श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! इसके बाद अब आप देवीके पापनाशक, पुण्यप्रद और यथेष्ट फल देनेवाले पुरश्चरणके विषयमें सुनिये ॥ 1 ॥
पर्वतके शिखरपर, नदीके तटपर, बिल्व वृक्षके नीचे, जलाशयके किनारे, गोशालामें, देवालयमें, पीपलके नीचे, उद्यानमें, तुलसीवनमें, पुण्यक्षेत्रमें अथवा गुरुके पास अथवा जहाँ भी चित्तकी एकाग्रता बनी रहे - उस स्थानपर मन्त्रका पुरश्चरण करनेवाला व्यक्ति सिद्धि प्राप्त कर लेता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ 2-3 ॥
जिस किसी भी मन्त्रका पुरश्चरण आरम्भ करना हो, उसके पूर्व तीनों व्याहृतियों (भूः, भुवः, स्वः) - सहित दस हजार गायत्री मन्त्रका जप करना चाहिये ॥ 4 ॥नृसिंह, सूर्य तथा वराह-इन देवताओंका जो भी तान्त्रिक अथवा वैदिक कर्म बिना गायत्रीका जप किये सम्पन्न किया जाता है, वह सब निष्फल हो जाता है ॥ 5 ॥
सभी द्विज शाक्त कहे गये हैं; शैव और वैष्णव नहीं; क्योंकि सभी द्विज आदिशक्ति वेदमाता गायत्रीकी
उपासना करते हैं ॥ 6 ॥ गायत्रीके जपद्वारा मन्त्रको शुद्ध करके यत्नपूर्वक पुरश्चरणमें तत्पर हो जाना चाहिये। मन्त्रशोधनके पूर्व आत्मशुद्धि कर लेना उत्तम होता है ॥ 7 ॥
आत्मतत्वके शोधनके लिये विद्वान् पुरुषको श्रुतियोंके द्वारा बताये गये नियमके अनुसार गायत्री मन्त्रका तीन लाख अथवा एक लाख जप करना चाहिये ll 8 ll
कर्ताकी आत्मशुद्धिके बिना की गयी जप होमादि क्रियाएँ निष्फल ही समझी जानी चाहिये; क्योंकि आत्मशुद्धि करना श्रुतिसम्मत है ॥ 9 ॥
तपस्याके द्वारा अपने शरीरको तपाना चाहिये और पितरों तथा देवताओंको तृप्त रखना चाहिये। तपस्यासे मनुष्य स्वर्ग तथा महान् फल प्राप्त करता है ॥ 10 ॥
क्षत्रियको बाहुबलसे, वैश्यको धनसे, शूद्रको द्विजातियोंकी सेवासे और श्रेष्ठ ब्राह्मणको जप तथा होमसे अपनी आपदाओंका निवारण करना चाहिये ॥ 11 ॥
अतएव हे विप्रेन्द्र ! प्रयत्नपूर्वक तपस्या करनी चाहिये। तपस्वियोंने शरीर सुखानेको ही उत्तम तप बतलाया है। विहित मार्गसे कृच्छ्र तथा चान्द्रायण आदि व्रतोंके द्वारा शरीरका शोधन करना चाहिये। हे नारद! अब मैं | अन्नशुद्धिका प्रकरण बताऊँगा; उसे सुनिये ॥ 12-13 ॥
अयाचित, उच्छ, शुक्ल तथा भिक्षा-ये आजीविकाके चार मुख्य साधन हैं। तान्त्रिकों और वैदिकोंके द्वारा इन वृत्तियोंसे प्राप्त अन्नकी विशुद्धता कही गयी है ॥ 14 ll
भिक्षासे प्राप्त शुद्ध अन्न लाकर उसके चार भाग करके एक भाग द्विजोंके लिये, दूसरा भाग गोग्रासके रूपमें गौके लिये, तीसरा भाग अतिथियोंके लिये तथा चौथा भाग भार्यासहित अपने लिये व्यवस्थित करे। जिस आश्रम सकी जो विधि निश्चित है, उसी क्रमसे उसका पालन करना चाहिये ।। 15-16 llआरम्भमें उस अन्नपर शक्ति तथा क्रमके अनुसार गोमूत्रका छींटा देकर वानप्रस्थी तथा गृहस्थाश्रमीको ग्रासकी संख्या निर्धारित करनी चाहिये ॥ 17 ॥
ग्रासका परिमाण मुर्गीके अण्डेके बराबर होना चाहिये। गृहस्थको आठ ग्रास, वानप्रस्थीको उसका आधा (चार ग्रास) तथा ब्रह्मचारीको यथेष्ट ग्रास लेनेका विधान है। सर्वप्रथम गोमूत्रकी विधि सम्पन्न करके नौ, छः अथवा तीन बार अन्नका प्रोक्षण करना चाहिये। अँगुलियोंको परस्पर छिद्ररहित करके 'तत्सवितुः0' इस गायत्री ऋचाके साथ प्रोक्षण होना चाहिये। मन्त्रका मन-ही-मन उच्चारण करते हुए प्रोक्षण करनेकी विधि कही गयी है ॥ 18-20 ॥
चोर, चाण्डाल, वैश्य तथा क्षत्रिय- इनमेंसे कोई भी यदि अन्न प्रदान करता है तो अन्न-प्राप्तिकी इस विधिको अधम कहा गया है ॥ 21 ॥
जो विप्र शुद्रका अन्न खाते हैं, शूद्रके साथ सम्पर्क स्थापित करते हैं तथा शूद्रके साथ भोजन करते हैं; वे तबतक घोर नरकमें वास करते हैं जबतक सूर्य तथा चन्द्रमाका अस्तित्व रहता है ॥ 22 ॥
गायत्रीछन्दवाले मन्त्रमें अक्षरोंकी जितनी संख्या है, उतने लाख अर्थात् चौबीस लाख जपसे पुरश्चरण सम्पन्न करना चाहिये ॥ 23 ॥
विश्वामित्रका मत है कि बत्तीस लाख जप होना चाहिये। जिस प्रकार प्राणरहित शरीर समस्त कार्योंको करनेमें समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार पुरश्चरणसे हीन मन्त्र भी फल देनेमें असमर्थ कहा गया है ll 243 ॥
ज्येष्ठ, आषाढ़, भाद्रपद, पौष, अधिकमास, मंगलवार, शनिवार, व्यतीपात, वैधृति, अष्टमी, नवमी, षष्ठी, चतुर्थी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावास्या, प्रदोष, रात्रि, भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा, श्रवण, जन्म-नक्षत्र, मेष, कर्क, तुला, कुम्भ तथा मकर (लग्न) - इन्हें छोड़ देना चाहिये; पुरश्चरणकर्ममें ये सब त्याज्य हैं ।। 25-28 ॥
चन्द्रमा तथा नक्षत्रोंके अनुकूल रहनेपर और मुख्यरूपसे शुक्ल पक्षमें पुरश्चरण आरम्भ करना चाहिये; ऐसा करनेसे मन्त्रसिद्धि होती है॥ 29 ॥आरम्भमें विधिपूर्वक स्वस्तिवाचन तथा नान्दीश्राद्ध सम्पन्न करना चाहिये। भोजन तथा वस्त्र आदिसे ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट करके पुनः उनसे आज्ञा लेकर पुरश्चरण आरम्भ करना चाहिये। द्विजको चाहिये कि शिवमन्दिर तथा अन्य किसी भी शिवस्थानपर पूर्वाभिमुख बैठकर जप करे ॥ 30-31 ॥
काशीपुरी, केदार, महाकाल, नासिक और महाक्षेत्र त्र्यम्बक—ये पाँच स्थान पृथ्वीलोकमें दीप (सिद्धिस्थान) हैं। इन स्थानोंके अतिरिक्त सभी जगह कूर्मासनको दीप (सिद्धिस्थान) कहा गया है। प्रारम्भके दिनसे लेकर समाप्तिके दिनतक किसी भी दिन न तो अधिक और न तो कम जप करना चाहिये; श्रेष्ठ मुनिगण निरन्तर पुरश्चरण करते रहते हैं ।। 32-34 ॥
प्रातःकालसे आरम्भ करके मध्याह्नतक विधिवत् जप करना चाहिये। जपकी अवधिमें मनपर नियन्त्रण रखे, पवित्रतासे रहे, इष्टदेवताका ध्यान करता रहे तथा मन्त्रके अर्थका चिन्तन करता रहे ।। 35 ।।
गायत्रीछन्दवाले मन्त्रमें अक्षरोंकी जितनी संख्या है, उतने लाख अर्थात् चौबीस लाख जपसे पुरश्चरण सम्पन्न करना चाहिये ॥ 36 ॥
घृत तथा मधुमिश्रित खीर, तिल, बिल्वपत्र, पुष्प तथा यव आदि द्रव्योंसे जपसंख्याके दशांशसे आहुति देनी चाहिये। दसवें अंशसे हवन करना चाहिये, तभी मन्त्र सिद्ध होता है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली गायत्रीकी सम्यक् उपासना करनी चाहिये ॥ 37-38 ॥
नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य-इन तीनों कर्मोंमें गायत्री उपासनामें तत्पर रहना चाहिये। गायत्रीसे बढ़कर इस लोक तथा परलोकमें दूसरा कुछ भी नहीं है ॥ 39 ॥
[पुरश्चरणक दूसरी विधि यह भी है ] मध्याह्नकालमें अल्प भोजन करे, मौन रहे, तीनों समय स्नान करे और सन्ध्योपासन करे। बुद्धिमान् पुरुषको अन्य वृत्तियोंसे मनको हटाकर जलमें तीन लाख मन्त्रोंका जप करना चाहिये ॥ 40 ॥
इस प्रकार पहले पुरश्चरणकर्म करनेके पश्चात् अभिलषित काम्य कर्मोंके निमित्त जप करना चाहिये। जबतक कार्यमें सिद्धिकी प्राप्ति न हो जाय, तबतक जप आदि करते रहना चाहिये ॥ 41 ॥सामान्य काम्य कर्मोंमें यथावत् विधि कही गयी है। सूर्योदयकालमें स्नान करके प्रतिदिन एक हजार गायत्रीका जप करना चाहिये। ऐसा करनेवाला साधक आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य तथा धन अवश्य प्राप्त करता है और तीन मास, छः मास अथवा एक वर्षके अन्तमें सिद्धि प्राप्त कर लेता है । ll 42-43 ॥
एक लाख घृताक्त कमलपुष्पोंका अग्निमें होम करनेसे मनुष्य सम्पूर्ण वांछित फलको प्राप्त कर लेता है तथा उसे मोक्ष भी सुलभ हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है ll 44 ll
मन्त्रसिद्धि किये बिना कर्ताकी जप- होम आदि क्रियाएँ, काम्यकर्म अथवा मोक्ष आदि जो भी हो; वह सब निष्फल हो जाता है ॥ 45 ॥
पचीस लाख गायत्री जपसे तथा दही अथवा दूधसे हवन करनेसे मनुष्य सिद्धशरीर हो जाता है ऐसा महर्षियोंका मत है ॥ 46 ॥
मनुष्य अष्टांगयोगके द्वारा जो फल प्राप्त करता है, वही फल इस जपसे सिद्ध हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ 47 ॥ साधक सशक्त हो अथवा अशक्त, किंतु उसे नियत आहार ग्रहण करना चाहिये। गुरुके प्रति सदा भक्तिपरायण रहते हुए जो जप करता रहता है, उसे
छः महीनेमें सिद्धि मिल जाती है ॥ 48 ॥
गायत्री जप करनेवालेको एक दिन पंचगव्यके आहारपर, एक दिन वायुके आहारपर तथा एक दिन ब्राह्मणसे प्राप्त अन्नके आहारपर रहना चाहिये ॥ 49 ॥ गंगा आदि पवित्र नदियोंमें स्नान करके जलके भीतर ही एक सौ जप करना चाहिये। इसके बाद एक सौ मन्त्रोंका उच्चारण करके जलका पान कर लेनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है। ऐसा करनेवालेको चान्द्रायण और कृच्छ्र आदि व्रतोंका फल निश्चितरूपसे प्राप्त हो जाता है। यदि साधक राजा अथवा ब्राह्मण हो तो उसे अपने घरपर ही तपरूपी पुरश्चरण करना चाहिये। गृहस्थ, ब्रह्मचारी अथवा वानप्रस्थीको भी अपने-अपने अधिकारके अनुसार जपयज्ञ करनेके पश्चात् [ पुरश्चरण सम्पन्न हो जानेपर ] फल प्राप्त हो जाता है ॥ 50-52 ॥मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुष श्रौत और स्मार्त आदि कर्म करते हैं। साधकको फल, मूल तथा जल आदिके आहारपर रहते हुए विद्वानोंके द्वारा सम्यक् शिक्षा प्राप्त करके सदाचारी तथा अग्निहोत्री होकर प्रयत्नपूर्वक जप करना चाहिये। भिक्षामें प्राप्त शुद्ध अन्न ही ग्रहण करे, जिसमें स्वयं मात्र आठ ग्रास ही भोजन करे ॥ 53-54 ॥
हे देवर्षे! इस प्रकार पुरश्चरण करके मनुष्य मन्त्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है; इसके अनुष्ठानमात्रसे दरिद्रता समाप्त हो जाती है और इसके श्रवणसे भी मनुष्य पुण्योंकी महती सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥ 55 ॥