ऋषिगण बोले- हे महाभाग सूतजी! आपकी वाणीरूपी अत्यन्त मधुर सुधाका पान करके अभी हम सन्तृप्त नहीं हुए हैं। कृष्णद्वैपायन वेदव्यासजीने जिस उत्तम श्रीमद्देवीभागवत महापुराणका प्रणयन किया है; उस पुराणकी मंगलमयी, वेदवर्णित, मनोहर, प्रसिद्ध और पापोंका नाश करनेवाली कथाको हम आपसे पुनः पूछना चाहते हैं ॥ 1-2 ॥
त्वष्टाका वृत्रासुर नामसे विख्यात पराक्रमी पुत्र महात्मा इन्द्रके द्वारा क्यों मारा गया? त्वष्टा तो देवपक्षके थे और उनका पुत्र अत्यन्त बलवान् था, ब्राह्मणवंशमें उत्पन्न उस महाबलीका इन्द्रके द्वारा क्यों वध किया गया ? पुराणों और शास्त्रोंके तत्त्वज्ञलोगोंने देवताओंको सत्त्वगुणसे, मनुष्योंको रजोगुणसे और पशु-पक्षी आदि तिर्यक् योनियोंको तमोगुणसे उत्पन्न कहा है, परंतु यहाँ तो महान् विरोध प्रतीत होता है कि बलवान् वृत्रासुर सौ यज्ञोंके कर्ता इन्द्रके द्वारा छलपूर्वक मारा गया और इसके लिये भगवान् विष्णुद्वारा प्रेरणा दी गयी जो कि स्वयं महान् सत्त्वगुणी हैं तथा वे परम प्रभु छलपूर्वक वज्रमें प्रविष्ट हुए! सन्धि करके उस महाबली वृत्रको पहले आश्वस्त कर दिया गया, किंतु पुनः विष्णु और इन्द्रने सत्य (सन्धिकी बात) को छोड़कर जलके फेनसे उसे मार डाला।। 3-8 ॥
हे सूतजी इन्द्र और विष्णुके द्वारा ऐसा दुःसाहस क्यों किया गया ? महान् लोग भी मोहमें फँसकर पापबुद्धि हो जाते हैं ।। 9 ।।श्रेष्ठ देवगण भी घोर अन्याय-मार्गक अनुगामी | हो जाते हैं, जबकि सदाचारके कारण ही देवताओंको विशिष्टता प्राप्त है॥ 10 ॥
इन्द्रके द्वारा विश्वासमें लेकर वृत्रासुरकी हत्या कर दी गयी-ऐसे विशिष्ट धर्मके द्वारा उनका सदाचार कहाँ रह गया? उन्हें इस ब्रह्महत्या | जनित पापका फल मिला या नहीं? आपने पहले कहा था कि वृत्रासुरका वध स्वयं देवीने ही किया था- इससे हमारा चित्त और भी मोहमें पड़ गया है ।। 11-123 ॥
सूतजी बोले- हे मुनिगण! वृत्रासुरके वधसे सम्बन्धित और उस हत्यासे इन्द्रको प्राप्त महान् दुःखकी कथा सुनें। ऐसा ही पूर्वकालमें परीक्षितपुत्र राजा जनमेजयने सत्यवतीनन्दन व्यासजीसे पूछा था; तब उन्होंने जो कहा, उसे मैं कहता हूँ ।। 13-143 ॥
जनमेजय बोले- हे मुने! सत्त्वगुणसे सम्पन्न इन्द्रने भगवान् विष्णुकी सहायता लेकर वृत्रासुरको पूर्वकालमें छलपूर्वक क्यों मारा? देवीके द्वारा उस दैत्यका क्यों और किस प्रकार वध किया गया ? हे मुनिश्रेष्ठ ! एक व्यक्तिका दो लोगोंके द्वारा कैसे वध किया गया इसे मैं सुनना चाहता हूँ मुझे महान् कौतूहल है ॥ 15 - 17 ॥
कौन मनुष्य महापुरुषोंके चरित्रको सुननेसे विरत होगा। अतः आप वृत्रासुरके वधपर आधारित जगदम्बाके माहात्म्यको कहिये ll 18 ll
व्यासजी बोले – हे राजन् ! आप धन्य हैं, जो कि आपकी इस प्रकारकी बुद्धि पुराणश्रवणमें अत्यन्त आदरपूर्वक लगी हुई है। श्रेष्ठ देवगण अमृतका पान करके पूर्ण तृप्त हो जाते हैं, परंतु आप इस कथामृतका बार-बार पान करके भी अतृप्त ही हैं। हे राजन्! महान् कीर्तिवाले आपका भक्तिभाव कथाओंमें दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। श्रोता जब एकाग्रमनसे सुनता है तब वक्ता भी प्रसन्नमनसे कथा कहता है ।। 19-20 ॥
पूर्वकालमें इन्द्र तथा वृत्रासुरका जो युद्ध हुआ था और निरपराध शत्रु वृत्रासुरका वध करके देवराज इन्द्रको जो दुःख प्राप्त हुआ था, वह वेद और | पुराण में प्रसिद्ध है ॥ 21 ॥जब मायाके बलसे मुनिगण भी मोहमें पड़ जाते हैं और वे पापभीरु होकर निरन्तर निन्दनीय कर्म करने लग जाते हैं तब हे राजन् ! विष्णु और वज्रधारी इन्द्रने छलसे त्रिशिरा और वृत्रासुरका वध कर दिया तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है ? ॥ 22 ॥
सत्त्वगुणके मूर्तिमान् विग्रह होते हुए भी भगवान् विष्णुने जिनकी मायासे मोहित होकर सदैव छलपूर्वक दैत्योंका संहार किया तब भला ऐसा कौन प्राणी होगा जो सब लोगोंको मोहमें डाल देनेवाली उन भगवती भवानीको अपने मनोबलसे जीतनेमें सक्षम हो सके ! ॥ 23 ॥
भगवतीकी ही प्रेरणासे नरऋषिके सखा नारायण भगवान् अनन्त हजारों युगोंमें मत्स्यादि योनियोंमें अवतार लेते हैं और कभी अनुकूल तथा कभी प्रतिकूल कार्य करते हैं ॥ 24 ॥
यह मेरा शरीर है, यह मेरा धन है, यह मेरा घर है, ये मेरे स्त्री-पुत्र और बन्धु बान्धव हैं - इस मोहमें पड़कर सभी प्राणी पुण्य तथा पापकर्म करते रहते हैं; क्योंकि अत्यन्त बलशाली मायागुणोंसे वे मोहित कर दिये गये हैं ॥ 25 ॥
हे राजन् ! इस पृथ्वीपर कार्य और कारणका विज्ञ कोई भी व्यक्ति [उन जगदम्बाकी मायाके] मोहसे छुटकारा नहीं पा सकता; क्योंकि भगवती महामायाके तीनों गुणोंसे मोहित होकर वह पूर्णरूपसे सदा उनके अधीन रहता है ॥ 26 ॥
इसलिये [उन्हीं देवीकी] मायासे मोहित होकर अपना स्वार्थ साधनेमें तत्पर रहनेवाले विष्णु और इन्द्रने छलपूर्वक वृत्रासुरको मार डाला। हे पृथ्वीपते ! अब मैं वृत्रासुर और इन्द्रके पारस्परिक पूर्ववैरके कारणकी कथा बताता हूँ ॥ 27-28 ॥
देवताओंमें श्रेष्ठ त्वष्टा नामके एक प्रजापति थे। वे महान् तपस्वी, देवताओंका कार्य करनेवाले, अति कुशल तथा ब्राह्मणोंके प्रिय थे ॥ 29 ॥
उन्होंने इन्द्रसे द्वेषके कारण तीन मस्तकोंसे सम्पन्न एक पुत्र उत्पन्न किया, जो विश्वरूप नामसे विख्यात हुआ। वह परम मनोहर रूपवाला था ॥ 30 ॥अपने तीन श्रेष्ठ तथा मनोहर मुखोंके कारण वह अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी देता था। वह मुनि अपने तीन मुखोंसे तीन भिन्न-भिन्न कार्य करता था। | वह एक मुखसे वेदाध्ययन करता था, एक मुखसे मधुपान करता था और तीसरे मुखसे सब दिशाओंका एक साथ निरीक्षण करता था ॥ 31-32 ॥
वह त्रिशिरा भोगका त्याग करके मृदु, संयमी और धर्मपरायण तपस्वी होकर अत्यन्त कठोर तप करने लगा ॥ 33 ॥
ग्रीष्मकालमें पंचाग्नि तापते, वृक्षकी डालीमें पैरके बल अधोमुख लटके रहते एवं हेमन्त और शिशिर ऋतुमें जलमें स्थित रहते थे। सब कुछ त्याग करके जितेन्द्रिय भावसे निराहार रहकर उस बुद्धिमान् [त्रिशिरा]ने मन्दबुद्धि प्राणियोंके लिये अत्यन्त दुष्कर तपस्या आरम्भ कर दी ।। 34-35 ।।
उसको तप करते देखकर शचीपति इन्द्र दुःखित हुए। उन्हें यह विषाद हुआ कि कहीं यह इन्द्र न बन जाय ॥ 36 ॥
उस अत्यन्त तेजस्वी [विश्वरूप] का तप, पराक्रम और सत्य देखकर इन्द्र निरन्तर इस प्रकार चिन्तित रहने लगे-उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता हुआ यह त्रिशिरा मुझे ही समाप्त कर देगा, इसीलिये बुद्धिमानोंने कहा है कि बढ़ते हुए पराक्रमवाले शत्रुकी कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये इसलिये | इसके तपके नाशका उपाय इसी समय करना चाहिये। कामदेव तपस्वियोंका शत्रु है, कामसे ही तपका नाश होता है। अतः मुझे वैसा ही करना चाहिये, जिससे यह भोगों में आसक्त हो जाय ॥ 37-393 ॥
ऐसा मनमें विचारकर बल नामक दैत्यका नाश करनेवाले उन बुद्धिमान् इन्द्रने त्वष्टाके पुत्र त्रिशिएको प्रलोभन डालनेके लिये अप्सराओंको आज्ञा दी। उन्होंने उर्वशी, मेनका रम्भा, घृताची, तिलोत्तमा आदिको बुलाकर कहा- अपने रूपपर गर्व करनेवाली हे अप्सराओ। आज मेरा कार्य आ पड़ा है, तुम सब मेरे उस प्रिय कार्यको सम्पन्न करो ।। 40-42 ॥ मेरा एक महान् दुर्ध शत्रु संयत होकर तपस्या कर रहा है। शीघ्र ही उसके पास जाओ और उसे प्रलोभित करो; इस प्रकार शीघ्र ही मेरा कार्य करो ।। 43 ।।अनेक प्रकारके शृंगार-वेषों तथा शरीरके हाव भावोंसे उसे प्रलोभित करो और मेरे मानसिक सन्तापको शान्त करो; तुमलोगोंका कल्याण हो ll 44 ll
हे महाभागा अप्सराओ! उसके तपोबलको जानकर मैं व्याकुल हो गया हूँ, वह बलवान् शीघ्र ही मेरा पद छीन लेगा ॥ 45 ॥
हे अबलाओ मेरे सामने यह भय आ गया है, तुमलोग शीघ्र ही इसका नाश कर दो। इस कार्यके आ पड़नेपर तुम सब मिलकर आज मेरा उपकार करो ।। 46 ।।
उनके इस वचनको सुनकर नारियाँ (अप्सराओं) - ने उन्हें नमन करते हुए कहा- हे देवराज! आप भय न करें, हम उसे प्रलोभनमें डालनेका प्रयत्न करेंगी ll 47 ll
हे महातेजस्विन्! जिस प्रकारसे आपको भय न हो, हम वैसा ही करेंगी। उस मुनिको लुभानेके लिये हम नृत्य, गीत और विहार करेंगी। हे विभो ! कटाक्षों और अंगोंकी विविध भंगिमाओंसे मुनिको मोहित करके उन्हें लोलुप, अपने वशीभूत तथा नियन्त्रणमें कर लेंगी ।। 48-49 ।।
व्यासजी बोले- इन्द्रसे ऐसा कहकर वे अप्सराएँ त्रिशिराके समीप गयीं और कामशास्त्रमें कहे गये विभिन्न प्रकारके हाव-भावका प्रदर्शन करने लगीं ॥ 50 ॥
वे अप्सराएँ मुनिके सम्मुख अनेक प्रकारके तालोंमें गाती और नाचती हुई उन्हें मोहित करनेके लिये विविध प्रकारके हाव-भाव करती थीं ॥ 51
किंतु उन तपस्वीने अप्सराओंकी चेष्टाको देखातक नहीं और इन्द्रियोंको वशमें करके वे गूँगे, अन्धे और बहरेकी तरह बैठे रहे।॥ 52 ॥
वे अप्सराएँ गान, नृत्य आदि मोहित करनेवाले प्रपंच करती हुई कुछ दिनोंतक उनके श्रेष्ठ आश्रममें रहीं ॥ 53 ॥
जब उनकी कामचेष्टाओंसे मुनि त्रिशिराका ध्यान विचलित नहीं हुआ, तब वे अप्सराएँ पुनः | लौटकर इन्द्रके सम्मुख उपस्थित हुई ॥ 54 ॥
अत्यन्त थकी हुई, दीन अवस्थावाली, भयभीत और उदास मुखवाली उन सबने हाथ जोड़कर देवराजसे इस प्रकार कहा- ॥ 55 ॥हे देवदेव! हे महाराज! हे विभो ! हमने महान् प्रयत्न किया, परंतु हम उस दुर्धर्ष मुनिको धैर्यसे विचलित करनेमें समर्थ नहीं हो पायीं ॥ 56 ॥
हे पाकशासन ! आपको कोई दूसरा ही उपाय करना चाहिये, उन जितेन्द्रिय तपस्वीपर हमारा कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सकता ॥ 57 ॥
हमारा बड़ा भाग्य है कि तपस्यासे अग्निके समान प्रकाशित होनेवाले उन महात्मा मुनिने हमें शाप नहीं दिया ॥ 58 ॥
अप्सराओंको विदा करके क्षुद्रबुद्धि तथा पापबुद्धि इन्द्र उसके ही वधका अनुचित उपाय सोचने लगे ॥ 59 ॥
हे राजन्! लोक-लज्जा और महान् पापके भयको छोड़कर उन्होंने उसके वधके लिये अपनी बुद्धिको पापमय बना दिया ॥ 60 ॥