श्रीनारायण बोले- हे नारद! भिन्न पादवाली | गायत्री ब्रह्महत्याका शमन करनेवाली है तथा अभिन्न पादवाली गायत्रीके जपसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है। जो द्विज अभिन्न पादवाली गायत्रीका जप करते हैं, वे कई सौ करोड़ कल्पोंतक नीचे मुख करके लटके हुए रहते हैं ॥ 1-2॥
हे सुव्रत ! धर्मशास्त्रों, पुराणों और इतिहासोंमें गायत्री विविध प्रकारकी मानी गयी है; यथा-प्रणवसे सम्पुटित तथा छः ॐकारसे संयुक्त। पाँच प्रणववाली गायत्रीका जप करना चाहिये, ऐसा भी शास्त्रोंका आदेश है। जितनी जप-संख्या करना अभीष्ट हो, उसके आठवें-आठवें भागके अन्तमें गायत्रीके चौथे पदका जप करना चाहिये। इस तरहसे जप करनेवालेउस द्विजको परम ज्ञानी समझना चाहिये; वह द्विज परम सायुज्य प्राप्त कर लेता है। जो इसके विपरीत गायत्रीका जप करता है, वह जप व्यर्थ हो जाता है॥3-5॥ एक सम्पुटवाली तथा छः ॐकारवाली जो गायत्री है, वह केवल एकनिष्ठ ब्रह्मचारियोंके लिये है। गृहस्थ, ब्रह्मचारी अथवा मोक्षकी कामना करनेवालेको तुरीया गायत्रीका जप करना चाहिये। गायत्रीका तुरीय पाद 'परोरजसे सावदोम्' यही है। हे नारद! अब मैं इसके ध्यानके विषयमें बता रहा हूँ, जो जपके सांगोपांग फलको देनेवाला है ॥ 6-7 ॥
हृदयदेशमें सूर्य-चन्द्र तथा अग्निमण्डलसे युक्त, प्रणवमय तथा अचिन्त्य विकसित कमल ही जिनका | आसन है-वे ब्रह्म अचल, परम सूक्ष्म, ज्योतिस्वरूप तथा आकाशके साररूप हैं। वे सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर मेरी प्रसन्नताके हेतु बनें ॥ 8 ॥
त्रिशूल, योनि, सुरभि, अक्षमाला, लिंग, अम्बुज तथा महामुद्रा ये सात मुद्राएँ गायत्रीको प्रदर्शित करनी चाहिये ll 9 ll
जो सन्ध्या हैं, वे ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणी गायत्री हैं। ब्राह्मणको उन गायत्रीका नित्य पूजन तथा नमन करना चाहिये ॥ 10 ॥
ध्यान किये गये देवताकी पाँच उपचारोंसे [मानसिक] पूजा करनी चाहिये। 'ल' पृथ्वीस्वरूपिणी | देवीको गन्ध अर्पित करता हूँ, उन्हें बार- बार नमस्कार है। 'हं' आकाशस्वरूपिणी देवीको पुष्प अर्पित करता हूँ, उन्हें बार-बार नमस्कार है। तत्पश्चात् 'यं' वायुस्वरूपिणी देवीको धूप अर्पित करता हूँ- ऐसा कहना चाहिये। तदनन्तर 'रे' अग्निस्वरूपिणी देवीको दीपक अर्पित करता हूँ-ऐसा बोलना चाहिये। पुनः 'वं' अमृतस्वरूपिणी देवीको नैवेद्य भी उसी प्रकार) अर्पित करना चाहिये ll 11-13 ॥
अन्तमें यं रं लं वं हं- ऐसा उच्चारण करके पुष्पांजलि अर्पित करनी चाहिये। इस प्रकार मानसिक पूजन करनेके उपरान्त मुद्राएँ दिखानी चाहिये ll 14 llमनसे देवीका ध्यान करना चाहिये और मन्त्रका उच्चारण धीरे-धीरे करना चाहिये इस समय सिर तथा गर्दन नहीं हिलाना चाहिये और दाँत नहीं दिखाने चाहिये ॥ 15 ॥
एक सौ आठ बार या अट्ठाईस बार अथवा अशत होनेकी स्थितिमें दस बार ही विधिपूर्वक गायत्रीका जप करना चाहिये, किंतु इससे कम जप कभी नहीं करना चाहिये ॥ 16 ॥
इसके बाद 'उत्तम' इत्यादि अनुवाक् मन्त्र उच्चारण करके देवीका विसर्जन करना चाहिये। विद्वान् व्यक्तिको चाहिये कि जलमें स्थित रहकर गायत्रीमन्त्रका जप कभी भी न करे क्योंकि वे अग्निमुखी कही गयी हैं- ऐसा कुछ महर्षियोंने कहा है जपके अनन्तर सुरभि ज्ञान, शूर्प, कूर्म, योनि, पंकज, लिंग और निर्वाणये आठ मुद्राएँ प्रदर्शित करनी चाहिये। इसके बाद इस प्रकार क्षमा-प्रार्थना करे- कश्यपके प्रति प्रिय सम्भाषण करनेवाली हे देवि! मेरे उच्चारणमें अक्षरों तथा पदोंका जो विचलन हुआ हो और स्वर तथा व्यंजनसम्बन्धी जो दोष रहा हो; उन सबको आप क्षमा कीजिये हे महामुने! इसके बाद गायत्री तर्पण करना चाहिये ll 17-20 ॥
'गायत्री' इसका छन्द कहा गया है, 'विश्वामित्र'' इसके ऋषि कहे गये हैं और 'सविता' इसके देवता कहे गये हैं। तर्पणक्रियामें इसका विनियोग किया जाता है। 'भूः' ऐसा बोलकर ऋग्वेद-पुरुषका तर्पण करता हूँ और 'भुवः' ऐसा उच्चारण करके यजुर्वेदका तर्पण करता है-ऐसा कहे। 'स्वः' व्याहतिका उच्चारण | करके सामवेदका तर्पण करता हूँ-ऐसा कहे और 'महः' ऐसा बोलकर अथर्ववेदका तर्पण करे। पुनः 'जनः' पदके साथ इतिहास पुराणका तर्पण करता हूँ-ऐसा कहे 'तपः' से सम्पूर्ण आगमस्वरूप पुरुषका और 'सत्यं' से सत्यलोकाख्य पुरुषका तर्पण करता हूँ-ऐसा बोलना चाहिये। तदनन्तर ॐ भूः से भूलकपुरुषका तर्पण करता हूँ, 'भुवः' से | भुवर्लोकपुरुषका तर्पण करता हूँ तथा 'स्वः' से स्वर्गलोकपुरुषका तर्पण करता हूँ-ऐसा कहना चाहिये। इसके बाद 'ॐ भूः' से एकपदा नामवाली गायत्रीकातर्पण कर रहा हूँ और 'भुवः' से द्विपदा गायत्रीका तर्पण कर रहा हूँ-ऐसा बोलना चाहिये। 'स्वः' से त्रिपदा गायत्रीका तर्पण कर रहा हूँ और 'ॐ भूर्भुवः स्वः' से चतुष्पदा गायत्रीका तर्पण कर रहा हूँ-इस प्रकार बोलना चाहिये । ll 21 - 28 ॥
तदनन्तर उषसी, गायत्री, सावित्री, सरस्वती, वेदमाता, पृथ्वी, अजा, कौशिकी, सांकृति और सार्वजिति- इन नामोंको उच्चारित करके गायत्रीदेवीका तर्पण करना चाहिये। तर्पणके अन्तमें शान्तिके लिये 'जातवेदसम्0' - इस ऋचाका पाठ करना चाहिये। इसी प्रकार विद्वान् पुरुषको चाहिये कि शान्तिके लिये 'मानस्तोके0 ' - इस मन्त्रका भी पाठ करे। तत्पश्चात् शान्तिके लिये त्र्यम्बकम्'- इस मन्त्रका भी पाठ करना बताया गया है। शान्तिहेतु 'तच्छंयो0' इस मन्त्रका भी जप करना चाहिये। इसके बाद 'देवा गातु0' इस मन्त्रके द्वारा अपने दोनों हाथोंसे सम्पूर्ण अंगोंका स्पर्श करना चाहिये और 'स्योना पृथिवी0 ' मन्त्रके द्वारा पृथ्वीको प्रणाम करना चाहिये। प्रणाम करते समय द्विजश्रेष्ठको विधिके अनुसार अपने गोत्र आदिका उच्चारण कर लेना चाहिये। प्रातः कालीन सन्ध्या-सम्बन्धी इस प्रकारका विधान कहा गया है। सन्ध्याकर्म समाप्त करनेके उपरान्त स्वयं अग्निहोत्र भी करना चाहिये ॥ 29 - 34 ॥
तत्पश्चात् एकाग्रचित्त हो पंचायतनपूजा करनी चाहिये; इसमें शिवा, शिव, गणेश, सूर्य तथा विष्णुकी अर्चना करनी चाहिये। पुरुषसूक्त, व्याहृति, मूल मन्त्र अथवा 'ह्रीश्च ते0' इस मन्त्रसे समाहितचित्त होकर पूजन करना चाहिये || 35-36 ।।
देवीकी पंचायतन पूजामें मण्डलके मध्यमें भवानीका पूजन करना चाहिये। मण्डलके ईशानकोणमें माधव, अग्निकोणमें पार्वतीपति शंकर, नैर्ऋत्यकोणमें गणेश और वायव्यकोणमें सूर्यका अर्चन करना चाहिये देवी - पंचायतनमें देवताओंकी स्थापनाका यही क्रम है मनुष्य सोलह ऋचाओंका पाठ करके सोलह प्रकारके पूजनोपचार अर्पित करे ।। 37-38 ll
सर्वप्रथम देवीकी पूजा करके ही क्रमशः अन्य देवताओंकी पूजा करनी चाहिये। देवीके पूजनसे बढ़कर अधिक पुण्यप्रद कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता ॥ 39 ॥इसीलिये सन्ध्याकालोंमें सन्ध्या (गायत्री) - की उपासना श्रुतियोंमें कही गयी है। अक्षतसे भगवान् विष्णुकी, तुलसीसे गणेशकी, दूर्वासे दुर्गाकी तथा केतकी - पुष्पसे शंकरकी पूजा नहीं करनी चाहिये । मल्लिका, जातिपुष्प, कुटज, पनस, किंशुक, बकुल, कुन्द, लोध्र, करवीर, शिंशपा, अपराजिता, बन्धूक, अगस्त्य, मदंत, सिन्दुवार, पलाश-पुष्प, दूर्वांकुर, बिल्वदल, कुश-मंजरी, शल्लकी, माधवी, अर्क, मन्दार, केतकी, कर्णिकार, कदम्ब, नागकेसर, चम्पा, जूही और तगर आदि - ये पुष्प देवीको प्रसन्नता प्रदान करनेवाले हैं ॥ 40-45 ॥
भवानीके लिये गुग्गुलका धूप तथा तिलके तेलका दीपक अर्पित करना चाहिये। इस प्रकार | देवताओंका पूजन करके मूल मन्त्रका जप करना चाहिये। इस रीतिसे पूजा समाप्त करनेके अनन्तर ही विद्वान् व्यक्तिको वेदाभ्यासमें प्रवृत्त होना चाहिये । इसके बाद बुद्धिमान् पुरुषको दिनके तीसरे भाग में नियमपूर्वक अपनी वृत्तिके अनुसार अपने आश्रितवर्गके भरण-पोषणहेतु प्रयत्न करना चाहिये ॥ 46-47॥