श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] दानवराज प्रतापी शंखचूड़ सिर झुकाकर शिवजीको प्रणाम करके मन्त्रियोंके साथ तत्काल यानपर सवार हुआ ॥ 1 ॥ उसी समय महादेवजीने अपनी सेना तथा देवताओंको तुरंत युद्धके लिये आज्ञा दे दी और दानवेन्द्र शंखचूड़ भी अपनी सेनाको साथ लेकर युद्धके लिये तैयार हो गया ॥ 2 ॥
स्वयं महेन्द्र वृषपबकि साथ और सूर्यदेव विप्रचित्तिके साथ वेगपूर्वक युद्ध करने लगे। इसी तरह दम्भके साथ चन्द्रमाने भीषण युद्ध किया। उस समय कालस्वरके साथ काल, गोकर्णके साथ अग्निदेव, कालकेयके साथ कुबेर, मयके साथ विश्वकर्मा, भयंकरके साथ मृत्यु, संहारके साथ यम, विकंकणके साथ वरुण, चंचलके साथ पवनदेव, घृतपृष्ठके साथ बुध, रक्ताक्षके साथ शनैश्चर, रत्नसारके साथ जयन्त वर्चसगणोंके साथ सभी वसु, दीप्तिमान् के साथ दोनों अश्विनीकुमार, धूम्रके साथ नलकूबर, धुरन्धरके साथ धर्म, उषाक्षके साथ मंगल, शोभाकरके साथ भानु, पिठरके साथ मन्मथः गोधामुख, चूर्ण, खड्ग, ध्वन, कांचीमुख, पिण्ड, धूम्र, नन्दी, विश्व और पलाश आदि दानवोंके साथ आदित्यगण युद्ध करने लगे। इसी तरह ग्यारह भयंकर दानवोंके साथ ग्यारहों रुद्र, उग्रचण्डा आदिके साथ महामारी और दानवगणोंके साथ सभी नन्दीश्वर आदि गण प्रलयसदृश भयंकर महासंग्राम में युद्ध करने लगे ॥ 3-113 ॥
हे मुने! जब दोनों ओरके सभी सैनिक निरन्तर युद्ध कर रहे थे, उस समय भगवान् शंकर भगवती काली तथा पुत्र कार्तिकेयके साथ वटवृक्षके नीचे विराजमान थे। उधर रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत शंखचूड़ करोड़ों दानवोंके साथ रत्ननिर्मित रम्य सिंहासनपर बैठा हुआ था ।। 12-133 ।।उस युद्धमें दानवोंने शंकरजीके अनेक योद्धाओंको परास्त कर दिया। सभी देवताओंके अंग क्षत-विक्षत हो गये और वे भयभीत होकर भाग चले। [यह देखकर] कार्तिकेय कुपित हो उठे और उन्होंने देवताओंको अभय प्रदान किया। उन्होंने अपने तेजसे अपने गणोंके बलमें वृद्धि की। तदनन्तर वे अकेले ही दानवगणोंके साथ युद्ध करने लगे। उन्होंने संग्राममें एक सौ अक्षौहिणी सेनाको मार डाला ॥ 14-163 ॥
उस युद्धमें कमलके समान नेत्रवाली कालीने बहुतसे असुरोंको धराशायी कर दिया और उसके बाद अत्यन्त क्रुद्ध होकर वे दानवोंका रक्त पीने लगीं। वे दस लाख हाथियों तथा करोड़ों-करोड़ों सैनिकोंको | एक हाथसे पकड़-पकड़कर लीलापूर्वक अपने मुखमें डालने लगीं। हे मुने! उस समय हजारों मुण्डविहीन धड़ रणभूमिमें नाचने लगे ॥ 17 – 19 ॥
रणमें महान् पराक्रम प्रदर्शित करनेवाले समस्त दानव कार्तिकेयकी बाणवर्षासे क्षत-विक्षत शरीरवाले हो गये और भयभीत होकर भागने लगे। तत्पश्चात् वृषपर्वा, विप्रचित्ति, दम्भ और विकंकण- ये सभी दानव पराक्रमी कार्तिकेयके साथ युद्ध करने लगे। भगवती महामारी भी युद्ध करने लगीं, उन्होंने युद्धसे मुख नहीं मोड़ा। उधर स्वामी कार्तिकेयकी शक्तिसे पीड़ित होकर दानव क्षुब्ध हो उठे, किंतु वे भयके कारण रणसे नहीं भागे। कार्तिकेयका वह महाभयंकर तथा भीषण युद्ध देखकर स्वर्गसे पुष्पवृष्टि होने लगी। | दानवोंका क्षय करनेवाला वह युद्ध प्राकृतिक प्रलयके समान था ॥ 20 - 233 ॥
[ दानवोंकी यह स्थिति देखकर] राजा शंखचूड़ विमानपर चढ़कर बाणोंकी वर्षा करने | लगा। राजाकी बाणवर्षा मेघोंकी वृष्टिके समान थी। इससे चारों ओर महाघोर अन्धकार छा गया और सर्वत्र अग्निकी लपटें निकलने लगीं। इससे सभी देवता तथा अन्य नन्दीश्वर आदि गण भी भाग खड़े हुए उस समय एकमात्र स्वामी कार्तिकेय ही समरभूमिमें डटे रहे । 24- 26 ॥राजा शंखचूड़ पर्वतों, सर्पों, पत्थरों तथा वृक्षोंकी दुर्निवार्य तथा भयंकर वर्षा करने लगा। राजा शंखचूड़की बाणवर्षासे शिवपुत्र कार्तिकेय उसी प्रकार ढँक गये, | जैसे घने कुहरेसे सूर्य ढँक जाते हैं। उसने कार्तिकेयके दुर्वह तथा भयंकर धनुषको काट डाला, दिव्य रथको खण्ड-खण्ड कर दिया और रथपीठोंको छिन्न-भिन्न कर दिया। उसने कार्तिकेयके मयूरको अपने दिव्य अस्त्रसे जर्जर कर दिया और सूर्यके समान चमकनेवाली प्राण घातिनी शक्ति उनके वक्षपर चला दी ॥ 27-30 ॥
इससे वे क्षणभरके लिये मूच्छित हो गये, फिर थोड़ी ही देरमें सचेत हो गये। तदनन्तर जिस दिव्य धनुषको पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने कार्तिकेयको दिया था, उसे हाथमें लेकर वे सर्वोत्तम रत्नोंसे निर्मित विमानपर आरूढ़ होकर और अनेक शस्त्रास्त्रोंको लेकर भयंकर युद्ध करने लगे ॥ 31-32 ॥
वह दानव सर्पों, पर्वतों, वृक्षों और पत्थरोंकी वर्षा करने लगा, किंतु शिवपुत्र कार्तिकेयने क्रोधित होकर अपने दिव्य अस्त्रसे उन सबको काट डाला। प्रतापी कार्तिकेयने शंखचूड़द्वारा लगायी गयी आगको अपने पार्जन्य अस्त्रसे बुझा दिया। तत्पश्चात् उन्होंने शंखचूड़के रथ, धनुष, कवच, सारथी, किरीट तथा उज्ज्वल मुकुटको खेल-खेल में काट डाला और उस दानवेन्द्रके वक्षपर शुक्ल आभावाली शक्ति चला दी ॥ 33-35॥
उसके आघातसे राजा शंखचूड़ मूर्च्छित हो गया, किंतु थोड़ी ही देरमें सचेत होनेपर वह तत्काल दूसरे रथपर सवार हो गया और उसने शीघ्र ही दूसरा धनुष उठा लिया। हे नारद! मायावियोंमें श्रेष्ठ उस शंखचूड़ने अपनी मायासे बाणोंका जाल फैला दिया और उस बाणजालसे कार्तिकेयको आच्छादित कर दिया ।। 36-37 ॥
उसने कभी भी व्यग्र न होनेवाली, सैकड़ों सूर्योंके समान प्रभायुक्त, प्रलयकालीन अग्निकी शिखाके समान आकृतिवाली और सदा विष्णुके तेजसे आवृत रहनेवाली | शक्ति उठा ली तथा क्रोध करके बड़े वेगसे उसे कार्तिकेयपर चला दिया। अग्नि-राशिके समान उज्ज्वल वह शक्ति उनके शरीरपर गिरी और वे महाबली कार्तिकेय उस शक्तिके प्रभावसे मूच्छित हो गये ॥ 38-393 ॥तब भद्रकाली उन्हें अपनी गोदमें लेकर शिवके पास ले गयीं। शिवने अपने ज्ञानके द्वारा उन्हें लीलापूर्वक चेतनायुक्त कर दिया, साथ ही उन्हें असीम शक्ति भी प्रदान की। तब प्रतापी कार्तिकेय उठ खड़े हुए ॥ 40-41 ॥
कार्तिकेयकी रक्षामें तत्पर जो भद्रकाली थीं, वे युद्धभूमिके लिये प्रस्थित हो गर्मी और नन्दीश्वर आदि | जो वीर थे, वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े। सभी देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर, मृदंग आदि बाजे बजानेवाले तथा मधु ढोनेवाले कई सौ अन्य लोग भी उनके साथ चल दिये ॥ 42-43 ॥
रणभूमिमें पहुँचते ही कालीने सिंह-गर्जन किया। भगवतीके सिंहनादसे बहुतसे दानव मूच्छित हो गये। दानवोंको देखकर देवीने बार-बार भीषण अट्टहास किया और मधुपान किया तथा वे रणभूमिमें नाचने लगीं। उग्रदंष्ट्रा, उग्रदण्डा, कोटवी, योगिनियों तथा डाकिनियोंके गण और देवतालोग भी मधुपान करने लगे ।। 44-46 ॥ भद्रकालीको देखकर शंखचूड़ भी शीघ्र युद्धभूमिमें आ गया। दानव डरे हुए थे, अतः राजा शंखचूड़ने उन्हें अभय प्रदान किया ॥ 47 ॥
भद्रकालीने प्रलयकालीन अग्निकी शिखाके समान प्रकाशमान आग्नेयास्त्र शंखचूड़पर चला दिया। राजाने अपने पार्जन्यास्त्र से खेल-खेलमें उसे बुझा दिया ।। 48 ।।
तदनन्तर उस कालीने अत्यन्त तीव्र तथा अद्भुत वारुणास्त्र उसपर चलाया, जिसे उस दानवराजने अपने गान्धर्वास्त्रसे लीलापूर्वक काट दिया। तब कालीने अग्निशिखाके सदृश तेजस्वी माहेश्वरास्त्र उसपर चलाया, जिसे राजा शंखचूड़ने अपने वैष्णवास्त्रसे बड़ी सहजता पूर्वक शीघ्र ही विफल कर दिया ।। 49-50 ॥
इसके बाद कालीने राजा शंखचूड़पर मन्त्रपूर्वक नारायणास्त्र चलाया। उसे देखते ही उसने रथसे उतरकर प्रणाम किया और प्रलयाग्निकी शिखाके | समान तेजस्वी वह अस्त्र ऊपरकी ओर चला गया। | शंखचूड़ भक्तिपूर्वक दण्डकी भाँति जमीनपर पड़कर पुनः प्रणाम करने लगा ॥ 51-52 ॥तत्पश्चात् देवीने प्रयत्नशील होकर मन्त्रपूर्वक ब्रह्मास्त्र चलाया उस राजा शंखचूड़ने अपने ब्रह्मास्त्रसे उसका शमन कर दिया। तब देवीने मन्त्रपूर्वक दिव्यास्त्र चलाया, राजाने अपने दिव्यास्त्र के जालसे उसे भी नष्ट कर दिया ।। 53-54 ।।
तत्पश्चात् देवीने प्रयत्नपूर्वक राजापर योजनभर लम्बी शक्ति चलायी। उसने अपने दिव्यास्त्रके जालसे उसके सैकड़ों खण्ड कर दिये। तब देवीने कुपित होकर मन्त्रसे पवित्र किया हुआ पाशुपतास्त्र उठा लिया। इसी बीच उस अस्त्रको चलानेसे रोकने हेतु यह आकाशवाणी हुई- 'महान् आत्मावाले इस राजाकी मृत्यु पाशुपतास्त्रसे नहीं होगी। जबतक यह भगवान् श्रीहरिके मन्त्रका कवच अपने गलेमें धारण किये रहेगा और जबतक इसकी साध्वी पत्नीका सतीत्व विद्यमान रहेगा, तबतक जरा और मृत्यु इसपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते'- यह ब्रह्माका वचन है ॥ 55-58 ॥
यह सुनकर भद्रकालीने उस अस्त्रको नहीं चलाया। अब वे क्षुधातुर होकर लीलापूर्वक करोड़ों दानवोंको निगलने लगीं। जब भयंकर भगवती काली शंखचूड़को निगल जानेके लिये वेगपूर्वक उसकी ओर बढ़ीं, तब उस दानवने अपने अत्यन्त तीक्ष्ण दिव्यास्त्रसे उन्हें रोक दिया ।। 59-60 ॥
तदनन्तर उन भद्रकालीने ग्रीष्मकालीन सूर्यके समान तेजसम्पन्न खड्ग उसपर चला दिया। तब दानवेन्द्र शंखचूड़ने दिव्यास्त्रसे उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इसके बाद महादेवी उसे खा जानेके लिये वेगपूर्वक उसकी ओर बढ़ीं, तब सर्वसिद्धेश्वर तथा श्रीसम्पन्न दानवेन्द्र शंखचूड़ने अत्यन्त विशाल रूप धारण कर लिया । 61-62 ॥
भयंकर रूपवाली सती कालीने कुपित होकर तेज मुष्टिका प्रहारसे उसका रथ खण्ड-खण्ड कर दिया और उसके सारथीको मार डाला ॥ 63 ॥
तत्पश्चात् उन भद्रकालीने उसके ऊपर प्रलयाग्निकी शिखाके समान त्रिशूल चलाया। शंखचूड़ने अपनी लीलासे बायें हाथसे उसे पकड़ लिया ॥ 64 ॥इसके बाद देवीने अत्यन्त क्रोध करके बड़ी तेजीसे उसपर मुष्टिप्रहार किया। उसके फलस्वरूप उसे चक्कर आ गया और वह क्षणभरके लिये मूच्छित हो गया। वह प्रतापी शंखचूड़ अपने तेजसे थोड़ी ही देरमें फिर चेतनामें | आकर उठ खड़ा हुआ। उसने देवीके साथ बाहुयुद्ध नहीं किया, बल्कि उन्हें प्रणाम करने लगा ॥ 65-66 ॥ उस शंखचूड़ने अबतक भगवतीके अस्त्रोंको अपने तेजसे काट दिया था अथवा उनके अस्त्रोंको पकड़ लिया था, किंतु उस वैष्णव भक्तने मातृभक्तिके कारण उनपर अस्त्र नहीं चलाया था ॥ 67 ॥
तदनन्तर देवीने उस दानवको पकड़कर कई बार घुमाया और कुपित होकर बड़े वेगसे उसे ऊपरकी ओर फेंक दिया। वह प्रतापी शंखचूड़ ऊपरसे बड़े वेगसे गिरा और नीचे गिरते ही उठकर खड़ा हो गया। तदनन्तर भद्रकालीको प्रणाम करके वह अत्यन्त मनोहर रत्ननिर्मित विमानपर हर्षपूर्वक आरूढ़ हो गया। उस महारणमें उसने थोड़ी देर भी विश्राम नहीं किया ।। 68-70 ॥
इसके बाद भगवती भूखके कारण दानवोंका रक्त पीने लगीं। इस प्रकार दानवोंका रक्तपान तथा भक्षण करके वे भद्रकाली शंकरके पास चली गयीं ॥ 71 ॥ [वहाँ पहुँचकर] उन्होंने आरम्भसे लेकर अन्ततक युद्ध-सम्बन्धी सभी वृत्तान्त क्रमसे बतलाया। दानवोंका विनाश सुनकर भगवान् शंकर हँसने लगे। भद्रकालीने यह भी कहा – हे ईश्वर रणभूमिमें इस समय भी एक लाख दानव बच गये हैं। जब मैं उन दानवोंको खा रही थी, उस समय कुछ दानव खानेसे बचकर मेरे मुखसे निकल गये थे। जब मैं संग्राममें दानवेन्द्र | शंखचूड़को मारनेके लिये पाशुपतास्त्र छोड़नेको उद्यत हुई, उसी समय यह आकाशवाणी हुई 'राजा शंखचूड़ तुमसे अवध्य है।' महान् ज्ञानी तथा असीम बल एवं पराक्रमसे सम्पन्न राजेन्द्र शंखचूड़ने मुझपर अस्त्र नहीं चलाया, अपितु मेरे द्वारा छोड़े गये बाणको वह काट दिया करता था ॥ 72–75 ॥