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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 11, अध्याय 23 - Skand 11, Adhyay 23

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कृच्छ्रचान्द्रायण, प्राजापत्य आदि व्रतोंका वर्णन

श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] साधकोंमें उत्तम विद्वान् पुरुषको भोजनके पश्चात् ॐ अमृतापिधानमसि' इस मन्त्रका उच्चारण करके आचमन करना चाहिये और पात्रमें अवशिष्ट अन्न उच्छिष्टभागी पितरोंको अर्पित करना चाहिये। [उस समय इस प्रकार कहना चाहिये] 'मेरे कुलमें जो उत्पन्न हुए हों तथा जो दास-दासियाँ रही हों, साथ ही मुझसे अन्न पानेकी अभिलाषा रखनेवाले हों वे सब मेरे द्वारा भूमिपर रखे गये इस अन्नसे तृप्त हो जायँ ॥ 1-2 ॥

तत्पश्चात् यह बोलकर जल प्रदान करे रौरव नामक अपवित्र नरकमें पद्म तथा अर्बुद वर्षोंसे यातना भोगते हुए निवास करनेवाले तथा मुझसे जल पानेकी अभिलाषा रखनेवालों को यह मेरे द्वारा प्रदत्त अक्षय्योदक प्राप्त हो ॥ 3 ॥[ भोजनके समय अँगुलीमें पड़े हुए] पवित्रककी ग्रन्थि खोलकर पृथ्वीपर रख दे जो विप्र उसे पात्रमें ही रख देता है, वह पंक्तिदूषक कहा जाता है ॥ 4 ॥

यदि उच्छिष्ट द्विजका किसी उच्छिष्टसे या कुत्ते | अथवा शूदसे स्पर्श हो जाता है, तो वह द्विज एक रात उपवास करके पुनः पंचगव्य ग्रहण करनेसे शुद्ध हो जाता है और अनुच्छिष्टसे स्पर्श होनेपर केवल स्नान करनेका विधान है। प्राणाग्निमें एक आहुति | देनेसे करोड़ यज्ञका फल मिलता है, पाँच आहुतियाँ देनेसे पाँच करोड़ यज्ञोंका अनन्त फल प्राप्त होना बताया गया है। जो मनुष्य प्राणाग्निहोत्रवेत्ताको अन्नका दान करता है, उस दाताको जो पुण्य होता है तथा भोक्ताको जो फल मिलता है, वह उनको समानरूपमें प्राप्त होता है। वे दोनों ही स्वर्ग प्राप्त करते हैं ॥ 5- 8 ॥

जो विप्र हाथमें पवित्रक धारण करके विधिपूर्वक भोजन ग्रहण करता है, उसे प्रत्येक ग्रासमें पंचगव्य प्राशनके समान फल प्राप्त होता है ॥ 9 ॥

पूजाके तीनों कालों (प्रातः, मध्याह्न, सायं) में प्रतिदिन जप, तर्पण, होम, ब्राह्मणभोजन [तथा मार्जन] को पुरश्चरण कहा जाता है। वह साधक नीचे भूमिपर शयन करे, धर्मपरायण रहे, क्रोधपर तथा इन्द्रियोंपर नियन्त्रण रखे, अल्प; मधुर तथा हितकर पदार्थोंको ग्रहण करे, शान्त मनसे विनम्रतापूर्वक रहे। नित्य तीनों समय स्नान करे तथा सदा सुन्दर वाणी बोले हे मुनिवर ! स्त्री, शूद्र, पतित, व्रात्य, नास्तिक, जूठे मुखवाले व्यक्ति तथा चाण्डालसे वार्तालाप नहीं करना चाहिये। जप, होम, पूजन आदिके समय किसीको नमस्कार करके बातचीत नहीं करनी चाहिये ॥। 10 - 13 ॥

मन, वाणी तथा कर्मसे सभी स्थितियों में सर्वदा मैथुनसम्बन्धी बातचीत तथा उससे सम्बन्धित गोष्ठीका भी त्याग कर देना चाहिये। सभी तरहसे मैथुनका त्याग ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है। राजा तथा गृहस्थके लिये भी ब्रह्मचर्यपालन बताया गया है। ll14-15॥ऋतुस्नान की हुई अपनी भावके साथ ही विधिपूर्वक सहवास करना चाहिये। अपने समान वर्णवाली पाणिगृहीती भार्याका ऋतुकाल उपस्थित जानकर ही प्रयत्नपूर्वक रात्रिमें उसके साथ गमन करना चाहिये। उससे ब्रह्मचर्यका नाश नहीं होता है तीनों ऋणोंका मार्जन, पुत्रोंकी उत्पत्ति तथा पंचमहायज्ञादि किये बिना ही मोक्षकी कामना करनेवाले व्यक्तिका अध: पतन हो जाता है। बकरीके गलेके स्तनकी भाँति उसका जन्म श्रुतियोंद्वारा निष्फल बताया गया है ॥ 16-18 ।।

अतएव हे विप्रेन्द्र ! तीनों ऋणोंसे मुक्त होनेका प्रयत्न करना चाहिये। मनुष्य देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंके ऋणी होते हैं। मनुष्य ब्रह्मचर्यद्वारा ऋषियोंके, तिलोदकदानसे पितरोंके तथा यज्ञानुष्ठानसे देवताओंके ऋणसे मुक्त हो जाता है। मनुष्यको चाहिये कि अपने-अपने आश्रमसम्बन्धी धर्मोंका पालन करे ।। 19-20 ॥

कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रत करनेवाले विद्वान्को दुग्ध, फल, शाक, हविष्यान्न तथा भिक्षान्नके आहारपर रहते हुए जप करना चाहिये। उसे लवण, क्षार, अम्ल, गाजर, कांस्यपात्रमें भोजन, ताम्बूल, दो बार भोजन, दुष्टोंकी संगति, उन्मत्तता, श्रुति स्मृतिके विरुद्ध व्यवहार तथा रातमें जप आदिका त्याग कर देना चाहिये। जुआ खेलने, स्त्रीसंग करने तथा निन्दा आदिमें समयको व्यर्थ व्यतीत नहीं करना चाहिये; अपितु देवताओंकी पूजा, स्तुति तथा शास्त्रावलोकनमें ही समय व्यतीत करना चाहिये ll 21 - 233 ॥

भूमिपर शयन, ब्रह्मचर्यपालन, मौनधारण, प्रतिदिन त्रिकाल स्नान, नीच कर्मोंसे विरत रहना, प्रतिदिन पूजा करना, दान देना, आनन्दित रहना, स्तुति करना, कीर्तनमें तत्पर रहना, नैमित्तिक पूजन तथा गुरु और देवतामें विश्वास रखना-जपपरायण पुरुषके लिये महान् सिद्धि प्रदान करनेवाले ये बारह धर्म हैं । ll24- 26 ll

प्रतिदिन सूर्योपस्थान करके उनके सम्मुख होकर जप करना चाहिये। देवप्रतिमा आदि अथवा अग्निमें सूर्यका अभ्यर्चन करके उनके सम्मुख स्थित होकरजप करना चाहिये। इस प्रकार स्नान, पूजा, जप, ध्यान, होम तथा तर्पणमें तत्पर रहना चाहिये और निष्काम होकर अपने सम्पूर्ण कर्म देवताको समर्पित कर देने चाहिये। पुरश्चरण करनेवाले व्यक्तिको चाहिये कि वह इन प्रारम्भिक नियमोंका पालन अवश्य करे। अतएव द्विजको प्रसन्न मनसे जप तथा होममें लगे रहना चाहिये। उसे तपस्या तथा अध्ययनमें निरत और प्राणियोंके प्रति दयाभाववाला होना चाहिये ।। 27 - 293 ॥

मनुष्य तपस्यासे स्वर्ग प्राप्त करता है तथा तपस्यासे महान् फल पाता है। संयत आत्मावाला तपपरायण पुरुष विद्वेषण, संहरण, मारण तथा रोगशमन आदि सभी कार्योंको सिद्ध कर लेता है । ll 30-31 ॥

जिस-जिस ऋषिने जिस-जिस प्रयोजनके लिये देवताओंकी स्तुति की, उन सभीकी वह वह कामना सिद्ध हुई। अब उन कर्मों तथा उनके विधानोंके विषयमें बताऊँगा कर्मोंके आरम्भके पूर्व पुरश्चरण कर लेना कर्मसिद्धिका कारक होता है ।। 32-33 ॥

स्वाध्यायाभ्यसन अर्थात् गायत्रीमन्त्रके पुरश्चरणमें द्विजको पहले प्राजापत्यव्रत करना चाहिये। इसके लिये सिर तथा दाढ़ीके केश और नखोंको कटाकर शुद्ध हो जाय। इसके बाद एक दिन-रात शरीरकी पवित्रता बनाये रखे। वाणीसे पवित्र रहे। सत्य भाषण करे और पवित्र मन्त्रोंका जप करे। गायत्रीकी व्याहृतियोंके आदिमें ॐकार लगाकर 'तत्सवितुः 0' इस सावित्री ऋचाका जप करना चाहिये। 'आपो हि ष्ठा0' यह सूक्त पवित्र तथा पापनाशक है। इसी प्रकार 'पुनन्त्यः स्वस्तिमत्यश्च0' एवं 'पावमान्यः 0' इन पवित्र मन्त्रोंका प्रयोग सभी कमक आदि तथा अन्तमें सर्वत्र करना चाहिये। शान्तिके लिये एक हजार, एक सौ अथवा दस बार इनका जप कर लेना चाहिये। अथवा ॐकार और तीनों व्याहृतियाँसहित गायत्रीमन्त्रका दस हजार जप करना चाहिये ।। 34-38 ॥

आचायों, ऋषियों, छन्दों तथा देवताओंका जलसे तर्पण करना चाहिये। अनार्य, शूद्र, निन्द्य पुरुषों, ऋतुमती स्त्री, पुत्रवधू, पतितजनों, चाण्डालों, देवता - ब्राह्मणसे द्वेष रखनेवाले, आचार्य तथा गुरुकी निन्दा करनेवाले और माता-पितासे द्वेष रखनेवालेव्यक्तियोंके साथ बातचीत न करे तथा किसीका भी अपमान न करे। सम्पूर्ण कृच्छ्र व्रतोंकी यही विधि है, जिसका आनुपूर्वी वर्णन मैंने कर दिया ॥ 39-41 ॥

अब कृच्छ्र, प्राजापत्य, सान्तपन, पराक, चान्द्रायण आदि कृच्छ्र व्रतोंकी विधि कही जाती है। इसके प्रभावसे मनुष्य पाँच प्रकारके पातकों तथा समस्त दुष्कृत्योंसे मुक्त हो जाता है। तप्तकृच्छ्रव्रतसे मनुष्यके सम्पूर्ण पाप क्षणभरमें भस्म हो जाते हैं । ll 42-43 ॥

तीन चान्द्रायणव्रतोंको कर लेनेसे मनुष्य पवित्र होकर ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है, आठ चान्द्रायणव्रतोंसे वर प्रदान करनेवाले देवताओंका साक्षात् दर्शन प्राप्त कर लेता है और दस चान्द्रायणव्रतोंके द्वारा वेदोंका ज्ञान प्राप्त करके अपने सभी मनोरथोंको पूर्ण कर लेता है ॥ 443 ॥

तीन दिन प्रातःकाल, तीन दिन सायंकाल तथा तीन दिन बिना माँगे प्राप्त हुआ भोज्यपदार्थ ग्रहण करे। इसके बाद तीन दिनोंतक कुछ भी नहीं ग्रहण करना चाहिये; इस प्रकारसे द्विजको प्राजापत्यव्रत करना चाहिये ॥ 453 ॥

प्रथम दिन गोमूत्र, गोमय, गोदुग्ध, दधि, घृत तथा कुशोदकको एकमें सम्मिश्रित करके पी ले; फिर दूसरे दिन उपवास करे-यह कृच्छ्रसान्तपनव्रत कहा जाता है ॥ 46 ॥

तीन दिनोंतक एक-एक ग्रास प्रातः काल तथा तीन दिनोंतक एक-एक ग्रास सायंकाल और तीन दिनोंतक अयाचित रूपसे एक-एक ग्रास ग्रहण करना चाहिये और तीन दिनोंतक उपवास करना चाहिये; इस प्रकार द्विजको अतिकृच्छ्रव्रत करना चाहिये। इस व्रतके नियमोंका तीन गुने रूपसे पालन करना महासान्तपनव्रत कहा गया है ॥ 47-48 ॥

इसी प्रकार तप्तकृच्छ्रव्रतका अनुष्ठान करनेवाले विप्रको चाहिये कि समाहितचित्त होकर तीन-तीन दिनोंतक क्रमसे उष्ण जल, उष्ण दुग्ध, उष्ण घृत तथा उष्ण वायुके आहारपर रहे और एक बार स्नान करे ॥ 49 ॥

नियमपूर्वक केवल जल पीकर रहना प्राजापत्यव्रतकी विधि कही गयी है। मनको अधिकारमेंरखना, प्रमत्तकी भाँति आचरण न करना तथा बारह दिनोंतक उपवास करना-यही पराक नामक कृच्छ्रव्रत है; यह समस्त पापोंको नष्ट करनेवाला है ॥ 503 ॥ [अब चान्द्रायणव्रतकी विधि कही जा रही है ] - कृष्णपक्षमें एक-एक ग्रास कम करके तथा शुक्लपक्षमें एक-एक ग्रास बढ़ाकर आहार ग्रहण | करना चाहिये तथा अमावास्याके दिन भोजन नहीं करना चाहिये - इस प्रकारकी विधिका चान्द्रायण व्रतमें पालन करना चाहिये। इसमें तीनों समय स्नान करनेका विधान है। इन सभी नियमोंका पालन चान्द्रायणव्रत कहा गया है ।। 51-52 ॥

प्रातःकाल स्नान आदि आह्निक कृत्य सम्पन्नकर विप्र प्रातः चार ग्रास भोजन करे तथा सूर्यास्त हो जानेपर भी चार ही ग्रास ग्रहण करे, इसे शिशुचान्द्रायण व्रत कहा गया है। संयमित आत्मावाले पुरुषको [मासपर्यन्त] दिनके मध्याह्नकालमें हविष्यके आठ आठ ग्रास ग्रहण करने चाहिये। इसे यतिचान्द्रायणव्रत कहते हैं ।। 53-54 ॥

रुद्र, आदित्य, वसुगण, मरुद्गण, पृथ्वी तथा सभी कुशल देवता इस व्रतका अनुष्ठान सदैव करते रहते हैं। विधि-विधानसे किया गया यह व्रत सात रात्रिमें शरीरकी त्वचा, रक्त, मांस, अस्थि, मेद, मज्जा तथा वसा - इन धातुओंको एक-एक करके पवित्र कर देता है; इस प्रकार सात रातोंमें वह व्रती शुद्ध जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ।। 55-563 ॥ हो अतएव व्रतीको चाहिये कि इन व्रतोंके द्वारा पवित्र मनवाला होकर सदा सत्कर्म करता रहे। इस प्रकार शुद्धिको प्राप्त हुए मनुष्यके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं; इसमें कोई संशय नहीं है। मनुष्यको विशुद्धात्मा, सत्यवादी तथा जितेन्द्रिय होकर कर्म करना चाहिये; तभी वह अपनी सम्पूर्ण अभिलषित कामनाओंकी प्राप्ति करता है, इसमें सन्देह नहीं है ।। 57-583 ।।

सम्पूर्ण कर्मोंसे अनासक्त होकर पहले तीन दिन उपवास रखे अथवा तीन दिन केवल रातमें भोजन करे; इसके बाद कार्यका आरम्भ करे। यह विधान पुरश्चरणका फल प्रदान करनेवाला कहा गया है। हे देवर्षे ! इस प्रकार मैंने सम्पूर्ण वांछितफल प्रदान करनेवाले तथा महान् पापोंका नाश करनेवाले गायत्रीपुरश्चरणका वर्णन आपसे कर दिया ।। 59-61 ॥

मन्त्रसाधकको आरम्भमें शरीरकी शुद्धि करनेवाला व्रत करना चाहिये। इसके बाद ही पुरश्चरण प्रारम्भ करना चाहिये, तभी साधक सम्पूर्ण फलका भागी होता है ॥ 62 ॥

[ हे नारद!] इस प्रकार मैंने पुरश्चरणका यह गोपनीय विधान आपको बता दिया है। इसे दूसरोंको नहीं बताना चाहिये; क्योंकि यह श्रुतियोंका सार कहा गया है ॥ 63 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] भगवान् नारायणका नारदजीसे देवीको प्रसन्न करनेवाले सदाचारका वर्णन
  2. [अध्याय 2] शौचाचारका वर्णन
  3. [अध्याय 3] सदाचार-वर्णन और रुद्राक्ष धारणका माहात्म्य
  4. [अध्याय 4] रुद्राक्षकी उत्पत्ति तथा उसके विभिन्न स्वरूपोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] जपमालाका स्वरूप तथा रुद्राक्ष धारणका विधान
  6. [अध्याय 6] रुद्राक्षधारणकी महिमाके सन्दर्भमें गुणनिधिका उपाख्यान
  7. [अध्याय 7] विभिन्न प्रकारके रुद्राक्ष और उनके अधिदेवता
  8. [अध्याय 8] भूतशुद्धि
  9. [अध्याय 9] भस्म - धारण ( शिरोव्रत )
  10. [अध्याय 10] भस्म - धारणकी विधि
  11. [अध्याय 11] भस्मके प्रकार
  12. [अध्याय 12] भस्म न धारण करनेपर दोष
  13. [अध्याय 13] भस्म तथा त्रिपुण्ड्र धारणका माहात्म्य
  14. [अध्याय 14] भस्मस्नानका महत्त्व
  15. [अध्याय 15] भस्म-माहात्यके सम्बन्धर्मे दुर्वासामुनि और कुम्भीपाकस्थ जीवोंका आख्यान, ऊर्ध्वपुण्ड्रका माहात्म्य
  16. [अध्याय 16] सन्ध्योपासना तथा उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] गायत्री-महिमा
  18. [अध्याय 18] भगवतीकी पूजा-विधिका वर्णन, अन्नपूर्णादेवीके माहात्म्यमें राजा बृहद्रथका आख्यान
  19. [अध्याय 19] मध्याह्नसन्ध्या तथा गायत्रीजपका फल
  20. [अध्याय 20] तर्पण तथा सायंसन्ध्याका वर्णन
  21. [अध्याय 21] गायत्रीपुरश्चरण और उसका फल
  22. [अध्याय 22] बलिवैश्वदेव और प्राणाग्निहोत्रकी विधि
  23. [अध्याय 23] कृच्छ्रचान्द्रायण, प्राजापत्य आदि व्रतोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] कामना सिद्धि और उपद्रव शान्तिके लिये गायत्रीके विविध प्रयोग