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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 6, अध्याय 10 - Skand 6, Adhyay 10

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कर्मकी गहन गतिका वर्णन तथा इस सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका उदाहरण

जनमेजय बोले- हे ब्रह्मन्। आपने अद्भुत कर्म करनेवाले इन्द्रका आख्यान कहा, जिसमें उनके पदच्युत होने और दुःख प्राप्त करनेका विशेषरूपसे वर्णन किया गया है तथा जिसमें देवताओंकी भी अधीश्वरी देवी भगवतीकी महिमा विस्तारसे वर्णित हुई है ।। 16 ।।

मुझे महान् सन्देह है कि महान तपस्वी इन्द्रको देवाधिपतिका पद प्राप्त होनेपर भी दारुण दुःख प्राप्त हुआ। सौ यज्ञ करके उन्होंने अतिश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया; और देवताओंके स्वामीका पद प्राप्त करके भी वे अपने स्थानसे कैसे च्युत हो गये ? ।। 2-33 ।।

हे दयानिधे! इस सबका कारण सम्यक् रूपसे बताइये। हे मुनिश्रेष्ठ! आप सब कुछ जाननेवाले और पुराणोंके प्रवर्तक है, महापुरुषोंके लिये अपने श्रद्धालु शिष्यसे कुछ भी अकथ्य नहीं होता, इसलिये हे महाभाग ! मेरे सन्देहका निवारण कीजिये ll 453 ॥ सूतजी बोले- तब राजाके ऐसा पूछनेपर सत्यवतीपुत्र वेदव्यासजी प्रसन्नतापूर्वक उनके प्रश्नोंका क्रमसे उत्तर देने लगे ॥ 63 ॥

व्यासजी बोले- हे नृपश्रेष्ठ! इसका अत्यन्त अद्भुत कारण सुनो। श्रेष्ठ तत्त्वज्ञानियोंने संचित, वर्तमान और प्रारब्धके भेदसे कर्मकी तीन गतियाँ बतलायी हैं। अनेक जन्मोंका संचित प्राक्तन कर्म संचित कर्म कहा गया है; फिर वे कर्म भी सात्त्विक, राजस और तामस - तीन प्रकारके होते हैं॥ 7-9 ॥

हे राजन्! बहुत समयके संचित शुभ या अशुभ कर्म पुण्य या पापके रूपमें अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। जीवोंके प्रत्येक जन्मके संचित कर्म बिना भोग | किये करोड़ों कल्पों में भी नहीं नष्ट होते ॥ 10-11 ॥

जो कर्म किया जा रहा है, उसे वर्तमान कहा जाता है, जीव देह प्राप्तकर शुभ या अशुभ कार्यमें प्रवृत्त होता है। संचित कर्मोंके कारण देह प्राप्त होनेपर काल जीवको पुनः कर्मके लिये प्रेरित करता है ।। 12-13 ॥प्रारब्ध कर्म उसे जानना चाहिये, जिसका भोगसे क्षय हो जाता है। प्राणियोंको यहाँ प्रारब्ध कर्म अवश्य भोगना पड़ता है; इसमें सन्देह नहीं है। है राजेन्द्र ! देवता, मनुष्य, असुर, यक्ष, गन्धर्व और किन्नर - इन सभीको पूर्वकालमें किये गये शुभ अशुभ कर्मोंका फल भोगना पड़ता है- यह निश्चित है। हे महाराज! सबके देह धारणका कारण उनका कर्म ही होता है। कर्मके समाप्त हो जानेपर प्राणियोंका जन्म लेना भी समाप्त हो जाता है इसमें सन्देह नहीं है ॥ 14–163 ॥

हे राजन् ! ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र आदि देवता, | दानव, यक्ष और गन्धर्व - ये सभी कर्मके वशीभूत हैं, अन्यथा जीवके सुख-दुःखमें भोगका जो कारणरूप देहसम्बन्ध हैं वह कैसे होता ? इसीलिये किसी कालविपाकके योगसे यथासमय अनेक जन्मोंमें किये हुए संचित कर्मोंका प्रभाव प्रकट हो जाता है। उसी प्रारब्धकर्मके वशमें होकर ही मनुष्य पुण्य या पाप करता है, उसी प्रकार देवता आदि भी करते हैं l ll17 - 203ll

हे राजन् ! भगवान् विष्णुके अंशसे धर्मपुत्र नर और नारायण ही कृष्ण और अर्जुनके रूपमें प्रकट हुए। मुनियोंके द्वारा इस पौराणिक आख्यानका विवेचन किया गया है । ll 21-22 ॥

जो अधिक वैभवशाली होता है उसे देवांश जानना चाहिये। जो ऋषि नहीं है वह काव्यकी रचना नहीं कर सकता; जो रुद्र नहीं है वह रुद्रकी अर्चना नहीं कर सकता। जिसमें देवांश नहीं है वह अन्नदान नहीं कर सकता और जिसमें विष्णुका अंश नहीं है वह राजा नहीं हो सकता। हे राजन् ! विष्णु, इन्द्र, अग्नि, यम और कुबेरसे प्रभुत्व, प्रभाव, कोप और पराक्रम प्राप्त करके ही निश्चितरूपसे यह शरीर बनता है ।। 23-25 ॥

इस संसारमें जो कोई बलवान्, भाग्यवान्, भोगवान्, विद्यावान् या दानशील है, उसे देवांश कहा जाता है । ll26 ll

हे राजन्! उसी प्रकार मैंने पाण्डवोंको भी देवांश बताया था। वासुदेव श्रीकृष्ण तो नारायणके अंश और उन्हींके समान कान्तियुक्त थे ॥ 27 ॥प्राणियोंका शरीर सुख-दुःखका भाजन होता है; शरीरधारी सुख-दुःख प्राप्त करता रहता है ॥ 28 ॥ कोई भी प्राणी स्वतन्त्र नहीं है, बल्कि सदैव दैवके अधीन रहता है। वह विवश होकर जन्म, | मरण, सुख तथा दुःख प्राप्त करता है । ll 29 ।।

दैववश ही पाण्डव वन गये और पुनः उन्होंने अपना राज्य प्राप्त किया। तत्पश्चात् उन्होंने अपने बाहुबलसे राजसूय नामक उत्तम यज्ञ किया और बादमें अत्यन्त दुःखदायक वनवास उन्हें पुनः प्राप्त हुआ। वहाँ अर्जुनने अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये दुष्कर तपस्या की। तब [उस तपस्यासे] सन्तुष्ट होकर देवताओंने उन्हें कल्याणकारी वरदान दिया। उस वनवास और नरावतारमें किया गया पुण्य कहाँ गया ? नरावतारमें उन्होंने बदरिकाश्रममें उग्र तपस्या की थी, परंतु अर्जुनके रूपमें उन्हें उस तपस्याका फल नहीं मिला ! ॥ 30-33 ॥

प्राणियोंके देह-सम्बन्धी कर्मोंकी गति अत्यन्त गहन है; यह देवताओंके लिये भी दुर्ज्ञेय है तो मनुष्योंकी क्या बात ! 34 ॥ वासुदेव श्रीकृष्ण भी अत्यन्त संकटमय कारागारमें उत्पन्न हुए और वसुदेवके द्वारा गोकुलमें नन्दगोपके घर ले जाये गये। हे भारत! वे वहाँ ग्यारह वर्षतक रहे और पुनः मथुरा जाकर उन्होंने बलपूर्वक उग्रसेनके पुत्र कंसका वध किया। तदनन्तर अत्यन्त दुःखित माता | पिताको बन्धनसे मुक्त किया तथा उग्रसेनको मथुरापुरीका राजा नियुक्त किया। पुनः वे म्लेच्छराज कालयवनके भयसे द्वारका चले गये। श्रीकृष्णने यह सब महान् पराक्रम दैवके अधीन होकर ही किया ।। 35-38 ॥

वे जनार्दन श्रीकृष्ण द्वारकामें अनेक कार्य करके |और प्रभासक्षेत्रमें देहका परित्यागकर अपने कुटुम्बसहित स्वर्ग चले गये। विप्रशापके कारण समस्त यादवगण पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, भाइयों और बहनोंसहित प्रभासक्षेत्रमें नष्ट हो गये और वासुदेव श्रीकृष्ण भी व्याधके बाणसे निधनको प्राप्त हुए। हे राजन्! इस प्रकार मैंने आपसे | कर्मकी गहन गतिका वर्णन कर दिया ।। 39-41 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] त्रिशिराकी तपस्यासे चिन्तित इन्द्रद्वारा तपभंगहेतु अप्सराओंको भेजना
  2. [अध्याय 2] इन्द्रद्वारा त्रिशिराका वध, क्रुद्ध त्वष्टाद्वारा अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे हवन करके वृत्रासुरको उत्पन्न करना और उसे इन्द्रके वधके लिये प्रेरित करना
  3. [अध्याय 3] वृत्रासुरका देवलोकपर आक्रमण, बृहस्पतिद्वारा इन्द्रकी भर्त्सना करना और वृत्रासुरको अजेय बतलाना, इन्द्रकी पराजय, त्वष्टाके निर्देशसे वृत्रासुरका ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये तपस्यारत होना
  4. [अध्याय 4] तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीका वृत्रासुरको वरदान देना, त्वष्टाकी प्रेरणासे वृत्रासुरका स्वर्गपर आक्रमण करके अपने अधिकारमें कर लेना, इन्द्रका पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकरके साथ वैकुण्ठधाम जाना
  5. [अध्याय 5] भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णुका इन्द्रको वृत्रासुरसे सन्धिका परामर्श देना, ऋषियोंकी मध्यस्थतासे इन्द्र और वृत्रासुरमें सन्धि, इन्द्रद्वारा छलपूर्वक वृत्रासुरका वध
  7. [अध्याय 7] त्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना
  8. [अध्याय 8] इन्द्राणीको बृहस्पतिकी शरणमें जानकर नहुषका क्रुद्ध होना, देवताओंका नहुषको समझाना, बृहस्पतिके परामर्शसे इन्द्राणीका नहुषसे समय मांगना, देवताओंका भगवान् विष्णुके पास जाना और विष्णुका उन्हें देवीको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेधयज्ञ करने को कहना, बृहस्पतिका शचीको भगवतीकी आराधना करनेको कहना, शचीकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीका प्रकट होना और शचीको इन्द्रका दर्शन होना
  9. [अध्याय 9] शचीका इन्द्रसे अपना दुःख कहना, इन्द्रका शचीको सलाह देना कि वह नहुषसे ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें आनेको कहे, नहुषका ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्रका पुनः स्वर्गाधिपति बनना
  10. [अध्याय 10] कर्मकी गहन गतिका वर्णन तथा इस सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका उदाहरण
  11. [अध्याय 11] युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन
  12. [अध्याय 12] पवित्र तीर्थोका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना
  13. [अध्याय 13] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्रसे प्राप्त वरुणमन्त्र जपसे शुनःशेपका मुक्त होना, परस्पर शापसे विश्वामित्र और वसिष्ठका बक तथा आडी होना
  14. [अध्याय 14] राजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना
  15. [अध्याय 15] भगवतीकी कृपासे निमिको मनुष्योंके नेत्र पलकोंमें वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियोंकी त्रिगुणात्मकताका वर्णन
  16. [अध्याय 16] हैहयवंशी क्षत्रियोंद्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणोंका संहार
  17. [अध्याय 17] भगवतीकी कृपासे भार्गव ब्राह्मणीकी जंघासे तेजस्वी बालककी उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियोंकी उत्पत्तिकी कथा
  18. [अध्याय 18] भगवती लक्ष्मीद्वारा घोड़ीका रूप धारणकर तपस्या करना
  19. [अध्याय 19] भगवती लक्ष्मीको अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुके दर्शन और उनका वैकुण्ठगमन
  20. [अध्याय 20] राजा हरिवर्माको भगवान् विष्णुद्वारा अपना हैहयसंज्ञक पुत्र देना, राजाद्वारा उसका 'एकवीर' नाम रखना
  21. [अध्याय 21] आखेटके लिये वनमें गये राजासे एकावलीकी सखी यशोवतीकी भेंट, एकावलीके जन्मकी कथा
  22. [अध्याय 22] यशोवतीका एकवीरसे कालकेतुद्वारा एकावलीके अपहृत होनेकी बात बताना
  23. [अध्याय 23] भगवतीके सिद्धिप्रदायक मन्यसे दीक्षित एकवीरद्वारा कालकेतुका वध, एकवीर और एकावलीका विवाह तथा हैहयवंशकी परम्परा
  24. [अध्याय 24] धृतराष्ट्रके जन्मकी कथा
  25. [अध्याय 25] पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन
  26. [अध्याय 26] देवर्षि नारद और पर्वतमुनिका एक-दूसरेको शाप देना, राजकुमारी दमयन्तीका नारदसे विवाह करनेका निश्चय
  27. [अध्याय 27] वानरमुख नारदसे दमयन्तीका विवाह, नारद तथा पर्वतका परस्पर शापमोचन
  28. [अध्याय 28] भगवान् विष्णुका नारदजीसे मायाकी अजेयताका वर्णन करना, मुनि नारदको मायावश स्त्रीरूपकी प्राप्ति तथा राजा तालध्वजका उनसे प्रणय निवेदन करना
  29. [अध्याय 29] राजा तालध्वजसे स्त्रीरूपधारी नारदजीका विवाह, अनेक पुत्र-पौत्रोंकी उत्पत्ति और युद्धमें उन सबकी मृत्यु, नारदजीका शोक और भगवान् विष्णुकी कृपासे पुनः स्वरूपबोध
  30. [अध्याय 30] राजा तालध्वजका विलाप और ब्राह्मणवेशधारी भगवान् विष्णुके प्रबोधनसे उन्हें वैराग्य होना, भगवान् विष्णुका नारदसे मायाके प्रभावका वर्णन करना
  31. [अध्याय 31] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना