श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] एक समयकी बात है— वृषध्वजकी नवयौवनसम्पन्न कन्या तुलसी अत्यन्त सन्तुष्ट तथा प्रसन्नचित्त होकर शयन कर रही थी ॥ 1 ॥
उसी समय कामदेवने उसपर अपने पाँचों बाण चला दिये। पुष्प तथा चन्दनसे अनुलिप्त अंगोंवाली वह कन्या कामदेवके पुष्प बाणसे परितप्त हो गयी। उसका सारा अंग पुलकित हो उठा, उसके शरीरमेंकैंपर्कची होने लगी और उसकी आँखें लाल हो गयीं। वह क्षणभरमें सूख जाती थी और दूसरे क्षणमें मूर्च्छित हो जाती थी, पुनः क्षणभरमें उद्विग्न हो उठती थी और फिर क्षणभर सुखदायक तन्द्रासे युक्त हो जाती थी। | वह क्षणभर उत्तप्त हो जाती थी और फिर तुरंत प्रसन्न हो जाती थी। क्षणभरमें सचेत हो जाती थी और क्षणमें विषादग्रस्त हो जाती थी। वह कभी शय्यासे उठती हुई, कभी क्षणभरमें पासमें ही टहलती हुई, क्षणभरमें उद्वेगपूर्वक घूमती हुई और क्षणभरमें | बैठती हुई दिखायी पड़ती थी और फिर क्षणभरमें ही अत्यन्त उद्विग्न होकर अपनी शय्यापर पुनः सो जाती थी ॥ 26 ॥
पुष्प तथा चन्दनसे सुसजित शय्या उसे काँटों जैसी लगने लगी, दिव्य सुख और सुन्दर फल तथा जल उसके लिये विषतुल्य हो गये। उसे अपना भव्य भवन बिलके समान, शरीरके कोमल वस्त्र अग्निके समान और मस्तकका सिन्दूर दुःखदायी व्रणके समान लगने लगा ।। 7-8 ॥
थोड़ी देरमें तन्द्राको अवस्थामें उस साध्वी तुलसीने सुन्दर वेष धारण किये हुए, अपने सभी अंगोंमें चन्दन लगाये हुए तथा रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत एक सुन्दर युवा अवस्थावाले, मुसकानयुक्त तथा परम रसिक पुरुषको देखा। मालासे सुशोभित वह युवक उसके मुखकमलका पान करनेके लिये उसकी ओर आ रहा था, वह निरन्तर रतिक्रीड़ा सम्बन्धी कथाएँ कह रहा था और मधुर मधुर बोल रहा था तथा सहसा अपनी भुजाओंमें आलिंगित करके शय्यापर विहार कर रहा था। कुछ ही क्षणोंमें वह चला गया और फिर पास आ गया। इसके बाद पुनः जाते हुए उस युवकसे तुलसीने कहा- 'हे प्राणनाथ! आप कहाँ जा रहे हैं? बैठ जाइये।' तत्पश्चात् जाग जानेपर वह तुलसी बार-बार विलाप करने लगी हे नारद इस प्रकार युवावस्थाको प्राप्तकर वह तुलसी वहीं पर स्थित रही ॥ 9-13 ॥ शंखचूड़ जैगीषव्यमुनिसे श्रीकृष्णका मनोहर
मन्त्र प्राप्त करके और उस मन्त्रको पुष्करक्षेत्रमें सिद्ध
करके महान् योगी हो गया था। सभी मंगलोंका भीमंगल करनेवाले उस कवचको गलेमें बाँधकर और ब्रह्माजीसे 'जो तुम्हारे मनमें अभिलषित हो, वह पूर्ण हो जाय' - ऐसा वर प्राप्तकर वह शंखचूड़ भी ब्रह्माको आहासे बदरीवन आ गया ।। 14-15 ll
हे मुने! तुलसीने आते हुए शंखचूड़को देख लिया। वह नवयौवनसे सम्पन्न था, उसकी कान्ति कामदेवके समान थी, उसका वर्ण श्वेत चम्पाकी आभाके समान था, वह रत्नमय आभूषणोंसे सुशोभित था, उसका मुखमण्डल शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान था, उसके नेत्र शरत्कालीन कमलसदृश थे, वह अमूल्य रत्नोंसे निर्मित विमानपर विराजमान था, वह अत्यन्त मनोहर था, दो रत्नमय कुण्डलोंसे उसका गण्डस्थल शोभायमान था, उसने पारिजात पुष्पोंकी माला धारण कर रखी थी, उसका मुखमण्डल मुसकानसे भरा हुआ था और उसका सर्वांग कस्तूरी, कुमकुमसे युक्त तथा सुगन्धित चन्दनसे अनुलिप्त था ऐसे शंखचूडको अपने पास देखकर वस्त्रसे अपना मुख ढँककर मुसकराती हुई तथा कटाक्षके साथ बार-बार उसकी ओर देखती हुई तुलसीने नवमिलनके कारण लज्जावश अपना मुख नीचेकी ओर झुका लिया ॥ 16-21 ॥
उसका चन्द्रसदृश मुख शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाको भी लज्जित कर रहा था, बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित नूपुरोंकी पंक्तिसे वह सुशोभित हो रही थी, सर्वोत्तम मणिसे निर्मित तथा सुन्दर शब्द करती हुई करधनीसे वह सुशोभित हो रही थी, वह मालतीके पुष्पोंकी | मालासे सम्पन्न केशपाश धारण किये हुई थी, उसने बहुमूल्य रत्नोंसे बने हुए मकराकृत कुण्डल अपने कानों में धारण कर रखे थे, चित्रमय दो कुण्डलोंसे उसका गण्डस्थल सुशोभित था, सर्वोत्तम रत्नोंसे निर्मित हारके द्वारा उसके वक्षःस्थलका मध्यभाग उज्ज्वल दिखायी दे रहा था, रत्नमय कंकण-केयूर-शंख आदि आभूषणोंसे वह सुशोभित थी। रत्नजटित दिव्य अँगूठियाँ उसकी अँगुलियोंको सुशोभित कर रही थीं ऐसी भव्य रमणीय, सुशील, सुन्दर तथा साध्वी तुलसीको देखकर | वह शंखचूड़ उसके पास बैठ गया और मधुर वाणीमें उससे कहने लगा ॥ 22 - 263 ॥शंखचूड़ बोला- हे मानिनि ! हे कल्याणि ! हे सर्वकल्याणदायिनि ! तुम कौन हो और किसकी कन्या हो ? तुम समस्त स्त्रियों में धन्य तथा मान्य हो। हे सुन्दरि ! स्तब्ध हुए मुझ सेवकसे वार्तालाप करो ॥ 27-28 ॥
शंखचूड़का यह वचन सुनकर सुन्दर नेत्रोंवाली तथा
कामयुक्त तुलसी उस कामपीड़ित शंखचूड़से मुसकराते हुए तथा नीचेकी ओर मुख झुकाकर कहने लगी ॥ 29 ॥ तुलसी बोली- मैं धर्मध्वजकी पुत्री हूँ और इस तपोवनमें तपस्या करनेके निमित्त एक तपस्विनीके रूपमें रह रही हूँ। आप कौन हैं? आप यहाँ से सुखपूर्वक चले जाइये। श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न पुरुष | उच्च कुलमें उत्पन्न किसी अकेली साध्वी कन्याके साथ एकान्तमें बातचीत नहीं करते- ऐसा मैंने श्रुतिमें सुना है ॥ 30-31 ॥
जो नीच कुलमें उत्पन्न है तथा धर्मशास्त्रके ज्ञानसे वंचित है और जिसे श्रुतिका अर्थ सुननेका कभी अवसर नहीं मिला, वह दुराचारी व्यक्ति ही कामासक्त होकर परस्त्रीकी कामना करता है। स्त्री ऊपरसे बड़ी मधुर दिखायी देती है, किंतु सदा अभिमानमें चूर रहती है, पुरुषके लिये विनाशक होती है, वह विषसे परिपूर्ण ऐसे घटके सदृश होती है, जिसके मुखपर अमृत लगा हुआ हो, स्त्रीका हृदय छुरेकी धारके समान तीक्ष्ण होता है, किंतु ऊपरसे वह सदा मधुर बातें करती है, स्त्री अपना ही प्रयोजन सिद्ध करनेमें सदा तत्पर रहती है, अपने कार्यकी सिद्धिके लिये ही वह स्वामीके वशमें रहती है, अन्यथा वह सदा वशमें न रहनेवाली है, स्त्रीका हृदय अत्यन्त दूषित रहता है और उसके मुखमण्डल तथा नेत्रोंसे सदा प्रसन्नता झलकती रहती है ॥ 32-35 ॥ श्रुतियों तथा पुराणोंमें जिन स्त्रियोंका चरित्र अत्यन्त दूषित बताया गया है; बुरे विचारवाले व्यक्तिको छोड़कर ऐसा कौन विद्वान् तथा बुद्धिमान् होगा, जो उनपर विश्वास कर सकता है ॥ 36 ॥ उनका कौन शत्रु है और कौन मित्र ? वे नित्य नये-नये पुरुषकी कामना करती हैं। वे किसी भी सुन्दर वेषयुक्त पुरुषको देखकर उसे मन-ही-मन चाहने लगती हैं ॥ 37 ॥वे बाहरसे अपना हित साधनेके लिये अपने सतीत्वका प्रयत्नपूर्वक प्रदर्शन करती हैं, किंतु वास्तवमें सदा कामातुर रहती हैं। मनको आकृष्ट करनेवाली वे स्त्रियाँ कामदेवका आधारस्तम्भ होती हैं ॥ 38 ॥
स्त्री बाहरसे छलपूर्वक [अपनेको वासनावृत्तिसे रहित दिखाती हुई ] अपने प्रेमीको सन्तप्त करती है, किंतु मनमें समागमकी अभिलाषा रखती है। वह बाहरसे अत्यन्त लज्जित दीखती है, किंतु एकान्तमें अपने प्रेमीके साथ हास-परिहास करती है । ll 39 ।।
रतिका सुयोग न मिलनेपर मानिनी स्त्री कुपित हो जाती है और कलह करने लगती है। यथेच्छ सम्भोगसे स्त्री प्रसन्न रहती है और स्वल्प सम्भोगसे दुःखी हो जाती है ॥ 40 ॥
स्त्री स्वादिष्ट भोजन और शीतल जलकी अपेक्षा सुन्दर, रसिक, गुणी तथा युवक पतिकी ही आकांक्षा अपने मनमें रखती है ॥ 41 ॥
स्त्री अपने पुत्रसे भी अधिक स्नेह रसिक पुरुषपर रखती है। वह सम्भोगमें कुशल प्रेमीको अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय समझती है ॥ 42 ॥
स्त्री वृद्ध तथा सम्भोग करनेमें अक्षम पुरुषको शत्रुके समान समझती है और वह अत्यन्त कुपित होकर उस पुरुषके साथ सदा कलह करती रहती है। जिस प्रकार सर्प चूहेपर झपटता है, उसी प्रकार स्त्री वैसे पुरुषको बात-बातपर खाने दौड़ती है। नारी दुःसाहसकी मूर्ति तथा सर्वदा समस्त दोषोंकी आश्रयस्थली है ॥ 43-44 ॥
ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवताओंके लिये भी स्त्री दुःसाध्य है। मोहस्वरूपिणी नारी तपस्याके मार्ग में अर्गलादण्डके समान और मोक्षके द्वारपर कपाटके समान बाधक होती है। वह भगवान्की भक्तिमें बाधा डालनेवाली तथा सभी प्रकारकी मायाकी पिटारी है। वह संसाररूपी कारागारमें सदा जकड़े रखनेके लिये जंजीरके समान है। स्त्री इन्द्रजालस्वरूप तथा स्वप्नके समान मिथ्या कही गयी है। स्त्री बाह्य सौन्दर्य तो धारण करती है, किंतु इसके भीतरी अंग अत्यन्त कुत्सित रहते हैं। स्त्रीका शरीर विष्ठा-मूत्र | पीब आदिका आधार, मलयुक्त, दुर्गन्धि-दोषसे परिपूर्ण,रक्तरंजित तथा अपवित्र रहता है। पूर्व समयमें ब्रह्माने | स्त्रीका सृजन मायावी पुरुषोंके लिये मायास्वरूपिणीके रूपमें, मुमुक्षुजनोंके लिये विषस्वरूपिणीके रूपमें तथा उसकी कामना करनेवालोंके लिये अदृश्यरूपिणीके रूपमें किया था ।। 45-49 ॥
हे नारद! उस शंखचूड़से ऐसा कहकर जब तुलसी चुप हो गयी, तब उसने हँसकर कहना आरम्भ किया ॥ 50 ॥
शंखचूड़ बोला- हे देवि! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब असत्य नहीं है, किंतु अब मुझसे भी कुछ सत्य तथा कुछ असत्यके विषयमें सुन लीजिये ॥ 51 ॥
विधाताने सबको मोहित करनेवाला नारीरूप [ वास्तविक और अवास्तविक] दो प्रकारसे रचा है— वास्तविक रूप प्रशंसनीय और दूसरा रूप निन्दनीय है। लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, सावित्री, राधा आदि आद्या शक्तियाँ सृष्टिकी सूत्ररूपा हैं, इन्हींसे सृष्टिका प्रारम्भ हुआ है ॥ 52-53 ॥
इन देवियोंके अंशसे प्रकट स्त्रीरूप वास्तविक कहा गया है; वह श्रेष्ठ, यशोरूप तथा समस्त मंगलोंका कारण है। शतरूपा, देवहूति, स्वधा, स्वाहा, दक्षिणा, छायावती, रोहिणी, वरुणानी, शची, कुबेरकी पत्नी, अदिति, दिति, लोपामुद्रा, अनसूया, कोटभी, तुलसी, अहल्या, अरुन्धती, मेना, तारा, मन्दोदरी, दमयन्ती, वेदवती, गंगा, मनसा, पुष्टि, तुष्टि, स्मृति, मेधा, कालिका, वसुन्धरा, षष्ठी, मंगलचण्डी, धर्मपत्नी मूर्ति, स्वस्ति, श्रद्धा, शान्ति, कान्ति, क्षान्ति, निद्रा, तन्द्रा, क्षुधा, पिपासा, सन्ध्या, दिवा, रात्रि, सम्पत्ति, धृति, कीर्ति, क्रिया, शोभा, प्रभा और शिवा-ये देवियाँ जो स्त्रीरूपमें प्रकट हैं, वे प्रत्येक युगमें श्रेष्ठ मानी गयी हैं । ll 54-60 ॥
जगदम्बाकी कलाके कलांशसे उत्पन्न जो स्वर्गकी दिव्य अप्सराएँ हैं, उन्हें अप्रशस्त तथा सम्पूर्ण लोकोंमें पुंश्चलीरूप कहा गया है ॥ 61 ॥
स्त्रियोंका जो सत्त्व-प्रधान रूप है, वही सर्वथा समीचीन है। अपने प्रभावके कारण वे ही उत्तम तथा साध्वीस्वरूप स्त्रियाँ सम्पूर्ण लोकोंमें प्रशंसित हैं।उन्हींको 'वास्तवरूपा' कहना चाहिये, ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं। रजोरूप और तमोरूपकी कलाओंके | भेदसे अनेक प्रकारकी स्त्रियाँ प्रसिद्ध हैं ।। 62-63 ॥
रजोगुणका अंश जिनमें प्रधान है, वे मध्यम श्रेणीकी हैं और वे भोगोंमें आसक्त रहती हैं। सुखभोगके वशीभूत होकर वे सदा अपने ही कार्यमें संलग्न रहती हैं। वे कपटयुक्त, मोहकारिणी तथा धर्मके अर्थसे पराङ्मुख रहती हैं; अतः रजोगुण प्रधान स्त्रीमें साध्वीभाव कभी नहीं उत्पन्न हो सकता है, विद्वान् लोग इसे स्त्रियोंका मध्यमरूप कहते हैं । ll 64-653 ॥
तमोरूप दुर्निवार्य है, बुद्धिमान् पुरुषोंने इस रूपको ‘अधम' कहा है। [हे देवि! तुमने जो कहा है कि ] उत्तम कुलमें उत्तम विद्वान् पुरुष निर्जन, जलविहीन तथा एकान्त स्थानमें किसी परस्त्रीसे कुछ भी नहीं पूछता है - यह तो उचित ही है, किंतु हे शोभने ! मैं तो इस समय ब्रह्माकी आज्ञासे ही तुम्हारे पास आया हूँ और गान्धर्वविवाहकी विधिके अनुसार तुम्हें पत्नीरूपमें ग्रहण करूँगा ll 66-68 ॥
देवताओंको सन्त्रस्त करनेवाला शंखचूड़ मैं ही हूँ। मैं दनुवंशमें उत्पन्न हुआ हूँ। विशेष बात यह है कि पूर्व जन्ममें मैं श्रीहरिके साथ उनके पार्षदरूपमें रहनेवाले आठ गोपोंमें सुदामा नामक एक गोप था। देवी राधिकाके शापसे इस समय मैं दानवेन्द्र बन गया हूँ ॥ 69-70 ॥
कृष्णके मन्त्रके प्रभावके कारण मैं पूर्वजन्मकी सभी बातें जानता हूँ। तुम्हें भी अपने पूर्वजन्मकी बातों का स्मरण होगा कि तुम उस समय तुलसी थी और श्रीहरिने तुम्हारे साथ विहार किया था और वही तुम राधिकाके कोपके कारण भारत-भूमिपर उत्पन्न हुई हो। उस समय मैं तुम्हारे साथ रमण करनेके लिये बहुत लालायित था, किंतु राधिकाके भयके कारण ऐसा नहीं हुआ ॥ 71-72 ॥
हे महामुने! इस प्रकार कहकर जब वह शंखचूड़ चुप हो गया, तब प्रसन्नतासे युक्त तुलसीने हँसते हुए कहना आरम्भ किया ॥ 73 ॥तुलसी बोली- इस प्रकारके [सद्विचारसम्पन्न ] विज्ञ पुरुष ही विश्वमें सदा प्रशंसित होते हैं। कोई स्त्री कामसे प्रेरित होकर ऐसे ही पतिकी सदा अभिलाषा रखती है ॥ 74 ॥
आप जैसे उत्तम विचारवाले पुरुषसे मैं निश्चित ही इस समय पराजित हो गयी हैं निन्दनीय तथा अपवित्र पुरुष तो वह होता है, जो स्त्रीके द्वारा जीत लिया गया हो ।। 75 ।।
पितृगण देवता तथा बान्धव-ये सब लोग स्त्रीके द्वारा पराभूत व्यक्तिको निन्दा करते हैं तथा माता-पिता एवं भ्राता भी स्त्रीजित मनुष्यकी मन-ही मन निन्दा करते रहते हैं ॥ 76 ll
शास्त्रों में विहित है कि जन्म और मृत्युजनित अशौचसे ब्राह्मण दस दिनोंमें, क्षत्रिय बारह दिनोंमें, वैश्य पन्द्रह दिनोंमें, शूद्र एक मासमें तथा वर्णसंकर अपनी मातृकुलपरम्पराके आचारके अनुसार शुद्ध हो जाते हैं, किंतु स्त्रीसे पराजित व्यक्ति सर्वदा अपवित्र रहता है और चितादहनके कालमें ही वह शुद्ध होता है । ll 77-78 ॥
स्त्रीजित मनुष्यके पितर उसके द्वारा प्रदत्त पिण्ड तथा तर्पणको इच्छापूर्वक ग्रहण नहीं करते और देवता भी उसके द्वारा अर्पित पुष्प, जल आदिको स्वीकार नहीं करते हैं ॥ 79 ॥
जिसके मनको स्त्रियोंने हर लिया हो; उसके ज्ञान, तप, जप, होम, पूजन, विद्या अथवा यशसे क्या प्रयोजन! ॥ 80 ॥
आपकी विद्याका प्रभाव जाननेके लिये ही मैंने आपकी परीक्षा की है; क्योंकि कोई स्त्री किसी पुरुषकी सम्यक् परीक्षा करके ही पतिरूपमें उसका वरण करती है ॥ 81 ॥ जो मनुष्य गुणहीन, वृद्ध, अज्ञानी, दरिद्र, मूर्ख, रोगी, नीच, परम क्रोधी, अत्यन्त कटुवचन बोलनेवाले, पंगु, अंगहीन, अन्धे, बहरे, जड़, गूँगे, नपुंसकतुल्य तथा पापी वरको अपनी कन्या देता है, वह ब्रह्महत्या के पापका भागी होता है ॥ 82-84 ॥ शान्त, गुणी, युवक, विद्वान् तथा सदाचारी वरको अपनी पुत्री अर्पण करनेसे मनुष्यको दस यज्ञोंका फल प्राप्त होता है ॥ 85 ॥कोई कन्याका पालन-पोषण करके यदि उसे | बेच देता है, तब धनके लोभसे कन्याका विक्रय | करनेवाले उस मनुष्यको 'कुम्भीपाक' नरकमें जाना पड़ता है। वहाँपर वह पापी भोजनके रूपमें कन्या के मल-मूत्रका ही भक्षण करता है और चौदहों इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त कीड़े तथा कौवे उसे नोचते रहते हैं। तदनन्तर वह फिरसे जन्म प्राप्त करता है और अनेक रोगोंसे ग्रस्त रहता है। वह दिन-रात मांस ढोता है और मांस विक्रय करता रहता है, यह निश्चित है। हे तपोनिधे! इस प्रकार कहकर देवी तुलसी चुप हो | गयी ॥। 86-883 ॥
ब्रह्मा बोले- हे शंखचूड़ तुम इसके साथ क्या बातचीत कर रहे हो ? गान्धर्व-विवाहकी विधिके अनुसार अब तुम इसे स्वीकार कर लो; क्योंकि तुम पुरुषोंमें रत्न हो और यह साध्वी तुलसी भी स्त्रियोंमें रत्न है। एक प्रवीण स्त्रीका एक प्रवीण पुरुषके साथ संयोग बड़ा कल्याणकारी होता है। हे राजन्! निर्वाध तथा दुर्लभ सुखको पाकर भला कौन उसका त्याग करता है जो मनुष्य विरोधरहित सुखका त्याग कर देता है, वह पशु है, इसमें सन्देह नहीं है ll 89-913 ॥
[ इसके बाद ब्रह्माजीने तुलसीसे कहा-] हे सति तुम ऐसे गुणी और समस्त देवताओं, असुरों ! तथा दानवोंका दमन करनेवाले पतिकी क्या परीक्षा ले रही हो? जिस प्रकार विष्णुके पास लक्ष्मी, श्रीकृष्णके पास राधिका, मुझे ब्रह्माके पास सावित्री, भगवान् शिवके पास भवानी, भगवान् वराहके पास धरा, यज्ञके पास दक्षिणा, अत्रिके पास अनसूया, नलके पास दमयन्ती, चन्द्रमाके पास रोहिणी, कामदेवके | पास साध्वी रति, कश्यपके पास अदिति, वसिष्ठके पास अरुन्धती, गौतमके पास अहल्या कर्दमके पास देवहूति, बृहस्पतिके पास तारा, मनुके पास शतरूपा, यज्ञके पास दक्षिणा, अग्निके पास स्वाहा, इन्द्रके पास शची, गणेशके पास पुष्टि, स्कन्द (कार्तिकेय) के पास देवसेना और धर्मके पास साध्वी मूर्ति पत्नीरूपसे प्रतिष्ठित हैं; उसी प्रकार तुम भी शंखचूड़की सौभाग्यवती प्रिया बन जाओ और हे सुन्दरि ! अपने इस सुन्दर | प्रियतमके साथ विभिन्न स्थानोंपर अपनी इच्छाकेअनुसार निरन्तर विहार करो। अन्तमें तुम गोलोकमें पुनः भगवान् श्रीकृष्णको तथा वैकुण्ठमें चतुर्भुज श्रीविष्णुको प्राप्त करोगी ॥ 92 – 100 ॥