श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] भारत नामक इस वर्षमें आदिपुरुष मैं सदा विराजमान रहता हूँ और यहाँ आप निरन्तर मेरी स्तुति करते रहते हैं॥ 1 ॥ नारद बोले- शान्त स्वभाववाले, अहंकारसे रहित, निर्धनोंके परम धन, ऋषियोंमें श्रेष्ठ, परमहंस के परम गुरु आत्मारामोंके अधिपति तथा ओंकारस्वरूप भगवान् नरनारायणको बार-बार नमस्कार है।
जो विश्वकी उत्पत्ति आदिमें उनके कर्ता होकर भी कर्तृत्व अभिमानसे नहीं बँधते, जो देहमें रहते |हुए भी भूख-प्यास आदि दैहिक गुण-धर्मोके वशीभूत नहीं होते तथा द्रष्टा होते हुए भी जिनकी दृष्टि दृश्यके गुण-दोषोंसे दूषित नहीं होती; उन असंग तथा विशुद्ध साक्षिस्वरूप भगवान् नारायणको नमस्कार है ॥ 2 ॥हे योगेश्वर! हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीने योगसाधनकी सबसे बड़ी कुशलता यही बतलायी है कि मनुष्य | अन्तकालमें देहाभिमानको छोड़कर भक्तिपूर्वक आप गुणातीतमें अपना मन लगाये ॥ 3 ॥
लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी लालसा | रखनेवाला मूह मनुष्य जैसे पुत्र, स्त्री और धनकी चिन्ता करता हुआ मृत्युसे डरता है, उसी प्रकार यदि विद्वान् भी इस कुत्सित शरीरके छूट जानेके भयसे युक्त रहे तो ज्ञानप्राप्तिके लिये किया हुआ उसका सारा प्रयत्न केवल परिश्रममात्र है ॥ 4 ॥
अतः हे अधोक्षज! हे प्रभो! आप हमें अपना स्वाभाविक प्रेमरूप भक्तियोग प्रदान कीजिये, जिससे इस निन्दनीय शरीरमें आपकी मायाके कारण बद्धमूल हुई दुर्भेद्य अहंता तथा ममताको हम तुरंत काट डालें ॥ 5 ॥
इस प्रकार अखिल ज्ञातव्य रहस्योंको देखनेवाले मुनिश्रेष्ठ नारद निर्विकार भगवान् नारायणकी स्तुति करते रहते हैं ॥ 6 ॥
[ नारायण बोले- ] हे देवर्षे इस भारतवर्षमें अनेक नदियाँ तथा पर्वत हैं; अब मैं उनका वर्णन करूँगा आप एकाग्रचित्त होकर सुनिये ॥7॥
मलय, मंगलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कुटक, कोल्ल, सह्य, देवगिरि, ऋष्यमूक, श्रीशैल, व्यंकटाद्रि, महेन्द्र, वारिधार, विन्ध्य, मुक्तिमान्, ऋक्ष, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, रैवतक, ककुभ, नील, गौरमुख, इन्द्रकील तथा कामगिरि पर्वत हैं। इनके अतिरिक्त भी प्रचुर पुण्य प्रदान करनेवाले अन्य असंख्य पर्वत हैं ॥ 8- 11 ॥
इन पर्वतोंसे निकली हुई सैकड़ों-हजारों नदियाँ हैं; जिनका जल पीने, जिनमें डुबकी लगाकर स्नान करने, दर्शन करने तथा जिनके नामका उच्चारण | करनेसे मनुष्योंके तीनों प्रकारके पाप नष्ट हो जाते हैं। ताम्रपर्णी, चन्द्रवशा, कृतमाला, वटोदका, वैहायसी, श्री गापयस्विनी, तुंगभद्रा कृष्णवेण शर्करावर्तका गोदावरी, भीमरथी, निर्विन्ध्या, पयोष्णका, तापी, रेवा, सुरसा, नर्मदा, सरस्वती, चर्मण्वती, सिन्धु, अन्ध तथाशोण नामवाले दो महान् नद, ऋषिकुल्या, त्रिसामा, वेदस्मृति, महानदी, कौशिकी, यमुना, मन्दाकिनी, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधवती, सप्तवती, सुषोमा, शतद्रु, चन्द्रभागा, मरुवृधा, वितस्ता, असिक्नी और विश्वा - ये प्रसिद्ध नदियाँ हैं ।। 12-18 ॥
इस भारतवर्षमें जन्म लेनेवाले पुरुष अपने अपने शुक्ल (सात्त्विक), लोहित (राजस) तथा कृष्ण (तामस) कर्मोंके कारण क्रमशः देव, मनुष्य तथा नारकीय भोगोंको प्राप्त करते हैं। भारतवर्षमें निवास करनेवाले सभी लोगोंको अनेक प्रकारके भोग सुलभ होते हैं। अपने वर्णधर्मके नियमोंका पालन करनेसे मोक्षतक निश्चितरूपसे प्राप्त हो जाता है । 19-20 ॥
इस मोक्षरूपी महान कार्यकी सिद्धिका साधन होनेके कारण ही स्वर्गके निवासी वेदज्ञ मुनिगण भारतवर्षकी महिमाका इस प्रकार वर्णन करते हैं- ॥ 21 ॥
अहो! जिन जीवोंने भारतवर्षमें भगवान्की सेवाके योग्य जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है ? अथवा इनपर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं। इस सौभाग्यके लिये तो हमलोग भी लालायित रहते हैं ॥ 22 ॥
हमने कठोर यज्ञ, तप, व्रत, दान आदिके द्वारा | जो यह तुच्छ स्वर्ग प्राप्त किया है, इससे क्या लाभ? यहाँ तो इन्द्रियोंके भोगोंकी अधिकताके कारण स्मरणशक्ति क्षीण हो जानेसे भगवान्के चरणकमलोंकी स्मृति होती ही नहीं ॥ 23 ॥
इस स्वर्गके निवासियोंकी आयु एक कल्पकी होनेपर भी उन्हें पुनः जन्म लेना पड़ता है। उसकी अपेक्षा भारतभूमिमें अल्प आयुवाला होकर जन्म लेना श्रेष्ठ है; क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षणमें ही अपने इस मर्त्य शरीरसे किये हुए सम्पूर्ण कर्म भगवान्को अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर लेते हैं ॥ 24 ॥
जहाँ भगवत्कथाकी अमृतमयी सरिता प्रवाहित नहीं होती, जहाँ उसके उद्गमस्थानस्वरूप भगवद्भक्त साधुजन निवास नहीं करते और जहाँ समारोहपूर्वक भगवान् यज्ञेश्वरकी पूजा-अर्चा नहीं होती, वह चाहे ब्रह्मलोक ही क्यों न हो, उसका सेवन नहीं करना चाहिये ॥ 25 ॥भारतवर्षमें उत्तम ज्ञान, कर्म तथा द्रव्य आदिसे सम्पन्न मानवयोनि प्राप्त करके भी जो प्राणी पुनर्भव (आवागमन) - रूप बन्धनसे छूटनेका प्रयत्न नहीं करते, वे [व्याधकी फाँसीसे मुक्त होकर फल आदिके लोभसे उसी वृक्षपर विहार करनेवाले] जंगली पक्षियोंकी भाँति पुनः बन्धनमें पड़ते हैं ॥ 26 ॥
भारतवासियोंका कैसा सौभाग्य है कि जब वे यज्ञमें भिन्न-भिन्न देवताओंके उद्देश्यसे अलग अलग भाग रखकर विधि, मन्त्र और द्रव्य आदिके योगसे भक्तिपूर्वक हवि प्रदान करते हैं, तब भिन्न-भिन्न नामोंसे पुकारे जानेपर सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले वे एक पूर्णब्रह्म श्रीहरि स्वयं ही प्रसन्न होकर उस हविभागको ग्रहण करते हैं ॥ 27 ॥
यह ठीक है कि भगवान् सकाम पुरुषोंके माँगनेपर उन्हें अभीष्ट पदार्थ देते हैं, किंतु यह भगवान्का वास्तविक दान नहीं है; क्योंकि उन वस्तुओंको पा लेनेपर भी मनुष्यके मनमें पुनः कामनाएँ होती ही रहती हैं। इसके विपरीत जो उनका निष्कामभावसे भजन करते हैं, उन्हें तो वे साक्षात् अपने चरणकमल ही दे देते हैं-जो अन्य समस्त इच्छाओंको समाप्त कर देनेवाले हैं ॥ 28 ॥
(अतः अबतक स्वर्गसुख भोग लेनेके बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ और पूर्त कर्मोंसे यदि कुछ भी पुण्य अवशिष्ट हो, तो उसके प्रभावसे हमें इस भारतवर्षमें भगवान्की स्मृतिसे युक्त मनुष्यजन्म मिले; क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करनेवाले प्राणियोंका परम कल्याण करते हैं।)
श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] इस प्रकार स्वर्गको प्राप्त देवता, सिद्ध और महर्षिगण भारतवर्षकी उत्तम महिमाका गान करते हैं ॥ 29 ॥
जम्बूद्वीपमें अन्य आठ उपद्वीप भी बताये गये हैं। खोये हुए घोड़ेके मार्गोंका अन्वेषण करनेवाले सगरके पुत्रोंने इन उपद्वीपोंकी कल्पना की थी। स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्र, आवर्तन, रमाणक, मन्दरहरिण, पांचजन्य, सिंहल और लंका-ये आठ उपद्वीपप्रसिद्ध हैं। इस प्रकार मैंने विस्तारके साथ जम्बूद्वीपका परिमाण बता दिया। अब इसके बाद प्लक्ष आदि छः द्वीपोंका वर्णन करूँगा ॥ 30-33 ॥