सूतजी बोले- सभी मन्त्रियोंने राजा परीक्षित्को मृतक तथा उनके पुत्र जनमेजयको अबोध जानकर उनकी परलोक-सम्बन्धी क्रियाएँ सम्यक् प्रकारसे सम्पन्न कीं ॥ 1 ॥
शरीर दग्ध हो जानेसे भस्मीभूत हुए राजाको उन मन्त्रियोंने गंगाके किनारे अगरुसे बनायी गयी चितापर रखा ॥ 2 ॥
अकालमृत्युको प्राप्त राजा परीक्षित्की और्ध्वदैहिकvक्रिया राजाके पुरोहितोंद्वारा वैदिक मन्त्रोंके साथvविधिवत् सम्पन्न की गयी ॥ 3 ॥ मन्त्रियोंने ब्राह्मणोंको गायें, सुवर्ण, अनेक प्रकारके अन्न तथा नाना प्रकारके वस्त्र यथोचित रूपसे दानमें दिये ॥ 4 ॥
तत्पश्चात् मन्त्रियोंने प्रजाओंके प्रति प्रीति | सम्वर्धन करनेवाले राजपुत्र जनमेजयको शुभ मुहूर्तमें सुन्दर राजसिंहासनपर आसीन किया ॥ 5 ॥पुरवासी तथा जनपदवासी प्रजाओंने राजलक्षणोंसे सम्पन्न जनमेजय नामक उस बालकको अपने राजाके रूपमें स्वीकार किया ॥ 6 ॥
राजकुमारकी धात्रीने उन्हें सब प्रकारके राजोचित गुणोंकी शिक्षा दी। इस प्रकार दिन-प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त होते हुए वे महान् बुद्धिमान् हो गये ॥ 7 ॥
उनकी ग्यारह वर्षकी अवस्था होनेपर कुल पुरोहितने उन्हें यथोचित शिक्षा प्रदान की और उन्होंने उसे सम्यक् रूपसे ग्रहण किया ॥ 8 ॥
जिस प्रकार द्रोणाचार्यने अर्जुनको तथा भार्गव परशुरामने कर्णको धनुर्विद्यामें प्रशिक्षित किया, उसी प्रकार कृपाचार्यने जनमेजयको भलीभाँति परिष्कृत धनुर्विद्या प्रदान की ॥ 9 ॥
इस प्रकार सम्पूर्ण विद्या प्राप्त करके वे जनमेजय वेद तथा धनुर्वेदमें पूर्ण पारंगत, बलशाली, अपराजेय तथा परमार्थवेत्ता हो गये ॥ 10 ॥
वे धर्मशास्त्रके अर्थोका विवेचन करनेमें कुशल, सत्यनिष्ठ, इन्द्रियजित् और धर्मात्मा थे। उन्होंने पूर्वमें धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरकी भाँति राज्य शासन किया ॥ 11 ॥
इसके बाद सुवर्णवर्मा नामवाले काशिपति राजाने शुभ गुणोंवाली अपनी कन्या वपुष्टमाका पाणिग्रहण जनमेजयके साथ सम्पन्न कर दिया ॥ 12 ॥
जिस प्रकार प्राचीन कालमें काशिराजकी पुत्रीको पाकर विचित्रवीर्य तथा सुभद्राको पाकर अर्जुन अत्यन्त आह्लादित हुए थे, उसी प्रकार उस श्याम नयनोंवालीको अपनी कान्ताके रूपमें पाकर जनमेजय अति प्रसन्न हुए। कमलपत्रके समान नेत्रोंवाली उस वपुष्टमाके साथ वनों और उपवनोंमें राजा जनमेजय उसी प्रकार विहार करने लगे जिस प्रकार इन्द्राणीके साथ इन्द्र उनके द्वारा सुखपूर्वक रक्षित प्रजा अति सन्तुष्ट थी। जनमेजयके कार्यकुशल सभी मन्त्री समस्त कार्योंको सम्यक् प्रकारसे करते थे ll 13-153 llइसी समय तक्षकके द्वारा पीड़ित उत्तंक नामक मुनिका हस्तिनापुरमें आगमन हुआ। 'इस सर्पकी शत्रुताका बदला कौन ले सकता है' ऐसा सोचते हुए वे परीक्षित् पुत्र जनमेजयको यह कार्य कर | सकनेवाला समझकर उनके पास आये और बोले हे भूपवर! आपको यह ज्ञान नहीं है कि इस समय क्या करणीय है और क्या अकरणीय है? आप इस समय न करनेयोग्य कार्य कर रहे हैं और करनेयोग्य कार्य नहीं कर रहे हैं। आपसदृश रोषहीन, पुरुषार्थरहित, वैरभावके ज्ञानसे शून्य, प्रतीकार आदि उपायोंको न जाननेवाले तथा बालकोंके समान स्वभाववाले राजासे अब मैं क्या कहूँ ? ।। 16-193 ।।
जनमेजय बोले- मैंने किस शत्रुताको नहीं जाना और उसका प्रतीकार नहीं किया? हे महाभाग ! आप मुझे वह बतायें, जिससे मैं उसे सम्पन्न कर सकूँ ॥ 203 ॥
उत्तक बोले- हे राजन्! आपके पिता परीक्षित् दुष्टात्मा तक्षकनागद्वारा मार डाले गये थे। आप मन्त्रियोंको बुलाकर अपने पिताकी मृत्युके विषय में पूछिये ll 21 ॥
सूतजी बोले- उत्तकका वचन सुनकर राजाने मन्त्रिप्रवरोंसे पूछा। तब उन्होंने बताया कि ब्राह्मणद्वारा शापित होनेके कारण एक सपने उन्हें डॅस लिया और वे मर गये ॥ 223 ॥
जनमेजय बोले- मेरे पिता राजा परीक्षित्की मृत्युका कारण तो मुनिद्वारा प्रदत्त शाप था। हे मुनिश्रेष्ठ! मुझे यह बताइये कि इसमें तक्षकका क्या दोष था ? ।। 233 ॥
उलंक बोले- तक्षकने कश्यप नामक ब्राह्मणको धन देकर आपके पितातक पहुँचनेसे रोक दिया था। हे राजन्। आपके पिताका हन्ता वह तक्षक क्या आपका शत्रु नहीं है? हे भूप! प्राचीन कालमें मुनि | रुरुकी भार्याको सपने डंस लिया था और वह मर गयी थी। वह अविवाहिता थी। मुनि रुरुने अपनी उस प्रियाको पुनः जीवित कर दिया और उन्होंने वहाँपरअत्यन्त भीषण प्रतिज्ञा की कि मैं जिस किसी भी सर्पको देखूंगा, उसे तत्काल आयुधसे मार डालूंगा। हे राजन्! इस प्रकार प्रतिज्ञा करके हाथमें शस्त्र लेकर मुनि रुरु सर्पोका वध करते हुए इधर-उधर घूमते रहे। एक बार उन्हें वनमें एक बूढ़ा डुडुभ साँप दिखायी दिया। वे लाठी उठाकर रोषपूर्वक उसे मारनेके लिये तत्पर हुए, तब डुंडुभने उन ब्राह्मणसे कहा- हे विप्र मैं आपके प्रति कोई अपराध नहीं कर रहा हूँ तो फिर आप मुझे क्यों मार रहे हैं ? ।। 24- 293 ll
रुरु बोले- मेरी प्राणप्रिया भार्याको सर्पने हँस लिया था और उसकी मृत्यु हो गयी थी। अतः हे सर्प उसी समय से दुःखित होकर मैंने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली थी 303 ॥
इंदुभ बोला मैं किसीको काटता नहीं जो सर्प काटते हैं, वे दूसरे होते हैं। इसलिये सर्पसदृश शरीर होनेके कारण मुझे आप मत मारिये ॥ 313 ॥ उत्तक बोले- मनुष्यके समान उसकी सुन्दर वाणी सुनकर रुरुने पूछा- तुम कौन हो ? और डुंडुभयोनिको कैसे प्राप्त हो गये ? ॥ 323 ॥
सर्प बोला- हे विप्र पहले मैं ब्राह्मण था और 'खगम' नामका मेरा एक ब्राह्मण मित्र था । वह धर्मात्माओं में श्रेष्ठ, सत्यवादी तथा जितेन्द्रिय था । एक बार अपनी मूर्खतावश मैंने तृणका सर्प बनाकर उसे धोखेमें डाल दिया ll 33-34 ॥
उस समय वह अग्निहोत्रगृहमें विद्यमान था, सर्पको देखकर अत्यन्त डर गया। भयसे थर-थर काँपते हुए उस ब्राह्मणने विह्वल होकर मुझे शाप दे दिया - हे मन्दबुद्धि तुमने सर्प दिखाकर मुझे डराया है, अतः तुम सर्प हो जाओ। सर्परूपमें मैंने उस ब्राह्मणकी बड़ी प्रार्थना की। तब उस ब्राह्मणने क्रोधसे थोड़ा शान्त होनेपर मुझसे कहा- हे सर्प ! प्रमतिपुत्र रुरु तुम्हें इस शापसे मुक्त करेंगे। उन्होंने यह बात स्वयं मुझसे कही थी। मैं वही सर्प हूँ और आप रुरु हैं। आप मेरे वचनको ध्यानपूर्वक सुनिये - ब्राह्मणोंकेलिये अहिंसा परम धर्म है, इसमें सन्देह नहीं। अ विद्वान् ब्राह्मणको चाहिये कि वह सर्वत्र दया करे। हे विप्रवर यज्ञसे अतिरिक्त कहीं भी की गयी हिंसा याज्ञिकी हिंसा नहीं कही गयी है ।। 35 - 393 ॥
उत्तंक बोले- तब वह ब्राह्मण सर्पयोनिसे मुक्त हो गया। इस प्रकार उस ब्राह्मणके शापका अन्त करके रुरुने भी हिंसा छोड़ दी। उन्होंने मरी हुई उस सुन्दरीको पुनः जीवित कर दिया और उसके साथ विवाह कर लिया । 40-41 ।।
हे राजन् उस मुनिने इस प्रकार शत्रुताका स्मरण करते हुए सभी सपका संहार किया था, परंतु हे भरतश्रेष्ठ आप तो वैर भूलकर अपने पिताको मारनेवाले सपके प्रति क्रोधशून्य बने रहते हैं। आपके पिता स्नान-दान किये बिना अन्तरिक्षमें ही मर गये। इसलिये हे राजेन्द्र ! सर्पोंका नाश करके आप उनका उद्धार कीजिये। जो पुत्र पिताके शत्रुओंसे बदला नहीं लेता, वह जीते हुए भी मृतकतुल्य है। हे नृपश्रेष्ठ! जबतक आप सपका विनाश नहीं करते, तबतक आपके पिताकी दुर्गति ही रहेगी। हे महाराज! आप देवीयज्ञके व्याजसे अपने पिताकी शत्रुताका स्मरण करते हुए सर्पसत्र नामक यज्ञ कीजियेll 42-453 ll
सूतजी बोले- उत्तकमुनिका यह वचन सुनकर राजा जनमेजय अत्यन्त दुःखी हुए और उनके नेत्रोंसे अनुपात होने लगा। [वे मनमें सोचने लगे) जिसके पिता सर्पसे देशित होकर इस प्रकार दुर्गतिको प्राप्त हों, उस मुझ मिथ्याभिमानी तथा दुर्बुद्धिको धिक्कार है। मैं आज ही यज्ञ आरम्भ करके प्रज्वलित अग्निमें सर्पोंकी आहुति देकर अवश्य ही पिताकी मृत्युका बदला लूंगा ll 4648ll
सभी मन्त्रियोंको बुलाकर राजाने यह वचन कहा मन्त्रिप्रवरो गंगा के किनारे श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे उत्तम भूमिकी माप कराकर आपलोग यथोचित यज्ञसामग्रीका प्रबन्ध करें। हे मेरे बुद्धिमान् मन्त्रियो! | सौ खंभोंवाले एक सुरम्य मण्डपका निर्माण कराकरआपलोग उसमें आज ही यज्ञके लिये वेदीका भी निर्माण सम्पन्न करा लें। उस यज्ञके अंगरूपमें विस्तारसहित सर्पसत्र भी करना है। महामुनि उत्तक उस यज्ञके होता होंगे और तक्षकनाग उसमें यज्ञपशु होगा। आपलोग शीघ्र ही सर्वज्ञाता एवं वेदपारगामी ब्राह्मणोंको आमन्त्रित करें ।। 49-523 ॥
सूतजी बोले- बुद्धिमान् मन्त्रियोंने राजाके कथनानुसार यज्ञसम्बन्धी समस्त सामग्रीका प्रबन्ध कर लिया और विस्तृत यज्ञवेदी भी निर्मित करायी। सर्पोंका हवन आरम्भ होनेपर तक्षक इन्द्रके यहाँ गया और उनसे बोला- मैं भयाकुल हूँ, मेरी रक्षा कीजिये। तत्पश्चात् इन्द्रने उस भयभीत तक्षकको | सान्त्वना देकर अपने आसनपर बैठाकर उसे अभय प्रदान किया और कहा- हे पन्नग! तुम निर्भय हो जाओll 53–553 ll
तदनन्तर उत्तंकमुनि उस तक्षकको इन्द्रका शरणागत और उनसे अभयदान पाया हुआ जानकर उद्विग्न हो उठे और उन्होंने मन्त्रप्रभावसे इन्द्रसहित तक्षकका आवाहन किया। तब तक्षकने यायावरवंशमें उत्पन्न जरत्कारुपुत्र धर्मनिष्ठ आस्तीक नामक मुनिका स्मरण किया। वे मुनिबालक आस्तीक वहाँ आकर जनमेजयकी प्रशंसा करने लगे । ll 56-58ll
राजा जनमेजयने उस बालकको महान् पण्डित देखकर उसकी पूजा की। पूजन-अर्चन करके राजाने अपनी मनोवांछित वस्तु माँगनेके लिये उससे निवेदन किया । 59 ॥
तब आस्तीकने याचना की- हे महाभाग ! इस यज्ञको समाप्त किया जाय। उसने सत्य वचनमें आबद्ध राजासे बार-बार ऐसी प्रार्थना की ॥ 60 ॥
तत्पश्चात् मुनिके वचनानुसार राजाने सपका हवन बन्द कर दिया और फिर वैशम्पायनऋषिने उन्हें विस्तारपूर्वक महाभारतकी कथा सुनायी ॥ 61 ॥ उस कथाको सुनकर भी राजाको विशेष शान्ति नहीं प्राप्त हुई तब राजाने व्यासजीसे पूछा- मुझे किस प्रकार शान्ति मिलेगी ? मेरा मन अशान्तिकीअग्निमें अत्यधिक दग्ध हो रहा है, मैं क्या करूँ ? मुझको बतलाइये। मुझ मन्दभाग्यके पिता और अर्जुनपौत्र परीक्षित् अकाल-मृत्युको प्राप्त हुए हैं। हे महाभाग ! युद्धमें होनेवाली मृत्यु ही क्षत्रियोंके लिये श्रेष्ठ होती है । हे व्यासजी रणमें अथवा घरमें विधिपूर्वक होनेवाली मृत्यु ही अच्छी मानी जाती है, किंतु मेरे पिताका वैसा मरण नहीं हुआ। वे तो असहाय अवस्थामें अन्तरिक्षमें मृत्युको प्राप्त हुए। हे सत्यवतीपुत्र! आप उनकी शान्ति-प्राप्तिका कोई उपाय बतलाइये, | जिससे दुर्गतिको प्राप्त मेरे पिताजी शीघ्र ही स्वर्ग चले जायँ ।। 62-66 ॥