View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 8, अध्याय 16 - Skand 8, Adhyay 16

Previous Page 214 of 326 Next

चन्द्रमा तथा ग्रहों की गतिका वर्णन

श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] अब आप चन्द्रमा आदिकी अद्भुत गतिका वर्णन सुनिये। उसकी गतिके द्वारा ही मनुष्योंको शुभ तथा अशुभका परिज्ञान होता है ॥ 1 ॥

जिस प्रकार कुम्हारके घूमते हुए चाकपर स्थित कीड़ों आदिकी एक दूसरी गति भी होती है, उसी प्रकार राशियोंसे उपलक्षित कालचक्रके अनुसार सुमेरु और ध्रुवको दाहिने करके घूमनेवाले सूर्य आदि प्रमुख ग्रहोंकी एक अन्य गति भी दृष्टिगोचर होती है । ll 2-33॥

सूर्यकी यह गति नक्षत्रोंपर निर्भर करती है। एक नक्षत्र के बाद दूसरा नक्षत्र आनेपर सूर्यगतिमें परिवर्तन हो जाता है। ये दोनों गतियाँ एक-दूसरेके अविरुद्ध हैं। यह निश्चित नियम सर्वत्रके लिये है ॥ 43 ॥

वेद तथा विद्वान् पुरुष जिन्हें जाननेकी इच्छा रखते हैं, वे लोकप्रकाशक तथा सम्पूर्ण जगत्के आधार आदिपुरुष सूर्य प्राणियोंके कल्याणार्थ और कर्मोंकी शुद्धिके निमित्त भ्रमण करते हुए अपने वेदमय विग्रहको बारह भागोंमें विभक्त करके स्वयं वसन्त आदि छः ऋतुओंमें ऋतुसम्बन्धी सभी गुणोंकी यथोचित व्यवस्था करते हैं ॥ 5-7 - 73 ॥वर्णाश्रमधर्मका आचरण करनेवाले जो त्रयीविद्या (वेद) के आदेशोंका पालन करके, शास्त्र निर्दिष्ट छोटे-बड़े कर्म सम्पादित करके तथा उच्च | कोटिकी योग-साधना करके श्रद्धापूर्वक भगवान् सूर्यकी उपासना करते हैं, वे शीघ्र ही कल्याण प्राप्त कर लेते हैं; यह निश्चित सिद्धान्त है ॥ 8-93 ॥

सभी प्राणियोंकी आत्मास्वरूप ये सूर्य काल चक्रपर स्थित होकर द्युलोक तथा पृथ्वीलोकके मध्य गति करते हुए बारह राशियोंके रूपमें संवत्सरके अवयवस्वरूप [बारह] महीनोंको भोगते हैं। उनमें प्रत्येक मास चन्द्रमानसे कृष्ण तथा शुक्ल-इन दो पक्षोंका, पितृमानसे एक दिन तथा एक रातका और सौरमानसे सवा दो नक्षत्रोंका कहा गया है। सूर्य जितने समयमें वर्षका छठा भाग भोगते हैं, विद्वान् लोग उसे संवत्सरका अवयवस्वरूप ऋतु कहते हैं ।। 10 - 123 ॥

भगवान् सूर्य जितने समयमें आकाशमार्गकी दूरी तय करते हैं, उसके आधे समयको पूज्य प्राचीन मुनिगण 'अयन' कहते हैं और जितने समयमें सूर्य सम्पूर्ण नभमण्डलको पार करते हैं, उस समयको वत्सर कहते हैं ।। 13-143 ।।

वत्सर पाँच प्रकारका कहा गया है-संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर ॥ 153 ॥

कालतत्त्वके ज्ञाताओंने सूर्यके मन्द, शीघ्र तथा समान गतियोंसे चलनेके कारण उनकी इस प्रकार तीन गतियाँ बतायी हैं। [हे नारद!] अब चन्द्रमा आदिकी गतिके विषयमें सुनिये। इसी प्रकार चन्द्रमा सूर्यकी किरणोंसे एक लाख योजन ऊपर है। औषधियोंके स्वामी वे चन्द्रमा सूर्यके एक वर्षके मार्गको दो पक्षोंमें, एक महीनेमें तय किये गये मार्गको सवा दो दिनोंमें और एक पक्षमें तय किये गये मार्गको एक दिनमें भोग लेते हैं। इस प्रकार तीव्र गति से चलनेवाले चन्द्रमा नक्षत्रचक्रमें गति करते रहते हैं ।। 16-19 ॥

ये चन्द्र क्रमशः अपनी पूर्ण होनेवाली कलाओंसे देवताओंको प्रसन्न करते हैं और क्षीण होती हुई | कलाओंसे पितरोंका चित्तानुरंजन करते हैं ॥ 20 ॥अपने पूर्व और उत्तर पक्षोंके द्वारा दिन तथा रातका विभाजन करनेवाले वे चन्द्रमा ही समस्त जीव-जगत्के प्राण तथा जीवन हैं। परम ऐश्वर्यसम्पन्न वे चन्द्रमा तीस मुहूर्तमें एक-एक नक्षत्रका भोग करते हैं। सोलह कलाओंसे युक्त, मनोमय, अन्नमय, अमृतमय तथा श्रेष्ठ अनादि पुरुष वे भगवान् चन्द्रमा देवताओं, पितरों, मनुष्यों, रेंगकर चलनेवाले जन्तुओं तथा वृक्ष आदिके प्राणोंका पोषण करनेके कारण सर्वमय कहे जाते हैं । 21 - 233 ॥

चन्द्रमाके स्थानसे तीन लाख योजन ऊपर नक्षत्रमण्डल है। अभिजित्को लेकर इस मण्डलमें कुल नक्षत्र संख्यामें अट्ठाईस गिने गये हैं। भगवान्‌के द्वारा कालचक्रमें बँधा हुआ यह नक्षत्रमण्डल मेरुको दाहिने करके सदा भ्रमण करता रहता है ।। 24-25 ॥ उससे भी दो लाख योजन ऊपर रहनेवाले शुक्र कभी सूर्यके आगे तथा कभी पीछे और कभी सूर्यके साथ-साथ तीव्र, मन्द और समान गतियोंसे चलते हुए परिभ्रमण करते रहते हैं ॥ 263 ॥

ये प्राणियोंके लिये प्रायः अनुकूल ही रहते हैं। इन्हें शुभकारी ग्रह कहा गया है। हे मुने! ये भार्गव शुक्र वर्षाके विघ्नोंको सदा दूर करनेवाले हैं ॥ 273 ॥

शुक्रसे भी ऊपर दो लाख योजनकी दूरीपर बुध बताये गये हैं। ये भी शुक्रके ही समान तीव्र, मन्द तथा सम गतियोंसे सदा भ्रमण करते रहते हैं ॥ 283 ॥

ये 'चन्द्रपुत्र बुध जब सूर्यकी गतिका उल्लंघन करके चलते हैं, उस समय ये आँधी, विद्युत्पात और वृष्टि आदिके भयकी सूचना देते हैं ॥ 293 ॥

उनसे भी ऊपर दो लाख योजनकी दूरीपर मंगल हैं। हे देवर्षे! यदि वे वक्रगतिसे न चलें तो एक-एक राशिको तीन-तीन पक्षोंमें भोगते हुए बारहों राशियोंको पार करते हैं। ये प्रायः अशुभ करनेवाले तथा अमंगलके सूचक हैं ॥ 30-3 -313॥

उनसे भी दो लाख योजन ऊपर बृहस्पति हैं। यदि वे वक्री न होकर भ्रमण करें तो एक-एक | राशिको एक-एक वर्षमें भोगते हैं। वे प्रायः ब्रह्मवादियोंके अनुकूल रहते हैं ॥ 32-33 ॥उनसे भी दो लाख योजन ऊपर भयंकर शनि हैं। सूर्यके पुत्र कहे जानेवाले ये महाग्रह शनि | एक-एक राशिको तीस-तीस महीनोंमें भोगते हुए | सभी राशियोंका परिभ्रमण करते रहते हैं। श्रेष्ठ कालज्ञ पुरुषोंने शनिको सबके लिये अशुभ बताया है ।। 34-35 ।।

उनसे भी ऊपर ग्यारह लाख योजनकी दूरीपर सप्तर्षियोंका मण्डल बताया गया है। हे मुने! वे सातों ऋषि प्राणियोंके कल्याणकी कामना करते हुए जो वह विष्णुपद है, उस ध्रुव-लोककी प्रदक्षिणा करते हैं ।। 36-37 ॥

Previous Page 214 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रजाकी सृष्टिके लिये ब्रह्माजीकी प्रेरणासे मनुका देवीकी आराधना करना तथा देवीका उन्हें वरदान देना
  2. [अध्याय 2] ब्रह्माजीकी नासिकासे वराहके रूपमें भगवान् श्रीहरिका प्रकट होना और पृथ्वीका उद्धार करना, ब्रह्माजीका उनकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] महाराज मनुकी वंश-परम्पराका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महाराज प्रियव्रतका आख्यान तथा समुद्र और द्वीपोंकी उत्पत्तिका प्रसंग
  5. [अध्याय 5] भूमण्डलपर स्थित विभिन्न द्वीपों और वर्षोंका संक्षिप्त परिचय
  6. [अध्याय 6] भूमण्डलके विभिन्न पर्वतोंसे निकलनेवाली विभिन्न नदियोंका वर्णन
  7. [अध्याय 7] सुमेरुपर्वतका वर्णन तथा गंगावतरणका आख्यान
  8. [अध्याय 8] इलावृतवर्षमें भगवान् शंकरद्वारा भगवान् श्रीहरिके संकर्षणरूपकी आराधना तथा भद्राश्ववर्षमें भद्रश्रवाद्वारा हयग्रीवरूपकी उपासना
  9. [अध्याय 9] हरिवर्षमें प्रह्लादके द्वारा नृसिंहरूपकी आराधना, केतुमालवर्षमें श्रीलक्ष्मीजीके द्वारा कामदेवरूपकी तथा रम्यकवर्षमें मनुजीके द्वारा मत्स्यरूपकी स्तुति-उपासना
  10. [अध्याय 10] हिरण्मयवर्षमें अर्यमाके द्वारा कच्छपरूपकी आराधना, उत्तरकुरुवर्षमें पृथ्वीद्वारा वाराहरूपकी एवं किम्पुरुषवर्षमें श्रीहनुमान्जीके द्वारा श्रीरामचन्द्ररूपकी स्तुति-उपासना
  11. [अध्याय 11] जम्बूद्वीपस्थित भारतवर्षमें श्रीनारदजीके द्वारा नारायणरूपकी स्तुति उपासना तथा भारतवर्षकी महिमाका कथन
  12. [अध्याय 12] प्लक्ष, शाल्मलि और कुशद्वीपका वर्णन
  13. [अध्याय 13] क्रौंच, शाक और पुष्करद्वीपका वर्णन
  14. [अध्याय 14] लोकालोकपर्वतका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सूर्यकी गतिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] चन्द्रमा तथा ग्रहों की गतिका वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायण बोले- इस सप्तर्षिमण्डलसे
  18. [अध्याय 18] राहुमण्डलका वर्णन
  19. [अध्याय 19] अतल, वितल तथा सुतललोकका वर्णन
  20. [अध्याय 20] तलातल, महातल, रसातल और पाताल तथा भगवान् अनन्तका वर्णन
  21. [अध्याय 21] देवर्षि नारदद्वारा भगवान् अनन्तकी महिमाका गान तथा नरकोंकी नामावली
  22. [अध्याय 22] विभिन्न नरकोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] नरक प्रदान करनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] देवीकी उपासनाके विविध प्रसंगोंका वर्णन