श्रीनारायण बोले- हे नारद! द्विजको चाहिये कि पहले तीन बार आचमन करके दो बार मार्जन करे। इसके बाद पहले अपने दाहिने हाथका तदनन्तर पैरोंका प्रोक्षण करे। इसी प्रकार सिर, नेत्र, नासिका, कान, हृदय तथा शिखाका विधिवत् प्रोक्षण करना चाहिये ॥ 1-2 ॥
तदनन्तर देश - कालका उच्चारण करके ब्रह्मयज्ञ करे। दाहिने हाथमें दो कुशा, बायें हाथमें तीन कुशा, | आसनपर एक कुशा, यज्ञोपवीतमें एक कुशा, शिखापरएक कुशा और पादमूलमें एक कुशा रखे। इसके बाद | विमुक्त होनेके लिये, सम्पूर्ण पापोंके विनाशहेतु तथा सूत्रोक देवताकी प्रसन्नताके लिये मैं ब्रह्मयज्ञ कर रहा हूँ-ऐसा संकल्प करे ll 3-43 ll
पहले तीन बार गायत्रीका जप करे और इसके बाद 'अग्निमीडे0', फिर 'यदङ्गे0' का उच्चारण करके 'अग्नि' इस मन्त्रको बोलना चाहिये। तत्पश्चात् 'अथ महाव्रतं चैव पन्थाः 0'- इसका भी पाठ करना चाहिये ॥ 5-6 ॥
तत्पश्चात् संहिता के 'विदा मघवत् 0', 'महाव्रतस्य0', 'इषे त्वोर्जे0', 'अग्न आयाहि0' 'शन्नो देवी0', 'अथ तस्य समाम्नायो वृद्धिरादैच्0', 'अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि0', 'पञ्चसंवत्सर0', 'मयरसतजभन0' और 'गौग्र्मा0' इत्यादि मन्त्रोंका भी पाठ करना चाहिये । पुनः 'अथातो धर्मजिज्ञासा' और 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' के साथ 'तच्छंयो0' तथा 'ब्रह्मणे नमः ' - इन मन्त्रोंका भी पाठ करना चाहिये ll 7-10 ll
तदनन्तर देवताओंका तर्पण करके प्रदक्षिणा करनी चाहिये। [तर्पणके समय] प्रजापति, ब्रह्मा, वेद, देवता, ऋषि, सभी छन्द, ॐकार वषट्कार, व्याहृतियाँ, सावित्री, गायत्री, यज्ञ, द्यावा, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, अहोरात्र, सांख्य, सिद्ध, समुद्र, नदियाँ, पर्वत, क्षेत्र, औषधि, वनस्पतियाँ, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, पक्षी, गौएँ, साध्यगण, विप्रगण, यक्ष, राक्षस, भूत एवं यमराज आदिके नामोंका उच्चारण करना चाहिये ll 11 - 15 ll
एतदनन्तर यज्ञोपवीतको कण्ठीकी भाँति करके शतर्चि, माध्यम, गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, वसिष्ठ, प्रगाथ, पावमान्य, क्षुद्रसूक्त, महासूक्त, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, कपिल, आसुरि, वोहलि तथा पंचशीर्ष- इन ऋषियोंका तर्पण करना चाहिये। इसके बाद अपसव्य होकर सुमन्तु, जैमिनि, वैशम्पायन, पैल, सूत्र, भाष्य, भारत, महाभारत तथा धर्माचार्योंका तर्पण करे तथा ये सभी तृप्त हो जायें ऐसा उच्चारण करे। इसी प्रकार जानन्ति बाहवि, गार्ग्य, गौतम, शाकल, बाभ्रव्य, माण्डव्य, माण्डूकेय,गार्गी, वाचक्नवी, वडवा, प्रातिथेयी, सुलभा, मैत्रेयी, कहोल, कौषीतक, महाकौषीतक, भारद्वाज, पैग्य, महापैंग्य, सुयज्ञ, सांख्यायन, ऐतरेय, महतरेय, बाष्कल, शाकल, सुजातवक्त्र, औदवाहि, सौजामि, शौनक और आश्वलायन-इनका तर्पण करे तथा जो अन्य आचार्य हों, वे सब भी तृप्तिको प्राप्त हों-ऐसा कहे। इसके बाद इस प्रकार उच्चारण करते हुए तर्पण करे-जो कोई भी मेरे कुलमें उत्पन्न होकर अपुत्र ही दिवंगत हो चुके हैं तथा मेरे गोत्रसे सम्बद्ध हैं, वे मेरे द्वारा वस्त्र निचोड़कर दिये गये जलको ग्रहण करें। हे महामुने। इस प्रकार मैंने आपको ब्रह्मयज्ञकी विधि बतला दी ॥ 16-27 ॥
जो साधक ब्रह्मयज्ञकी इस उत्तम विधिका सम्यक् पालन करता है, वह अंगोंसहित समस्त वेदोंके पाठका फल प्राप्त कर लेता है॥ 28 ॥ इसके बाद वैश्वदेव तथा नित्यश्राद्ध करना चाहिये।
अतिथियोंको अन्नदान नित्य करना चाहिये ॥ 29 ॥ गोग्रास देनेके पश्चात् ब्राह्मणोंके साथ बैठकर भोजन करना चाहिये। यह उत्तम कार्य दिनके पाँचवें भागमें करना चाहिये ॥ 30 ॥
दिनका छौं तथा सातवाँ भाग इतिहास, पुराण आदिके स्वाध्यायमें व्यतीत करना चाहिये। दिनके आठवें भागमें लोकव्यवहारसम्बन्धी कार्योंको करे और इसके बाद सायंसन्ध्या करे ॥ 31 ॥ हे महामुने। अब मैं सायंकालकी सन्ध्याका वर्णन करूँगा, जिसके अनुष्ठानमात्रसे भगवती महामाया प्रसन्न हो जाती हैं॥ 32 ॥ सायं वेलामें साधक योगीको आचमन तथा प्राणायाम करके शान्तचित्त हो पद्मासन लगाकर निश्चलरूपसे बैठ जाना चाहिये ॥ 33 ॥
श्रुति स्मृतिसम्बन्धी कर्मोंमें प्राणवायुको संयमित 1. करके किया जानेवाला समन्त्रक प्राणायाम सगर्भ कहा गया है तथा ध्यानमात्रवाला प्राणायाम अगर्भ है; वह अगर्भ प्राणायाम अमन्त्रक कहा गया है ॥ 34 ॥ भूतशुद्धि आदि करके ही कर्ममें प्रवृत्त होना चाहिये, अन्यथा उसे कर्म नहीं कहा जा सकता। लक्ष्य | स्थिर करके पूरक, कुम्भक और रेचक इष्ट देवताका ध्यान करके विद्वान् पुरुषको सायंकालमें सन्ध्या करते समय इस प्रकार ध्यान करना चाहिये 'भगवती सरस्वती वृद्धावस्थाको प्राप्त हैं, कृष्णवर्ण हैं, वे कृष्ण वस्त्र धारण की हुई हैं, उन्होंने हाथोंमें शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण कर रखा है, वे गरुडरूपी वाहनपर विराजमान हैं, वे अनेक प्रकारके रत्नोंसे जटित वेशभूषासे सुशोभित हो रही हैं, उनकी पैजनी तथा करधनीसे ध्वनि निकल रही है, उनके मस्तकपर अमूल्य रत्नोंसे निर्मित मुकुट विद्यमान है, वे ताकि हारकी आवलीसे युक्त हैं, मणिमय कुण्डलोंकी कान्तिसे उनके कपोल सुशोभित हो रहे हैं, उन्होंने पीताम्बर धारण कर रखा है, वे सत्-चित्-आनन्दस्वरूपवाली हैं, वे सामवेद तथा सत्यमार्ग संयुक्त हैं, वे स्वर्गलोकमें व्यवस्थित हैं, वे सूर्यपथपर गमन करनेवाली हैं, सूर्यमण्डलसे निकलकर मेरी ओर आती हुई इन देवीका में आवाहन कर रहा हूँ ' ll 35-40 ll
इस प्रकार उन देवीका ध्यान करके सायंकालकी सन्ध्याका संकल्प करना चाहिये। 'आपो हि ष्ठा0' इस मन्त्रसे मार्जन तथा 'अग्निश्च0' इस मन्त्रसे आचमन करना चाहिये। शेष कर्म प्रातः कालीन सन्ध्याके समान बताया गया है ॥ 416 ॥
साधक पुरुषको शुद्ध मनवाला होकर भगवान् नारायणके प्रसन्नतार्थ गायत्रीमन्त्रका उच्चारण करके सूर्यको अर्ध्य देना चाहिये ॥ 42 ॥ दोनों पैरोंको समानरूपसे सीधा करके हाथकी अंजलिमें जल लेकर मण्डलस्थ देवताका ध्यान करके क्रमसे अर्घ्य प्रदान करना चाहिये 433 ॥ जो मूढात्मा तथा अज्ञानी द्विज जलमें अर्ध्य प्रदान करता है, वह स्मृतिमन्त्रोंका उल्लंघन करके प्रायश्चितका भागी होता है ॥ 44 ॥
तत्पश्चात् ' असावादित्य0' इस मन्त्रसे सूर्योपस्थान करके कुशके आसनपर बैठकर श्रीदेवीका ध्यान करते हुए एक हजार अथवा उसकी आधी संख्यामें गायत्रीका जप करना चाहिये ।। 45-46 ll
जैसे प्रातःकालकी सन्ध्यामें उपस्थान आदि किये जाते हैं, उसी तरह सायंकालीन सन्ध्याके तर्पणमें उपस्थान आदि क्रमसे करने चाहिये ॥ 47 ॥सायंकालीन सन्ध्यामें सरस्वतीरूपा गायत्रीके ऋषि ‘वसिष्ठ' कहे गये हैं, देवता वे विष्णुरूपा 'सरस्वती' हैं तथा छन्द भी वे 'सरस्वती' ही हैं। सायंकालकी सन्ध्याके तर्पणमें इसका विनियोग किया जाता है । स्वः पुरुष, सामवेद, मण्डल, हिरण्यगर्भ, परमात्मा, सरस्वती, वेदमाता, संकृति, सन्ध्या, विष्णुस्वरूपिणी, वृद्धा, उषसी, निर्मृजी, सर्वसिद्धिकारिणी, सर्वमन्त्राधिपतिका तथा भूर्भुवः स्वः पूरुष - इस प्रकार उच्चारण करके श्रुतिसम्मत सायंकालीन सन्ध्याका तर्पण करना चाहिये ॥ 48-521/2 ॥
[हे नारद!] इस प्रकार मैंने पापोंका नाश करनेवाले, सभी प्रकारके दुःखोंको दूर करनेवाले, व्याधियोंका शमन करनेवाले तथा मोक्ष देनेवाले सायंकालीन सन्ध्या-विधानका वर्णन कर दिया। हे मुनिश्रेष्ठ ! समस्त सदाचारोंमें सन्ध्याकी प्रधानता है । सन्ध्याका सम्यक् आचरण करनेसे भगवती भक्तको मनोवांछित फल प्रदान करती हैं ॥ 53-54॥