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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 6, अध्याय 8 - Skand 6, Adhyay 8

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इन्द्राणीको बृहस्पतिकी शरणमें जानकर नहुषका क्रुद्ध होना, देवताओंका नहुषको समझाना, बृहस्पतिके परामर्शसे इन्द्राणीका नहुषसे समय मांगना, देवताओंका भगवान् विष्णुके पास जाना और विष्णुका उन्हें देवीको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेधयज्ञ करने को कहना, बृहस्पतिका शचीको भगवतीकी आराधना करनेको कहना, शचीकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीका प्रकट होना और शचीको इन्द्रका दर्शन होना

व्यासजी बोले- वे शची देवगुरुकी शरण में चली गयी हैं—ऐसा सुनकर कामबाणसे आहत नहुष अंगिरापुत्र बृहस्पतिपर बहुत कुपित हुआ और उसने देवताओंसे कहा - यह अंगिरापुत्र बृहस्पति आज मेरेद्वारा निश्चय ही मारा जायगा; क्योंकि मैंने ऐसा सुना है कि उस मूर्खने इन्द्राणीको अपने घरमें रखा है ॥ 1-2 ॥ इस प्रकार नहुषको क्रुद्ध देखकर प्रधान ऋषियोंसहित देवतागण उस दुष्टसे सामनीतियुक्त वचन बोले- ॥ 3 ॥हे राजेन्द्र ! क्रोध दूर करो और पापकारिणी बुद्धिका त्याग करो। हे प्रभो ! [ मनीषियोंने] धर्मशास्त्रोंमें परस्त्रीगमनकी निन्दा की है ॥ 4 ॥


इन्द्रकी पत्नी शची सदासे अत्यन्त साध्वी, सौभाग्यवती और पतिव्रता हैं; फिर अपने पतिके जीवित रहते वे कैसे दूसरेको पति बना सकती हैं ? ॥ 5 ॥ हे विभो ! आज इस समय आप तीनों लोकोंके स्वामी तथा धर्मके रक्षक हैं। आप जैसा राजा अधर्ममें स्थित हो जाय तब तो निश्चितरूपसे प्रजाका नाश हो जायगा ॥ 6 ॥

राजाको सब प्रकारसे सदाचारकी रक्षा करनी चाहिये। यहाँ स्वर्गमें तो शचीके सदृश सैकड़ों प्रमुख अप्सराएँ हैं ॥
महात्माओंने रतिको ही श्रृंगारका कारण बताया है, बलप्रयोग किये जानेपर तो रसकी हानि ही होती है ॥ 8 ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! जब [स्त्री-पुरुष] दोनोंमें एक समान प्रेम रहता है, तभी उन दोनोंको अधिक सुख प्राप्त होता है ॥ 9 ॥

अतः हे देवेन्द्र! परस्त्रीगमनकी यह भावना छोड़ दीजिये और श्रेष्ठ आचरण कीजिये; क्योंकि आपको इन्द्र- जैसा अतिश्रेष्ठ पद प्राप्त है ॥ 10 ॥ हे राजन् ! पापसे सम्पत्तिका क्षय होता है और पुण्यसे महान् वृद्धि होती है, इसलिये पापकर्म छोड़कर सात्त्विक बुद्धिका आश्रय लीजिये ॥ 11 ॥

नहुषने कहा- हे देवताओ! जब देवराज इन्द्रने | गौतमकी पत्नीके साथ और चन्द्रमाने बृहस्पतिकी पत्नीके साथ अनाचार किया था, तब तुमलोग कहाँ थे ? ॥ 12 ॥ लोग दूसरोंको उपदेश देनेमें बहुत कुशल होते हैं, परंतु उपदेश देनेवाला तथा उसका पालन करनेवाला पुरुष दुर्लभ होता है 13 ॥

हे देवताओ ! वह शची मेरे पास आ जाय, इसीमें आप सबका परम कल्याण है; इससे उसको भी अत्यन्त सुख मिलेगा ।। 14 ।।

अन्य किसी भी प्रकारसे मैं सन्तुष्ट नहीं होऊँगा, यह मैं तुमलोगोंसे कह रहा हूँ। इसलिये विनयसे या बलपूर्वक तुमलोग उसे शीघ्र ही मुझे प्राप्त कराओ ॥ 15 ॥ उसकी यह बात सुनकर भयभीत देवताओं और मुनियोंने उस कामातुर नहुषसे कहा—हमलोग सामनीतिसे इन्द्राणीको आपके पास लायेंगे-ऐसा कहकर वे लोग बृहस्पतिके निवासपर चले गये ॥ 16-17 ॥

व्यासजी बोले- तदनन्तर वे देवगण अंगिराके पुत्र बृहस्पतिके पास जाकर हाथ जोड़कर उनसे बोले- हमें ज्ञात हुआ है कि इन्द्राणीको आपके घरमें शरण प्राप्त है, उन्हें आज ही नहुषको देना है; क्योंकि वह इन्द्र बना दिया गया है। यह सुलक्षणा सुन्दरी उन्हें पतिके रूपमें वरण कर ले ।। 18-19 ॥ यह दारुण वचन सुनकर बृहस्पतिने देवताओंसे कहा- मैं शरणमें आयी हुई इस पतिव्रता शचीका त्याग नहीं करूँगा ॥ 20 ॥

देवगण बोले- तब दूसरा कोई उपाय करना चाहिये, जिससे वह आज प्रसन्न हो जाय, अन्यथा क्रुद्ध होनेपर वह दुराराध्य हो जायगा ॥ 21 ॥ देवगुरु बोले- सुन्दरी शची वहाँ जाकर राजाको अपनी बातसे अत्यन्त मोहित करके यह शपथ ले कि 'अपने पतिको मृत जाननेके बाद ही मैं आपको अंगीकार करूँगी। अपने पति इन्द्रके जीवित रहते मैं किसी दूसरेको पति कैसे बना लूँ? इसलिये उन महाभागकी खोजके लिये मुझे जाना पड़ेगा।' इस प्रकार वह मेरे कथनके अनुसार शपथ लेकर और राजाको छलकर अपने पतिको लानेका प्रयत्न करे ॥ 22-24 ॥

ऐसा विचार करके सभी देवता बृहस्पतिको आगे करके इन्द्रपत्नी शचीके साथ नहुषके पास गये ।। 25 ।।

उन सभीको आया हुआ देखकर वह कृत्रिम इन्द्र नहुष हर्षित हुआ। उस शचीको देखकर वह आनन्दित हो गया और प्रसन्नतापूर्वक बोला- हे प्रिये ! आज मैं इन्द्र हूँ, हे सुन्दर नेत्रोंवाली मुझे पतिरूपमें अंगीकार करो। मैं देवताओंके द्वारा सम्पूर्ण लोकका पूज्य बना दिया गया हूँ ॥ 26-27 ॥

नहुषके ऐसा कहनेपर शचीने लज्जित होकर काँपते हुए कहा- हे राजन्! हे सुरेश्वर! मैं आपसे | एक वरप्राप्तिकी इच्छा करती हूँ। आप कुछ समयतकप्रतीक्षा करें, जबतक में यह निर्णय कर लूँ कि मेरे यति इन्द्र जीवित हैं या नहीं; क्योंकि इस बातका मेरे मनमें सन्देह है। मनमें इसका निश्चय करनेके अनन्तर मैं आपकी सेवामें उपस्थित होऊँगी। हे राजेन्द्र ! तबतकके लिये क्षमा कीजिये; यह मैं सत्य कह रही हूँ। अभी यह ज्ञात नहीं है कि इन्द्र नष्ट हो गये हैं या कहीं चले गये हैं॥ 28-306 ॥

इन्द्राणीके ऐसा कहनेपर नहुष प्रसन्न हो गया और 'ऐसा ही हो' यह कहकर उसने उन देवी शचीको प्रसन्नतापूर्वक विदा किया। राजासे मुक्ति पाकर वह पतिव्रता शची शीघ्रतापूर्वक देवताओंके पास जाकर बोली- आपलोग उद्यमशील होकर इन्द्रको ले आनेका प्रयास करें ।। 31-326 ।।

हे नृपश्रेष्ठ। इन्द्राणीका पवित्र और मधुर वचन सुनकर सभी देवताओंने एकाग्र होकर इन्द्रके विषयमें विचार-विमर्श किया। तदनन्तर वे वैकुण्ठलोक जाकर शरणागतवत्सल आदिदेव भगवान् जगन्नाथकी स्तुति करने लगे। उन वाक्पटुविशारद देवताओंने उद्विग्न होकर इस प्रकार कहा- ll 33-35 ll

हे देवाधिदेव ! ब्रह्महत्यासे पीड़ित देवराज इन्द्र सभी प्राणियोंसे अदृश्य होकर कहीं रह रहे हैं। हे प्रभो! आपके परामर्शसे ही उन्होंने ब्राह्मण वृत्रासुरका वध किया था। तब ब्रह्महत्या कहाँ हुई? हे भगवन्। आप ही उनकी और हम सबकी एकमात्र गति हैं। इस महान् कष्टमें पड़े हुए हम सबकी रक्षा कीजिये और उन इन्द्रके ब्रह्महत्या से छूटने का उपाय बताइये। ।। 36-373 ।।

