रूपमें सब प्रकारसे उनकी रक्षा करती हैं ॥ 63 ॥ स्तनपायी शिशु माताके न रहनेपर भी दैवयोगसे जी भी सकता है, किंतु आपसे रहित होकर कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता-यह निश्चित है। हे अम्बिके! आप अत्यन्त प्रसन्नतापूर्ण स्वरूपवाली हैं, अतः मुझपर प्रसन्न हों ॥ 643 ॥
हे सनातनि ! शत्रुओंके द्वारा अधिकृत किया गया मेरा राज्य मुझे पुनः प्राप्त कराइये। हे हरिप्रिये ! मैं जबतक आपके दर्शनसे वंचित था; तभीतक बन्धुहीन, भिक्षुक और सम्पूर्ण सम्पदाओंसे विहीन था। अब आप मुझे ज्ञान, धर्म, पूर्ण सौभाग्य, सम्पूर्ण अभीष्ट, प्रभाव, प्रताप, सम्पूर्ण अधिकार, परम ऐश्वर्य, पराक्रम तथा युद्धमें विजय प्रदान कीजिये ॥ 65- 676 ॥[हे नारद!] ऐसा कहकर सभी देवताओंके साथ इन्द्रने अश्रुपूरित नेत्रोंसे तथा मस्तक झुकाकर भगवतीको बार-बार प्रणाम किया। ब्रह्मा, शंकर, शेषनाग, धर्म तथा केशव - इन सभीने देवताओंके कल्याणहेतु भगवतीसे बार-बार प्रार्थना की ।। 68-693 ॥
तब देवसभामें परम प्रसन्न होकर भगवती महालक्ष्मीने देवताओंको वर प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्णको मनोहर पुष्पमाला समर्पित कर दी। हे नारद! तदनन्तर सभी देवता प्रसन्न होकर अपने अपने स्थानको चले गये और प्रसन्नचित्त महालक्ष्मी भी क्षीरसागरमें शयन करनेवाले भगवान् श्रीहरिके लोकको चली गयीं। हे नारद! देवताओंको आशीर्वाद | देकर ब्रह्मा और शिव भी प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने लोकको चले गये ॥ 70–723॥
[हे नारद!] जो मनुष्य तीनों सन्ध्याकालमें इस परम पवित्र स्तोत्रका पाठ करता है, वह कुबेरके | समान महान् राजराजेश्वर हो जाता है। पाँच लाख | जप करनेपर मनुष्योंके लिये यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है। यदि कोई मनुष्य एक मासतक निरन्तर इस सिद्ध स्तोत्रका पाठ करे, तो वह परम सुखी तथा राजेन्द्र हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है । ll73–75॥