श्रीनारायण बोले- उन नौ वर्षोंमें रहनेवाले सभी देवेश पूर्वोक्त स्तोत्रों तथा जप, ध्यान और समाधिके द्वारा महादेवीकी उपासना करते हैं ॥ 1 ॥ सभी ऋतुओंमें खिलनेवाले पुष्पोंके समूहोंसे सुशोभित अनेक वन उनमें विद्यमान हैं, जहाँ फलों तथा पल्लवोंकी शोभा निरन्तर बनी रहती है॥ 2 ॥
उन वर्षोंमें विद्यमान सभी वनोद्यानों, पर्वतशिखरों तथा सभी गिरिकन्दराओंमें और खिले हुए कमलोंसे शोभायमान तथा हंस-सारस आदि भिन्न-भिन्न जातिके पक्षियोंकी ध्वनिसे निनादित निर्मल जलवाले सरोवरोंमें वहाँकै देवतागण जल-क्रीड़ा आदि विचित्र विनोद के द्वारा क्रीडा करते हैं और ललित भौहोंवाली सुन्दरियोंके विलासभवनों में उन युवतियोंके साथ यथेच्छ बिहार करते हैं ॥ 353 ॥
उन नौ वर्षोंमें (सभी लोकोंपर अनुग्रहरसमे परिपूर्ण दृष्टि रखनेवाले नारायण नामसे प्रसिद्ध) भगवान् आदिपुरुष भगवतीको आराधना करते हुए विराजमान रहते हैं और वहाँ सभी लोग उनकी पूजा करते हैं। वे भगवान् लोकोंसे पूजा स्वीकार करनेके निमित्त अपनी विभिन्न मूर्तियोंके रूपमें समाहित होकर वहाँ विराजमान रहते हैं ॥ 6-7 ॥इलावृतवर्षमें भगवान् श्रीहरि ब्रह्माजीके नेत्रसे | उत्पन्न भवरूपमें अपनी भार्या भवानीके साथ नित्य निवास करते हैं ॥ 8 ॥
उस क्षेत्रमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता है। वहाँ जानेपर भवानीके शापसे पुरुष तत्काल नारी हो जाता है ॥ 9 ॥ वहाँ भवानीकी सेवामें संलग्न असंख्य स्त्रियों तथा अपने करोड़ों गणोंसे घिरे हुए देवेश्वर भगवान् शिव संकर्षणदेवकी आराधना करते हैं। वे अजन्मा भगवान् शिव सभी प्राणियोंके कल्याणार्थ तामस प्रकृतिवाली अपनी ही उस संकर्षण नामक चौथी मूर्तिका एकाग्र मनसे ध्यानयोगके द्वारा चिन्तन करते रहते हैं ।। 10-113 ॥
श्रीभगवान् बोले- सभी गुणक अभिव्यक्तिरूप, अनन्त, अव्यक्त और ॐ कारस्वरूप परम पुरुष भगवान्को नमस्कार है ॥ 12 ll
हे भजनीय प्रभो ! भक्तोंके आश्रयस्वरूप चरण कमलवाले, समग्र ऐश्वर्योंके परम आश्रय, भक्तोंके सामने अपना भूतभावनस्वरूप प्रकट करनेवाले और उनका सांसारिक बन्धन दूर करनेवाले, किंतु अभक्तोंको सदा भव बन्धनमें बाँधे रहनेवाले आप परमेश्वरका मैं भजन करता हूँ ॥ 13 ॥
हे प्रभो! मैं क्रोधको नहीं जीत सका हूँ तथा मेरी दृष्टि पापसे लिप्त हो जाती है, किंतु आप तो - संसारका नियमन करनेके लिये साक्षीरूपसे उसके व्यापारोंको देखते रहते हैं। फिर भी मेरी तरह आपकी दृष्टि उन मायिक गुणों तथा कर्म-वृत्तियोंसे प्रभावित नहीं होती। ऐसी स्थितिमें अपने मनको वशमें करनेकी -इच्छावाला कौन पुरुष ऐसे आपका आदर नहीं करेगा ॥ 14 ॥
मधुपान करके लाल आँखोंवाले मदमत्तकी भाँति जो प्रभु मायाके कारण विकृत नेत्रोंवाले दिखायी पड़ते हैं, जिन प्रभुके चरणोंका स्पर्श करके नागपत्नियोंका मन मोहित हो जाता है और लज्जावश वे अन्य प्रकारसे उपासना नहीं कर पात [उन प्रभुको मेरा नमस्कार है । ] ।। 15 ।।वेदके मन्त्र जिन्हें इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लयका कारण बताते हैं; परंतु वे तीनोंसे रहित हैं और जिन्हें ऋषिगण अनन्त कहते हैं, जिनके सहस्र मस्तकोंपर स्थित यह भूमण्डल सरसोंके दानेके समान प्रतीत होता है और जिन्हें यह भी नहीं ज्ञात होता कि वह कहाँ स्थित है [ उन प्रभुको मेरा नमस्कार है।] ॥ 16 ॥
जिनसे उत्पन्न हुआ मैं अहंकाररूप अपने त्रिगुणमय तेजसे देवता, इन्द्रिय और भूतोंकी रचना करता हूँ-वे विज्ञानके आश्रय भगवान् ब्रह्माजी भी आपके ही महत्तत्त्वसंज्ञक प्रथम गुणमय स्वरूप हैं ॥ 17 ॥
महत्तत्त्व, अहंकार, इन्द्रियाभिमानी देवता, इन्द्रियाँ और पंचमहाभूत आदि हम सभी महात्मालोग डोरीमें बँधे हुए पक्षीकी भाँति जिनकी क्रियाशक्तिके वशीभूत होकर और जिनकी कृपाके द्वारा इस जगत्की रचना करते हैं [उन प्रभुको मेरा नमस्कार है । ] ॥ 18 ॥
सत्त्वादि गुणोंकी सृष्टिसे मोहित यह जीव जिनके द्वारा रचित तथा कर्मबन्धनमें बाँधनेवाली मायाको तो कदाचित् जान लेता है, किंतु उससे छूटनेका उपाय उसे सरलतापूर्वक नहीं ज्ञात हो पाता-उन जगत्की उत्पत्ति तथा लयरूप आप परमात्माको मेरा नमस्कार है ॥ 19 ॥
श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] इस प्रकार देवीके गणोंसे घिरे हुए वे भगवान् रुद्र इलावृतवर्षमें सर्वसमर्थ परमेश्वर संकर्षणकी उपासना करते हैं ॥ 20 ॥
उसी प्रकार भद्राश्ववर्षमें भद्रश्रवा नामक वे धर्मपुत्र और उनके कुलके प्रधान पुरुष तथा सेवक भी भगवान् वासुदेवकी हयग्रीव नामसे प्रसिद्ध हयमूर्तिको एकनिष्ठ परम समाधिके द्वारा अपने हृदयमें धारण किये रहते हैं और इस प्रकार उस हयमूर्तिरूप भगवान् वासुदेवकी स्तुति करते हुए उनके समीप रहते हैं । ll 21 - 23 ॥
भद्रश्रवा बोले - चित्तको शुद्ध करनेवाले ओंकारस्वरूप भगवान् धर्मको नमस्कार है। अहो, ईश्वरकी लीला बड़ी विचित्र है कि यह जीव सम्पूर्ण लोकोंका संहार करनेवाले कालको देखता हुआ भी नहीं देखता और तुच्छ विषयोंका सेवन करनेके लिये कुत्सित चिन्तन करता हुआ अपने ही पुत्र तथा पिताको जलाकर भी स्वयं जीवित रहनेकी इच्छा करता है ॥ 24 ॥हे अज ! विद्वान् पुरुष इस विश्वको नाशवान् बताते हैं और अध्यात्मको जाननेवाले सूक्ष्मदर्शी महात्मा भी जगत्को इसी रूपमें देखते हैं, फिर भी वे आपकी मायासे मोहित हो जाते । अतः मैं विस्मयकारक कृत्यवाले उस अजन्मा प्रभुको नमस्कार करता हूँ ॥ 25 ॥ मायाके आवरणसे रहित आपने अकर्ता होते हुए भी विश्वकी उत्पत्ति, पालन तथा संहारका कार्य अंगीकृत किया है। यह उचित ही है, सर्वात्मरूप तथा कार्यकारणभावसे सर्वथा अतीत आपके लिये यह कोई आश्चर्य नहीं है ॥ 26 ॥ जब प्रलयकालमें तमोगुणसे युक्त दैत्यगण वेदोंको चुरा ले गये थे तब ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर मनुष्य और अश्वके संयुक्त विग्रहवाले जिन्होंने रसातलसे उन्हें ला दिया था, ऐसा अमोघ हित करनेवाले उन आप प्रभुको नमस्कार है ॥ 27 ॥ इस प्रकार भद्रश्रवा नामवाले वे महात्मागण हयग्रीवरूप देवेश्वर श्रीहरिकी स्तुति करते हैं और उनके गुणोंका संकीर्तन करते हैं ॥ 28 ॥ जो मनुष्य इनके इस चरित्रको पढ़ता है और दूसरोंको सुनाता है, वह पापरूपी केंचुलसे मुक्त होकर देवीलोकको प्राप्त होता है ॥ 29 ॥