देवताओंका करुण वचन सुनकर भगवान् विष्णु बोले- इन्द्रके पापकी निवृत्तिके लिये अश्वमेधयज्ञ कीजिये; अश्वमेध करनेसे प्राप्त पुण्यसे इन्द्र पवित्र हो जायेंगे। इससे वे पुनः देवताओंके इन्द्रत्वको पा जायेंगे, फिर कोई भय नहीं रहेगा। अश्वमेधयज्ञसे भगवती श्रीजगदम्बिका प्रसन्न होकर ब्रह्महत्या आदि | पाप निश्चितरूपसे नष्ट कर देंगी। जिनके स्मरणमात्रसे पापका समूह नष्ट हो जाता है, उन जगदम्बाकी प्रसन्नता के लिये किये गये अश्वमेधयज्ञका क्या कहना। इन्द्राणी भी नित्य भगवती जगदम्बाकी पूजाकरें; भगवती शिवाकी आराधना सुखकारी होगी। हे देवताओ ! नहुष भी जगदम्बिकाकी मायासे मोहित होकर शीघ्र ही अपने किये हुए पापसे अवश्य विनष्ट हो जायगा। अश्वमेधयज्ञसे पवित्र होकर इन्द्र भी शीघ्र ही अपने उत्तम इन्द्रपद और वैभवको प्राप्त करेंगे ॥ 38-443 ॥

अमित तेजवाले भगवान् विष्णुकी इस शुभ वाणीको सुनकर वे देवगण उस स्थानको चल दिये जहाँ इन्द्र रह रहे थे। बृहस्पतिके नेतृत्वमें देवताओंने इन्द्रको आश्वासन देकर सम्पूर्ण अश्वमेध महायज्ञ सम्पन्न कराया ॥ 45-463 ।।

तत्पश्चात् भगवान् विष्णुने ब्रह्महत्याको विभाजितकर वृक्षों, नदियों, पर्वतों, पृथ्वी और स्त्रियोंपर फेंक दिया। इस प्रकार उसको प्राणि-पदार्थोंमें विसर्जित करके इन्द्र पापरहित हो गये। सन्तापरहित होनेपर भी इन्द्र अच्छे समयकी प्रतीक्षा करते हुए जलमें ही ठहरे रहे। वहाँ सभी प्राणियोंसे अदृश्य रहते हुए जलमें वे एक कमलनालमें स्थित रहे ।। 47- 49 ।।

देवगण उस अद्भुत कार्यको करके अपने स्थानको चले गये। तब शचीने दुःख और वियोगसे व्याकुल होकर देवगुरु बृहस्पतिसे कहा-यज्ञ करनेपर भी मेरे स्वामी इन्द्र क्यों अदृश्य हैं ? हे स्वामिन्! मैं अपने प्रियको कैसे देख सकूँगी; आप मुझे उस उपायको बतायें ॥ 50-51 ॥

बृहस्पति बोले - हे पौलोमि! तुम देवी भगवती शिवाकी आराधना करो। वे देवी तुम्हारे पापरहित पतिका तुम्हें दर्शन करायेंगी। आराधना करनेपर जगत्का पालन करनेवाली वे भगवती नहुषको शक्तिहीन कर देंगी। वे अम्बिका राजाको मोहित करके उसे उसके स्थानसे गिरा देंगी ॥ 52-53॥

हे राजन्! बृहस्पतिजीके ऐसा कहनेपर पुलोमापुत्री शचीने देवगुरुसे पूजाविधिसहित देवीका मन्त्र विधिवत् प्राप्त कर लिया ॥ 54 ॥

गुरु मन्त्रविद्या प्राप्त करके देवी शचीने बलि, पुष्प आदि शुभ अर्चनोंसे भगवती श्रीभुवनेश्वरीकी सम्यक् आराधना की ॥ 55 ॥अपने प्रिय पतिके दर्शनकी लालसासे युक्त शची समस्त भोगोंका त्यागकर तपस्विनीका वेश धारणकर देवीका पूजन करने लगीं ॥ 56 ॥ [आराधना करनेपर ] कुछ समय बाद प्रसन्नहोकर भगवतीने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। वे वरदायिनी देवी सौम्य रूप धारण किये हुए हंसपर सवार थीं। वे करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशमान, करोड़ों चन्द्रमाओंके समान शीतल, करोड़ों विद्युत् के समान प्रभासे युक्त और चारों वेदोंसे समन्वित थीं। उन्होंने अपनी भुजाओंमें पाश, अंकुश, अभय तथा वर मुद्राएँ धारण कर रखी थीं, वे चरणोंतक लटकती हुई स्वच्छ मोतियोंकी माला पहने हुए थीं। उनके मुखपर मधुर मुसकान थी और वे तीन नेत्रोंसे सुशोभित थीं। ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यन्त सभी प्राणियोंकी जननी, करुणारूपी अमृतकी सागरस्वरूपा तथा अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंकी अधीश्वरी वे परमेश्वरी सौम्य थीं तथा अनन्त रसोंसे आपूरित स्तनयुगलसे सुशोभित हो रही थीं। सबकी अधीश्वरी, सब कुछ जाननेवाली, कूटस्थ और बीजाक्षरस्वरूपिणी वे भगवती उद्यमशील इन्द्रपत्नी शचीसे प्रसन्न होकर मेघके समान अत्यन्त गम्भीर वाणीके द्वारा उन्हें परम | हर्षित करती हुई कहने लगीं ॥। 57-623॥

देवी बोलीं- हे सुन्दर कटिप्रदेशवाली इन्द्रप्रिये ! अपना अभिलषित वर माँगो, तुम्हारे द्वारा सम्यक् प्रकारसे पूजित मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ, मैं तुम्हें आज वरदान दूँगी। मैं वर प्रदान करनेके लिये आयी हूँ; मेरा दर्शन सहज सुलभ नहीं है। करोड़ों जन्मोंकी संचित पुण्यराशिसे ही यह प्राप्त होता है ।। 63-643 ॥

उनके ऐसा कहनेपर इन्द्रपत्नी देवी शचीने सम्मुख स्थित होकर उन प्रसन्न भगवती परमेश्वरीसे विनतभावसे कहा- हे माता। मैं अपने पतिका अत्यन्त दुर्लभ दर्शन, नहुषसे उत्पन्न भयका नाश और अपने पदकी पुनः प्राप्ति चाहती हूँ ।। 65-663 ॥

देवी बोलीं- तुम [मेरी] इस दूतीके साथ मानसरोवर चली जाओ, जहाँ मेरी विश्वकामा नामक अचल मूर्ति प्रतिष्ठित है, वहीं तुम्हें भयभीत और दुःखी इन्द्रके दर्शन हो जायेंगे। कुछ समय बाद मैं पुनः राजाको मोहित करूँगी। हे विशालाक्षि । तुमशान्तचित्त हो जाओ, मैं तुम्हारा अभिलषित कार्य करूँगी। मैं मोहग्रस्त राजा [ नहुष] को इन्द्रपदसे गिरा दूँगी ॥ 67-693 ॥

