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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 3, अध्याय 27 - Skand 3, Adhyay 27

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कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन, नवरात्रव्रतके माहात्म्यके प्रसंग में सुशील नामक वणिक्की कथा

व्यासजी बोले- [ हे राजन्!] जो कन्या किसी अंगसे हीन हो, कोढ़ तथा घावयुक्त हो, जिसके शरीरके किसी अंगसे दुर्गन्ध आती हो और जो विशाल कुलमें उत्पन्न हुई हो-ऐसी कन्याका पूजामें परित्याग कर देना चाहिये ॥ 1 ॥

जन्मसे अन्धी, तिरछी नजरसे देखनेवाली, कानी, कुरूप, बहुत रोमवाली, रोगी तथा रजस्वला कन्याका पूजामें परित्याग कर देना चाहिये ॥ 2 ॥अत्यन्त दुर्बल, समयसे पूर्व ही गर्भसे उत्पन्न, विधवा स्त्रीसे उत्पन्न तथा कन्यासे उत्पन्न- ये सभी कन्याएँ पूजा आदि सभी कार्योंमें सर्वथा त्याज्य हैं॥ 3 ॥

रोगसे रहित, रूपवान् अंगोंवाली, सौन्दर्यमयी, व्रणरहित तथा एक वंशमें (अपने माता-पितासे) उत्पन्न कन्याकी ही विधिवत् पूजा करनी चाहिये 4 ॥ समस्त कार्योंकी सिद्धिके लिये ब्राह्मणकी कन्या, विजय प्राप्तिके लिये राजवंशमें उत्पन्न कन्या तथा धन-लाभके लिये वैश्यवंश अथवा शूद्रवंशमें उत्पन्न कन्या पूजनके योग्य मानी गयी है ॥ 5 ॥

ब्राह्मणको ब्राह्मणवर्णमें उत्पन्न कन्याकी; क्षत्रियोंको भी ब्राह्मणवर्णमें उत्पन्न कन्याकी; वैश्योंको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य - तीनों वर्णोंमें उत्पन्न कन्याकी तथा शूद्रको चारों वर्णोंमें उत्पन्न कन्याकी पूजा करनी चाहिये। शिल्पकर्ममें लगे हुए मनुष्योंको यथायोग्य अपने-अपने वंशमै उत्पन्न कन्याओंकी पूजा करनी चाहिये। नवरात्र विधिसे भक्तिपूर्वक निरन्तर पूजाकी जानी चाहिये। यदि कोई व्यक्ति नवरात्रपर्यन्त प्रतिदिन पूजा करनेमें असमर्थ है, तो उसे अष्टमी तिथिको विशेषरूपसे अवश्य पूजन करना चाहिये 6-8 ॥ प्राचीन कालमें दक्षके यज्ञका विध्वंस करनेवाली महाभयानक भगवती भद्रकाली करोड़ों योगिनियोंसहित अष्टमी तिथिको ही प्रकट हुई थीं ॥ 9 ॥ अतः अष्टमीको विशेष विधानसे सदा भगवतीकी पूजा करनी चाहिये। उस दिन विविध प्रकारके उपहारों, गन्ध, माला, चन्दनके अनुलेप, पायस आदिके हवन, ब्राह्मण भोजन तथा फल-पुष्पादि उपहारोंसे भगवतीको प्रसन्न करना चाहिये ।। 10-11

हे राजन् पूरे नवरात्रभर उपवास करनेमें असमर्थ लोगोंके लिये तीन दिनका उपवास भी यथोक्त फल प्रदान करनेवाला बताया गया है ॥ 12 ॥

भक्तिभावसे केवल सप्तमी, अष्टमी और नवमी-इन तीन रात्रियोंमें देवीको पूजा करनेसे सभी फल सुलभ हो जाते हैं ॥ 13 ॥ पूजन, हवन, कुमारी पूजन तथा ब्राह्मण भोजन इनको सम्पन्न करनेसे वह नवरात्र व्रत पूरा हो जाता है-ऐसा कहा गया है ॥ 14ll इस पृथ्वीलोकमें जितने भी प्रकारके व्रत एवं दान हैं, वे इस नवरात्रव्रतके तुल्य नहीं हैं. क्योंकि यह व्रत सदा धन-धान्य प्रदान करनेवाला, सुख तथा सन्तानकी वृद्धि करनेवाला, आयु तथा आरोग्य प्रदान करनेवाला और स्वर्ग तथा मोक्ष देनेवाला है । 15-16 ॥

अतएव विद्या, धन अथवा पुत्र- इनमेंसे मनुष्य किसीकी भी कामना करता हो, उसे इस सौभाग्यदायक तथा कल्याणकारी व्रतका विधिपूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये ॥ 17 ॥

इस व्रतका अनुष्ठान करनेसे विद्या चाहनेवाला मनुष्य समस्त विद्या प्राप्त कर लेता है और अपने राज्यसे वंचित राजा फिरसे अपना राज्य प्राप्त कर लेता है ॥ 18 ॥

पूर्वजन्ममें जिन लोगोंद्वारा यह उत्तम व्रत नहीं किया गया है, वे इस जन्ममें रोगग्रस्त, दरिद्र तथा सन्तानरहित होते हैं ॥ 19 ॥

जो स्त्री वन्ध्या, विधवा अथवा धनहीन है; उसके विषयमें यह अनुमान कर लेना चाहिये कि उसने [ अवश्य ही पूर्वजन्ममें] यह व्रत नहीं किया था ॥ 20 ॥

इस पृथ्वीलोकमें जिस प्राणीने उक्त नवरात्रव्रतका अनुष्ठान नहीं किया, वह इस लोकमें वैभव प्राप्त करके स्वर्गमें आनन्द कैसे प्राप्त कर सकता है ? ॥ 21 ॥

जिसने लाल चन्दनमिश्रित कोमल बिल्वपत्रोंसे भवानी जगदम्बाकी पूजा की है, वह इस पृथ्वीपर राजा होता है ॥ 22 ॥

जिस मनुष्यने दुःख तथा सन्तापका नाश करनेवाली, सिद्धियाँ देनेवाली, जगत् में सर्वश्रेष्ठ, शाश्वत तथा कल्याणस्वरूपिणी भगवतीकी उपासना नहीं की; वह इस पृथ्वीतलपर सदा ही अनेक प्रकारके कष्टोंसे ग्रस्त, दरिद्र तथा शत्रुओंसे पीड़ित रहता है ।। 23 ।।

विष्णु, इन्द्र, शिव, ब्रह्मा, अग्नि, कुबेर, वरुण तथा सूर्य समस्त कामनाओंसे परिपूर्ण होकर हर्षके |साथ जिन भगवतीका ध्यान करते हैं, उन देवी चण्डिकाका ध्यान मनुष्य क्यों नहीं करते ? ॥ 24 ॥देवगण इनके 'स्वाहा' नाममन्त्रके प्रभावसे तथा पितृगण 'स्वधा' नाममन्त्रके प्रभावसे तृप्त होते हैं। इसीलिये महान् मुनिजन प्रसन्नतापूर्वक सभी यज्ञों तथा श्राद्धकार्यों में मन्त्रोंके साथ 'स्वाहा' एवं 'स्वधा' नामोंका उच्चारण करते हैं ॥ 25 ॥

जिनकी इच्छासे ब्रह्मा इस विश्वका सृजन करते हैं, भगवान् विष्णु अनेकविध अवतार लेते हैं और | शंकरजी जगत्को भस्मसात् करते हैं, उन कल्याणकारिणी भगवतीको मनुष्य क्यों नहीं भजता ? ॥ 26 ॥

सभी भुवनोंमें कोई भी ऐसा देवता, मनुष्य, पक्षी, सर्प, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच एवं पर्वत नहीं है; जो उन भगवतीकी शक्तिके बिना अपनी इच्छासे शक्तिसम्पन्न होकर स्पन्दित होनेमें समर्थ हो ॥ 27 ॥ सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली उन

कल्याणदायिनी चण्डिकाकी सेवा भला कौन नहीं करेगा? चारों प्रकारके पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को चाहनेवाला कौन प्राणी उन भगवतीके नवरात्रव्रतका अनुष्ठान नहीं करेगा ? ॥ 28 ॥ यदि कोई महापापी भी नवरात्रव्रत करे तो वह समस्त पापोंसे मुक्ति पा लेता है, इसमें लेशमात्र भी विचार नहीं करना चाहिये ॥ 29 ॥

हे नृपश्रेष्ठ ! पूर्वकालमें कोसलदेशमें दीन, धनहीन, अत्यन्त दुःखी एवं विशाल कुटुम्बवाला एक वैश्य रहता था ॥ 30 ॥

उसकी अनेक सन्तानें थीं, जो धनाभावके कारण क्षुधासे पीड़ित रहा करती थीं; सायंकालमें उसके लड़कोंको खानेके लिये कुछ मिल जाता था तथा वह भी कुछ खा लेता था। इस प्रकार वह वणिक् भूखा रहते हुए सर्वदा दूसरोंका काम करके धैर्यपूर्वक परिवारका पालन-पोषण कर रहा था ।। 31-32 ।।

वह सर्वदा धर्मपरायण, शान्त, सदाचारी, सत्यवादी, क्रोध न करनेवाला, धैर्यवान्, अभिमानरहित तथा ईर्ष्याहीन था ॥ 33 ॥

प्रतिदिन देवताओं, पितरों तथा अतिथियोंकी पूजा करके वह अपने परिवारजनोंके भोजन कर लेनेके उपरान्त स्वयं भोजन करता था ॥ 34 ॥इस प्रकार कुछ समय बीतने पर गुणोंके कारण सुशील नामसे ख्यातिप्राप्त उस वणिक्ने दरिद्रता तथा सुधा-पीड़ासे अत्यन्त व्याकुल होकर एक शान्तस्वभाव ब्राह्मणसे पूछा ॥ 35 ॥

सुशील बोला- हे महाबुद्धिसम्पन्न ब्राह्मण देवता! आज मुझपर कृपा करके यह बताइये कि | मेरी दरिद्रताका नाश निश्चितरूपसे कैसे हो सकता है ? ॥ 36

हे मानद ! मुझे धनकी अभिलाषा तो नहीं है; किंतु हे द्विजश्रेष्ठ मैं आपसे कोई ऐसा उपाय पूछ रहा हूँ, जिससे मैं कुटुम्बके भरण-पोषणमात्रके लिये धनसम्पन्न हो जाऊँ ॥ 37 ॥

मेरी पुत्री और पुत्र [क्षुधासे पीड़ित होकर) भोजनके लिये बहुत रोते हैं और मेरे घरमें इतना भी अन्न नहीं रहता कि मैं उन्हें एक मुट्ठीभर अन्न दे सकूँ ॥ 38 ॥

रोते हुए बालकको मैंने घरसे निकाल दिया और वह चला गया। इसलिये मेरा हृदय शोकाग्निमें जल रहा है। धनके अभावमें मैं क्या करूँ ? ॥ 39 ॥

मेरी पुत्री विवाह के योग्य हो चुकी है, किंतु मेरे पास धन नहीं है। अब मैं क्या करूँ ? वह दस वर्षसे अधिककी हो गयी है; इस प्रकार कन्यादानका समय बीता जा रहा है 40 ॥ है।

हे विप्रेन्द्र। इसीलिये मैं अत्यधिक चिन्तित हूँ। हे दयानिधान! आप तो सर्वज्ञ हैं, अतएव मुझे कोई ऐसा तप, दान, व्रत, मन्त्र तथा जप बताइये, जिससे मैं अपने आश्रितजनोंका भरण-पोषण करनेमें समर्थ हो जाऊँ। हे द्विज। बस मुझे उतना ही धन मिल जाय और मैं उससे अधिक धनके लिये प्रार्थना नहीं करता ।। 41-42

हे महाभाग। आपकी कृपासे मेरा परिवार | अवश्य सुखी हो सकता है। अतएव आप अपने ज्ञानबलसे भलीभाँति विचार करके वह उपाय बताइये ॥ 43 ॥व्यासजी बोले- हे नृपश्रेष्ठ ! उसके इस प्रकार पूछनेपर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उस ब्राह्मणने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उस वैश्यसे कहा- 44

हे वैश्यवर्य अब तुम पवित्र नवरात्रव्रतका अनुष्ठान करो। इसमें तुम भगवतीको पूजा, हवन, ब्राह्मणभोजन, वेदपाठ, उनके मन्त्रका जप और होम आदि यथाशक्ति सम्पन्न करो। इससे तुम्हारा कार्य अवश्य सिद्ध होगा ॥ 45-46

हे वैश्य ! नवरात्र नामक इस पवित्र तथा सुखदायक व्रतसे बढ़कर इस पृथ्वीतलपर अन्य कोई भी व्रत नहीं है ॥ 47

यह नवरात्रव्रत सर्वदा ज्ञान तथा मोक्षको देनेवाला, सुख तथा सन्तानकी वृद्धि करनेवाला एवं शत्रुओंका पूर्णरूपसे विनाश करनेवाला है॥ 48

राज्यसे च्युत तथा सीताके वियोगसे अत्यन्त दुःखित श्रीरामने किष्किन्धापर्वतपर इस व्रतको किया था। सीताकी विरहाग्निसे अत्यधिक सन्तप्त श्रीरामने उस समय नवरात्रव्रतके विधानसे भगवती जगदम्बाकी भलीभाँति पूजा की थी॥ 49-50॥

इसी व्रतके प्रभावसे उन्होंने महासागरपर सेतुकी रचनाकर महावली मन्दोदरीपति रावण, कुम्भकर्ण तथा रावणपुत्र मेघनादका संहार करके सोताको प्राप्त किया। विभीषणको लंकाका राजा बनाकर पुनः अयोध्या लौटकर उन्होंने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया था ॥ 51-52 ॥

हे वैश्यवर। इस प्रकार अमित तेजवाले श्रीरामजीने इस नवरात्रव्रतके प्रभावसे पृथ्वीतलपर महान् सुख प्राप्त किया ॥ 53 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन्! ब्राह्मणका यह वचन सुनकर उस वैश्यने उन्हें अपना गुरु मान लिया और उनसे मायाबीज नामक उत्तम मन्त्रकी दीक्षा प्राप्त की ॥ 54 ॥

तत्पश्चात् आलस्यहीन होकर अत्यन्त भक्तिपूर्वक पूरे नवरात्रभर उसने उस मन्त्रका जप किया और अनेकविध उपहारोंसे आदरपूर्वक भगवतीका पूजन किया। इस प्रकार मायाबीजपरायण उस वैश्यने नौवर्षोंतक यह अनुष्ठान किया। नौवें वर्षके अन्तमें | महाष्टमी तिथिको अर्धरात्रि आनेपर महेश्वरीने उसे अपना प्रत्यक्ष दर्शन दिया और अनेक प्रकारके वरदानोंसे कृतकृत्य कर दिया ।। 55-57 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] राजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना
  2. [अध्याय 2] भगवती आद्याशक्तिके प्रभावका वर्णन
  3. [अध्याय 3] ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन
  4. [अध्याय 4] भगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना
  5. [अध्याय 5] ब्रह्मा और शिवजीका भगवतीकी स्तुति करना
  6. [अध्याय 6] भगवती जगदम्बिकाद्वारा अपने स्वरूपका वर्णन तथा 'महासरस्वती', 'महालक्ष्मी' और 'महाकाली' नामक अपनी शक्तियोंको क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिवको प्रदान करना
  7. [अध्याय 7] ब्रह्माजीके द्वारा परमात्माके स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपका वर्णन; सात्त्विक, राजस और तामस शक्तिका वर्णन; पंचतन्मात्राओं, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा पंचीकरण क्रियाद्वारा सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका वर्णन
  9. [अध्याय 9] गुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा
  10. [अध्याय 10] देवीके बीजमन्त्रकी महिमाके प्रसंगमें सत्यव्रतका आख्यान
  11. [अध्याय 11] सत्यव्रतद्वारा बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण तथा उससे प्रसन्न होकर भगवतीका सत्यव्रतको समस्त विद्याएँ प्रदान करना
  12. [अध्याय 12] सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञोंका वर्णन मानसयज्ञकी महिमा और व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको देवी यज्ञके लिये प्रेरित करना
  13. [अध्याय 13] देवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना, ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सृष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्या शक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना
  14. [अध्याय 14] देवीमाहात्म्यसे सम्बन्धित राजा ध्रुवसन्धिकी कथा, ध्रुवसन्धिकी मृत्युके बाद राजा युधाजित् और वीरसेनका अपने-अपने दौहित्रोंके पक्षमें विवाद
  15. [अध्याय 15] राजा युधाजित् और वीरसेनका युद्ध, वीरसेनकी मृत्यु, राजा ध्रुवसन्धिकी रानी मनोरमाका अपने पुत्र सुदर्शनको लेकर भारद्वाजमुनिके आश्रममें जाना तथा वहीं निवास करना
  16. [अध्याय 16] युधाजित्का भारद्वाजमुनिके आश्रमपर आना और उनसे मनोरमाको भेजनेका आग्रह करना, प्रत्युत्तरमें मुनिका 'शक्ति हो तो ले जाओ' ऐसा कहना
  17. [अध्याय 17] धाजित्का अपने प्रधान अमात्यसे परामर्श करना, प्रधान अमात्यका इस सन्दर्भमें वसिष्ठविश्वामित्र प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजित्‌का वापस लौट जाना, बालक सुदर्शनको दैवयोगसे कामराज नामक बीजमन्त्रकी प्राप्ति, भगवतीकी आराधनासे सुदर्शनको उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराजकी कन्या शशिकलाको स्वप्नमें भगवतीद्वारा सुदर्शनका वरण करनेका आदेश देना
  18. [अध्याय 18] राजकुमारी शशिकलाद्वारा मन-ही-मन सुदर्शनका वरण करना, काशिराजद्वारा स्वयंवरकी घोषणा, शशिकलाका सखीके माध्यमसे अपना निश्चय माताको बताना
  19. [अध्याय 19] माताका शशिकलाको समझाना, शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओंका स्वयंवरमें आगमन, युधाजित्द्वारा सुदर्शनको मार डालनेकी बात कहनेपर केरलनरेशका उन्हें समझाना
  20. [अध्याय 20] राजाओंका सुदर्शनसे स्वयंवरमें आनेका कारण पूछना और सुदर्शनका उन्हें स्वप्नमें भगवतीद्वारा दिया गया आदेश बताना, राजा सुबाहुका शशिकलाको समझाना, परंतु उसका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  21. [अध्याय 21] राजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजित्‌का क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  22. [अध्याय 22] शशिकलाका गुप्त स्थानमें सुदर्शनके साथ विवाह, विवाहकी बात जानकर राजाओंका सुबाहुके प्रति क्रोध प्रकट करना तथा सुदर्शनका मार्ग रोकनेका निश्चय करना
  23. [अध्याय 23] सुदर्शनका शशिकलाके साथ भारद्वाज आश्रमके लिये प्रस्थान, युधाजित् तथा अन्य राजाओंसे सुदर्शनका घोर संग्राम, भगवती सिंहवाहिनी दुर्गाका प्राकट्य, भगवतीद्वारा युधाजित् और शत्रुजित्का वध, सुबाहुद्वारा भगवतीकी स्तुति
  24. [अध्याय 24] सुबाहुद्वारा भगवती दुर्गासे सदा काशीमें रहनेका वरदान माँगना तथा देवीका वरदान देना, सुदर्शनद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीका उसे अयोध्या जाकर राज्य करनेका आदेश देना, राजाओंका सुदर्शनसे अनुमति लेकर अपने-अपने राज्योंको प्रस्थान
  25. [अध्याय 25] सुदर्शनका शत्रुजित्की माताको सान्त्वना देना, सुदर्शनद्वारा अयोध्या में तथा राजा सुबाहुद्वारा काशीमें देवी दुर्गाकी स्थापना
  26. [अध्याय 26] नवरात्रव्रत विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन
  27. [अध्याय 27] कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन, नवरात्रव्रतके माहात्म्यके प्रसंग में सुशील नामक वणिक्की कथा
  28. [अध्याय 28] श्रीरामचरित्रवर्णन
  29. [अध्याय 29] सीताहरण, रामका शोक और लक्ष्मणद्वारा उन्हें सान्त्वना देना
  30. [अध्याय 30] श्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रव्रतकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना