View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 6, अध्याय 7 - Skand 6, Adhyay 7

Previous Page 134 of 326 Next

त्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना

व्यासजी बोले- इस प्रकार उसे गिरा हुआ देखकर मन-ही-मन हत्याके भयसे सशंकित भगवान् विष्णु वैकुण्ठलोकको चले गये॥ 1 ॥

तत्पश्चात् इन्द्र भी भयभीत होकर इन्द्रपुरीको चल दिये। उस शत्रु (वृत्रासुर) के मारे जानेपर मुनिगण भी भयग्रस्त हो गये कि हमने छलपूर्ण यह कैसा पापकृत्य कर डाला। इन्द्रका साथ देनेसे हमारा 'मुनि' नाम व्यर्थ हो गया ॥ 2-3 ॥

हमारी ही बातोंसे वृसुरको विश्वास आया; विश्वासघातीके संगसे हम सब भी विश्वासघाती हो गये ॥ 4 ॥पापकी जड़ और अनर्थकारी इस ममताको धिक्कार है, जिसके कारण हमलोगोंने छलपूर्वक शपथ ली और उस असुर (वृत्रासुर) को धोखा दिया ॥ 5 ॥

पाप करनेका परामर्श देनेवाला, पाप करनेके लिये बुद्धि देनेवाला, पापकी प्रेरणा देनेवाला तथा पाप करनेवालोंका पक्ष लेनेवाला भी निश्चय ही पापकर्ताके समान पापभाजन होता है ॥ 6 ॥

वज्रमें प्रविष्ट होकर वृत्रकी हत्या करनेमें सत्त्वगुणके मूर्तरूप भगवान् विष्णुने इन्द्रकी सहायता की और उसे मारा, अतः उन्होंने भी पाप किया ॥ 7 ॥

स्वार्थपरायण प्राणी पापसे भयभीत नहीं होता। विष्णुने इन्द्रका साथ देकर सर्वथा दुष्कृत कर्म किया ॥ 8 ॥

चार पदार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) मेंसे दो ही रह गये हैं और दो समाप्त हो गये हैं। उनमें भी प्रथम पदार्थ धर्म और चतुर्थ पदार्थ मोक्ष दोनों त्रिलोकमें दुर्लभ ही हो गये हैं ॥ 9 ॥

अर्थ और काम ही सबके प्रिय और प्रशस्त माने गये हैं। धर्म और अधर्मकी विवेचना- यह बड़े लोगोंका वाचिक दम्भमात्र ही रह गया है ॥ 10 ll

इस प्रकार मुनिगण भी बार-बार मनमें सन्ताप करके उदासमनसे हतोत्साह होकर अपने-अपने आश्रमोंको चले गये 11 हे भारत! उधर अपने पुत्रको इन्द्रद्वारा मारा गया सुनकर त्वष्टा दुःखसे सन्तप्त होकर अत्यन्त दुःखित
हो रोने लगे; उन्हें इससे बहुत वेदना हुई 12 ॥ तदनन्तर जहाँ वह (वृत्र) गिरा पड़ा था, वहाँ जाकर उसे उस स्थितिमें देखकर त्वष्टाने विधिपूर्वक उसका पारलौकिक संस्कार कराया ॥ 13 ॥

तत्पश्चात् स्नान करके, जलाञ्जलि देकर उसका और्ध्वदैहिक कर्म सम्पन्न करनेके पश्चात् उन शोकसन्तप्त त्वष्टाने पापी और मित्रघाती इन्द्रको इस प्रकार शाप दे दिया कि जिस प्रकार शपथोंसे प्रलोभितकर इन्द्रने मेरे पुत्रको मार डाला है, उसी प्रकार वह भी विधाताद्वारा दिये हुए महान् दुःख प्राप्त करे ।। 14-15 ॥इस प्रकार देवराज इन्द्रको शाप देकर सन्तप्त त्वष्टा सुमेरुपर्वतके शिखरका आश्रय लेकर अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगे ॥ 16 ॥

जनमेजय बोले- हे पितामह। वृत्रासुरको मारनेके बाद इन्द्रकी क्या दशा हुई? उन्हें बादमें सुख मिला या दुःख, इसे मुझे बताइये ॥ 17 ॥

व्यासजी बोले- हे महाभाग ! तुम क्या पूछ रहे हो, [इस विषयमें] तुम्हें क्या सन्देह है? किये गये | शुभ-अशुभ कर्मका फल तो अवश्य ही भोगना पड़ता है देवता, राक्षस और मनुष्यसहित बलवान् या दुर्बल कोई भी हो सभीको अपने द्वारा किये गये अत्यन्त अल्प या अधिक कर्मका फल सर्वथा भोगना ही पड़ता है ॥ 18-19 ॥

भगवान् विष्णुने वृत्रघाती इन्द्रको इस प्रकारकी |मति प्रदान की थी। वे विष्णु उनके वज्रमें प्रविष्ट हुए थे तथा उनके सहायक बने थे; परंतु विपत्तिमें उन्होंने किसी भी तरह सहायता नहीं की। हे राजन् ! इस संसारमें अच्छे समयमें सभी लोग अपने बन जाते हैं, किंतु दैवके प्रतिकूल होनेपर कोई भी सहायक नहीं होता पिता, माता, पत्नी, सहोदर भाई, सेवक, मित्र एवं औरस पुत्र कोई भी दैवके प्रतिकूल हो जानेपर सहायता नहीं करता। पाप या पुण्य करनेवाला ही उसका भागी होता है ॥ 20 - 233 ॥

वृत्रके मारे जानेपर अन्य सभी लोग चले गये इन्द्र तेजहीन हो गये। सभी देवता उसकी निन्दा करने लगे और 'यह ब्रह्महत्यारा है'- ऐसा मन्द स्वरमें कहने लगे। कौन ऐसा होगा जो शपथ खाकर और वचन देकर अत्यन्त विश्वासमें आये हुए तथा मित्रताको प्राप्त मुनिको मारनेकी इच्छा करेगा! उसकी यह बात देवताओंको सभामें, देवोद्यानमें तथा गन्धयोंकि समाज सर्वत्र फैल गयी। हत्या करनेकी इच्छावाले इन्द्रने आज यह कैसा दुष्कृत कर्म कर डाला। मुनियोंके द्वारा विश्वास दिलाये गये वृत्रासुरको छलपूर्वक मार करके (मानो) इन्द्रने वेदोंकी प्रामाणिकताका त्यागकर सौगतोंका मत स्वीकार कर लिया। इन्द्रने छल करके अत्यन्त साहससे शत्रुकोमार डाला। वचन देकर भी जिस प्रकार [छलपूर्वक ] यह वृत्रासुर मारा गया, वैसा विपरीत आचरण इन्द्र और विष्णुके अतिरिक्त कौन होगा, जो कर सकता है। इस प्रकारकी कथाएँ तथा और भी बातें लोगों में व्यापक रूपसे होने लगीं ॥ 24-30 ॥

इन्द्र भी अपनी कीर्ति नष्ट करनेवाली तरह तरहकी बातें सुनते रहे। संसारमें जिसकी कीर्ति नष्ट हो गयी, उसके कलुषित जीवनको धिक्कार है। रास्तेमें जाते हुए ऐसे व्यक्तिको देखकर शत्रु हँस पड़ता है। राजर्षि इन्द्रद्युम्नने कोई पाप नहीं किया था फिर भी कीर्ति नष्ट हो जानेसे वे स्वर्गसे गिर गये थे; तब पाप करनेवाला कैसे नहीं गिरेगा ? राजा ययातिका बहुत थोड़ेसे अपराधपर पतन हो गया था। इसी प्रकार एक राजाको अठारह युगौतक केकड़ेकी योनिमें रहना पड़ा था। भृगुकी पत्नीका मस्तक काटनेके कारण अच्युत भगवान् श्रीहरिको ब्रह्मशापसे मकर आदि रूपोंमें पशुयोनिमें जन्म लेना पड़ा। विष्णुको भी वामन होकर याचनाके लिये बलिके घर जाना पड़ा; तब यदि कुकर्मी मनुष्य दुःख पाये तो क्या आश्चर्य है! हे भारत ! श्रीरामचन्द्रजीको भी भृगुके शापसे वनवासकालमें सीतासे वियोगका महान् कष्ट उठाना पड़ा। उसी प्रकार इन्द्रको भी ब्रह्महत्याजनित महान् भय प्राप्त करके समस्त सिद्धियोंसे युक्त भवनमें भी सुख नहीं प्राप्त होता था। उन्हें दीर्घ श्वास लेते, भयग्रस्त, चेतनारहित, खिन्नमनस्क और सभामें न जाते देखकर शचीने पूछा- हे प्रभो ! आजकल आप भयभीत क्यों रहते हैं, आपका भयंकर शत्रु तो मर गया है। हे कान्त हे शत्रुहन्ता आपको क्या चिन्ता है? हे लोकेश साधारण मनुष्यकी भाँति लम्बी लम्बी साँसें लेते हुए आप शोक क्यों करते हैं ? आपका कोई बलवान् शत्रु भी तो नहीं है, जिससे आप चिन्ताकुल हों ॥ 31-40 3 ॥ इन्द्र बोले - हे राज्ञि ! यद्यपि अब मेरा कोई बलवान् शत्रु नहीं है तथापि ब्रह्महत्याके भयसे मैं निरन्तर डरता रहता हूँ। घरमें रहते हुए भी मुझे न सुख है और न शान्ति। नन्दनवन, अमृत, घर तथा वन- कुछ भी मुझे सुखकर नहीं लगता। गन्धवकागान और अप्सराओंका नृत्य तथा यहाँतक कि तुम और अन्य देवांगनाएँ भी मुझे सुखकर नहीं लगतीं। न कामधेनु और न ही कल्पवृक्ष मुझे सुख प्रदान करते हैं। मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, मुझे शान्ति कहाँ मिलेगी हे प्रिये इसी चिन्तामें पड़ा हुआ मैं अपने मनमें शान्ति नहीं प्राप्त कर पा रहा हूँ ॥ 41-446 ॥

व्यासजी बोले- अत्यन्त घबरायी हुई अपनी प्रिय पत्नीसे ऐसा कहकर मूढ इन्द्र घरसे निकल पड़े और उत्तम मानसरोवरको चले गये। भयसे पीडित और शोकसन्तप्त होकर वे एक कमलनालमें प्रविष्ट हो गये। पापकर्मोंसे पराभूत हुए देवराज इन्द्रको कोई जान नहीं सका। वे सर्पके समान चेष्टा करते हुए जलमें छिपकर रह रहे थे। उस समय वे इन्द्र असहाय, चिन्तित और व्याकुल इन्द्रियोंवाले हो गये । 45 - 47 ॥

ब्रह्महत्याके भयसे दुःखी होकर देवराज इन्द्रके अदृश्य हो जानेपर देवगण चिन्तातुर हो उठे तथा अनेक प्रकारके उत्पात होने लगे। ऋषि, सिद्ध और गन्धर्वगण भी अत्यन्त भयभीत हो गये । उपद्रवोंके होनेसे सम्पूर्ण जगत् अराजकतासे ग्रस्त हो गया। उस समय अनावृष्टि उपस्थित हो गयी और पृथ्वी वैभवशून्य हो गयी, नदियोंके स्रोत सूख गये और तालाब बिना जलके हो गये-इस प्रकारकी अराजकताको देखकर स्वर्गके देवताओं और मुनियोंने विचार करके नहुषको इन्द्र बना दिया । ll 48-516 ll

राज्य प्राप्त करनेपर राजा नहुष धर्मात्मा होते हुए भी राजसी वृत्तिके कारण कामवाणसे आहत हो विषयासक्त हो गये। हे भारत! देवोद्यानोंमें क्रीडारत रहते हुए वे | सदा अप्सराओंसे घिरे रहते थे ।। 52-53 ॥

उस राजा नहुषके मनमें इन्द्राणी शचीके गुणोंको सुनकर उन्हें प्राप्त करनेकी इच्छा हुई। उसने ऋषियोंसे | कहा- मेरे पास इन्द्राणी क्यों नहीं आती? आपलोग और देवताओंने मुझे इन्द्र बनाया, इसलिये हे देवताओ! शचीको मेरी सेवाके लिये भेजिये हे मुनियो तथा | देवताओ! आपलोगोंको मेरा प्रिय कार्य अवश्य करना चाहिये। इस समय मैं देवताओंका इन्द्र और समस्त लोकोंका स्वामी हूँ: शची शीघ्र ही आज मेरे भवनमें आ जायें ।। 54-563 ॥उसकी यह बात सुनकर चिन्तासे व्याकुल देवता तथा ऋषिगण शचीके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके कहने लगे - हे इन्द्रपत्नि! दुराचारी नहुष इस समय आपकी कामना करता है। उसने क्रुद्ध होकर हमसे यह बात कही है 'शचीको यहाँ भेज दीजिये ।' हम उसके अधीन हैं, अत: कर ही क्या सकते हैं; क्योंकि उसे इन्द्र बना दिया गया है ।। 57 - 59 ॥

यह सुनकर दुःखितमन शचीने बृहस्पतिसे कहा 'हे ब्रह्मन् ! नहुषसे मेरी रक्षा कीजिये; मैं आपकी | शरणमें हूँ' ॥ 60 ॥ बृहस्पति बोले - हे देवि पापसे मोहित नहुषसे
तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। हे पुत्रि ! मैं सनातनधर्मका
त्यागकर तुम्हें उसको नहीं दूँगा ॥ 61 ॥

जो अधम मनुष्य शरणमें आये हुए तथा दुःखी प्राणीको दूसरोंको सौंप देता है वह प्रलयपर्यन्त नरकमें वास करता है। अतः हे पृथुश्रोणि! तुम निश्चिन्त रहो, मैं तुम्हारा त्याग कभी नहीं करूँगा ॥ 62 ॥

Previous Page 134 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] त्रिशिराकी तपस्यासे चिन्तित इन्द्रद्वारा तपभंगहेतु अप्सराओंको भेजना
  2. [अध्याय 2] इन्द्रद्वारा त्रिशिराका वध, क्रुद्ध त्वष्टाद्वारा अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे हवन करके वृत्रासुरको उत्पन्न करना और उसे इन्द्रके वधके लिये प्रेरित करना
  3. [अध्याय 3] वृत्रासुरका देवलोकपर आक्रमण, बृहस्पतिद्वारा इन्द्रकी भर्त्सना करना और वृत्रासुरको अजेय बतलाना, इन्द्रकी पराजय, त्वष्टाके निर्देशसे वृत्रासुरका ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये तपस्यारत होना
  4. [अध्याय 4] तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीका वृत्रासुरको वरदान देना, त्वष्टाकी प्रेरणासे वृत्रासुरका स्वर्गपर आक्रमण करके अपने अधिकारमें कर लेना, इन्द्रका पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकरके साथ वैकुण्ठधाम जाना
  5. [अध्याय 5] भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णुका इन्द्रको वृत्रासुरसे सन्धिका परामर्श देना, ऋषियोंकी मध्यस्थतासे इन्द्र और वृत्रासुरमें सन्धि, इन्द्रद्वारा छलपूर्वक वृत्रासुरका वध
  7. [अध्याय 7] त्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना
  8. [अध्याय 8] इन्द्राणीको बृहस्पतिकी शरणमें जानकर नहुषका क्रुद्ध होना, देवताओंका नहुषको समझाना, बृहस्पतिके परामर्शसे इन्द्राणीका नहुषसे समय मांगना, देवताओंका भगवान् विष्णुके पास जाना और विष्णुका उन्हें देवीको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेधयज्ञ करने को कहना, बृहस्पतिका शचीको भगवतीकी आराधना करनेको कहना, शचीकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीका प्रकट होना और शचीको इन्द्रका दर्शन होना
  9. [अध्याय 9] शचीका इन्द्रसे अपना दुःख कहना, इन्द्रका शचीको सलाह देना कि वह नहुषसे ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें आनेको कहे, नहुषका ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्रका पुनः स्वर्गाधिपति बनना
  10. [अध्याय 10] कर्मकी गहन गतिका वर्णन तथा इस सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका उदाहरण
  11. [अध्याय 11] युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन
  12. [अध्याय 12] पवित्र तीर्थोका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना
  13. [अध्याय 13] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्रसे प्राप्त वरुणमन्त्र जपसे शुनःशेपका मुक्त होना, परस्पर शापसे विश्वामित्र और वसिष्ठका बक तथा आडी होना
  14. [अध्याय 14] राजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना
  15. [अध्याय 15] भगवतीकी कृपासे निमिको मनुष्योंके नेत्र पलकोंमें वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियोंकी त्रिगुणात्मकताका वर्णन
  16. [अध्याय 16] हैहयवंशी क्षत्रियोंद्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणोंका संहार
  17. [अध्याय 17] भगवतीकी कृपासे भार्गव ब्राह्मणीकी जंघासे तेजस्वी बालककी उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियोंकी उत्पत्तिकी कथा
  18. [अध्याय 18] भगवती लक्ष्मीद्वारा घोड़ीका रूप धारणकर तपस्या करना
  19. [अध्याय 19] भगवती लक्ष्मीको अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुके दर्शन और उनका वैकुण्ठगमन
  20. [अध्याय 20] राजा हरिवर्माको भगवान् विष्णुद्वारा अपना हैहयसंज्ञक पुत्र देना, राजाद्वारा उसका 'एकवीर' नाम रखना
  21. [अध्याय 21] आखेटके लिये वनमें गये राजासे एकावलीकी सखी यशोवतीकी भेंट, एकावलीके जन्मकी कथा
  22. [अध्याय 22] यशोवतीका एकवीरसे कालकेतुद्वारा एकावलीके अपहृत होनेकी बात बताना
  23. [अध्याय 23] भगवतीके सिद्धिप्रदायक मन्यसे दीक्षित एकवीरद्वारा कालकेतुका वध, एकवीर और एकावलीका विवाह तथा हैहयवंशकी परम्परा
  24. [अध्याय 24] धृतराष्ट्रके जन्मकी कथा
  25. [अध्याय 25] पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन
  26. [अध्याय 26] देवर्षि नारद और पर्वतमुनिका एक-दूसरेको शाप देना, राजकुमारी दमयन्तीका नारदसे विवाह करनेका निश्चय
  27. [अध्याय 27] वानरमुख नारदसे दमयन्तीका विवाह, नारद तथा पर्वतका परस्पर शापमोचन
  28. [अध्याय 28] भगवान् विष्णुका नारदजीसे मायाकी अजेयताका वर्णन करना, मुनि नारदको मायावश स्त्रीरूपकी प्राप्ति तथा राजा तालध्वजका उनसे प्रणय निवेदन करना
  29. [अध्याय 29] राजा तालध्वजसे स्त्रीरूपधारी नारदजीका विवाह, अनेक पुत्र-पौत्रोंकी उत्पत्ति और युद्धमें उन सबकी मृत्यु, नारदजीका शोक और भगवान् विष्णुकी कृपासे पुनः स्वरूपबोध
  30. [अध्याय 30] राजा तालध्वजका विलाप और ब्राह्मणवेशधारी भगवान् विष्णुके प्रबोधनसे उन्हें वैराग्य होना, भगवान् विष्णुका नारदसे मायाके प्रभावका वर्णन करना
  31. [अध्याय 31] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना