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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 15 - Skand 9, Adhyay 15

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तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन

नारदजी बोले - परम साध्वी तुलसी भगवान् श्रीहरिकी प्रिय भार्या कैसे बनीं, वे कहाँ उत्पन्न हुई थीं, पूर्वजन्ममें कौन थीं, किसके कुलमें उत्पन्न हुई थीं और वे सती किसके कुलमें कन्याके रूपमें प्रादुर्भूत हुईं और अपने किस तपस्याके प्रभावसे वे तुलसी प्रकृतिसे परे, विकाररहित, निष्काम, सर्वविश्वरूप, नारायण, परब्रह्म, परमेश्वर, ईश्वर, सबके आराध्य, सर्वेश, सब कुछ जाननेवाले, सम्पूर्ण जगत्के कारण, सर्वाधार, सर्वरूप तथा सभी प्राणियोंका पालन करनेवाले भगवान् श्रीहरिको पत्नीरूपमें प्राप्त हुईं? ऐसी साध्वी देवी कैसे वृक्ष बन गयीं और वे तपस्विनी किस प्रकारसे असुरके द्वारा गृहीत हुईं। समस्त शंकाओंका निवारण करनेवाले हे प्रभो! यह सब जाननेके लिये मेरा कोमल तथा चंचल मन मुझे बार-बार प्रेरित कर रहा है। आप मेरे सम्पूर्ण सन्देहको दूर करनेकी कृपा कीजिये ॥ 1-6 ॥

श्रीनारायण बोले- विष्णुके अंशसे उत्पन्न दक्ष- सावर्णि मनु परम पवित्र, यशस्वी, कीर्तिमान्, पुण्यशाली तथा विष्णुभक्त थे। उनके पुत्र ब्रह्मसावर्णि थे, जो धर्म-परायण, भगवान् विष्णुके भक्त तथा परम पवित्र थे। उनके पुत्र धर्मसावर्णि थे, जो विष्णुके भक्त तथा जितेन्द्रिय थे। उनके पुत्र रुद्रसावर्णि भक्तिपरायण तथा जितेन्द्रिय थे । उन रुद्रसावर्णिके पुत्र देवसावर्णि थे, जो सर्वदा विष्णु भगवान्‌का व्रत करनेमें संलग्न रहते थे। उन देवसावर्णिके पुत्र इन्द्रसावर्णि महाविष्णुके भक्त थे। उन इन्द्रसावर्णिका पुत्र वृषध्वज हुआ, जो भगवान् शिवकी भक्तिमें आसक्ति रखता था; उसके आश्रममें स्वयं भगवान् शंकर तीन युगोंतक स्थित रहे। राजा वृषध्वजके प्रति शिवजीका स्नेह पुत्रसे भी बढ़कर था ॥ 7-11॥

वह भगवान् नारायण, लक्ष्मी, सरस्वती- इनमें किसीके भी प्रति आस्था नहीं रखता था और उसने अन्य सभी देवताओंकी पूजाका परित्याग कर दिया था ॥ 12 ॥अभिमानमें चूर होकर वह भाद्रपद महीनेमें महालक्ष्मीको पूजामें विघ्न उत्पन्न करता था। इसी प्रकार उस पापीने माघ शुक्ल पंचमीके दिन समस्त देवताओं द्वारा विस्तृत रूपसे की जानेवाली सरस्वती पूजाका भी त्याग कर दिया था। इस तरह केवल शिवको आराधनामें निरत रहनेवाले और यज्ञ तथा विष्णुकी पूजाकी निन्दा करनेवाले उस राजेन्द्र वृषध्वजपर भगवान् सूर्यदेव कुपित हो गये और उन्होंने उसे शाप दे दिया 'तुम श्रीविहीन हो जाओ' - यह शाप सूर्यने उसे दे दिया था 13 – 15 ॥

इसपर स्वयं भगवान् शिव हाथमें त्रिशूल लेकर सूर्यके पीछे दौड़े। तब सूर्य अपने पिता कश्यपके साथ ब्रह्माकी शरणमें गये 16 ॥

तदनन्तर भगवान् शंकर हाथमें त्रिशूल लिये हुए अत्यन्त क्रुद्ध होकर ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थित हुए। इसपर भयभीत ब्रह्माजीने सूर्यको आगे करके वैकुण्ठलोकके लिये प्रस्थान कर दिया 17 ॥ वे सन्तप्त तथा शुष्क तालुवाले ब्रह्मा, कश्यप तथा सूर्य भयपूर्वक सर्वेश्वर नारायणकी शरण में गये ॥ 18 ॥

उन तीनोंने वहाँ पहुँचकर मस्तक झुकाकर भगवान् श्रीहरिको प्रणाम किया और बार-बार उनकी स्तुति की। तत्पश्चात् उन्होंने श्रीहरिसे भयका समस्त कारण बताया ॥ 19 ॥

तब भगवान् नारायणने कृपापूर्वक [यह कहकर ] उन्हें अभय प्रदान किया- हे भयभीत देवगण! आपलोग स्थिरचित्त हो जाइये। मेरे रहते आपलोगोंको भय कैसा ? विपत्तिमें भयत्रस्त जो लोग जहाँ भी मुझे याद करते हैं, मैं हाथमें चक्र धारण किये वहाँ तत्काल पहुँचकर उनकी रक्षा करता हूँ ॥ 20-21 ॥

हे देवतागण मैं सदा निरन्तर सम्पूर्ण लोकोंकी रचना तथा रक्षा किया करता हूँ। मैं ही ब्रह्मारूपसे जगत्‌की सृष्टि करनेवाला और शिवरूपसे संहार करनेवाला हूँ। मैं ही शिव हूँ, आप भी मेरे ही रूप हो और ये सूर्य भी मेरे ही स्वरूप हैं। तीनों गुणोंसे युक्त मैं ही अनेकविध रूप धारण करके सृष्टि-पालन करता हूँ॥ 22-23 ॥आपलोग जाइये। आपलोगोंका कल्याण होगा, आपलोगोंको भय कहाँ। मेरे वरके प्रभावसे आपलोगोंको आजसे शंकरजीसे भय नहीं होगा। वे सर्वेश्वर भगवान् शिव सज्जनोंके स्वामी, भक्तोंके वशमें रहनेवाले, भक्तोंकी आत्मा तथा भक्तवत्सल हैं। हे ब्रह्मन् ! सुदर्शन चक्र और भगवान् शिव ये दोनों ही मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं, इन दोनोंसे बढ़कर तेजस्वी ब्रह्माण्डोंमें कोई भी नहीं है ॥ 24-26 ॥

वे महादेव खेल-खेलमें करोड़ों सूर्यों तथा करोड़ों ब्रह्माकी रचना कर सकते हैं। उन त्रिशूलधारी प्रभु शिवके लिये कुछ भी दुष्कर नहीं है। वे भगवान् शिव कुछ भी बाह्य ज्ञान न रखते हुए दिन-रात मेरा ही ध्यान करते रहते हैं और अपने पाँचों मुखोंसे भक्तिपूर्वक सदा मेरे मन्त्रोंका जप तथा गुणोंका गान करते रहते हैं ।। 27-28 ॥

मैं भी दिन-रात उनके कल्याणका ही चिन्तन करता हूँ; क्योंकि जो लोग जिस प्रकार मेरी उपासना करते हैं, उसी प्रकार मैं भी उनकी सेवामें तत्पर रहता हूँ। भगवान् शंकर शिवस्वरूप हैं और वे कल्याणके अधिष्ठातृदेवता हैं, उन्हींसे कल्याण होता है, अतः विद्वान् लोग उन्हें शिव कहते हैं ॥ 29-30 ॥

इसी बीच भगवान् शंकर भी वहाँ पहुँच गये। उनके हाथमें त्रिशूल था, वे वृषभपर सवार थे तथा उनकी आँखें लाल कमलके समान थीं। वहाँ पहुँचते ही उन्होंने तुरंत वृषभसे उतरकर तथा भक्तिसे परिपूर्ण होनेके कारण अपना मस्तक झुकाकर उन शान्तस्वभाव परात्पर लक्ष्मीपति विष्णुको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया ।। 31-32॥

उस समय भगवान् श्रीहरि रत्नमय सिंहासनपर विराजमान थे, रत्ननिर्मित अलंकारोंसे वे अलंकृत थे, वे किरीट; कुण्डल; चक्र और वनमाला धारण किये हुए थे, उनके शरीरकी कान्ति नूतन मेघके समान श्यामवर्णकी थी, वे परम सुन्दर थे, चार भुजाओंसे सुशोभित थे और चार भुजावाले अनेक पार्षदोंके द्वारा श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा की जा रही थी ।। 33-34॥हे नारद! उनका सम्पूर्ण अंग दिव्य चन्दनसे अनुलिप्त था, वे अनेक प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत थे, उन्होंने पीताम्बर धारण कर रखा था। वे लक्ष्मीके द्वारा दिये गये ताम्बूलका सेवन कर रहे थे, मुसकराते हुए वे विद्याधरियोंके नृत्य-गीत आदिका निरन्तर अवलोकन कर रहे थे। भक्तोंके लिये साक्षात् कृपामूर्ति ऐसे उन परमेश्वर प्रभुको महादेवने प्रणाम किया। ब्रह्माजीने भी महादेवको प्रणाम किया और अत्यन्त भयभीत सूर्यने भी चन्द्रशेखर शिवको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। इसी प्रकार कश्यपने महान् भक्ति के साथ शिवकी स्तुति की और उन्हें प्रणाम किया ॥ 35-373 ॥

शिवजी सर्वेश्वर श्रीहरिका स्तवन करके एक सुखप्रद आसनपर विराजमान हो गये। इसके बाद सुखमय आसनपर सुखपूर्वक विराजमान तथा विष्णुके पार्षदोंके द्वारा श्वेत चँवर डुलाकर सेवित होते हुए उन विश्रान्त शिवजीसे भगवान् श्रीहरि अमृतके समान मधुर तथा मनोहर वचन कहने लगे ।। 38-393 ।।

विष्णुजी बोले- आप यहाँ किसलिये आये हैं, आप अपने क्रोधका कारण बताइये ॥ 40 ॥ महादेवजी बोले - [हे भगवन्!] सूर्यने मेरे लिये प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मेरे भक्त वृषध्वजको शाप दे दिया है- यही मेरे क्रोधका कारण है। जब मैं अपने पुत्रतुल्य भक्तके शोकसे प्रभावित होकर सूर्यको मारनेके लिये उद्यत हुआ, तब उस सूर्यने ब्रह्माकी शरण ली और पुनः सूर्य तथा ब्रह्मा- ये दोनों आपकी शरणमें आ गये । ll 41-42 ॥

[हे प्रभो!] जो लोग ध्यानसे अथवा वचनसे भी आपकी शरण ग्रहण कर लेते हैं, वे विपत्ति तथा भयसे पूर्णतः मुक्त हो जाते हैं। वे जरा तथा मृत्युतकको जीत लेते हैं। ये लोग तो प्रत्यक्ष शरणागत हुए हैं। इस शरणागतिका फल क्या बताऊँ! आप श्रीहरिका स्मरण सदा अभय तथा सर्वविध मंगल प्रदान करता है। हे जगत्प्रभो ! सूर्यके शापके कारण श्रीरहित तथा विवेकहीन मेरे भक्तका क्या होगा ? इसे मुझे बतायें ॥। 43 - 45 ।।विष्णुजी बोले - [ हे शिव!] दैवकी प्रेरणासे इक्कीस युगोंका बहुत बड़ा समय व्यतीत हो गया, यद्यपि वैकुण्ठमें अभी आधी घड़ीका समय बीता है। अतः अब आप शीघ्र अपने स्थान चले जाइये। किसीसे भी नियन्त्रित न किये जा सकनेवाले अत्यन्त भीषण कालने वृषध्वजको मार डाला है। उसका पुत्र रथध्वज था, वह भी श्रीसे हीन होकर मृत्युको प्राप्त हो गया। उस रथध्वजके भी धर्मध्वज तथा कुशध्वज नामक दो महान् भाग्यशाली पुत्र भी सूर्यके शापसे श्रीहीन हो गये हैं। वे दोनों विष्णुके महान् भक्तके रूपमें प्रसिद्ध हैं। राज्य तथा श्रीसे भ्रष्ट वे दोनों लक्ष्मीके तपमें रत हैं। उन दोनोंकी भार्याओंसे भगवती लक्ष्मी अपनी कलासे आविर्भूत होंगी। उस समय वे दोनों महान् सम्पदासे सम्पन्न होकर श्रेष्ठ राजाके रूपमें पुनः प्रतिष्ठित होंगे। हे शम्भो ! आपका भक्त मर चुका है; अब आप यहाँ से जाइये। हे देवतागण ! अब आप सबलोग भी यहाँसे प्रस्थान कीजिये ॥ 46 - 50 ॥

[हे नारद!] ऐसा कहकर वे भगवान् श्रीहरि | सभासे उठकर लक्ष्मीके साथ अन्तःपुरमें चले गये। तत्पश्चात् परम प्रसन्नतासे युक्त देवतागण भी परम आनन्दका अनुभव करते हुए अपने-अपने आश्रमके लिये प्रस्थित हो गये। तब परिपूर्णतम भगवान् शिव भी तपस्याके उद्देश्यसे वहाँसे चल दिये ॥ 51 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन