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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 11, अध्याय 5 - Skand 11, Adhyay 5

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जपमालाका स्वरूप तथा रुद्राक्ष धारणका विधान

ईश्वर बोले- हे षडानन ! अब मैं जपमालाका लक्षण बताऊँगा, उसे सुनो। रुद्राक्षके मुखको ब्रह्मा तथा बिन्दु (ऊपरी भाग ) को रुद्र कहा गया है। रुद्राक्षका पुच्छ (नीचेका भाग) विष्णुरूप है, यह "भोग तथा मोक्षका फल प्रदान करता है ॥ 13 ॥श्वेतवर्ण या रक्तवर्ण या मिश्रित वर्णवाले, छिद्रयुक्त, अखण्डित तथा काँटेदार पाँच मुखवाले पचीस रुद्राक्षोंसे गायकी पूँछके आकारकी एक अक्षमाला बनानी चाहिये ॥ 2-3 ॥

[माला बनानेके लिये] एक दानेका मुख दूसरे दानेके मुखसे संयोजित करते हुए एक दानेका पुच्छ (नुकीला भाग) दूसरे दानेके पुच्छसे जोड़ते जाना | चाहिये। सुमेरुका मुख ऊपरकी तरफ और नागपाश उसके ऊपर करना चाहिये ॥ 4 ॥

इस प्रकार गूँथी गयी मन्त्र - सिद्धिप्रदायिनी मालाको पहले गन्धोदक और बादमें पंचगव्यसे विधिवत् प्रक्षालित करके तथा पुनः शिवाभिषिक्त जलसे स्नान | करानेके पश्चात् इसमें मन्त्रोंका न्यास करना चाहिये। शिवास्त्रमन्त्रसे स्पर्श करके कवच-मन्त्र (हुम्) -से अवगुंठन करना चाहिये ॥ 5-6 ॥

इसके बाद मूलमन्त्रसे पूर्ववत् न्यास करे तथा गुरु आदिसे न्यास कराये । पुनः सद्योजात आदि मन्त्रोंसे एक सौ आठ बार उसपर जलसे प्रोक्षण | करनेके पश्चात् मूलमन्त्रका उच्चारण करके उसे शुद्ध भूमिपर रखकर उसके ऊपर जगत्के परम कारण साम्बसदाशिवका न्यास करना चाहिये ॥ 7-8 ॥

इस प्रकार प्रतिष्ठित की गयी माला समस्त कामनाओंका फल प्रदान करनेवाली होती है। जिस | देवताका जो मन्त्र सिद्ध करना हो, उसी मन्त्रसे उस | मालाका पूजन करना चाहिये ॥ 9 ॥

जपमालाको मस्तकपर, गलेमें अथवा कानपर धारण करना चाहिये और संयतचित्त होकर रुद्राक्षमालासे ही जप करना चाहिये। परम श्रद्धासे युक्त होकर रुद्राक्षकी माला कण्ठमें, मस्तकपर, हृदयपर, पार्श्वभागमें, कानमें तथा दोनों भुजाओं पर नित्य धारण करनी | चाहिये ॥ 10-11 ॥

रुद्राक्षके सम्बन्धमें अधिक कहने तथा बार-बार वर्णन करनेसे क्या लाभ? अतः नित्य रुद्राक्ष धारण करना श्रेयस्कर है। विशेष करके स्नान, दान, जप, होम, बलिवैश्वदेव, देवपूजन, प्रायश्चित्त कर्म, श्राद्ध तथा दीक्षाके समय इसे अवश्य धारण करना | चाहिये ॥ 12-13 ॥रुद्राक्ष धारण न करके मोहपूर्वक कुछ भी वैदिक कृत्य सम्पन्न करनेवाला ब्राह्मण निश्चितरूपसे
नरकमें पड़ता है ॥ 14 ॥

सुवर्ण अथवा मणिसे जटित रुद्राक्ष मस्तक, कण्ठ, यज्ञोपवीत अथवा हाथमें धारण करना चाहिये। अन्य व्यक्तिके द्वारा धारण किया हुआ रुद्राक्ष अपने लिये शुद्ध तथा कल्याणकारी नहीं होता है ॥ 15 ॥ अपवित्र अवस्थामें रुद्राक्ष नहीं धारण करना चाहिये; सर्वदा पवित्र अवस्थामें ही इसे भक्तिपूर्वक धारण करना चाहिये। रुद्राक्षके वृक्षसे चली हुई वायुके सम्पर्क में आकर उगे हुए तृण भी पुण्यलोकमें जाते हैं और वहाँसे पुनः वे इस लोकमें नहीं आते ॥ 163 ॥

रुद्राक्ष धारण करनेवाला मनुष्य पाप करके भी सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है - ऐसा जाबालोपनिषद् में कहा गया है। रुद्राक्षधारणसे पशु भी रुद्रत्वको प्राप्त हो जाते हैं; फिर मनुष्य होकर जो लोग रुद्राक्षकी माला धारण करते हैं, उनकी बात ही क्या! शिवभक्तोंको एक रुद्राक्ष सिरपर सर्वदा अवश्य धारण करना चाहिये, इससे उनके सभी दुःखोंका नाश हो जाता है तथा सभी पापोंकी समाप्ति हो जाती है। जो लोग परमात्मा शिवके नामोंका उच्चारण करते हैं तथा जो रुद्राक्षसे अलंकृत रहते हैं, वे ही भगवान्‌के श्रेष्ठ भक्त होते हैं। अपने समस्त कल्याणकी कामना करनेवाले मनुष्यको कर्णपाशमें, शिखामें, कण्ठमें, हाथमें तथा उदरपर रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ 17-213॥ ब्रह्मा, विष्णु, महेश, उनकी विभूतियाँ तथा सभी देवता भक्तिपूर्वक अवश्य ही रुद्राक्ष धारण करते हैं। गोत्रप्रवर्तक ऋषिगण, सभीके कूटस्थ मूल पुरुष, | उनके वंशज तथा शुद्ध आत्मावाले श्रौतधर्मावलम्बी लोग भी रुद्राक्ष अवश्य धारण करते हैं ॥ 22-24 ॥ यदि आरम्भमें साक्षात् वेद- प्रतिपादित तथा मुक्तिदायक रुद्राक्षको धारण करनेमें श्रद्धा न उत्पन्न हो, तो भी अनेक जन्मोंके बाद भगवान् शिवके अनुग्रहसे रुद्राक्ष धारण करनेके प्रति स्वाभाविक रूपसे इच्छा उत्पन्न हो जाती है। जाबालशाखाके सभी मुनिलोग अत्यन्त आदरपूर्वक रुद्राक्षके माहात्म्यकापाठ करते हैं और मैंने भी रुद्राक्ष-माहात्म्यके विषयमें पढ़ा है। हे पुत्र ! रुद्राक्ष धारणका फल तीनों लोकों में विख्यात है । ll 25 - 27 ॥

रुद्राक्ष फलके दर्शनसे महान् पुण्य मिलता है, इसके स्पर्शसे करोड़ गुना अधिक पुण्य होता है तथा इसे धारण कर लेनेपर मनुष्य सौ करोड़ गुना पुण्य प्राप्त करता है। रुद्राक्ष मालासे नित्य जप करनेसे वह सैकड़ों लाख करोड़ गुना तथा हजारों लाख करोड़ गुना पुण्य प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ 28-29 ॥

जो अपने हाथमें, वक्षःस्थलपर, कण्ठमें, दोनों कानोंमें तथा मस्तकपर रुद्राक्ष धारण करता है, वह साक्षात् रुद्र इसमें सन्देह नहीं है। वह सभी प्राणियोंसे अवध्य रहते हुए इस पृथ्वीपर रुद्रकी भाँति निर्भय होकर विचरण करता है और शिवजीकी तरह समस्त देवता तथा दानवोंके लिये वन्दनीय हो जाता है ।। 30-31 ॥

सभी मनुष्य भी रुद्राक्ष धारण करनेवालेकी निरन्तर वन्दना करते हैं। उच्छिष्टकी भाँति त्याज्य, निषिद्ध कर्मोंमें रत तथा सभी प्रकारके पापोंसे युक्त मनुष्य भी रुद्राक्ष धारण करनेपर सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। गलेमें रुद्राक्ष बँधा हुआ कुत्ता भी यदि मर जाय तो वह भी मुक्ति प्राप्त कर लेता है, फिर मनुष्यकी बात ही क्या ? ॥ 32-333 ॥

जप तथा ध्यानसे विहीन रहता हुआ भी यदि कोई मनुष्य रुद्राक्ष धारण कर ले तो वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता है। यदि कोई एक भी रुद्राक्ष प्रयत्नपूर्वक धारण करता है तो वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार करके अन्तमें रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद अब मैं रुद्राक्षकी और भी विधिका वर्णन करूँगा ।। 34-36 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] भगवान् नारायणका नारदजीसे देवीको प्रसन्न करनेवाले सदाचारका वर्णन
  2. [अध्याय 2] शौचाचारका वर्णन
  3. [अध्याय 3] सदाचार-वर्णन और रुद्राक्ष धारणका माहात्म्य
  4. [अध्याय 4] रुद्राक्षकी उत्पत्ति तथा उसके विभिन्न स्वरूपोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] जपमालाका स्वरूप तथा रुद्राक्ष धारणका विधान
  6. [अध्याय 6] रुद्राक्षधारणकी महिमाके सन्दर्भमें गुणनिधिका उपाख्यान
  7. [अध्याय 7] विभिन्न प्रकारके रुद्राक्ष और उनके अधिदेवता
  8. [अध्याय 8] भूतशुद्धि
  9. [अध्याय 9] भस्म - धारण ( शिरोव्रत )
  10. [अध्याय 10] भस्म - धारणकी विधि
  11. [अध्याय 11] भस्मके प्रकार
  12. [अध्याय 12] भस्म न धारण करनेपर दोष
  13. [अध्याय 13] भस्म तथा त्रिपुण्ड्र धारणका माहात्म्य
  14. [अध्याय 14] भस्मस्नानका महत्त्व
  15. [अध्याय 15] भस्म-माहात्यके सम्बन्धर्मे दुर्वासामुनि और कुम्भीपाकस्थ जीवोंका आख्यान, ऊर्ध्वपुण्ड्रका माहात्म्य
  16. [अध्याय 16] सन्ध्योपासना तथा उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] गायत्री-महिमा
  18. [अध्याय 18] भगवतीकी पूजा-विधिका वर्णन, अन्नपूर्णादेवीके माहात्म्यमें राजा बृहद्रथका आख्यान
  19. [अध्याय 19] मध्याह्नसन्ध्या तथा गायत्रीजपका फल
  20. [अध्याय 20] तर्पण तथा सायंसन्ध्याका वर्णन
  21. [अध्याय 21] गायत्रीपुरश्चरण और उसका फल
  22. [अध्याय 22] बलिवैश्वदेव और प्राणाग्निहोत्रकी विधि
  23. [अध्याय 23] कृच्छ्रचान्द्रायण, प्राजापत्य आदि व्रतोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] कामना सिद्धि और उपद्रव शान्तिके लिये गायत्रीके विविध प्रयोग