व्यासजी बोले- हे राजेन्द्र ! [ च्यवनमुनिके द्वारा अश्विनीकुमारोंको] सोमभाग दे दिये जानेपर इन्द्र अत्यन्त कुपित हुए और उन्होंने अपना पराक्रम दिखाते हुए मुनिसे कहा है ब्रह्मबन्धी! आप इस प्रकारकी अनुचित मर्यादा स्थापित मत कीजिये, अन्यथा मेरा विरोध करनेवाले आप मुनिका भी दूसरे विश्वरूपकी भाँति वध कर डालूँगा ॥ 1-2 ॥
च्यवन बोले- हे मघवन्! जिन महात्मा अश्विनी कुमारोंने रूपसम्पदाके तेजके द्वारा मुझे दूसरे देवताकी भाँति बना दिया है, उनका अपमान मत कीजिये हे देवेन्द्र आपके अतिरिक्त अन्य देवता सोमभाग क्यों पाते हैं? परम तपस्वी इन अश्विनीकुमाको भी आप देवता समझें l ll 3-4 ll
इन्द्र बोले - हे मन्दात्मन्! ये दोनों चिकित्सक किसी प्रकार भी यज्ञमें सोमभाग पानेके अधिकारी नहीं हैं। यदि आप इन्हें सोमरस देंगे, तो मैं अभी आपका सिर काट दूंगा ॥ 5 ॥
व्यासजी बोले [हे जनमेजय।] इन्द्रकी उस - बालकी उपेक्षा करके उनकी बहुत भर्त्सना करते हुए च्यवनमुनिने अश्विनीकुमारोंको यह भाग प्रदान कर दिया ll 6 ॥
जब उन दोनोंने पीनेकी इच्छासे सोमपात्र ग्रहण किया, तब शत्रुसेनाका भेदन करनेवाले इन्द्रने मुनिसे यह वचन कहा- यदि आप इन्हें सोमरस देंगे, तो मैं स्वयं आपके ऊपर वज्रसे उसी प्रकार प्रहार करूँगा, जैसे मैंने विश्वरूपको वज्रसे मार डाला था ॥ 7-8 ॥
इन्द्रके ऐसा कहनेपर [तपोबलसे] गर्वित व्यवनमुनि अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने विधिपूर्वक अश्विनीकुमारोंको सोमरस दे दिया ॥ 9 ॥
इसपर इन्द्रने भी क्रोध करके करोड़ों सूर्योके समान प्रभावाला अपना आयुध वज्र सभी देवताओंके सामने ही व्यवनमुनिपर चला दिया ॥ 10 ॥तब अमित तेजवाले इन्द्रके चलाये गये उस वज्रको देखकर च्यवनमुनिने अपने तपोबलसे उसे स्तम्भित कर दिया ॥ 11 ॥
इसके बाद वे महाबाहु मुनियोंमें श्रेष्ठ च्यवन कृत्या राक्षसीके द्वारा इन्द्रको मरवा डालनेके लिये उद्यत हो गये और पकाये गये हव्यसे मन्त्रसहित अग्निमें आहुति देने लगे ॥ 12 ॥
उन च्यवनके तपोबलसे वहाँपर कृत्या उत्पन्न हो गयी। अत्यन्त बलशाली तथा क्रूर पुरुषके रूपमें वह आविर्भूत हुई। उस पुरुषका शरीर महान् दैत्यके समान बहुत विशाल था ॥ 13 ॥
उसका नाम 'मद' था। वह अत्यन्त उग्र तथा संसारके प्राणियोंके लिये बहुत भयदायक था। वह शरीरसे पर्वतके आकारका था, उसके दाँत तीक्ष्ण थे, वह बड़ा ही भयावह था। उसके चार दाँत तो सौ सौ योजन लम्बे थे और इसके अन्य दाँत दस योजनके विस्तारवाले थे। देखनेमें क्रूर लगनेवाली उसकी दोनों भुजाएँ पर्वतके समान दूरतक फैली हुई थीं। अत्यन्त क्रूर तथा भयानक लगनेवाली उसकी जिड़ा आकाश और पातालको चाट रही थी । ll 14 - 16 ll
उसकी अत्यन्त डरावनी तथा कठोर गर्दन पर्वतकी चोटीके समान थी, उसके नाखून वाधके नाखूनके सदृश थे, उसके केश तो अत्यन्त भयंकर थे। उसका शरीर काजलकी आभावाला तथा मुख भयानक था और उसके अत्यन्त भीषण तथा भयावह दोनों नेत्र दावानलके समान प्रतीत हो रहे थे। उसका एक ओठ पृथ्वीपर स्थित था तो दूसरा ओठ आकाशतक गया हुआ था। इस प्रकारका विशाल शरीरवाला 'मद' नामक दानव उत्पन्न हुआ ।। 17-19 ॥
उसे देखते ही सभी देवता शीघ्र ही भयभीत हो गये। इन्द्र भी भयसे व्याकुल हो उठे और उनके मनमें युद्धका विचार नहीं रह गया ॥ 20 ॥
वह दैत्य वज्रको मुखमें लेकर सम्पूर्ण आकाशको व्याप्त करके सामने खड़ा था। ऐसा प्रतीत होता था मानो भयावनी दृष्टिवाला वह दानव तीनों लोकोंको | निगल जायगा ॥ 21 ॥इन्द्रको खा जानेके विचारसे वह क्रोधित होकर उनकी ओर दौड़ा। इसपर 'हाय, हम सब मारे गये'-ऐसा कहकर सभी देवता जोर-जोरसे चीखने-चिल्लाने लगे ॥ 22 ॥
इन्द्र वज्र चलाना चाहते थे, किंतु भुजाओंक कुण्ठित हो जानेके कारण वे उसपर वज्र प्रहार करनेमें समर्थ नहीं हुए ॥ 23 ॥
तब हाथमें वज्र धारण करनेवाले देवराज इन्द्रने काल-सदृश उस दानवको देखकर सामयिक समस्याका समाधान करनेमें कुशल देवगुरु बृहस्पतिका मन-ही मन स्मरण किया ॥ 24 ॥
इन्द्रके स्मरण करते ही उदार बुद्धिवाले गुरु बृहस्पति वहाँ शीघ्र आ गये। इन्द्रकी बड़ी दयनीय दशा देखकर तथा मन-ही-मन सारे कृत्यपर विचार करके वे शचीपति इन्द्रसे कहने लगे - ॥ 253 ॥
हे इन्द्र ! मद नामक इस असुरको महामन्त्रोंसे अथवा वज्रसे मार पाना अत्यन्त कठिन है। च्यवनमुनिका तपोबलस्वरूप यह महाबली दैत्य सम्यक् रूपसे यज्ञकुण्डसे उत्पन्न हुआ है। यह शत्रु तुम्हारे, देवगणोंके तथा मेरे द्वारा भी पराभूत नहीं किया जा सकता। अतः हे देवेश! आप महात्मा च्यवनकी शरणमें जायँ, वे अपने द्वारा उत्पन्न की गयी इस 'कृत्या' का शमन अवश्य कर देंगे। आदिशक्तिके भक्तका रोष निवारण करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है । ll 26 - 29 ॥
व्यासजी बोले- गुरु बृहस्पतिके यह कहनेपर इन्द्र च्यवनमुनिके पास गये और नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम करके भयभीत होते हुए उनसे बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! क्षमा कीजिये। संहारके लिये तत्पर इस असुरको शान्त कीजिये। आप प्रसन्न हो जाइये। हे सर्वज्ञ! मैं आपकी आज्ञाका पालन अवश्य करूँगा ।। 30-31 ॥
हे भार्गव । ये दोनों अश्विनीकुमार आजसे सोमपानके अधिकारी हो जायेंगे। हे विप्र ! मेरा यह वचन सत्य है, अब आप प्रसन्न हो जायँ ॥ 32 ॥हे तपोधन ! अश्विनीकुमारोंको सोमपानका अधिकारी बनानेका आपका उद्यम व्यर्थ नहीं हुआ; यह उचित ही है। हे धर्मज्ञ ! मैं जानता हूँ कि आप निष्प्रयोजन कोई भी कार्य नहीं करेंगे। आपने इन अश्विनीकुमारोंको सोमपानका अधिकारी बना दिया, अतः अब ये यज्ञोंमें सदा सोमरसका पान कर सकेंगे। साथ ही राजा शर्यातिका महान् यश भी स्थापित हो जायगा ।। 33-34 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! मैंने यह जो भी कार्य किया है, उसे आपके पराक्रमको प्रकट करनेके उद्देश्यसे ही किया है-ऐसा आप समझिये ॥ 35 ॥
हे ब्रह्मन् ! आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये। अपने द्वारा उत्पन्न किये गये इस 'मद' नामक दैत्यको तिरोहित कर दीजिये और ऐसा करके सभी देवताओंका पुनः कल्याण कीजिये ॥ 36 ॥
इन्द्रके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर परमार्थ तत्त्वके ज्ञाता च्यवनमुनिने विरोधके कारण उत्पन्न अपने क्रोधको दबा लिया। तत्पश्चात् उद्विग्न चित्तवाले देवराज इन्द्रको सान्त्वना देकर भृगुवंशी च्यवनमुनिने स्त्री, मदिरापान, द्यूत और आखेट - इन सबमें 'मद' को स्थापित कर दिया ॥ 37-38 ॥
इस प्रकार 'मद' को विभिन्न जगहोंपर विभक्त करके, भयसे घबराये हुए इन्द्रको आश्वासन देकर तथा सभी देवताओंको अपने-अपने कार्यपर लगाकर च्यवनमुनिने राजा शर्यातिका यज्ञ सम्पन्न कराया ॥ 39 ॥ तदनन्तर सभी धर्मोके आत्मास्वरूप भृगुवंशी च्यवनमुनिने महात्मा इन्द्रको तथा दोनों अश्विनी कुमारोंको परिष्कृत सोमरस पिलाया ॥ 40 ॥
हे राजन्! इस प्रकार च्यवनमुनिने अपने तपके प्रभावसे उन दोनों सूर्यपुत्र श्रेष्ठ अश्विनीकुमारोंको पूर्णरूपसे सोमपानका अधिकारी बना दिया ॥ 41 ॥ उसी समयसे यज्ञ-स्तम्भसे सुशोभित वह सरोवर भी विख्यात हो गया तथा मुनिके आश्रमकी प्रसिद्धि सम्यक् रूपसे पृथ्वीपर सर्वत्र व्याप्त हो गयी ॥ 42 ॥ उस कर्मसे राजा शर्याति भी सन्तुष्ट हो गये और यज्ञसम्पन्न करके मन्त्रियोंके साथ नगरको चले गये ॥ 43 ॥इसके बाद धर्मज्ञ तथा प्रतापी मनुपुत्र शर्याति राज्य करने लगे। उनके पुत्र 'आनर्त' हुए और आनर्तसे 'रेवत' उत्पन्न हुए। शत्रुओंका दमन करनेवाले वे रेवत समुद्रके मध्य कुशस्थली नामक नगरी स्थापित करके वहीं पर रहकर आनर्त आदि देशोंपर शासन करने लगे ॥ 44-45 उनके सौ पुत्र हुए, उनमें ककुद्मी सबसे ज्येष्ठ तथा उत्तम था। उनकी रेवती नामक एक पुत्री भी थी,
जो परम सुन्दर तथा शुभ लक्षणोंसे युक्त थी ॥ 46 जब वह कन्या विवाहके योग्य हो गयी, तब महाराज रेवत उत्तम कुलमें उत्पन्न राजकुमारोंके विषयमें सोचने लगे ॥ 47 ॥
उस समय वे बलशाली नरेश 'रैवत' नामक पर्वतपर रहते हुए आनर्त आदि देशोंपर राज्य कर रहे थे ॥ 48 ॥
वे मन-ही-मन सोचने लगे 'मैं यह कन्या किसे प्रदान करूँ, अतः सर्वज्ञ तथा देवपूजित ब्रह्माजीके पास जाकर उन्हींसे पूछ लूँ'-ऐसा विचार करके राजा रेवत अपनी पुत्री रेवतीको साथ लेकर पितामह ब्रह्माजीसे वर पूछनेकी अभिलाषासे शीघ्र ही ब्रह्मलोक जा पहुँचे; जहाँपर देवता, यज्ञ, छन्द, पर्वत, समुद्र और नदियाँ दिव्य रूप धारण करके विराजमान थे और सनातन ऋषि, सिद्ध, गन्धर्व, पन्नग तथा चारणवृन्द- ये सभी हाथ जोड़कर स्तुति करते हुए खड़े थे । 49-52 ॥