श्रीनारायण बोले- उस सुतलके नीचेके विवरको 'तलातल' कहा गया है। वहाँ त्रिपुराधिपति मय नामक महान् दानव रहता है ॥ 1 ॥
त्रिलोकीकी रक्षाके लिये भगवान् शंकरने उसकी तीनों पुरियाँ भस्म करके उसके यहाँ रहनेकी | व्यवस्था कर दी। उसे देवाधिदेव शिवकी कृपासे यहाँ सुखदायक राज्य प्राप्त हो गया है ॥ 2 ॥
अपने समस्त कार्योंके अभ्युदयके लिये बड़े-बड़े भयानक राक्षसगण अनेक प्रकारकी माया रचनेमें परम प्रवीण उस मायावियोंके भी गुरु मयकी पूजा करते हैं ॥ 3 ॥
उस तलातलके नीचे अति प्रसिद्ध 'महातल' नामक विस्तृत विवर है। उसमें कद्रूसे उत्पन्न हुए अनेक सिरोंवाले क्रोधी सर्पोंका एक बहुत बड़ा समूह रहता है। हे विप्र ! उनमें प्रधान सर्पोंके नाम आपको बताता हूँ-कुहक, तक्षक, सुषेण और कालिय ये विशाल फनवाले, महान् शक्तिसे सम्पन्न तथा अत्यन्त भयानक होते हैं। इनकी जाति ही बड़ी क्रूर होती है। वे सभी केवल पक्षिराज गरुडसे ही आतंकित रहते हैं। अनेक प्रकारकी क्रीडा करनेमें परम दक्ष ये सर्प अपनी स्त्रियों, सुहृदों तथा परिवारजनोंके साथ | प्रमत्त होकर वहाँ विहार करते रहते हैं । 4–7॥उसके भी नीचे 'रसातल' नामवाले विवरमें 'पणि' नामके दैत्य और दानव रहते हैं, जो निवातकवच, हिरण्यपुरवासी और कालेय कहे गये हैं। देवताओंसे इनकी शत्रुता रहती है ॥ 8-9 ॥
वे जन्मसे ही महान् पराक्रमी तथा साहसी होते हैं, किंतु अखिल जगत्के स्वामी भगवान् श्रीहरिके तेजसे कुण्ठित पराक्रमवाले होकर वे सर्पोंकी भाँति छिपकर सदा उस विवरमें पड़े रहते हैं । इन्द्रकी दूती सरमाके मन्त्र-वर्णरूप * वाक्योंके प्रभावसे असुर कष्ट पा चुके हैं- इसी बातका स्मरण करके वे हमेशा भयभीत रहते हैं ।। 10-113 ॥
इससे भी नीचे स्थित 'पाताललोक 'में मुख्यरूपसे वासुकि, शंख, कुलिक, श्वेत, धनंजय, महाशंख, धृतराष्ट्र, शंखचूड, कम्बल, अश्वतर और देवोपदत्तक आदि महान् क्रोधी, बड़े-बड़े फनोंवाले तथा महान् विषधर सर्प निवास करते हैं; वे सब नागलोकके अधिपालक हैं । 12 - 14 ॥
उनमें कोई सर्प पाँच फनोंवाले, कोई सात फनोंवाले और कोई दस फनोंवाले हैं। कुछ सर्पोंके सौ सिर तथा कुछके हजार सिर हैं। हे देवर्षे ! जगमगाती हुई मणियाँ धारण करनेवाले वे क्रोधयुक्त सर्प अपनी मणियोंके तेजसे पाताल-विवरके घोर अन्धकार समूहको नष्ट कर देते हैं ।। 15-163॥
इस पाताललोकके नीचे तीस हजार योजनकी दूरीपर भगवान् श्रीहरिकी एक तामसी कला विराजमान है। सम्पूर्ण देवताओंसे सम्यक् पूजित इस कलाका नाम अनन्त है ॥ 17-18 ।।
अहंरूप अभिमानका लक्षण होनेके कारण यह द्रष्टा तथा दृश्यका कर्षण करके एक कर देती है, इसीलिये पांचरात्र आगमके अनुयायी इसे संकर्षण कहते हैं ॥ 19 ॥
हजार सिरोंवाले इन अनन्तमूर्ति भगवान् शेषके एक सिरपर रखा हुआ यह गोलाकार समग्र भूमण्डल | सरसोंके दानेकी भाँति दिखायी पड़ता है ॥ 203 ॥समय आनेपर जब ये भगवान् अनन्त चराचर जगत्के संहारकी इच्छा करते हैं, तब इनकी भौंहोंके विवरसे ग्यारह रुद्रोंसे सुशोभित विग्रहवाले सांकर्षण नामक रुद्र प्रकट हो जाते हैं । 21-22 ॥
ये रुद्र तीन नेत्रोंसे शोभा पाते हैं, ये स्वयं तीन नोकोंवाला त्रिशूल लेकर खड़े हो जाते हैं। असीम शक्तिसे सम्पन्न ये रुद्र अखिल प्राणिजगत्का संहार करनेवाले हैं ॥ 23 ॥
उन भगवान् शेषनागके दोनों चरणकमलोंके नख स्वच्छ तथा लाल मणियोंके समान देदीप्यमान हैं। जब बड़े-बड़े नागराज एकान्तभक्तिसे 'युक्त होकर प्रधान भक्तोंके साथ भगवान् शेषके चरणोंमें सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं, तब उन्हें माणिक्यजटित कुंडलकी प्रभासे प्रकाशित अपने मुख, सुन्दर कपोल तथा गण्डस्थल उनके मणिसदृश नखोंमें दृष्टिगोचर होने लगते हैं । 24- 26 ॥
वहाँ नागराजोंकी सुन्दर तथा कान्तियुक्त अंगोंवाली कुमारियाँ भी रहती हैं। लम्बी, विशाल, स्वच्छ, सुन्दर तथा मनोहर भुजाओंसे सुशोभित वे कुमारियाँ इधर उधर घूमा करती हैं। वे अपने अंगोंमें चन्दन, अगुरु और कस्तूरीका लेपन किये रहती हैं ।। 27-28 ॥
उन भगवान् संकर्षणके स्पर्शजन्य कामावेशसे समन्वित तथा मधुर मुस्कानसे युक्त होकर उन अनुराग मदसे उन्मत्त विघूर्णित रक्त नेत्रोंवाले तथा करुणापूर्ण दृष्टिवाले भगवान्को वे नागकन्याएँ आशीर्वादकी आशासे लज्जापूर्वक निहारती रहती हैं ॥ 29-30॥
अनन्त पराक्रमवाले, अत्यन्त उदार हृदयवाले, अनन्त गुणोंके सागर, महान् तेजस्वी, क्रोध- रोष आदिके वेगोंको रोकनेवाले, असीम शक्तिके आगार स्वरूप वे आदिदेव भगवान् अनन्त सभी देवताओंसे प्रपूजित होकर सिद्धों, देवताओं, असुरों, नागों, विद्याधरों, गन्धर्वों और मुनिगणोंके द्वारा निरन्तर ध्यान किये जाते हुए लोकोंके कल्याणार्थ वहाँ विराजमान रहते हैं ॥ 31-33 ॥
निरन्तर प्रेमके मदसे मुग्ध एवं विह्वल नेत्रोंवाले वे भगवान् अपनी अमृतमयी वाणीसे सभी देवताओं | तथा अपने पार्षदगणोंको भी सन्तुष्ट किये रहते हैं।वे कभी भी न मुरझानेवाले निर्मल और नवीन तुलसी दलोंसे सुशोभित वैजयन्तीकी माला धारण किये रहते हैं। वह माला मतवाले भौंरोंके समूहोंकी मधुर गुंजारसे सदा सुशोभित रहती है। वे देवदेव भगवान् शेष नीले रंगका वस्त्र धारण करते हैं और उनके कानमें केवल एक कुंडल सुशोभित रहता है। वे अविनाशी भगवान् अपनी विशाल भुजा हलकी मूठपर रखे रहते हैं। सुवर्णमयी पृथ्वीको अपने सिरपर धारण किये हुए भगवान् शेष पीठपर हौदा रखे किसी मतवाले हाथीकी भाँति सुशोभित होते हैं। इस प्रकार श्रेष्ठ भगवद्भक्तोंने उदार लीलाओंवाले भगवान् शेषकावर्णन किया है ॥ 34-37॥