व्यासजी बोले- तदनन्तर परमेश्वरी इन्द्रपत्नीको ले जाकर देवीकी दूतीने शीघ्रतापूर्वक उनके पति इन्द्रके पास पहुँचा दिया। गुप्तरूपसे रहते हुए अपने पति उन देवराज इन्द्रको देखकर और इस प्रकार चिरकालसे वांछित अपने वरकी प्राप्ति करके वे शची अत्यन्त प्रसन्न हुईं ॥ 70-71 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] त्रिशिराकी तपस्यासे चिन्तित इन्द्रद्वारा तपभंगहेतु अप्सराओंको भेजना
  2. [अध्याय 2] इन्द्रद्वारा त्रिशिराका वध, क्रुद्ध त्वष्टाद्वारा अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे हवन करके वृत्रासुरको उत्पन्न करना और उसे इन्द्रके वधके लिये प्रेरित करना
  3. [अध्याय 3] वृत्रासुरका देवलोकपर आक्रमण, बृहस्पतिद्वारा इन्द्रकी भर्त्सना करना और वृत्रासुरको अजेय बतलाना, इन्द्रकी पराजय, त्वष्टाके निर्देशसे वृत्रासुरका ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये तपस्यारत होना
  4. [अध्याय 4] तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीका वृत्रासुरको वरदान देना, त्वष्टाकी प्रेरणासे वृत्रासुरका स्वर्गपर आक्रमण करके अपने अधिकारमें कर लेना, इन्द्रका पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकरके साथ वैकुण्ठधाम जाना
  5. [अध्याय 5] भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णुका इन्द्रको वृत्रासुरसे सन्धिका परामर्श देना, ऋषियोंकी मध्यस्थतासे इन्द्र और वृत्रासुरमें सन्धि, इन्द्रद्वारा छलपूर्वक वृत्रासुरका वध
  7. [अध्याय 7] त्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना
  8. [अध्याय 8] इन्द्राणीको बृहस्पतिकी शरणमें जानकर नहुषका क्रुद्ध होना, देवताओंका नहुषको समझाना, बृहस्पतिके परामर्शसे इन्द्राणीका नहुषसे समय मांगना, देवताओंका भगवान् विष्णुके पास जाना और विष्णुका उन्हें देवीको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेधयज्ञ करने को कहना, बृहस्पतिका शचीको भगवतीकी आराधना करनेको कहना, शचीकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीका प्रकट होना और शचीको इन्द्रका दर्शन होना
  9. [अध्याय 9] शचीका इन्द्रसे अपना दुःख कहना, इन्द्रका शचीको सलाह देना कि वह नहुषसे ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें आनेको कहे, नहुषका ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्रका पुनः स्वर्गाधिपति बनना
  10. [अध्याय 10] कर्मकी गहन गतिका वर्णन तथा इस सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका उदाहरण
  11. [अध्याय 11] युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन
  12. [अध्याय 12] पवित्र तीर्थोका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना
  13. [अध्याय 13] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्रसे प्राप्त वरुणमन्त्र जपसे शुनःशेपका मुक्त होना, परस्पर शापसे विश्वामित्र और वसिष्ठका बक तथा आडी होना
  14. [अध्याय 14] राजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना
  15. [अध्याय 15] भगवतीकी कृपासे निमिको मनुष्योंके नेत्र पलकोंमें वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियोंकी त्रिगुणात्मकताका वर्णन
  16. [अध्याय 16] हैहयवंशी क्षत्रियोंद्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणोंका संहार
  17. [अध्याय 17] भगवतीकी कृपासे भार्गव ब्राह्मणीकी जंघासे तेजस्वी बालककी उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियोंकी उत्पत्तिकी कथा
  18. [अध्याय 18] भगवती लक्ष्मीद्वारा घोड़ीका रूप धारणकर तपस्या करना
  19. [अध्याय 19] भगवती लक्ष्मीको अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुके दर्शन और उनका वैकुण्ठगमन
  20. [अध्याय 20] राजा हरिवर्माको भगवान् विष्णुद्वारा अपना हैहयसंज्ञक पुत्र देना, राजाद्वारा उसका 'एकवीर' नाम रखना
  21. [अध्याय 21] आखेटके लिये वनमें गये राजासे एकावलीकी सखी यशोवतीकी भेंट, एकावलीके जन्मकी कथा
  22. [अध्याय 22] यशोवतीका एकवीरसे कालकेतुद्वारा एकावलीके अपहृत होनेकी बात बताना
  23. [अध्याय 23] भगवतीके सिद्धिप्रदायक मन्यसे दीक्षित एकवीरद्वारा कालकेतुका वध, एकवीर और एकावलीका विवाह तथा हैहयवंशकी परम्परा
  24. [अध्याय 24] धृतराष्ट्रके जन्मकी कथा
  25. [अध्याय 25] पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन
  26. [अध्याय 26] देवर्षि नारद और पर्वतमुनिका एक-दूसरेको शाप देना, राजकुमारी दमयन्तीका नारदसे विवाह करनेका निश्चय
  27. [अध्याय 27] वानरमुख नारदसे दमयन्तीका विवाह, नारद तथा पर्वतका परस्पर शापमोचन
  28. [अध्याय 28] भगवान् विष्णुका नारदजीसे मायाकी अजेयताका वर्णन करना, मुनि नारदको मायावश स्त्रीरूपकी प्राप्ति तथा राजा तालध्वजका उनसे प्रणय निवेदन करना
  29. [अध्याय 29] राजा तालध्वजसे स्त्रीरूपधारी नारदजीका विवाह, अनेक पुत्र-पौत्रोंकी उत्पत्ति और युद्धमें उन सबकी मृत्यु, नारदजीका शोक और भगवान् विष्णुकी कृपासे पुनः स्वरूपबोध
  30. [अध्याय 30] राजा तालध्वजका विलाप और ब्राह्मणवेशधारी भगवान् विष्णुके प्रबोधनसे उन्हें वैराग्य होना, भगवान् विष्णुका नारदसे मायाके प्रभावका वर्णन करना
  31. [अध्याय 31] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना