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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 11 - Skand 9, Adhyay 11

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गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य

नारदजी बोले - हे वेदवेत्ताआम श्रेष्ठ! पृथ्वाका यह परम मनोहर उपाख्यान मैं सुन चुका; अब आप गंगाका उपाख्यान कहिये। सुरेश्वरी, विष्णुस्वरूपा और स्वयं विष्णुपदी - इस नामसे विख्यात वे श्रेष्ठ गंगा प्राचीनकालमें सरस्वतीके शापसे भारतवर्षमें किस प्रकार, किस युगमें तथा किसके द्वारा प्रार्थित और प्रेरित होकर गयीं। मैं इस पापनाशक, पुण्यप्रद तथा मंगलकारी प्रसंगको क्रमसे सुनना चाहता हूँ॥ 1-3 ॥

श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] राजराजेश्वर श्रीमान् सगर सूर्यवंशी राजा हो चुके हैं। वैदर्भी तथा शैव्या नामोंवाली उनकी दो मनोहर भार्याएँ थीं। उनकी शैव्या नामक पत्नीसे अत्यन्त सुन्दर तथा कुलकी वृद्धि करनेवाला एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो असमंज -इस नामसे विख्यात हुआ ॥ 4-5 ॥

उनकी दूसरी पत्नी वैदर्भीने पुत्रकी कामनासे भगवान् शंकरकी आराधना की और शिवजीके वरदानसे उसने गर्भ धारण किया ॥ 6 ॥

पूरे सौ वर्ष व्यतीत हो जानेपर उसने एक मांस पिण्डको जन्म दिया। उसे देखकर तथा शिवका ध्यान करके वह बार-बार ऊँचे स्वरमें विलाप करने लगी ॥ 7 ॥ तब भगवान् शंकर ब्राह्मणका रूप धारणकर उसके पास गये और उन्होंने उस मांसपिण्डको बराबर बराबर साठ हजार भागोंमें विभक्त कर दिया ॥ 8 ॥

वे सभी टुकड़े पुत्ररूपमें हो गये। वे महान् बल तथा पराक्रमसे सम्पन्न थे। उनके शरीरकी कान्ति ग्रीष्मऋतुके मध्याह्नकालीन सूर्यकी प्रभाको भी तिरस्कृत कर देनेवाली थी ॥ 9 ॥

कपिलमुनिके शापसे वे सभी जलकर भस्म हो गये। यह समाचार सुनकर राजा सगर बहुत रोये और वे घोर जंगलमें चले गये ॥ 10 ॥

तदनन्तर उनके पुत्र असमंज गंगाको लानेके निमित्त तपस्या करने लगे। इस प्रकार एक लाख वर्षतक तप करनेके पश्चात् वे कालयोगसे मर गये ॥ 11 ॥उन असमंजके पुत्र अंशुमान् भी गंगाको पृथ्वीपर ले आनेके उद्देश्यसे एक लाख वर्षतक तप करनेके उपरान्त कालयोगसे मृत्युको प्राप्त हो गये ॥ 12 ॥

अंशुमान के पुत्र भगीरथ थे। वे भगवान्‌के परम भक्त, विद्वान्, विष्णुके भक्त, गुणवान्, अजर अमर तथा वैष्णव थे। उन्होंने गंगाको ले आनेके लिये एक लाख वर्षतक तप करके भगवान् श्रीकृष्णका साक्षात् दर्शन किया। वे ग्रीष्मकालीन करोड़ों सूर्योंके समान प्रभासे सम्पन्न थे, उनकी दो भुजाएँ थीं, वे हाथमें मुरली धारण किये हुए थे, उनकी किशोर अवस्था थी, वे गोपवेषमें थे और कभी गोपालसुन्दरीके रूपमें हो जाते थे, भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही उन्होंने यह रूप धारण किया था, उस समय ब्रह्मा विष्णु-महेश आदि देवता अपनी इच्छाके अधीन उन परिपूर्णतम परब्रह्मस्वरूप प्रभु श्रीकृष्णका स्तवन कर रहे थे, मुनियोंने उनके समक्ष अपने मस्तक झुका रखे थे, सदा निर्लिप्त, सबके साक्षी, निर्गुण, प्रकृतिसे परे तथा भक्तोंपर कृपा करनेवाले उन श्रीकृष्णका मुखमण्डल मन्द मुसकानयुक्त तथा प्रसन्नतासे भरा हुआ था; वे अग्निके समान विशुद्ध वस्त्र धारण किये हुए थे और रत्नमय आभूषणोंसे सुशोभित हो रहे थे-ऐसे स्वरूपवाले भगवान् कृष्णको देखकर राजा भगीरथ बार-बार प्रणामकर उनकी स्तुति करने लगे। उन्होंने लीलापूर्वक श्रीकृष्णसे अपने पूर्वजोंको तारनेवाला अभीष्ट वर प्राप्त कर लिया। उस समय | भगवान्‌की स्तुति करनेसे उनका रोम-रोम पुलकित हो गया था ॥ 13-19॥

श्रीभगवान् बोले- हे सुरेश्वरि ! सरस्वतीके | शापके प्रभावसे आप शीघ्र ही भारतवर्षमें जाइये और मेरी आज्ञासे राजा सगरके सभी पुत्रोंको पवित्र कीजिये ॥ 20 ॥

आपसे स्पर्शित वायुका संयोग पाकर वे सब पवित्र हो जायँगे और मेरा स्वरूप धारण करके दिव्य रथपर आरूढ़ होकर मेरे लोकको प्राप्त होंगे। वे जन्म-जन्मान्तरमें किये गये कर्मोंके फलोंका समूल | उच्छेद करके सर्वथा निर्विकार भावसे युक्त होकर मेरे पार्षद के रूपमें प्रतिष्ठित होंगे ॥ 21-22 ॥श्रुतिमें ऐसा कहा गया है कि भारतवर्ष में मनुष्योंके द्वारा करोड़ों जन्मोंमें किये गये दुष्कर्मके परिणामस्वरूप जो भी पाप संचित रहता है, वह गंगाकी वायुके स्पर्शमात्रसे नष्ट हो जाता है ॥ 23 ॥

गंगाजीके स्पर्श और दर्शनकी अपेक्षा दस गुना पुण्य गंगामें मौसल * स्नान करनेसे प्राप्त होता है। सामान्य दिनोंमें भी स्नान करनेसे मनुष्योंके सैकड़ों जन्मोंके पाप विनष्ट हो जाते हैं-ऐसा श्रुति कहती है । इच्छापूर्वक इस जन्ममें किये गये तथा अनेक पूर्वजन्मोंके संचित जो कुछ भी मनुष्योंके ब्रह्महत्या आदि पाप हैं, वे सब मौसलस्नान करनेमात्रसे नष्ट हो जाते हैं । ll 24-26 ॥

हे विप्र [नारद]! पुण्यप्रद दिनोंमें गंगास्नानसे | होनेवाले पुण्यका वर्णन तो वेद भी नहीं कर सकते। आगमशास्त्रके जो विद्वान् हैं, वे आगमोंमें प्रतिपादित कुछ-कुछ फल बताते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि | देवता भी पुण्यप्रद दिनोंके स्नानका सम्पूर्ण फल नहीं बता सकते। हे सुन्दरि ! अब सामान्य दिवसोंमें संकल्पपूर्वक किये गये स्नानका फल सुनो। साधारण दिवसके संकल्पपूर्वक स्नानका पुण्य मौसलस्नानसे दस गुना अधिक होता है। उससे भी तीस गुना पुण्य सूर्य संक्रान्तिके दिन स्नान करनेसे होता है ।। 27–29 ॥

अमावस्यातिथिको भी स्नान करनेसे उसी सूर्यसंक्रान्तिके स्नानके समान पुण्य होता है। किंतु दक्षिणायनमें गंगा-स्नान करनेसे उसका दूना और उत्तरायणमें गंगा स्नान करनेसे मनुष्योंको उससे दस गुना पुण्य प्राप्त होता है । चातुर्मास तथा पूर्णिमाके अवसरपर स्नान करनेसे अनन्त पुण्य प्राप्त होता है, अक्षय तृतीयाके दिन स्नान करनेसे भी उसीके समान पुण्य होता है-ऐसा वेदमें कहा गया है । ll 30-31 ॥

इन विशेष पर्वोपर किये गये स्नान तथा दान असंख्य पुण्य फल प्रदान करते हैं। इन पर्वोपर किये गये स्नान दानका फल सामान्य दिवसोंमें किये गये स्नान तथा दानकी अपेक्षा सौ गुना अधिक होता है ॥ 32 ॥मन्वन्तरादि' तथा युगादि तिथियों, माघ शुक्ल सप्तमी, भीष्माष्टमी, अशोकाष्टमी, रामनवमी तथा नन्दा तिथिको दुर्लभ गंगा स्नान करनेपर उससे भी दूना फल मिलता है ॥ 33-34 ॥

गंगादशहराकी दशमीतिथिको स्नान करनेसे युगादि तिथियोंके तुल्य और वारुणीपर्वपर स्नान करनेसे नन्दातिथिके तुल्य फल प्राप्त होता है। महावारुणी आदि पर्वोपर स्नान करनेसे उससे चार गुना पुण्य प्राप्त होता है। महामहावारुणी-पर्वपर स्नान करनेसे उससे भी चार गुना और सामान्य स्नानकी अपेक्षा करोड़ गुना पुण्य प्राप्त होता है। चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहणके अवसरपर स्नान करनेसे उससे भी दस गुना पुण्य मिलता है और अर्धोदयकालमें स्नान करनेसे उससे भी सौ गुना फल प्राप्त होता है ॥ 35-37 ॥

गंगा और भगीरथके समक्ष ऐसा कहकर देवेश्वर श्रीहरि चुप हो गये। तब गंगा भक्तिभावसे अपना मस्तक झुकाकर कहने लगीं ॥ 38 ॥

गंगा बोलीं- हे नाथ! हे राजेन्द्र भारतीके पूर्व शाप और साथ ही आपकी आज्ञा तथा भगीरथकी तपस्याके कारण मैं इस समय भारतवर्षमें जा रही हूँ। किंतु हे प्रभो ! वहाँ जानेपर पापीलोग मुझमें स्नान करके अपने जो कुछ पाप मुझे दे देंगे, वे मेरे पाप किस प्रकार नष्ट होंगे; इसका उपाय मुझे बताइये ॥ 39-40 ॥

हे देवेश मुझे भारतवर्षमें कितने समयतक रहना होगा और पुनः भगवान् विष्णुके परम धामको मैं कब प्राप्त होऊँगी ? ॥ 41 ॥

हे सर्ववित्! हे सर्वान्तरात्मन्! हे सर्वज्ञ मेरा अन्य जो कुछ भी अभिलषित है, वह सब आप जानते ही हैं। अत: हे प्रभो मेरे उन अभीष्टोंके पूर्ण होनेका उपाय बतला दीजिये ॥ 42 ॥ श्रीभगवान् बोले- हे गंगे ! हे सुरेश्वरि मैं तुम्हारी
समस्त इच्छाओंको जानता हूँ। वहाँ भारतवर्षमें लवणसमुद्र नदीस्वरूपिणी तुम्हारे पति होंगे। वे मेरे ही अंशस्वरूपहैं और तुम साक्षात् लक्ष्मीस्वरूपिणी हो। इस प्रकार पृथ्वीपर एक गुणवान् पुरुषके साथ एक गुणवती स्त्रीका मेल बड़ा ही उत्तम होगा ।। 43-44 ॥

भारतवर्षमें सरस्वती आदि जो भी नदियाँ हैं, उन सबमें क्रीडाकी दृष्टिसे लवणसमुद्रके लिये तुम्ही सर्वाधिक सौभाग्यवती होओगी ।। 45 ।।

हे देवेशि! इस समयसे कलियुगके पाँच हजार वर्षोंतक तुम्हें सरस्वतीके शापसे भारतभूमिपर रहना होगा ॥ 46 ॥

हे देवि! रसिकास्वरूपिणी तुम रसिकराज लवणसमुद्रसे संयुक्त होकर उनके साथ एकान्तमें सदा विहार करोगी ।। 47 ।।

भारतवर्षमें रहनेवाले सभी लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करेंगे और भगीरथके द्वारा रचित स्तोत्रसे तुम्हारी स्तुति करेंगे ।। 48 ।।

जो कण्वशाखामें बतायी गयी ध्यान-विधिसे तुम्हारा ध्यान करके तुम्हारी पूजा तथा स्तुति और तुम्हें नित्य प्रणाम करेगा, उसे अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होगा ॥ 49 ॥

जो मनुष्य सौ योजन दूरसे भी 'गंगा, गंगा' इस प्रकार उच्चारण करता है, वह सारे पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा विष्णुलोकको प्राप्त करता है॥ 50 हजारों पापी व्यक्तियोंके स्नानसे जो पाप तुम्हें प्राप्त होगा, वह मूलप्रकृति देवी भुवनेश्वरीके भक्तोंके स्पर्शमात्रसे विनष्ट हो जायगा ॥ 51 ॥

हजारों पापी प्राणियोंके शवके स्पर्शसे जो पाप तुम्हें लगेगा, वह भगवतीके मन्त्रोंकी उपासना करनेवाले पुण्यात्मा भक्तोंके स्नानसे नष्ट हो जायगा ॥ 52 ॥

हे शुभे। तुम सरस्वती आदि श्रेष्ठ नदियोंके साथ भारतवर्षमें निवास करोगी और वहाँ प्राणियोंको पापसे मुक्त करती रहोगी ॥ 53 ॥

जहाँ तुम्हारे गुणोंका कीर्तन होगा, वह स्थान | तत्काल तीर्थ बन जायगा। तुम्हारे रजःकणका स्पर्शमात्र हो जानेसे पापी भी पवित्र हो जायगा और उन रजःकणोंकी जितनी संख्या होगी, उतने वर्षोंतक वह निश्चितरूपसे देवीलोकमें निवास करेगा ॥ 543 ॥जो मनुष्य ज्ञान तथा भक्तिसे युक्त होकर मेरे नामका स्मरण करते हुए तुम्हारे जलमें अपने प्राणोंका त्याग करेंगे, वे श्रीहरिके लोकमें जायेंगे और वहाँपर दीर्घ कालतक उनके श्रेष्ठ पार्षदोंके रूपमें प्रतिष्ठित होंगे और वे असंख्य प्राकृतिक प्रलय देखेंगे ।। 55-566 ll

महान् पुण्यसे किसी मृत प्राणीका शव तुम्हारे जलमें आ सकता है। जितने दिनोंतक उसकी स्थिति तुम्हारेमें रहती है, उतने समयतक वह वैकुण्ठमें वास करता है। तदनन्तर जब वह अनेक शरीर धारण करके अपने कर्मोंका फल भोग चुकता है, तब मैं उसे सारूप्य मुक्ति दे देता हूँ और उसे अपना पार्षद बना लेता हूँ ॥ 57-583 ll

यदि कोई अज्ञानी मनुष्य भी तुम्हारे जलका स्पर्श करके प्राणोंका त्याग करता है, तो मैं उसे सालोक्य मुक्ति प्रदान कर देता हूँ और उसे अपना पार्षद बना लेता हूँ। अथवा तुम्हारे नामका स्मरण करके कोई व्यक्ति अन्यत्र कहीं भी यदि प्राणत्याग करता है, तो मैं उसे सालोक्य मुक्ति प्रदान करता हूँ और वह ब्रह्माकी आयुपर्यन्त मेरे लोकमें निवास करता है। ll 59-603 ll

इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य तुम्हारे नामका स्मरण करके अन्यत्र किसी भी स्थानपर प्राणत्याग करता है, तो मैं उसे सारूप्य मुक्ति प्रदान करता हूँ और वह असंख्य प्राकृतिक प्रलय देखता है। तदनन्तर बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित विमानमें बैठकर वह मेरे पार्षदोंके साथ गोलोकमें जा पहुँचता है और निश्चय ही मेरे तुल्य हो जाता है ॥ 61-626 ॥

प्रतिदिन मेरे मन्त्रकी उपासना तथा मेरा नैवेद्य ग्रहण करनेवाले भक्तोंके लिये तीर्थ अथवा अतीर्थमें मृत्युको प्राप्त होनेमें कुछ भी अन्तर नहीं है। मेरा ऐसा भक्त तीनों लोकोंको सहजतापूर्वक पवित्र करनेमें समर्थ है। अन्तमें मेरे वे भक्त बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित विमानपर आरूढ़ होकर गोलोक जाते हैं। साथ ही, मेरे भक्त जिनके बान्धव हैं; वे तथा उनके पशु आदि भी रत्ननिर्मित विमानसे अत्यन्त दुर्लभ गोलोकमें चले जाते हैं। हे सती। जो ज्ञानीजन चाहे जहाँ भी ज्ञानपूर्वक मेरा स्मरण करते हैं, वे मेरी भक्तिके प्रभावसे जीवन्मुक्त और पवित्र हो जाते हैं ।। 63-663 ॥[हे नारद!] गंगासे ऐसा कहकर भगवान् श्रीहरिने उन भगीरथसे कहा- अब आप भक्तिपूर्वक इन गंगाकी स्तुति तथा पूजा कीजिये ॥ 673 ॥ तदनन्तर भगीरथने कौथुमशाखामें बताये गये ध्यान तथा स्तोत्रके द्वारा भक्तिपूर्वक उन गंगाकी बार बार स्तुति तथा पूजा की। इसके बाद भगीरथ तथ गंगाने परमेश्वर श्रीकृष्णको प्रणाम किया तथा वे प्रभु अन्तर्धान हो गये ॥ 68-693 ।। नारदजी बोले - हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! राजा भगीरथने किस ध्यान, स्तोत्र तथा पूजाविधिसे गंगाका पूजन किया, यह मुझे बतलाइये ॥ 703 ॥ श्रीनारायण बोले- राजा भगीरथने नित्य-क्रिया तथा स्नान करके दो स्वच्छ वस्त्र धारणकर इन्द्रियोंको नियन्त्रित करके भक्तिपूर्वक गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और भगवती शिवा-इन छः देवताओंकी विधिवत् पूजा की। इन छः देवताओंकी सम्यक् पूजा करके वे गंगापूजनके अधिकारी हुए ॥ 71-723 ॥

मनुष्यको चाहिये कि विघ्न दूर करनेके लिये गणेशकी, आरोग्यके लिये सूर्यकी, पवित्रताके लिये अग्निकी, लक्ष्मी प्राप्तिके लिये विष्णुकी, ज्ञानके लिये ज्ञानेश्वर शिवकी तथा मुक्ति प्राप्त करनेके लिये भगवती | शिवाकी पूजा करे। इन देवताओंकी पूजा कर लेनेके बाद ही विद्वान् पुरुष अन्य पूजामें सफलता प्राप्त कर सकता है, अन्यथा इसके विपरीत परिणाम होता है। हे नारद! जिस ध्यानके द्वारा भगीरथने गंगाका ध्यान किया था, उस ध्यानको सुनिये ॥ 73 - 75 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन