नारदजी बोले - हे भगवन्! हे देवदेवेश ! हे भूतभव्यजगत्प्रभो ! मैंने गायत्रीमन्त्रविग्रह तथा दिव्य गायत्रीकवचके विषयमें सुन लिया। अब मैं श्रेष्ठ 'गायत्रीहृदय' सुनना चाहता हूँ, जिसके धारण करनेसे गायत्रीजपसे प्राप्त होनेवाला सम्पूर्ण पुण्य प्राप्त हो जाता है ॥ 1-2 ॥
श्रीनारायण बोले- हे नारद! देवीका गायत्री हृदय अथर्ववेदमें स्पष्टरूपसे वर्णित है। रहस्योंमें भी अति रहस्ययुक्त उसी प्रसंगका वर्णन मैं आपसे करूँगा ॥ 3 ॥ विराट् रूपवाली वेदमाता महादेवी गायत्रीका ध्यान करनेके बाद अंगोंमें इन देवताओंका ध्यान करना चाहिये ॥ 4 ॥ पिण्ड तथा ब्रह्माण्डमें स्थापित एकत्वकी भाँति अपने तथा देवीमें अभेदकी भावना करनी चाहिये। साधकको देवीके रूपमें तथा अपने शरीरमें तन्मयताभाव रखना चाहिये ॥ 5 ॥देवभावसे सम्पन्न हुए बिना देवताकी पूजा नहीं करनी चाहिये- ऐसा वेदवेत्ताओंने कहा है। इसलिये अभेदसम्पादनके लिये अपने शरीरमें इन देवताओंकी भावना करनी चाहिये ॥ 6 ॥
[हे नारद] अब मैं वह उपाय बता रहा हूँ जिससे तन्मयता प्राप्त हो सकती है। स्वयं मैं नारायण ही इस गायत्रीहृदयका ऋषि कहा गया हूँ। गायत्री इसका छन्द है और भगवती परमेश्वरी इसकी देवता हैं पूर्वमें कही गयी रीतिसे अपने छहों अंगोंमें क्रमसे इनका न्यास करना चाहिये। इसके लिये सर्वप्रथम निर्जन स्थानमें किसी आसनपर बैठकर एकाग्रचित्त हो भगवती गायत्रीका ध्यान करना चाहिये ॥ 7-8 ll
[ अब अंगन्यासकी विधि बतायी जाती है- ] मस्तकमें द्यौ नामक देवता, दन्तपंक्तिमें दोनों अश्विनीकुमारों, दोनों ओठोंमें दोनों संध्याओं, मुखमें अग्नि, जिह्वामें सरस्वती, ग्रीवामें बृहस्पति, दोनों स्तनोंमें आठों वसुओं, दोनों भुजाओंमें मरुद्गणों, हृदयमें पर्जन्य, उदरमें आकाश, नाभिमें अन्तरिक्ष, दोनों कटिदेशमें इन्द्र तथा अग्नि, जघनमें विज्ञानघन प्रजापति, एक उरुमें कैलास तथा मलयगिरि, दोनों घुटनोंमें विश्वेदेवों, पिण्डलीमें कौशिक, गुह्यदेशमें उत्तरायण एवं दक्षिणायनके अधिष्ठातृदेवता, दूसरे उरुमें पितरों, पैरोंमें पृथ्वी, अँगुलियोंमें वनस्पतियों, रोमोंमें ऋषियों, नखोंमें मुहूर्तों, हड्डियोंमें ग्रहों तथा रुधिर एवं मांसमें ऋतुओंकी भावना करे। संवत्सर जिनके लिये एक पलके समान है तथा जिनके आदेशसे सूर्य और चन्द्रमा दिन-रातका विभाजन करते हैं, मैं उन परम श्रेष्ठ, दिव्य तथा सहस्र नेत्रोंवाली भगवती गायत्रीकी शरण ग्रहण करता हूँ। ॐ सूर्यके उस श्रेष्ठ तेजको नमस्कार है। ॐ पूर्व दिशामें उदय होनेवाले उन सूर्यको नमस्कार है। प्रातःकालीन उन सूर्यको नमस्कार है। आदित्यमण्डलमें प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाली उन गायत्रीको नमस्कार है। प्रातः काल गायत्रीहृदयका पाठ करनेवाला रात्रिमें किये हुए पापका नाश करता है, सायंकालमें इसका पाठ करनेवाला दिनमें किये गये पापोंका शमन करता है और सायं तथा प्रातः दोनों वेलाओंमें पाठ करनेवाला निष्पाप हो जाता है। वह समस्त तीर्थों में स्नान किया हुआ हो जाता है। वह सभी देवताओंके लिये ज्ञात हो जाता है। गायत्रीकी कृपासेमनुष्य अभाष्यभाषण, अभक्ष्यभक्षण, अभोज्यभोजन, अचोष्यचोषण, असाध्यसाधन, लाखों दुष्प्रतिग्रहों, सभी प्रकारके प्रतिग्रहों, पंक्तिदूषण तथा असत्यवचन - इन सभीसे पवित्र हो जाता है। उनकी कृपासे अब्रह्मचारी भी ब्रह्मचारी हो जाता है। इस गायत्रीहृदयके पाठसे हजार यज्ञोंके करनेसे होनेवाला फल प्राप्त हो जाता है। इसके पाठसे साठ लाख गायत्रीजपसे मिलनेवाले फल प्राप्त हो जाते हैं। इसके अनुष्ठानमें सम्यक् प्रकारसे आठ ब्राह्मणोंका वरण करना चाहिये; ऐसा करनेसे उस व्यक्तिको सिद्धि प्राप्त हो जाती है। जो ब्राह्मण प्रतिदिन प्रातः काल पवित्र होकर इस गायत्रीहृदयका पाठ करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है और ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है - ऐसा स्वयं भगवान् श्रीनारायणने कहा है।