नारदजी बोले [हे भगवन्!] आपने यह अत्यन्त अद्भुत आख्यान सुनाया, जिसे सुनकर किसी भी प्रकारसे मुझे तृप्ति नहीं हो रही है। हे महामते ! उसके बाद जो कुछ घटित हुआ, उसे आप मुझे बताइये ॥ 13 ॥
श्रीनारायण बोले- इस प्रकार [शंखचूड़ तथा तुलसीको] आशीर्वाद देकर ब्रह्माजी अपने लोक चले गये। तब दानव शंखचूड़ने गान्धर्व विवाहके अनुसार उस तुलसीको पत्नीरूपमें ग्रहण कर लिया। उस अवसरपर स्वर्गमें दुंदुभियाँ बजने लगीं और पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ll 2-3 ॥
अब वह शंखचूड़ अपने सुन्दर भवनमें तुलसीके साथ विलास करने लगा। आनन्दका अनुभवकर वह तुलसी मूच्छित सी हो गयी। वह साध्वी उस समय सुखरूपी निर्जल सागरमें निमग्न हो गयी थी ॥ 43 ॥
कामशास्त्रमें जो चौंसठ प्रकारकी कलाएँ तथा चौंसठ प्रकारके सुख बताये गये हैं, वे रसिकजनोंके लिये अत्यन्त प्रिय हैं। अंग-प्रत्यंगके स्पर्श करनेसे स्त्रियोंको सुखप्रद लगनेवाले जो भी रस-श्रृंगार होते हैं, उन सबको रसिकेश्वर शंखचूड़ने प्रस्तुत किया ।। 5-63 ॥
अनेक प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित वह रसिक शंखचूड़ पुष्प- चन्दनसे चर्चित तथा रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत उस तुलसीको साथमें लेकर अत्यन्त रमणीक तथा पूर्णरूपसे निर्जन स्थानमें पुष्प- चन्दनसे सुरभित वायुयुक्त पुष्पोद्यान और पुष्प-चन्दनसे सुशोभित नदीके तटपर पुष्प- चन्दनसे चर्चित शय्यापर रासक्रीडामें निरत रहता था ॥ 7-9 ।।कामक्रीड़ाके ज्ञाता वे दोनों कभी भी विलाससे विरत नहीं होते थे। उस साध्वी तुलसीने अपनी चंचल लीलासे अपने पतिका मन हर लिया था। इसी प्रकार रस भावोंके ज्ञाता शंखचूड़ने भी रसिका तुलसीका मन अपनी ओर आकृष्ट कर लिया था। उस तुलसीने राजाके वक्षःस्थलका चन्दन तथा मस्तकका तिलक मिटा दिया, उसी प्रकार उस शंखचूड़ने भी तुलसीके सिन्दूर-बिन्दुको मिटा दिया। कामक्रीड़ामें शंखचूड़ने प्रसन्नतापूर्वक उस तुलसीके वक्ष:स्थल आदिपर और उसी प्रकार तुलसीने उसके वाम पार्श्वमें अपने हाथके आभूषणका चिह्न बना दिया। इस प्रकार परस्पर आलिंगन आदि करते हुए कामकलाका सम्यक् ज्ञान रखनेवाले वे दोनों क्रीड़ा करने लगे । ll 10 - 143 ॥
रतिक्रीड़ासे विरत होकर वे दोनों मनमें जो-जो इच्छा रहती थी, उसके अनुसार एक-दूसरेका शृंगार करते थे। वह तुलसी शंखचूड़के मस्तकपर कुमकुम- मिश्रित चंदन लगाती थी और उसके सभी मनोहर अंगों में चन्दनका लेप करती थी। वह शंखचूड़को सुवासित ताम्बूल खिलाती थी, अग्निके समान शुद्ध दो वस्त्र पहनाती थी, वृद्धावस्थारूपी रोग दूर करनेवाला पारिजात पुष्प प्रदान करती थी, बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित उत्तम अँगूठी पहनाती थी और तीनों लोकोंमें दुर्लभ उत्तम मणियोंके आभूषणोंसे अलंकृत करती थी - इस प्रकार शंखचूड़का शृंगार करनेके पश्चात् 'मैं आपकी दासी हूँ' - ऐसा बार बार कहकर वह तुलसी महान् भक्तिके साथ अपने गुणवान् पतिको प्रणाम करती थी। वह अपलक नेत्रोंसे कामदेवके समान अपने पतिके मुखार विन्दको मुसकराती हुई बार-बार देखती रहती थी । ll 15 - 203 ।।
इसी प्रकार शंखचूड़ भी प्रिया तुलसीको आकृष्ट करके वक्षसे लगा लेता था और वस्त्रसे ढँके हुए उसके मुसकानयुक्त मुखकमलको निहारने लगता था। वह तुलसीके कठोर कपोलों तथा बिम्बाफलके समान लाल ओठोंका स्पर्श करने लगता था । 21-22 ॥तदनन्तर उसने वरुणके यहाँसे प्राप्त वस्त्रोंका जोड़ा और तीनों लोकोंमें दुर्लभ रत्नमयी माला उस तुलसीको प्रदान की। इसी प्रकार उसने स्वाहादेवीसे प्राप्त दो मंजीर (पायजेब), छायासे प्राप्त एक जोड़ी बाजूबन्द और रोहिणीसे प्राप्त कुण्डल, रतिसे प्राप्त हाथके आभूषणके रूपमें रत्नमय अँगूठी और विश्वकमकि द्वारा प्रदत्त अद्भुत तथा मनोहर शंख तुलसीको प्रदान किये ।। 23 - 25 ॥
तदनन्तर विचित्र कमल-पुष्पोंसे सुसज्जित हुई अत्यन्त दुर्लभ शय्या तथा अन्य भूषण प्रदान करके राजा शंखचूड़ हँसने लगा। उसने उसकी चोटीमें मांगलिक आभूषण लगाया और उसके गण्डस्थलपर सुगन्धित चन्दनसे तीन चन्द्रलेखाओंसे युक्त तथा चारों ओर कुमकुमबिन्दुओंसे सुशोभित सुन्दर चित्र बनाया। शंखचूड़ने उसके ललाटपर जलती हुई दीपशिखाके आकारके समान सिन्दूर तिलक लगाया और स्थलकमलिनीको भी लज्जित कर देनेवाले उसके दोनों कमलसदृश चरणोंमें तथा नाखूनोंपर प्रसन्नतापूर्वक सुन्दर महावर लगाया। तत्पश्चात् तुलसीके महावरयुक्त चरणकमलको अपने वक्षःस्थलपर बार-बार रखकर 'हे देवि! मैं तुम्हारा दास हूँ' - ऐसा बार-बार उच्चारण करते हुए उस शंखचूड़ने रत्नमय आभूषणोंसे | अलंकृत अपने हाथसे उसे अपने वक्षःस्थलसे लगा लिया ।। 26-31 ॥
तदनन्तर राजा शंखचूड़ वह तपोवन छोड़कर अन्य स्थानपर चला गया। पुष्प तथा चन्दनसे चर्चित शरीरवाला वह सकाम शंखचूड़ मलयपर्वतपर, देवस्थानोंमें, विभिन्न पर्वतोंपर, तपोवनोंमें, अत्यन्त रमणीक स्थानोंमें, निर्जन पुष्पोद्यानमें, समुद्रकी तटवर्ती अत्यन्त सुन्दर कन्दराओंमें, जल तथा वायुसे युक्त पुष्पभद्रा नदीके मनोहर तटपर, नदियों तथा सरोवरोंके दिव्य तटोंपर, वसन्त ऋतुमें भ्रमरोंकी मधुर ध्वनिसे निनादित वनोंमें, अत्यन्त अनुपम तथा आनन्दकर गन्धमादनपर्वतपर, नन्दन नामक देवोद्यानमें, अद्भुत चन्दनवनमें, चम्पा केतकी तथा माधवीके निकुंजमें, कुन्द - मालती कुमुद तथा कमलोंके वनमें, कल्पवृक्ष | तथा पारिजातके वनमें, निर्जन कांचन स्थानमें, पवित्रकांचन-पर्वतपर, कांचीवनमें, किंजलक, कंचुक और | कांचनाकर आदि स्थानोंमें-वनमें, जहाँ कोयलकी मधुर ध्वनि सुनायी देती और पुष्प चन्दनको सुगन्धसे सुरभित वायु बहती रहती थी, पुष्प-चन्दनसे सुसज्जित शय्यापर कामनायुक्त रमणी तुलसीके साथ इच्छानुसार विहार किया करता था। किंतु न तो दानवेन्द्र शंखचूड तृप्त हुआ और न वह तुलसी ही तृप्त हुई; अपितु आहुतिसे बढ़नेवाली अग्निकी भाँति उन दोनोंकी वासना निरन्तर बढ़ती ही गयी ॥ 32-403 ॥
तदनन्तर वह दानव शंखचूड़ उस तुलसीके साथ अपने आश्रम आकरके वहाँ अपने रमणीक क्रीड़ा भवनमें जाकर बार-बार विहार करने लगा। इस प्रकार महान् प्रतापी राजराजेश्वर शंखचूड़ने पूरे एक मन्वन्तरतक राज्यका उपभोग किया ॥ 41-426 ॥
वह देवताओं, असुरों, दानवों, गन्धव, किन्नरों और राक्षसोंको सदा शान्त कर देनेवाला था। उसके द्वारा छिने हुए अधिकारवाले देवतागण भिक्षुकोंकी भाँति विचरण करते थे, अतः वे सभी अत्यन्त दुःखी होकर ब्रह्माकी सभायें गये। उन्होंने अपना वृत्तान्त बताया और बार-बार अत्यधिक विलाप किया ।। 43-45 ll
तब विधाता ब्रह्माजी देवताओंको साथ लेकर भगवान् शंकरके स्थानपर गये और वहाँ पहुँचकर उन्होंने मस्तकपर चन्द्रमाको धारण करनेवाले सर्वेश्वर शिवसे सारी बातें बतायीं ॥ 46 ll
तत्पश्चात् ब्रह्मा और शिव उन देवताओंको साथ लेकर जरा तथा मृत्युका नाश करनेवाले, सभी के | लिये अत्यन्त दुर्लभ तथा परमधाम श्रेष्ठ वैकुण्ठलोकमें गये। जब वे श्रीहरिके लोकोंके श्रेष्ठ प्रवेशद्वारपर पहुँचे, तब वहाँपर उन्होंने रत्नमय सिंहासनपर बैठे हुए द्वारपालोंको देखा। वे सभी पीताम्बरोंसे सुशोभित थे, वे रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत थे, उन्होंने | वनमाला धारण कर रखी थी, उनके शरीर सुन्दर तथा श्यामवर्णके थे, शंख-चक्र-गदा-पद्मसे सुशोभित उनकी चार भुजाएँ थीं, उनके प्रसन्न मुखमण्डलपर मुसकान व्याप्त थी और उन मनोहर द्वारपालोंके नेत्र कमलके समान थे ॥ 47-50 ॥ब्रह्माजीने उन द्वारपालोंको अपने आनेका प्रयोजन बताया तब उन द्वारपालोंने ब्रह्माको अन्दर जानेकी आज्ञा दे दी और ब्रह्माजीने उनकी आज्ञा पाकर भीतर प्रवेश किया ॥ 51 ॥
इस प्रकार ब्रह्माजीने भीतर सोलह द्वारोंको देखा और देवताओंके साथ उन्हें पार करके वे श्रीहरिकी सभा में पहुँचे वह सभा देवर्षियों तथा चार भुजावाले पार्षदोंसे घिरी हुई थी। वे सभी पार्षद नारायणस्वरूप थे और कौस्तुभमणिसे अलंकृत थे। उस सभाका आकार नवीन चन्द्रमण्डलके समान था, वह मनोहर सभा चौकोर थी, वह सर्वोत्तम दिव्य मणियोंसे निर्मित थी, वह बहुमूल्य हीरोंसे सजी हुई थी, भगवान् श्रीहरिकी इच्छासे निर्मित उस सभाभवनमें बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे, मणिमयी मालाएँ उसमें जालीके रूपमें शोभा दे रही थीं, मोतियोंकी झालरोंसे वह सुशोभित थी, मण्डलाकार करोड़ों रत्नमय विचित्र दर्पणोंसे वह सभा मण्डित थी, अनेक प्रकारके रेखाचित्रोंसे युक्त वह सभा अत्यन्त सुन्दर तथा अद्भुत प्रतीत हो रही थी, पद्मरागमणिसे निर्मित वह सभा मणिमय पंकजोंसे परम सुन्दर प्रतीत हो रही थी, वह स्यमन्तकमणिसे बनी हुई सौ सीढ़ियोंसे युक्त थी, वहाँ दिव्य चन्दन वृक्षके सुन्दर | पल्लव रेशमके सूत्रोंसे बँधे वन्दनवारके रूपमें शोभा दे रहे थे, वह मनोहर सभा उत्तम कोटिके इन्द्रनीलमणिसे | निर्मित खम्भोंसे आवृत थी, वह उत्तम रत्नोंसे निर्मित अनेक कलशोंसे युक्त थी, पारिजात-पुष्पोंकी माला पंक्तियोंसे तथा कस्तूरी और कुमकुमसे रंजित सुगन्धित चन्दनके वृक्षोंसे वह सभा सुसज्जित थी, वह सर्वत्र सुगन्धित वायुसे सुरभित थी, बहुत-सी विद्याधरियोंके नृत्यसे उस सभाकी शोभा बढ़ रही थी, वह सभा एक हजार योजन विस्तारवाली थी और बहुतसे सेक्कोंसे व्याप्त थी ॥ 52-61 ॥
देवताओंसहित ब्रह्मा तथा शिवने सभाके मध्य भागमें विराजमान श्रीहरिको तारोंसे घिरे चन्द्रमाके समान देखा। वे बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित अद्भुत सिंहासनपर विराजमान थे। वे किरीट, कुण्डल तथा | वनमालासे सुशोभित थे। उनके सम्पूर्ण अंग चन्दनसेअनुलिप्त थे। वे अपने हाथमें लीला-कमल धारण किये हुए थे। वे प्रसन्नतापूर्वक मुसकराते हुए अपने सामने नृत्य-गीत आदिका अवलोकन कर रहे थे। उन सरस्वतीकान्त भगवान् श्रीहरिका विग्रह शान्त था. | लक्ष्मीजी उनके चरणकमल पकड़े हुए उनकी सेवामें संलग्न थीं और लक्ष्मीजीके द्वारा दिये गये सुवासित ताम्बूलका वे सेवन कर रहे थे। भगवती गंगा परम भक्तिके साथ श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा कर रही थीं। वहाँ उपस्थित सभी लोग भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ 62-66 ॥
[हे नारद!] ऐसे उन विशिष्ट परिपूर्णतम भगवान् श्रीहरिको देखकर ब्रह्मा आदि सभी देवता प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे। उस समय उनके सभी अंग पुलकित हो गये थे, आँखोंमें आँसू भर आये थे और वाणी गद्गद हो गयी थी। वे सभी भक्त परम भक्तिके साथ अपने कन्धे झुकाये भयभीत होकर उनके समक्ष खड़े होकर स्तुति कर रहे थे। इसके बाद जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माजीने दोनों हाथ जोड़कर भगवान् श्रीहरिके सामने विनम्रतापूर्वक सारा वृत्तान्त निवेदित कर दिया ॥ 67-69 ॥
उनकी यह बात सुनकर सभी अभिप्रायोंको समझनेवाले सर्वज्ञ श्रीहरिने ब्रह्माजीसे हँसकर मनको मुग्ध करनेवाला एक अद्भुत रहस्य कहना आरम्भ किया ॥ 70 ॥
श्रीभगवान् बोले- हे पद्मज ! यह महान् | तेजस्वी शंखचूड़ पूर्वजन्ममें एक गोप था और मेरा परम भक्त था, मैं इसका सभी वृत्तान्त जानता हूँ। अब आप पुरातन इतिहासके रूपमें निबद्ध उसका सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनिये। गोलोकसे सम्बन्ध रखनेवाला यह चरित पापोंका नाश करनेवाला तथा पुण्य प्रदान करनेवाला है । ll 71-72 ॥
सुदामा नामक एक गोप मेरा प्रधान पार्षद था। | राधिकाके दारुण शापके कारण उसे दानवयोनिमें जन्म लेना पड़ा ॥ 73 ॥
एक बार मैं अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय श्रेष्ठ विरजाको साथमें लेकर अपने निवास-स्थानसे रासमण्डलमें गया था ॥ 74 ॥'मैं विरजाके साथ रासमण्डलमें गया हूँ' परिचारिकाके मुखसे ऐसा सुनकर कुपित हो राधिका वहाँ आ गयीं, किंतु उसने मुझे वहीं नहीं देखा। बादमें मेरे अन्तर्धान होने तथा विरजाके नदीरूपमें परिणत हो जानेका समाचार सुनकर राधा अपनी सखियोंके साथ फिर अपने भवन चली गर्यो ।। 75-76 ॥
उस भवनमें सुदामाके साथ मौन तथा स्थिरचित्त होकर मुझे बैठा हुआ देखकर देवी राधाने मेरी बहुत भर्त्सना की ॥ 77 ॥
उसे सुनकर सुदामा सहन नहीं कर सका और उनपर कुपित हो गया। उसने मेरे सामने ही राधाको क्रोधके साथ बहुत फटकारा ॥ 78 ॥
उसकी बात सुनकर राधिका क्रोधित हो उठीं और उनकी आँखें रक्तकमलके समान लाल हो गयीं। उन्होंने तत्काल भयभीत सुदामाको मेरी सभासे बाहर निकाल देनेका आदेश दिया ।। 79 ।।
[आज्ञा पाते ही] प्रबल तेजसे सम्पन्न तथा दुर्निवार्य सखियों का समूह उठ खड़ा हुआ और उसे शीघ्र ही सभासे बाहर कर दिया। उस समय वह सुदामा बार-बार कुछ बोलता जा रहा था ॥ 80 ॥
इस तरह उन सखियोंसे सुदामाके विवाद करनेके कारण राधा और भी कुपित हो उठीं और उन्होंने कुपित होकर शाप दे दिया- 'तुम दानवयोनिमें जन्म प्राप्त करो'। ऐसा दारुण वचन कहा था 81 ॥
तदनन्तर सुदामा मुझे प्रणाम करके रोता हुआ तथा सखियोंको कोसता हुआ सभाभवनसे बाहर जाने लगा, तब करुणामयी राधाने कृपावश उसके ऊपर फिर प्रसन्न होकर उसे रोक लिया और रोते हुए कहा- 'हे वत्स! ठहरो, मत जाओ। कहाँ जा रहे हो ?'- ऐसा बार-बार कहती हुई वे राधा व्याकुल होकर उसके पीछे-पीछे चल पड़ीं ॥ 82-83 ॥
यह देखकर सभी गोपी और गोप अत्यन्त दुःखी होकर रोने लगे तब मैंने राधिकाको तथा उन सभीको समझाया कि शापका पालन करके वह सुदामा आधे क्षणमें ही वापस आ जायगा हे सुदामन् ! तुम यहाँ अवश्य आ जाना - ऐसा कहकर मैंने राधाको शान्त किया ।। 84-85 ।।हे सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करनेवाले ब्रह्मन् ! गोलोकके आधे क्षणमें ही पृथ्वीलोकपर एक | मन्वन्तरका समय व्यतीत हो जाता है; यह बात बिलकुल सत्य है। इस प्रकार यह सब कुछ पूर्वनिश्चित व्यवस्थाके अनुसार ही हो रहा है। अतः सम्पूर्ण मायाओंका पूर्ण ज्ञाता, महान् बलशाली तथा योगेश्वर | शंखचूड़ समय आनेपर पुनः उसी गोलोकमें वापस चला जायगा ॥ 86-87 ॥
अब आपलोग मेरा त्रिशूल लेकर शीघ्र भारतवर्षमें चलें और वहाँपर शंकरजी मेरे त्रिशूलसे उस राक्षसका संहार करें ।। 88 ।।
वह दानव शंखचूड़ अपने कण्ठमें मेरा सर्वमंगलकारी कवच निरन्तर धारण किये रहता है। इसीसे वह सदा संसार विजयी बना हुआ है ।। 89 ।। हे ब्रह्मन् ! उसके कण्ठमें उस कवचके रहते उसे मारनेमें कोई प्राणी समर्थ नहीं है। अतः मैं ही ब्राह्मणका रूप धारणकर उससे कवचकी याचना करूँगा ॥ 90 ॥
जिस समय उसकी पत्नीका सतीत्व नष्ट होगा, उसी समय उसकी मृत्यु होगी-ऐसा आपने उसे वर भी दे रखा है ॥ 91 ॥
इसके लिये मैं अवश्य ही उसकी पत्नीके उदरमें अपना तेज स्थापित करूँगा, जिससे उसी क्षण उस शंखचूड़की मृत्यु हो जायगी; इसमें सन्देह नहीं है। तब उसकी पत्नी अपना शरीर त्यागकर पुनः प्रिया बन जायगी ॥ 923 ॥ मेरी
ऐसा कहकर जगत्के स्वामी भगवान् | श्रीहरिने शंकरजीको त्रिशूल दे दिया और त्रिशूल | देकर वे श्रीहरि प्रसन्नतापूर्वक तत्काल अन्तःपुरमें चले गये। इसके बाद सभी देवताओंने ब्रह्मा तथा | शंकरजीको आगे करके भारतवर्षके लिये प्रस्थान किया । ll 93-94 ।।