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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 12, अध्याय 7 - Skand 12, Adhyay 7

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दीक्षाविधि

नारदजी बोले - [ हे भगवन्!] मैंने यह श्रीगायत्रीदेवीका सहस्रनामसंज्ञक श्रेष्ठ फल प्रदान करनेवाला, महान् उन्नतिकी प्राप्ति करानेवाला तथा महान् भाग्योदय करनेवाला स्तोत्र सुन लिया। अब मैं दीक्षाका उत्तम लक्षण सुनना चाहता हूँ; जिसके बिना ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा स्त्रियोंको देवीमन्त्र जपनेका अधिकार प्राप्त नहीं होता। अतः हे प्रभो! सामान्य विधिसे [ दीक्षासम्बन्धी] सम्पूर्ण प्रसंगका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ 1-3 ॥

श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] सुनिये, मैं आपको पुण्यात्मा शिष्योंके दीक्षा लेनेका विधान बता रहा हूँ, जिससे उन्हें देवता, अग्नि तथा गुरुकी पूजा आदिका अधिकार प्राप्त हो जाता है ॥ 4॥

जो दिव्य ज्ञान दे और जो पापोंका क्षय करे, उसीको वेदतन्त्रोंके पारगामी विद्वानोंने 'दीक्षा' इस नामकी संज्ञा दी है ॥ 5 ॥दीक्षा अवश्य लेनी चाहिये; क्योंकि यह अनेक फल प्रदान करनेवाली बतायी गयी है। इस दीक्षाग्रहणकार्य में गुरु तथा शिष्य दोनों ही अत्यन्त शुद्ध भाववाले होने चाहिये ॥ 6 ॥

गुरुको चाहिये कि प्रातः कालीन सम्पूर्ण कृत्य विधिवत् सम्पन्न करके पुनः विधानके अनुसार स्नान तथा सन्ध्या आदि करनेके अनन्तर हाथमें कमण्डलु लेकर मौनभावसे नदीतटसे घरपर आये और यज्ञमण्डपमें पहुँचकर वहाँ एक उत्तम आसनपर बैठ जाय ॥ 7-8 ॥

तदनन्तर आचमन तथा प्राणायाम करके 'ॐ फट्' इस अस्त्रमन्त्रको सात बार जपते हुए गन्ध और पुष्पसे मिश्रित जलको अभिमन्त्रित करे। पुनः बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि अस्त्रमन्त्रका उच्चारण करते हुए उसी जलसे सम्पूर्ण द्वारका प्रोक्षण करे और उसके बाद पूजन करे ॥ 9-10 ॥

दरवाजेके ऊपरी भागमें भगवान् गणेश, लक्ष्मी तथा सरस्वतीका पूजन नाममन्त्रोंका उच्चारण करते हुए गन्ध तथा पुष्प आदि अर्पित करके करना चाहिये। तत्पश्चात् द्वारकी दक्षिणशाखामें भगवती गंगा और विघ्नेश्वर गणेशकी एवं द्वारकी वामशाखामें क्षेत्रपाल तथा सूर्यपुत्री यमुनाकी पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार देहलीपर अस्त्रमन्त्रसे अस्त्रदेवताकी पूजा करे। सब ओर ऐसी भावना करे कि सम्पूर्ण दृश्य जगत् देवीमय ही है॥। 11 - 13 ॥

पुनः अस्त्रमन्त्र के जपद्वारा दैवीविघ्नोंका उच्छेद करे और पदके आघातोंसे अन्तरिक्ष तथा भूतलके विघ्नोंका अपसारण करे ll 14 ॥

इसके बाद द्वारदेशकी बायीं शाखाका स्पर्श करते हुए पहले दाहिना पैर रखकर मण्डपमें प्रवेश करे। भीतर प्रवेश करके जलका कलश रखकर सामान्य अर्घ्य बना ले और उसी अर्घ्यजलसे तथा गन्ध-पुष्प-अक्षत आदिसे नैर्ऋत्य दिशामें वास्तुके स्वामी पद्मयोनि ब्रह्माकी पूजा करे ।। 15-16 ॥

तत्पश्चात् पंचगव्य बनाना चाहिये और पुनः गुरुका उस पंचगव्य तथा अयं जलके द्वारा तोरणसे लेकर स्तम्भतक उस मण्डपका प्रोक्षण करना चाहिये।उस समय मनमें यह भावना करे कि यह सब कुछ देवीमय है। भक्तिपूर्वक मूलमन्त्रका जप करते अस्त्रमन्त्रसे प्रोक्षण करना चाहिये ॥ 17-18 ॥

अस्त्रमन्त्रका उच्चारण करके मण्डपभूमिका ताडन करे और इसके बाद 'हुम्'- इस मन्त्रका उच्चारण करके उसपर जलके छींटे दे। तदनन्तर धूप आदि सुगन्धित पदार्थोंसे धूपित करे और विघ्नकी शान्तिहेतु जल, चन्दन, सरसों, अक्षत, दूर्वा और भस्म वहाँ विकिरित कर दे। पुनः कुशकी निर्मित मार्जनीसे उनका मार्जन करे हे मुने! उन मार्जित द्रव्योंको एकत्र करके ईशान दिशामें किसी उचित स्थानपर रख दे। तत्पश्चात् पुण्याहवाचन करके दीनों और अनाथोंको सन्तुष्ट करे ।। 19 - 21 ॥

इसके बाद पूर्व दिशाकी ओर मुख करके कोमल आसनपर बैठना चाहिये और अपने गुरुको नमस्कार करके देयमन्त्रके देवताका विधिवत् ध्यान करना चाहिये ॥ 22 ॥

हे मुने! पूर्वोक्त विधिसे ही भूतशुद्धि आदि क्रिया करके देयमन्त्रके ऋषि आदिका न्यास करना चाहिये ॥ 23 ॥

मस्तकमें देयमन्त्रके ऋषिका, मुखमें छन्दका, हृदयकमलमें देवताका, गुझमें बीजका और दोनों पैरोंमें शक्तिका न्यास करके तीन बार ताली बजाये, फिर साधक पुरुषको चाहिये कि तीन बार चुटकी बजाकर दिग्बन्ध करे ।। 24-25 ।।

तत्पश्चात् प्राणायाम करके मूलमन्त्रका स्मरण करते हुए अपनी देहमें मातृकाका न्यास करना चाहिये। उसकी विधि इस प्रकार बतायी जा रही है। हे मुने! मन्त्रवित्को चाहिये कि 'ॐ अं नमः' का | उच्चारण करके सिरमें मातृकान्यास करे, इसी प्रकार शरीरके सभी अंगोंमें न्यास करे॥ 26-27॥

श्रेष्ठ पुरुषको चाहिये कि अंगुष्ठ आदि अँगुलियों और हृदय आदि अंगोंमें क्रमशः मूलमन्त्रसे षडंगन्यास करे ॥ 28 ॥

'नमः, स्वाहा, वषट्, हुं, वौषट् और फट्' इन पदोंके साथ 'ॐ' लगे हुए छ: मन्त्रोंसे ही पढंगन्यास करना चाहिये। तदनन्तर देय मूलमन्त्रके वर्णोंसे तत्तत् कल्पित स्थानोंमें न्यास करे, यही | न्यासकी विधि कही गयी है ।। 29-30 ॥तदनन्तर अपने इस शरीरमें एक पवित्र आसनकी भावना करनी चाहिये। हे मुने! इसके दक्षिण भागमें धर्म, वामभागमें ज्ञान, वाम ऊरूमें वैराग्य और दक्षिण ऊरूमें ऐश्वर्यका न्यास करना चाहिये। मुखदेशमें धर्मका न्यास करना चाहिये। साथ ही वामपार्श्व, नाभिस्थल तथा दक्षिणपार्श्वमें नञ् समासपूर्वक क्रमशः धर्म, ज्ञान तथा वैराग्यका (अर्थात् अधर्म आदिका) न्यास करना चाहिये ॥ 31-33 ॥

हेमुने! उस आसनके ये धर्मादि पाये कहे गये हैं तथा मुनिश्रेष्ठोंने अधर्म आदिको उसका शरीर बताया है ॥ 34 ॥

तत्पश्चात् ऐसी भावना करे कि इस अत्यन्त सुकोमल आसनके मध्यमें हृदय है, जिसमें भगवान् अनन्त विराजमान हैं। पुनः उस अनन्तमें प्रपंचमय विमल कमलका चिन्तन करे और साधकको चाहिये कि उस कमलके ऊपर कलायुक्त सूर्य, चन्द्रमा और अग्निकी भावना करे। अब मैं संक्षेपमें उन कलाओंके विषयमें बताता हूँ। सूर्यकी बारह, चन्द्रमाकी सोलह और अग्निकी दस कलाएँ कही गयी हैं। उन कलाओंके साथ उन सूर्य आदिका भी स्मरण करना चाहिये। इसके बाद उनके ऊपर सत्त्व, रज और तमका न्यास करना चाहिये पुनः विद्वान् पुरुषको चाहिये कि उस पीठकी चारों दिशाओंमें आत्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा और ज्ञानात्माका न्यास करे। इस प्रकार पीठकी कल्पना करनी चाहिये ॥ 35-38 ॥ तदनन्तर साधक पुरुष 'अमुकासनाय नमः'— इस मन्त्रसे शरीररूपी आसनकी पूजा करके उसपर पराम्बिकाका ध्यान करे। इसके बाद मन्त्रवित्को चाहिये कि कल्पोक्त विधिसे मानसिक उपचारोंद्वारा देयमन्त्रके देवता उन भगवतीकी विधिपूर्वक पूजा करे ।। 39-40 ।।

तदनन्तर विद्वान् पुरुष प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाली कल्पोक्त मुद्राएँ प्रदर्शित करे, जिन्हें बनाकर प्रदर्शित करनेसे देवीको परम प्रसन्नता होती है ॥ 41 ॥

श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] तत्पश्चात् अपने वामभागके अग्रस्थानमें षट्कोण चक्र बनाये और उसके ऊपर एक गोल चक्र बनाये और उसकेऊपर चतुष्कोण मण्डलका निर्माण करे। तत्पश्चात् उस मण्डलके मध्यमें त्रिकोण लिखकर शंखमुद्रा प्रदर्शित करे और छ: कोणोंमें छः अंगोंकी पुष्प आदिसे पूजा करे। हे मुनिश्रेष्ठ ! अग्नि आदि कोणोंमें छः अंगोंका अर्चन करे। तत्पश्चात् शंख रखनेका पात्र लेकर 'फट्'- इस अस्त्रमन्त्रसे प्रोक्षण करके उसे मण्डलमें स्थापित करे। 'मं वह्निमण्डलाय नमः ' मन्त्र पढ़कर 'दशकलात्मने अमुकदेव्या अर्घ्यपात्रस्थानाय नमः ' इसका उच्चारण करना चाहिये। विद्वान् पुरुषोंने शंखके आधारस्थापनके लिये यही मन्त्र बताया है। आधारदेशमें पूर्वसे आरम्भ करके दक्षिणके क्रमसे अग्निमण्डलमें निवास करनेवाली दसों अग्निकलाओंकी पूजा करनी चाहिये ॥ 42–47 ॥ तत्पश्चात् मूलमन्त्रद्वारा प्रोक्षित किये गये उत्तम शंखको वहीं आधारपर मूलमन्त्रका स्मरण करते हुए रख देना चाहिये। फिर 'अं सूर्यमण्डलाय नमः' कहकर 'द्वादशान्ते कलात्मने अमुकदेव्यर्घ्यपात्राय नमः ' इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये ।। 48-49 ।।

इसके बाद 'शं शङ्खाय नमः' इस पदका उच्चारण करके उसीसे उस शंखका प्रोक्षण करे और उस शंखमें सूर्यकी 'तपिनी' आदि बारह कलाओंकी यथाक्रम रीतिसे पूजा करे। फिर विलोम मातृका और विलोम मूलमन्त्रका उच्चारण करके शंखको जलसे भर दे और उसमें चन्द्रमाकी कलाओंका न्यास करे। 'ॐ सोममण्डलाय षोडशकलात्मने अमुकार्थ्यामृताय हृदयाय नमः' यह मन्त्रका रूप बतलाया गया है। उसी मन्त्रके द्वारा अंकुशमुद्रासे जलकी पूजा करनी चाहिये ॥ 50 - 53 ॥

वहींपर तीर्थोंका आवाहन करके आठ बार इस मन्त्रका जप करे। फिर जलमें षडंगन्यास करके 'हृदयाय नमः' इस मन्त्रसे जलका पूजन करना चाहिये ॥ 54 ॥

तत्पश्चात् आठ बार मूलमन्त्रका जप करके मत्स्य मुद्रासे जलको ढक दे, फिर दक्षिणभागमें | शंखकी प्रोक्षणी रखे। शंखसे कुछ जल लेकर उसके | द्वारा सब ओर प्रोक्षण करे। पूजन-सामग्री और अपने शरीरका भी उस जलसे प्रोक्षण करे। तत्पश्चात् अपने शरीरकी परमशुद्धिकी कल्पना कर ले ॥ 55-56 ॥श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] इसके बाद अपने सामने वेदीपर 'सर्वतोभद्रमण्डल' बनाकर उसकी कर्णिकाके मध्यभागको अगहनी धानके चावलसे भर | दे। वहीं पर 'कूर्च' संज्ञावाले कुशोंको स्थापित करके 'ॐ आधारशक्तये नमः', 'ॐ मूलप्रकृत्यै नमः', 'ॐ कूर्माय नमः', 'ॐ शेषाय नमः' 'ॐ क्षमायै नमः', 'ॐ सुधासिन्धवे नमः', 'ॐ दुर्गादेवीयोग पीठाय नमः - इन मन्त्रोंका उच्चारण करके पीठका पूजन करें ।। 57-58 ।।

तदनन्तर छिद्ररहित कलश हाथमें लेकर 'फट्' इस अस्त्रमन्त्रसे अभिमन्त्रित जलके द्वारा उसे प्रक्षालित करे। इसके बाद तिगुने रक्तसूत्रसे उस कलशको आवेष्टित करे। उस कलशमें नवरत्न तथा कूर्च डालकर गन्ध आदिसे उसका पूजनकर प्रणवमन्त्रका उच्चारण करते हुए उस पीठपर कलशको साधक स्थापित कर दे । ll 59-60 ॥

हे मुने ! तत्पश्चात् कलश और पीठमें ऐक्यकी भावना करे; फिर प्रतिलोमके क्रमसे मातृकामन्त्रका उच्चारण करते हुए तीर्थके जलसे उस कलशको भर दे। देव- बुद्धिसे मूलमन्त्रका जप करके उस कलशको पूर्ण करे। तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि पीपल, कटहल तथा आमके कोमल नवीन पल्लवोंसे कलशका मुख आच्छादित कर दे और उसके ऊपर फल और अक्षतसहित पात्र रखकर दो वस्त्रोंसे उस कलशको वेष्टित कर दे ॥ 61-63 ॥

तदनन्तर प्राणप्रतिष्ठाके मन्त्रसे प्राणप्रतिष्ठाकी क्रिया सम्पन्न करे; फिर आवाहन आदि मुद्राओंसे परादेवता भगवतीको प्रसन्न करे। इसके बाद कल्पोक्तविधिसे उन परमेश्वरीका ध्यान करे और उन भगवतीके आगे स्वागत तथा कुशल प्रश्न- सम्बन्धी वाक्योंका उच्चारण करे ।। 64-65 ।।

तत्पश्चात् पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क और अभ्यंगसहित स्नान आदि देवीको निवेदित करे। इसके बाद उन्हें रक्तवर्णवाले तथा स्वच्छ दो रेशमी वस्त्र प्रदान करके नानाविध मणियोंसे जटित आभूषण कल्पित करने चाहिये ।। 66-67 ॥
तदनन्तर मन्त्र- पुटित वर्णोंद्वारा विधिपूर्वक देवीके अंगोंमें मातृकाका न्यास करके चन्दन आदि उपचारोंसे भलीभाँति उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ 68 ॥

हे मुने! काले अगुरु तथा कपूरसे युक्त गन्ध, कस्तूरीयुक्त केसर, चन्दन, कुन्दपुष्प तथा अन्य प्रकारके पुष्प आदि परा भगवतीको अर्पित करे। अगुरु, गुग्गुल, उशीर तथा चन्दनके चूर्ण में शर्करा और मधु मिलाकर बनाया गया धूप देवीके लिये सदा अत्यन्त प्रिय कहा गया है। विद्वान् पुरुष अनेक प्रकारके दीपक प्रदर्शित करके देवीको नैवेद्य अर्पण करे। प्रत्येक पूजन-द्रव्यमें प्रोक्षणीमें स्थित कुछ जल अवश्य छोड़े, अन्य जलका प्रयोग न करे। तत्पश्चात् अंगपूजा तथा कल्पोक्त- आवरणपूजा करे ।। 69-72 ।।

देवीकी सांगपूजा करनेके बाद विश्वेदेवकी पूजा करे। तदनन्तर दक्षिण दिशामें वेदी बनाकर उसपर अग्नि- स्थापन करके कलशस्थित देवताका आवाहनकर क्रमसे अर्चन करे। इसके बाद प्रणवपूर्वक व्याहृतियाँसहित मूलमन्त्रका उच्चारण करते हुए घृतसहित खीरकी पचीस आहुतियाँ दे; तत्पश्चात् हे मुने! व्याहृति मन्त्रोंसे हवन करे ॥ 73–75 ॥

तदनन्तर गन्ध आदि उपचारोंसे देवीकी पूजा करके उन्हें उस पीठपर विराजित करे। उसके बाद अग्निको विसर्जित करके वहाँ होमसे अवशिष्ट खीरको बलि-प्रदानके रूपमें चारों ओर बिखेर दे ॥ 76 ॥

प्रधान देवताके पार्षदोंको गन्ध-पुष्प आदिसे युक्त पंचोपचार अर्पण करके उन्हें ताम्बूल, छत्र तथा चामर समर्पित करे। इसके बाद देवीके मन्त्रका एक हजार जप करे। परमेश्वरीको वह जप समर्पित करके ईशान दिग्भागमें स्थित विकिरके ऊपर कर्करी (करवा) स्थापित करे और उसके ऊपर भगवती दुर्गाका आवाहन करके उनका पूजन करे। तत्पश्चात् 'रक्ष रक्ष' - इस मन्त्रका उच्चारण करके उस करवेकी | टोंटीसे जल गिराते हुए तथा 'फट्' मन्त्रका जप करते हुए दाहिनी ओरके मण्डपस्थानको सींचे। इसके बाद कर्करीको अपनी जगह रख दे और अस्त्रदेवताका पूजन करे ।। 77-80 ॥तदनन्तर गुरु मौन होकर शिष्यके साथ भोजन करे और उस रात उसी वेदीपर प्रयत्नपूर्वक शयन करे ॥ 81 ॥ श्रीनारायणजी बोले- हे मुने! अब मैं कुण्ड तथा वेदीके विधि-विधानसे किये जानेवाले संस्कारका संक्षेपमें वर्णन करूँगा ॥ 82 ॥

सर्वप्रथम मूलमन्त्रका उच्चारण करके कुण्ड अथवा वेदीका निरीक्षण करे, फिर 'फट्' इस अस्त्र-मन्त्रसे समिधा आदिका प्रोक्षण तथा ताडन करे। इसके बाद 'हुं' - इस कवचमन्त्रसे अभ्युक्षण करे और फिर उसपर प्रागग्र तथा उदगग्र तीन-तीन रेखाएँ खींचे ।। 83-84 ॥ इसके बाद प्रणवमन्त्र से अभ्युक्षण करके 'ॐ आधारशक्तये नमः' से आरम्भ करके पीठमन्त्र (ॐअमुकदेवीयोगपीठाय नमः) - तकके मन्त्रोंको पढ़कर भगवतीके पीठकी पूजा करे ।। 85 ।। तदनन्तर उस पीठपर जगत्के परम कारण भगवान् शिव और पार्वतीका आवाहन करके गन्ध आदि उपचारोंसे एकाग्रचित्त होकर उनका पूजन करे। उस समय इस प्रकार देवीका ध्यान करे कि 'भगवती पार्वती ऋतुस्नानसे निवृत्त होकर आसक्त भावसे भगवान् शिवके साथ विराजमान हैं। उन दोनोंके परस्पर हासविलासकी क्रीड़ाकी भी कुछ कालतक भावना करनी चाहिये' ॥ 86-87 ॥

तत्पश्चात् एक पात्रमें अग्नि लाकर सामने रखे और उसमेंसे क्रव्यादांशका परित्याग करके पूर्वोक्त वीक्षण आदि क्रियाओंद्वारा अग्निका संस्कार करके 'रं' - इस बीज - मन्त्रका उच्चारणकर उस अग्निमें चैतन्यकी भावना करे। पुनः सात बार प्रणवका उच्चारणकर उसे अभिमन्त्रित करे। तत्पश्चात् गुरु अग्निको धेनुमुद्रा प्रदर्शित करे। इसके बाद 'फट्' इस अस्त्रमन्त्रका उच्चारण करके अग्निको सुरक्षितकर 'हुं' - इस कवच - मन्त्रसे अवगुण्ठन करे ।। 88- 90 ॥ तत्पश्चात् श्रेष्ठ पुरुषको चाहिये कि अपने घुटनोंको पृथ्वीपर टेककर तारमन्त्रका जप करते हुए भलीभाँति पूजित अग्निको प्रदक्षिणाके क्रमसे कुण्डके ऊपर तीन बार घुमाकर उस अग्निमें शिवबीजकी भावना करके उसे देवीकी कुण्डरूपा योनिमें छोड़ दे। इसके बाद भगवान् शिव और भगवती जगदम्बिकाको आचमन कराये ॥ 91-92 ॥'चित्पिङ्गल हन हन दह दह पच पच सर्वज्ञाज्ञापय स्वाहा' यह अग्निदीपनका मन्त्र है। जातवेदा नामसे प्रसिद्ध, तेजोमय, सुवर्णके समान पीतवर्णवाले, निर्मल, परम प्रदीप्त तथा सभी ओर मुखवाले हुतभुक् अग्निदेवको मैं प्रणाम करता हूँ। श्रेष्ठ साधकको अत्यन्त आदरपूर्वक इस मन्त्रसे उन अग्निदेवकी स्तुति करनी चाहिये और इसके बाद वह्निमन्त्रसे षडंगन्यास करना चाहिये। 'सहस्रार्चिषे हृदयाय नमः', 'स्वस्तिपूर्णाय शिरसे स्वाहा', 'उत्तिष्ठपुरुषाय शिखायै वषट्', 'धूमव्यापिने कवचाय हुम्', 'सप्तजिह्वाय नेत्रत्रयाय वौषट्', 'धनुर्धराय अस्त्राय फट् ' इस प्रकार क्रमसे पूर्व स्थानोंमें षडंगन्यास करे। ये नाम अंगन्यासके समय जातियुक्त अर्थात् नमः स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् और फट्-इन पदोंसे युक्त होने चाहिये। इसके बाद अग्निका इस प्रकार ध्यान करे-ये सुवर्णतुल्य वर्णवाले, तीन नेत्र धारण किये हुए, कमलके आसनपर विराजमान, इष्टशक्ति स्वस्तिक - अभयमुद्रा धारण किये हुए तथा परम मंगल स्वरूप हैं ॥ 93-973 ॥

इसके बाद मन्त्रवित्को चाहिये कि मेखलासे ऊपर कुण्डका सेचन करे और कुशोंसे परिस्तरण करे। पुनः कुण्डके चारों ओर परिधियाँ बनाये। अग्निस्थापनके पूर्व त्रिकोण, वृत्त, षट्कोण, अष्टदल कमल और भूपुरसहित यन्त्र लिखे अथवा अग्निस्थापन करके भी उसे लिख ले। हे मुने! उसके मध्यमें वह्निमन्त्रसे अग्निकी पूजा करे। 'वैश्वानर जातवेद इहावह लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहा' - यह अग्निमन्त्र है, इससे अग्निकी पूजा करे । यन्त्रके मध्यमें तथा छः कोणोंमें हिरण्या, गगना, रक्ता, कृष्णा, सुप्रभा, बहुरूपा और अतिरक्तिका-इन सात जिह्वाओंकी पूजा करे। केसरोंमें अंगपूजन करना चाहिये और दलोंमें शक्ति तथा स्वस्तिक धारण करनेवाली मूर्तियोंका पूजन करना चाहिये। जातवेदा, सप्तजिह्न, हव्यवाहन, अश्वोदरज, वैश्वानर, कौमारतेज, विश्वमुख और देवमुख-ये अग्नियाँ कही गयी हैं। इन अग्निनामोंके आदिमें 'ॐ अग्नये' तथा अन्तमें'नमः' पद लगाकर यथा 'ॐ अग्नये जातवेदसे नमः' | इत्यादिके द्वारा पूजनका विधान है। इसके बाद चारों दिशाओंमें वज्र आदि आयुध धारण करनेवाले लोकपालोंका पूजन करे ॥ 98- 106 ॥

श्रीनारायण बोले- [ हे मुने!] तत्पश्चात् स्रुक्, खुवा और घृतका संस्कार करके स्रुवासे घी लेकर अग्निमें हवन करना चाहिये। हे मुनिश्रेष्ठ! दक्षिण भागसे घृत उठाकर 'ॐ अग्नये स्वाहा' - ऐसा उच्चारण करके अग्निके दक्षिणनेत्रमें हवन करे। इसी प्रकार वामभागसे घृत उठाकर 'ॐ सोमाय स्वाहा' ऐसा बोलकर बायें नेत्रमें तथा मध्यभागसे घृत लेकर ॐ अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा'- ऐसा उच्चारण करके अग्निके मध्य नेत्रमें हवन करे ।। 107-109 ॥

तत्पश्चात् दक्षिणभागसे पुनः घृत लेकर 'ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा' - इस मन्त्रसे अग्निके मुखमें आहुति डाले ॥ 110 ॥

तदनन्तर साधक पुरुष प्रणवयुक्त व्याहृतियोंके द्वारा हवन करे; पुनः अग्निमन्त्रसे तीन बार आहुति प्रदान करे ॥ 111 ॥

हे मुने! तदनन्तर प्रणवमन्त्रसे गर्भाधान आदि संस्कारोंके निमित्त घृतकी आठ-आठ आहुतियाँ देनी चाहिये। गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकरण, व्रतबन्ध, महानाम्न्यव्रत, औपनिषद-व्रत, गोदान (केशान्तसंस्कार) और उद्वाहक (विवाह) - ये वेदप्रतिपादित संस्कार बताये गये हैं। तत्पश्चात् शिव और पार्वतीकी पूजा करके उनका विसर्जन करना चाहिये ।। 112 - 115 ॥ इसके बाद साधकको चाहिये कि अग्निको उद्देश्य करके पाँच समिधाओंका हवन करे, फिर आवरण- देवताओंके निमित्त भी एक-एक आहुति प्रदान करे ।। 116 ॥

हे मुने ! तत्पश्चात् स्रुक्में घृत रखकर उसे ढँक दे, पुनः अपने आसनपर बैठे हुए ही खुवाके द्वारा उसी घृतसे अग्निमन्त्र के साथ वौषट् लगाकर चार बार आहुति प्रदान करे। इसके बाद महागणेश मन्त्रसे दस आहुतियाँ प्रदान करे | ll 117-118 ।।तत्पश्चात् देयमन्त्रके देवताके पीठासनकी अग्निमें पूजा करके उसी अग्निमें उनका ध्यान करके उनके मुखके एकीकरणके निमित्त मुखमें मूलमन्त्रसे पचीस आहुतियाँ देनी चाहिये। इसके बाद अग्नि तथा देयमन्त्रके देवताके ऐक्यकी भावना करते हुए अपने साथ इनके एकीभूत होनेकी कल्पना करनी चाहिये। तत्पश्चात् श्रेष्ठ साधकको चाहिये कि छः अंगवाले देवताओंको पृथक्-पृथक् आहुतियाँ प्रदान करे ।। 119 - 121 ॥

हे मुनिश्रेष्ठ! अग्निदेव और देयमन्त्रके देवताकी नाड़ियोंके एकीकरणके निमित्त ग्यारह आहुतियाँ देनी चाहिये। हे मुने! एक देवताके उद्देश्यसे एक आहुति होनी चाहिये, इस प्रकार आवृत्तिपूर्वक घृतसे क्रमश: एक-एक आहुति प्रदान करनी चाहिये ।। 122-123 ॥

इसके बाद कल्पोक्त द्रव्यों अथवा तिलोंसे देवताके मूलमन्त्रका उच्चारण करते हुए एक हजार आठ आहुतियाँ प्रदान करे ।। 124 ll

हे मुने! इस प्रकार आहुति देनेके पश्चात् यह भावना करे कि भगवती अब पूर्णरूपसे प्रसन्न हो गयी हैं। उसी तरह इस आवृत्तिसे देवी, अग्नि तथा देयमन्त्रके देवता भी प्रसन्न हो गये हैं ॥ 125 ॥ तत्पश्चात् भलीभाँति स्नान किये हुए, संध्या आदि क्रियाओंसे निवृत्त, दो वस्त्र धारण किये हुए, स्वर्णके आभूषण से अलंकृत तथा हाथमें कमण्डलु धारण किये पवित्र शिष्यको आचार्य कुण्डके पास ले आये और शिष्य वहाँ आकर गुरुजनोंको तथा सभासदों को नमस्कार करनेके अनन्तर कुलदेवको नमस्कार करके कुशासनपर बैठ जाय। इसके बाद गुरु उस शिष्यको कृपादृष्टिसे देखे और अपने शरीरके अन्दर उस शिष्यके चैतन्यकी समाविष्ट होनेकी भावना करे। तत्पश्चात् विद्वान् गुरुको चाहिये कि अपनी दिव्य दृष्टिके अवलोकनस्वरूप होमद्वारा शिष्यके शरीरमें स्थित अवोंका शोधन करे, जिससे शुद्ध आत्मावाला वह शिष्य देवता आदिके अनुग्रहके योग्य हो जाय ।। 126 - 130 ॥श्रीनारायण बोले- [ हे मुने!] गुरु शिष्यके शरीरमें क्रमसे छः अध्वोंका चिन्तन करे। दोनों पैरोंमें कलाध्वका, लिंगमें तत्त्वाध्वका, नाभिमें भुवनाध्वका, हृदयमें वर्णाध्वका, ललाटमें पदाध्वका तथा मस्तकमें मन्त्राध्वका चिन्तन करना चाहिये ।। 131-132 ॥

गुरुको चाहिये कि कूर्चसे शिष्यको स्पर्श करते हुए 'ॐ अमुमध्वानं शोधयामि स्वाहा' इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए घृतमिश्रित तिलोंसे प्रत्येक अध्वके निमित्त आठ बार आहुति प्रदान करे। तत्पश्चात् उन छहों अध्वोंके ब्रह्ममें लीन हो जानेकी भावना करे ।। 133-134 ॥

इसके बाद गुरु ब्रह्ममें लीन उन अध्वों (मार्गों) को पुनः सृष्टिमार्गसे उत्पन्न करनेकी भावना करें और अपने शरीरमें स्थित उस चैतन्यको पुनः शिष्यमें नियोजित करें ॥ 135 ॥

तत्पश्चात् पूर्णाहुति प्रदान करके आवाहित देवताको कलशमें प्रतिष्ठित करे और इसके बाद व्याहृतियोंका उच्चारण करके अग्निके अंगोंके निमित्त आहुतियाँ दे । गुरुको चाहिये कि एक-एक देवताके लिये एक-एक आहुति देकर अपनी आत्मामें अग्निका विसर्जन कर दे। तत्पश्चात् गुरु 'वौषट्' इस नेत्रमन्त्रका | उच्चारण करके वस्त्रसे शिष्यके दोनों नेत्रोंको बाँध दे और फिर उस शिष्यको कुण्ड-स्थलसे मण्डलमें ले जाय। इसके बाद शिष्यके हाथसे प्रधान देवीके लिये पुष्पांजलि अर्पित कराये ll 136-138 ll

तदनन्तर नेत्रोंका आवरण हटाकर शिष्यको कुशके आसनपर बैठा दे और पूर्वोक्त रीतिसे शिष्यकी देहमें भूतशुद्धि करे ॥ 139 ॥

शिष्यके शरीरमें मन्त्रोक्त न्यास करनेके पश्चात् शिष्यको दूसरे मण्डलमें बैठाये। तत्पश्चात् कलशपर स्थित पल्लवोंको शिष्यके सिरपर रखे और मातृका जप करे। इसके बाद कलशमें स्थित देवमय जलसे शिष्यको स्नान कराये। स्नानके पश्चात् शिष्यकी रक्षाके लिये वर्धनीसंज्ञक कलशके जलसे भलीभाँति अभिषेक करे। इसके बाद शिष्य उठकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करे और भस्म आदि लगाकर गुरुके समीप बैठ जाय। तत्पश्चात् करुणानिधानगुरुदेव यह भावना करें कि भगवती शिवा उनके | हृदयसे निकलकर अब शिष्यके हृदयमें प्रविष्ट हो गयी हैं। अतः शिष्य तथा देवी उन दोनोंमें तादात्म्यकी भावना करते हुए वे गन्ध-पुष्प आदिसे शिष्यका पूजन करें ।। 140-144 ।।

तत्पश्चात् गुरु अपना दाहिना हाथ शिष्यके सिरपर रखते हुए उसके दाहिने कानमें महाभगवतीके महामन्त्रका तीस बार उपदेश करें। हे मुने। इसके बाद शिष्य उस मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे। पुनः पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिरकर उन देवतास्वरूप गुरुको प्रणाम करे ॥ 145 - 146 ।।

इसके बाद शिष्य जीवनभरके लिये गुरुके प्रति अनन्यबुद्धिवाला होकर गुरुके प्रति एकनिष्ठ भावसे अपना सर्वस्व उन्हें अर्पण कर दे। तदनन्तर ऋत्विजोंको दक्षिणा देकर ब्राह्मणों, सौभाग्यवती स्त्रियों, कन्याओं और बटुकोंको भलीभाँति भोजन कराये साथ ही धनकी कृपणतासे रहित होकर दीनों, अनाथों तथा दरिद्रोंको सन्तुष्ट करे। अपनेको कृतार्थ समझकर मन्त्रकी नित्य उपासना करे। इस प्रकार दीक्षाकी यह उत्तम विधि मैंने आपको बतला दी ।। 147 - 149 ।।

इस विषय में पूर्णरूपसे विचार करके अब आप देवीके चरण-कमलका सेवन कीजिये। ब्राह्मणके लिये इसके अतिरिक्त कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है ॥ 150 ॥

वैदिक पुरुष अपने-अपने गृह्यसूत्रमें कहे गये नियमके अनुसार तथा तान्त्रिक पुरुष तन्त्र-पद्धतिके अनुसार मन्त्रका उपदेश करें; यही सनातन नियम है। जिनके लिये जो-जो प्रयोग बताये गये हैं, उन्हें उसीका , उपयोग करना चाहिये दूसरे नियमोंका नहीं 1513 ॥ श्रीनारायण बोले- हे नारद! आपने जो पूछा था, वह सब मैंने बता दिया। अब आप पराम्बा भगवतीके पदारविन्दकी नित्य उपासना कीजिये। मैं भी उसी चरणकमलकी नित्य आराधना करके परम शान्तिको प्राप्त हुआ हूँ ॥ 152-153 ll

व्यासजी बोले- हे राजन्! इस प्रकार यह सम्पूर्ण उत्तम प्रसंग नारदजीसे कहकर श्रेष्ठ मुनियोंके भी शिरोमणि भगवान् नारायण अपने नेत्र बन्द करके समाधिस्थ होकर भगवतीके चरणकमलका ध्यान करने लगे। नारदजीने भी उन परम गुरु भगवान् नारायणको प्रणाम करके भगवतीके दर्शनकी लालसासे तपस्या करनेके लिये उसी क्षण प्रस्थान कर दिया । 154-155 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] महर्षि शौनकका सूतजीसे श्रीमद्देवीभागवतपुराण सुनानेकी प्रार्थना करना
  2. [अध्याय 2] सूतजीद्वारा श्रीमद्देवीभागवतके स्कन्ध, अध्याय तथा श्लोकसंख्याका निरूपण और उसमें प्रतिपादित विषयोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] सूतजीद्वारा पुराणोंके नाम तथा उनकी श्लोकसंख्याका कथन, उपपुराणों तथा प्रत्येक द्वापरयुगके व्यासोंका नाम
  4. [अध्याय 4] नारदजीद्वारा व्यासजीको देवीकी महिमा बताना
  5. [अध्याय 5] भगवती लक्ष्मीके शापसे विष्णुका मस्तक कट जाना, वेदोंद्वारा स्तुति करनेपर देवीका प्रसन्न होना, भगवान् विष्णुके हयग्रीवावतारकी कथा
  6. [अध्याय 6] शेषशायी भगवान् विष्णुके कर्णमलसे मधु-कैटभकी उत्पत्ति तथा उन दोनोंका ब्रह्माजीसे युद्धके लिये तत्पर होना
  7. [अध्याय 7] ब्रह्माजीका भगवान् विष्णु तथा भगवती योगनिद्राकी स्तुति करना
  8. [अध्याय 8] भगवान् विष्णु योगमायाके अधीन क्यों हो गये -ऋषियोंके इस प्रश्नके उत्तरमें सूतजीद्वारा उन्हें आद्याशक्ति भगवतीकी महिमा सुनाना
  9. [अध्याय 9] भगवान् विष्णुका मधु-कैटभसे पाँच हजार वर्षोंतक युद्ध करना, विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीद्वारा मोहित मधु-कैटभका विष्णुद्वारा वध
  10. [अध्याय 10] व्यासजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
  11. [अध्याय 11] बुधके जन्मकी कथा
  12. [अध्याय 12] राजा सुद्युम्नकी इला नामक स्त्रीके रूपमें परिणति, इलाका बुधसे विवाह और पुरूरवाकां उत्पत्ति, भगवतीकी स्तुति करनेसे इलारूपधारी राजा सुद्युम्नकी सायुज्यमुक्ति
  13. [अध्याय 13] राजा पुरूरवा और उर्वशीकी कथा
  14. [अध्याय 14] व्यासपुत्र शुकदेवके अरणिसे उत्पन्न होनेकी कथा तथा व्यासजीद्वारा उनसे गृहस्थधर्मका वर्णन
  15. [अध्याय 15] शुकदेवजीका विवाहके लिये अस्वीकार करना तथा व्यासजीका उनसे श्रीमद्देवीभागवत पढ़नेके लिये कहना
  16. [अध्याय 16] बालरूपधारी भगवान् विष्णुसे महालक्ष्मीका संवाद, व्यासजीका शुकदेवजीसे देवीभागवतप्राप्तिकी परम्परा बताना तथा शुकदेवजीका
  17. [अध्याय 17] शुकदेवजीका राजा जनकसे मिलनेके लिये मिथिलापुरीको प्रस्थान तथा राजभवनमें प्रवेश
  18. [अध्याय 18] शुकदेवजीके प्रति राजा जनकका उपदेश
  19. [अध्याय 19] शुकदेवजीका व्यासजीके आश्रममें वापस आना, विवाह करके सन्तानोत्पत्ति करना तथा परम सिद्धिकी प्राप्ति करना
  20. [अध्याय 20] सत्यवतीका राजा शन्तनुसे विवाह तथा दो पुत्रोंका जन्म, राजा शन्तनुकी मृत्यु, चित्रांगदका राजा बनना तथा उसकी मृत्यु, विचित्रवीर्यका काशिराजकी कन्याओंसे विवाह और क्षयरोगसे मृत्यु, व्यासजीद्वारा धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुरकी उत्पत्ति
  1. [अध्याय 1] ब्राह्मणके शापसे अद्रिका अप्सराका मछली होना और उससे राजा मत्स्य तथा मत्स्यगन्धाकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] व्यासजीकी उत्पत्ति और उनका तपस्याके लिये जाना
  3. [अध्याय 3] राजा शन्तनु, गंगा और भीष्मके पूर्वजन्मकी कथा
  4. [अध्याय 4] गंगाजीद्वारा राजा शन्तनुका पतिरूपमें वरण, सात पुत्रोंका जन्म तथा गंगाका उन्हें अपने जलमें प्रवाहित करना, आठवें पुत्रके रूपमें भीष्मका जन्म तथा उनकी शिक्षा-दीक्षा
  5. [अध्याय 5] मत्स्यगन्धा (सत्यवती) को देखकर राजा शन्तनुका मोहित होना, भीष्मद्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण करनेकी प्रतिज्ञा करना और शन्तनुका सत्यवतीसे विवाह
  6. [अध्याय 6] दुर्वासाका कुन्तीको अमोघ कामद मन्त्र देना, मन्त्रके प्रभावसे कन्यावस्थामें ही कर्णका जन्म, कुन्तीका राजा पाण्डुसे विवाह, शापके कारण पाण्डुका सन्तानोत्पादनमें असमर्थ होना, मन्त्र-प्रयोगसे कुन्ती और माडीका पुत्रवती होना, पाण्डुकी मृत्यु और पाँचों पुत्रोंको लेकर कुन्तीका हस्तिनापुर आना
  7. [अध्याय 7] धृतराष्ट्रका युधिष्ठिरसे दुर्योधनके पिण्डदानहेतु धन मांगना, भीमसेनका प्रतिरोध; धृतराष्ट्र, गान्धारी, कुन्ती, विदुर और संजयका बनके लिये प्रस्थान, वनवासी धृतराष्ट्र तथा माता कुन्तीसे मिलनेके लिये युधिष्ठिरका भाइयोंके साथ वनगमन, विदुरका महाप्रयाण, धृतराष्ट्रसहित पाण्डवोंका व्यासजीके आश्रमपर आना,
  8. [अध्याय 8] धृतराष्ट्र आदिका दावाग्निमें जल जाना, प्रभासक्षेत्रमें यादवोंका परस्पर युद्ध और संहार, कृष्ण और बलरामका परमधामगमन, परीक्षित्‌को राजा बनाकर पाण्डवोंका हिमालय पर्वतपर जाना, परीक्षितको शापकी प्राप्ति, प्रमद्वरा और रुरुका वृत्तान्त
  9. [अध्याय 9] सर्पके काटनेसे प्रमद्वराकी मृत्यु, रुरुद्वारा अपनी आधी आयु देकर उसे जीवित कराना, मणि-मन्त्र- औषधिद्वारा सुरक्षित राजा परीक्षित्का सात तलवाले भवनमें निवास करना
  10. [अध्याय 10] महाराज परीक्षित्को डँसनेके लिये तक्षकका प्रस्थान, मार्गमें मन्त्रवेत्ता कश्यपसे भेंट, तक्षकका एक वटवृक्षको हँसकर भस्म कर देना और कश्यपका उसे पुनः हरा-भरा कर देना, तक्षकद्वारा धन देकर कश्यपको वापस कर देना, सर्पदंशसे राजा परीक्षित्‌की मृत्यु
  11. [अध्याय 11] जनमेजयका राजा बनना और उत्तंककी प्रेरणासे सर्प सत्र करना, आस्तीकके कहनेसे राजाद्वारा सर्प-सत्र रोकना
  12. [अध्याय 12] आस्तीकमुनिके जन्मकी कथा, कद्रू और विनताद्वारा सूर्यके घोड़ेके रंगके विषयमें शर्त लगाना और विनताको दासीभावकी प्राप्ति, कद्रुद्वारा अपने पुत्रोंको शाप
  1. [अध्याय 1] राजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना
  2. [अध्याय 2] भगवती आद्याशक्तिके प्रभावका वर्णन
  3. [अध्याय 3] ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन
  4. [अध्याय 4] भगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना
  5. [अध्याय 5] ब्रह्मा और शिवजीका भगवतीकी स्तुति करना
  6. [अध्याय 6] भगवती जगदम्बिकाद्वारा अपने स्वरूपका वर्णन तथा 'महासरस्वती', 'महालक्ष्मी' और 'महाकाली' नामक अपनी शक्तियोंको क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिवको प्रदान करना
  7. [अध्याय 7] ब्रह्माजीके द्वारा परमात्माके स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपका वर्णन; सात्त्विक, राजस और तामस शक्तिका वर्णन; पंचतन्मात्राओं, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा पंचीकरण क्रियाद्वारा सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका वर्णन
  9. [अध्याय 9] गुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा
  10. [अध्याय 10] देवीके बीजमन्त्रकी महिमाके प्रसंगमें सत्यव्रतका आख्यान
  11. [अध्याय 11] सत्यव्रतद्वारा बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण तथा उससे प्रसन्न होकर भगवतीका सत्यव्रतको समस्त विद्याएँ प्रदान करना
  12. [अध्याय 12] सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञोंका वर्णन मानसयज्ञकी महिमा और व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको देवी यज्ञके लिये प्रेरित करना
  13. [अध्याय 13] देवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना, ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सृष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्या शक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना
  14. [अध्याय 14] देवीमाहात्म्यसे सम्बन्धित राजा ध्रुवसन्धिकी कथा, ध्रुवसन्धिकी मृत्युके बाद राजा युधाजित् और वीरसेनका अपने-अपने दौहित्रोंके पक्षमें विवाद
  15. [अध्याय 15] राजा युधाजित् और वीरसेनका युद्ध, वीरसेनकी मृत्यु, राजा ध्रुवसन्धिकी रानी मनोरमाका अपने पुत्र सुदर्शनको लेकर भारद्वाजमुनिके आश्रममें जाना तथा वहीं निवास करना
  16. [अध्याय 16] युधाजित्का भारद्वाजमुनिके आश्रमपर आना और उनसे मनोरमाको भेजनेका आग्रह करना, प्रत्युत्तरमें मुनिका 'शक्ति हो तो ले जाओ' ऐसा कहना
  17. [अध्याय 17] धाजित्का अपने प्रधान अमात्यसे परामर्श करना, प्रधान अमात्यका इस सन्दर्भमें वसिष्ठविश्वामित्र प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजित्‌का वापस लौट जाना, बालक सुदर्शनको दैवयोगसे कामराज नामक बीजमन्त्रकी प्राप्ति, भगवतीकी आराधनासे सुदर्शनको उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराजकी कन्या शशिकलाको स्वप्नमें भगवतीद्वारा सुदर्शनका वरण करनेका आदेश देना
  18. [अध्याय 18] राजकुमारी शशिकलाद्वारा मन-ही-मन सुदर्शनका वरण करना, काशिराजद्वारा स्वयंवरकी घोषणा, शशिकलाका सखीके माध्यमसे अपना निश्चय माताको बताना
  19. [अध्याय 19] माताका शशिकलाको समझाना, शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओंका स्वयंवरमें आगमन, युधाजित्द्वारा सुदर्शनको मार डालनेकी बात कहनेपर केरलनरेशका उन्हें समझाना
  20. [अध्याय 20] राजाओंका सुदर्शनसे स्वयंवरमें आनेका कारण पूछना और सुदर्शनका उन्हें स्वप्नमें भगवतीद्वारा दिया गया आदेश बताना, राजा सुबाहुका शशिकलाको समझाना, परंतु उसका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  21. [अध्याय 21] राजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजित्‌का क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  22. [अध्याय 22] शशिकलाका गुप्त स्थानमें सुदर्शनके साथ विवाह, विवाहकी बात जानकर राजाओंका सुबाहुके प्रति क्रोध प्रकट करना तथा सुदर्शनका मार्ग रोकनेका निश्चय करना
  23. [अध्याय 23] सुदर्शनका शशिकलाके साथ भारद्वाज आश्रमके लिये प्रस्थान, युधाजित् तथा अन्य राजाओंसे सुदर्शनका घोर संग्राम, भगवती सिंहवाहिनी दुर्गाका प्राकट्य, भगवतीद्वारा युधाजित् और शत्रुजित्का वध, सुबाहुद्वारा भगवतीकी स्तुति
  24. [अध्याय 24] सुबाहुद्वारा भगवती दुर्गासे सदा काशीमें रहनेका वरदान माँगना तथा देवीका वरदान देना, सुदर्शनद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीका उसे अयोध्या जाकर राज्य करनेका आदेश देना, राजाओंका सुदर्शनसे अनुमति लेकर अपने-अपने राज्योंको प्रस्थान
  25. [अध्याय 25] सुदर्शनका शत्रुजित्की माताको सान्त्वना देना, सुदर्शनद्वारा अयोध्या में तथा राजा सुबाहुद्वारा काशीमें देवी दुर्गाकी स्थापना
  26. [अध्याय 26] नवरात्रव्रत विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन
  27. [अध्याय 27] कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन, नवरात्रव्रतके माहात्म्यके प्रसंग में सुशील नामक वणिक्की कथा
  28. [अध्याय 28] श्रीरामचरित्रवर्णन
  29. [अध्याय 29] सीताहरण, रामका शोक और लक्ष्मणद्वारा उन्हें सान्त्वना देना
  30. [अध्याय 30] श्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रव्रतकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना
  1. [अध्याय 1] वसुदेव, देवकी आदिके कष्टोंके कारणके सम्बन्धमें जनमेजयका प्रश्न
  2. [अध्याय 2] व्यासजीका जनमेजयको कर्मकी प्रधानता समझाना
  3. [अध्याय 3] वसुदेव और देवकीके पूर्वजन्मकी कथा
  4. [अध्याय 4] व्यासजीद्वारा जनमेजयको मायाकी प्रबलता समझाना
  5. [अध्याय 5] नर-नारायणकी तपस्यासे चिन्तित होकर इन्द्रका उनके पास जाना और मोहिनी माया प्रकट करना तथा उससे भी अप्रभावित रहनेपर कामदेव, वसन्त और अप्सराओंको भेजना
  6. [अध्याय 6] कामदेवद्वारा नर-नारायणके समीप वसन्त ऋतुकी सृष्टि, नारायणद्वारा उर्वशीकी उत्पत्ति, अप्सराओंद्वारा नारायणसे स्वयंको अंगीकार करनेकी प्रार्थना
  7. [अध्याय 7] अप्सराओंके प्रस्तावसे नारायणके मनमें ऊहापोह और नरका उन्हें समझाना तथा अहंकारके कारण प्रह्लादके साथ हुए युद्धका स्मरण कराना
  8. [अध्याय 8] व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको प्रह्लादकी कथा सुनाना इस प्रसंग में च्यवनॠषिके पाताललोक जानेका वर्णन
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीका तीर्थयात्राके क्रममें नैमिषारण्य पहुँचना और वहाँ नर-नारायणसे उनका घोर युद्ध, भगवान् विष्णुका आगमन और उनके द्वारा प्रह्लादको नर-नारायणका परिचय देना
  10. [अध्याय 10] राजा जनमेजयद्वारा प्रह्लादके साथ नर-नारायणके बुद्धका कारण पूछना, व्यासजीद्वारा उत्तरमें संसारके मूल कारण अहंकारका निरूपण करना तथा महर्षि भृगुद्वारा भगवान् विष्णुको शाप देनेकी कथा
  11. [अध्याय 11] मन्त्रविद्याकी प्राप्तिके लिये शुक्राचार्यका तपस्यारत होना, देवताओंद्वारा दैत्योंपर आक्रमण, शुक्राचार्यकी माताद्वारा दैत्योंकी रक्षा और इन्द्र तथा विष्णुको संज्ञाशून्य कर देना, विष्णुद्वारा शुक्रमाताका वध
  12. [अध्याय 12] महात्मा भृगुद्वारा विष्णुको मानवयोनिमें जन्म लेनेका शाप देना, इन्द्रद्वारा अपनी पुत्री जयन्तीको शुक्राचार्यके लिये अर्पित करना, देवगुरु बृहस्पतिद्वारा शुक्राचार्यका रूप धारणकर दैत्योंका पुरोहित बनना
  13. [अध्याय 13] शुक्राचार्यरूपधारी बृहस्पतिका दैत्योंको उपदेश देना
  14. [अध्याय 14] शुक्राचार्यद्वारा दैत्योंको बृहस्पतिका पाखण्डपूर्ण कृत्य बताना, बृहस्पतिकी मायासे मोहित दैत्योंका उन्हें फटकारना, क्रुद्ध शुक्राचार्यका दैत्योंको शाप देना, बृहस्पतिका अन्तर्धान हो जाना, प्रह्लादका शुक्राचार्यजीसे क्षमा माँगना और शुक्राचार्यका उन्हें प्रारब्धकी बलवत्ता समझाना
  15. [अध्याय 15] देवता और दैत्योंके युद्धमें दैत्योंकी विजय, इन्द्रद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवतीका प्रकट होकर दैत्योंके पास जाना, प्रह्लादद्वारा भगवतीकी स्तुति, देवीके आदेशसे दैत्योंका पातालगमन
  16. [अध्याय 16] भगवान् श्रीहरिके विविध अवतारोंका संक्षिप्त वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायणद्वारा अप्सराओंको वरदान देना, राजा जनमेजयद्वारा व्यासजीसे श्रीकृष्णावतारका चरित सुनानेका निवेदन करना
  18. [अध्याय 18] पापभारसे व्यथित पृथ्वीका देवलोक जाना, इन्द्रका देवताओं और पृथ्वीके साथ ब्रह्मलोक जाना, ब्रह्माजीका पृथ्वी तथा इन्द्रादि देवताओंसहित विष्णुलोक जाकर विष्णुकी स्तुति करना, विष्णुद्वारा अपनेको भगवतीके अधीन बताना
  19. [अध्याय 19] देवताओं द्वारा भगवतीका स्तवन, भगवतीद्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुनको निमित्त बनाकर अपनी शक्तिसे पृथ्वीका भार दूर करनेका आश्वासन देना
  20. [अध्याय 20] व्यासजीद्वारा जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम
  21. [अध्याय 21] देवकीके प्रथम पुत्रका जन्म, वसुदेवद्वारा प्रतिज्ञानुसार उसे कंसको अर्पित करना और कंसद्वारा उस नवजात शिशुका वध
  22. [अध्याय 22] देवकीके छः पुत्रोंके पूर्वजन्मकी कथा, सातवें पुत्रके रूपमें भगवान् संकर्षणका अवतार, देवताओं तथा दानवोंके अंशावतारोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] कंसके कारागारमें भगवान् श्रीकृष्णका अवतार, वसुदेवजीका उन्हें गोकुल पहुँचाना और वहाँसे योगमायास्वरूपा कन्याको लेकर आना, कंसद्वारा कन्याके वधका प्रयास, योगमायाद्वारा आकाशवाणी करनेपर कंसका अपने सेवकोंद्वारा नवजात शिशुओंका वध कराना
  24. [अध्याय 24] श्रीकृष्णावतारकी संक्षिप्त कथा, कृष्णपुत्रका प्रसूतिगृहसे हरण, कृष्णद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवती चण्डिकाद्वारा सोलह वर्षके बाद पुनः पुत्रप्राप्तिका वर देना
  25. [अध्याय 25] व्यासजीद्वारा शाम्भवी मायाकी बलवत्ताका वर्णन, श्रीकृष्णद्वारा शिवजीकी प्रसन्नताके लिये तप करना और शिवजीद्वारा उन्हें वरदान देना
  1. [अध्याय 1] व्यासजीद्वारा त्रिदेवोंकी तुलनामें भगवतीकी उत्तमताका वर्णन
  2. [अध्याय 2] महिषासुरके जन्म, तप और वरदान प्राप्तिकी कथा
  3. [अध्याय 3] महिषासुरका दूत भेजकर इन्द्रको स्वर्ग खाली करनेका आदेश देना, दूतद्वारा इन्द्रका युद्धहेतु आमन्त्रण प्राप्तकर महिषासुरका दानववीरोंको युद्धके लिये सुसज्जित होनेका आदेश देना
  4. [अध्याय 4] इन्द्रका देवताओं तथा गुरु बृहस्पतिसे परामर्श करना तथा बृहस्पतिद्वारा जय-पराजयमें दैवकी प्रधानता बतलाना
  5. [अध्याय 5] इन्द्रका ब्रह्मा, शिव और विष्णुके पास जाना, तीनों देवताओंसहित इन्द्रका युद्धस्थलमें आना तथा चिक्षुर, बिडाल और ताम्रको पराजित करना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णु और शिवके साथ महिषासुरका भयानक युद्ध
  7. [अध्याय 7] महिषासुरको अवध्य जानकर त्रिदेवोंका अपने-अपने लोक लौट जाना, देवताओंकी पराजय तथा महिषासुरका स्वर्गपर आधिपत्य, इन्द्रका ब्रह्मा और शिवजीके साथ विष्णुलोकके लिये प्रस्थान
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माप्रभृति समस्त देवताओंके शरीरसे तेज:पुंजका निकलना और उस तेजोराशिसे भगवतीका प्राकट्य
  9. [अध्याय 9] देवताओंद्वारा भगवतीको आयुध और आभूषण समर्पित करना तथा उनकी स्तुति करना, देवीका प्रचण्ड अट्टहास करना, जिसे सुनकर महिषासुरका उद्विग्न होकर अपने प्रधान अमात्यको देवीके पास भेजना
  10. [अध्याय 10] देवीद्वारा महिषासुरके अमात्यको अपना उद्देश्य बताना तथा अमात्यका वापस लौटकर देवीद्वारा कही गयी बातें महिषासुरको बताना
  11. [अध्याय 11] महिषासुरका अपने मन्त्रियोंसे विचार-विमर्श करना और ताम्रको भगवतीके पास भेजना
  12. [अध्याय 12] देवीके अट्टहाससे भयभीत होकर ताम्रका महिषासुरके पास भाग आना, महिषासुरका अपने मन्त्रियोंके साथ पुनः विचार-विमर्श तथा दुर्धर, दुर्मुख और बाष्कलकी गर्वोक्ति
  13. [अध्याय 13] बाष्कल और दुर्मुखका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  14. [अध्याय 14] चिक्षुर और ताम्रका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  15. [अध्याय 15] बिडालाख्य और असिलोमाका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  16. [अध्याय 16] महिषासुरका रणभूमिमें आना तथा देवीसे प्रणय-याचना करना
  17. [अध्याय 17] महिषासुरका देवीको मन्दोदरी नामक राजकुमारीका आख्यान सुनाना
  18. [अध्याय 18] दुर्धर, त्रिनेत्र, अन्धक और महिषासुरका वध
  19. [अध्याय 19] देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  20. [अध्याय 20] देवीका मणिद्वीप पधारना तथा राजा शत्रुघ्नका भूमण्डलाधिपति बनना
  21. [अध्याय 21] शुम्भ और निशुम्भको ब्रह्माजीके द्वारा वरदान, देवताओंके साथ उनका युद्ध और देवताओंकी पराजय
  22. [अध्याय 22] देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति और उनका प्राकट्य
  23. [अध्याय 23] भगवतीके श्रीविग्रहसे कौशिकीका प्राकट्य, देवीकी कालिकारूपमें परिणति, चण्ड-मुण्डसे देवीके अद्भुत सौन्दर्यको सुनकर शुम्भका सुग्रीवको दूत बनाकर भेजना, जगदम्बाका विवाहके विषयमें अपनी शर्त बताना
  24. [अध्याय 24] शुम्भका धूम्रलोचनको देवीके पास भेजना और धूम्रलोचनका देवीको समझानेका प्रयास करना
  25. [अध्याय 25] भगवती काली और धूम्रलोचनका संवाद, कालीके हुंकारसे धूम्रलोचनका भस्म होना तथा शुम्भका चण्ड-मुण्डको युद्धहेतु प्रस्थानका आदेश देना
  26. [अध्याय 26] भगवती अम्बिकासे चण्ड ड-मुण्डका संवाद और युद्ध, देवी सुखदानि च सेव्यानि शास्त्र कालिकाद्वारा चण्ड-मुण्डका वध
  27. [अध्याय 27] शुम्भका रक्तबीजको भगवती अम्बिकाके पास भेजना और उसका देवीसे वार्तालाप
  28. [अध्याय 28] देवीके साथ रक्तबीजका युद्ध, विभिन्न शक्तियोंके साथ भगवान् शिवका रणस्थलमें आना तथा भगवतीका उन्हें दूत बनाकर शुम्भके पास भेजना, भगवान् शिवके सन्देशसे दानवोंका क्रुद्ध होकर युद्धके लिये आना
  29. [अध्याय 29] रक्तबीजका वध और निशुम्भका युद्धक्षेत्रके लिये प्रस्थान
  30. [अध्याय 30] देवीद्वारा निशुम्भका वध
  31. [अध्याय 31] शुम्भका रणभूमिमें आना और देवीसे वार्तालाप करना, भगवती कालिकाद्वारा उसका वध, देवीके इस उत्तम चरित्रके पठन और श्रवणका फल
  32. [अध्याय 32] देवीमाहात्म्यके प्रसंगमें राजा सुरथ और समाधि वैश्यकी कथा
  33. [अध्याय 33] मुनि सुमेधाका सुरथ और समाधिको देवीकी महिमा बताना
  34. [अध्याय 34] मुनि सुमेधाद्वारा देवीकी पूजा-विधिका वर्णन
  35. [अध्याय 35] सुरथ और समाधिकी तपस्यासे प्रसन्न भगवतीका प्रकट होना और उन्हें इच्छित वरदान देना
  1. [अध्याय 1] त्रिशिराकी तपस्यासे चिन्तित इन्द्रद्वारा तपभंगहेतु अप्सराओंको भेजना
  2. [अध्याय 2] इन्द्रद्वारा त्रिशिराका वध, क्रुद्ध त्वष्टाद्वारा अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे हवन करके वृत्रासुरको उत्पन्न करना और उसे इन्द्रके वधके लिये प्रेरित करना
  3. [अध्याय 3] वृत्रासुरका देवलोकपर आक्रमण, बृहस्पतिद्वारा इन्द्रकी भर्त्सना करना और वृत्रासुरको अजेय बतलाना, इन्द्रकी पराजय, त्वष्टाके निर्देशसे वृत्रासुरका ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये तपस्यारत होना
  4. [अध्याय 4] तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीका वृत्रासुरको वरदान देना, त्वष्टाकी प्रेरणासे वृत्रासुरका स्वर्गपर आक्रमण करके अपने अधिकारमें कर लेना, इन्द्रका पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकरके साथ वैकुण्ठधाम जाना
  5. [अध्याय 5] भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णुका इन्द्रको वृत्रासुरसे सन्धिका परामर्श देना, ऋषियोंकी मध्यस्थतासे इन्द्र और वृत्रासुरमें सन्धि, इन्द्रद्वारा छलपूर्वक वृत्रासुरका वध
  7. [अध्याय 7] त्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना
  8. [अध्याय 8] इन्द्राणीको बृहस्पतिकी शरणमें जानकर नहुषका क्रुद्ध होना, देवताओंका नहुषको समझाना, बृहस्पतिके परामर्शसे इन्द्राणीका नहुषसे समय मांगना, देवताओंका भगवान् विष्णुके पास जाना और विष्णुका उन्हें देवीको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेधयज्ञ करने को कहना, बृहस्पतिका शचीको भगवतीकी आराधना करनेको कहना, शचीकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीका प्रकट होना और शचीको इन्द्रका दर्शन होना
  9. [अध्याय 9] शचीका इन्द्रसे अपना दुःख कहना, इन्द्रका शचीको सलाह देना कि वह नहुषसे ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें आनेको कहे, नहुषका ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्रका पुनः स्वर्गाधिपति बनना
  10. [अध्याय 10] कर्मकी गहन गतिका वर्णन तथा इस सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका उदाहरण
  11. [अध्याय 11] युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन
  12. [अध्याय 12] पवित्र तीर्थोका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना
  13. [अध्याय 13] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्रसे प्राप्त वरुणमन्त्र जपसे शुनःशेपका मुक्त होना, परस्पर शापसे विश्वामित्र और वसिष्ठका बक तथा आडी होना
  14. [अध्याय 14] राजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना
  15. [अध्याय 15] भगवतीकी कृपासे निमिको मनुष्योंके नेत्र पलकोंमें वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियोंकी त्रिगुणात्मकताका वर्णन
  16. [अध्याय 16] हैहयवंशी क्षत्रियोंद्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणोंका संहार
  17. [अध्याय 17] भगवतीकी कृपासे भार्गव ब्राह्मणीकी जंघासे तेजस्वी बालककी उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियोंकी उत्पत्तिकी कथा
  18. [अध्याय 18] भगवती लक्ष्मीद्वारा घोड़ीका रूप धारणकर तपस्या करना
  19. [अध्याय 19] भगवती लक्ष्मीको अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुके दर्शन और उनका वैकुण्ठगमन
  20. [अध्याय 20] राजा हरिवर्माको भगवान् विष्णुद्वारा अपना हैहयसंज्ञक पुत्र देना, राजाद्वारा उसका 'एकवीर' नाम रखना
  21. [अध्याय 21] आखेटके लिये वनमें गये राजासे एकावलीकी सखी यशोवतीकी भेंट, एकावलीके जन्मकी कथा
  22. [अध्याय 22] यशोवतीका एकवीरसे कालकेतुद्वारा एकावलीके अपहृत होनेकी बात बताना
  23. [अध्याय 23] भगवतीके सिद्धिप्रदायक मन्यसे दीक्षित एकवीरद्वारा कालकेतुका वध, एकवीर और एकावलीका विवाह तथा हैहयवंशकी परम्परा
  24. [अध्याय 24] धृतराष्ट्रके जन्मकी कथा
  25. [अध्याय 25] पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन
  26. [अध्याय 26] देवर्षि नारद और पर्वतमुनिका एक-दूसरेको शाप देना, राजकुमारी दमयन्तीका नारदसे विवाह करनेका निश्चय
  27. [अध्याय 27] वानरमुख नारदसे दमयन्तीका विवाह, नारद तथा पर्वतका परस्पर शापमोचन
  28. [अध्याय 28] भगवान् विष्णुका नारदजीसे मायाकी अजेयताका वर्णन करना, मुनि नारदको मायावश स्त्रीरूपकी प्राप्ति तथा राजा तालध्वजका उनसे प्रणय निवेदन करना
  29. [अध्याय 29] राजा तालध्वजसे स्त्रीरूपधारी नारदजीका विवाह, अनेक पुत्र-पौत्रोंकी उत्पत्ति और युद्धमें उन सबकी मृत्यु, नारदजीका शोक और भगवान् विष्णुकी कृपासे पुनः स्वरूपबोध
  30. [अध्याय 30] राजा तालध्वजका विलाप और ब्राह्मणवेशधारी भगवान् विष्णुके प्रबोधनसे उन्हें वैराग्य होना, भगवान् विष्णुका नारदसे मायाके प्रभावका वर्णन करना
  31. [अध्याय 31] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना
  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति
  1. [अध्याय 1] प्रजाकी सृष्टिके लिये ब्रह्माजीकी प्रेरणासे मनुका देवीकी आराधना करना तथा देवीका उन्हें वरदान देना
  2. [अध्याय 2] ब्रह्माजीकी नासिकासे वराहके रूपमें भगवान् श्रीहरिका प्रकट होना और पृथ्वीका उद्धार करना, ब्रह्माजीका उनकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] महाराज मनुकी वंश-परम्पराका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महाराज प्रियव्रतका आख्यान तथा समुद्र और द्वीपोंकी उत्पत्तिका प्रसंग
  5. [अध्याय 5] भूमण्डलपर स्थित विभिन्न द्वीपों और वर्षोंका संक्षिप्त परिचय
  6. [अध्याय 6] भूमण्डलके विभिन्न पर्वतोंसे निकलनेवाली विभिन्न नदियोंका वर्णन
  7. [अध्याय 7] सुमेरुपर्वतका वर्णन तथा गंगावतरणका आख्यान
  8. [अध्याय 8] इलावृतवर्षमें भगवान् शंकरद्वारा भगवान् श्रीहरिके संकर्षणरूपकी आराधना तथा भद्राश्ववर्षमें भद्रश्रवाद्वारा हयग्रीवरूपकी उपासना
  9. [अध्याय 9] हरिवर्षमें प्रह्लादके द्वारा नृसिंहरूपकी आराधना, केतुमालवर्षमें श्रीलक्ष्मीजीके द्वारा कामदेवरूपकी तथा रम्यकवर्षमें मनुजीके द्वारा मत्स्यरूपकी स्तुति-उपासना
  10. [अध्याय 10] हिरण्मयवर्षमें अर्यमाके द्वारा कच्छपरूपकी आराधना, उत्तरकुरुवर्षमें पृथ्वीद्वारा वाराहरूपकी एवं किम्पुरुषवर्षमें श्रीहनुमान्जीके द्वारा श्रीरामचन्द्ररूपकी स्तुति-उपासना
  11. [अध्याय 11] जम्बूद्वीपस्थित भारतवर्षमें श्रीनारदजीके द्वारा नारायणरूपकी स्तुति उपासना तथा भारतवर्षकी महिमाका कथन
  12. [अध्याय 12] प्लक्ष, शाल्मलि और कुशद्वीपका वर्णन
  13. [अध्याय 13] क्रौंच, शाक और पुष्करद्वीपका वर्णन
  14. [अध्याय 14] लोकालोकपर्वतका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सूर्यकी गतिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] चन्द्रमा तथा ग्रहों की गतिका वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायण बोले- इस सप्तर्षिमण्डलसे
  18. [अध्याय 18] राहुमण्डलका वर्णन
  19. [अध्याय 19] अतल, वितल तथा सुतललोकका वर्णन
  20. [अध्याय 20] तलातल, महातल, रसातल और पाताल तथा भगवान् अनन्तका वर्णन
  21. [अध्याय 21] देवर्षि नारदद्वारा भगवान् अनन्तकी महिमाका गान तथा नरकोंकी नामावली
  22. [अध्याय 22] विभिन्न नरकोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] नरक प्रदान करनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] देवीकी उपासनाके विविध प्रसंगोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन
  1. [अध्याय 1] स्वायम्भुव मनुकी उत्पत्ति, उनके द्वारा भगवतीकी आराधना
  2. [अध्याय 2] देवीद्वारा मनुको वरदान, नारदजीका विन्ध्यपर्वतसे सुमेरुपर्वतकी श्रेष्ठता कहना
  3. [अध्याय 3] विन्ध्यपर्वतका आकाशतक बढ़कर सूर्यके मार्गको अवरुद्ध कर लेना
  4. [अध्याय 4] देवताओंका भगवान् शंकरसे विव्यपर्वतकी वृद्धि रोकनेकी प्रार्थना करना और शिवजीका उन्हें भगवान् विष्णुके पास भेजना
  5. [अध्याय 5] देवताओंका वैकुण्ठलोकमें जाकर भगवान् विष्णुकी स्तुति करना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णुका देवताओंको काशीमें अगस्त्यजीके पास भेजना, देवताओंकी अगस्त्यजीसे प्रार्थना
  7. [अध्याय 7] अगस्त्यजीकी कृपासे सूर्यका मार्ग खुलना
  8. [अध्याय 8] चाक्षुष मनुकी कथा, उनके द्वारा देवीकी आराधनाका वर्णन
  9. [अध्याय 9] वैवस्वत मनुका भगवतीकी कृपासे मन्वन्तराधिप होना, सावर्णि मनुके पूर्वजन्मकी कथा
  10. [अध्याय 10] सावर्णि मनुके पूर्वजन्मकी कथाके प्रसंगमें मधु-कैटभकी उत्पत्ति और भगवान् विष्णुद्वारा उनके वधका वर्णन
  11. [अध्याय 11] समस्त देवताओंके तेजसे भगवती महिषमर्दिनीका प्राकट्य और उनके द्वारा महिषासुरका वध, शुम्भ निशुम्भका अत्याचार और देवीद्वारा चण्ड-मुण्डसहित शुम्भ निशुम्भका वध
  12. [अध्याय 12] मनुपुत्रोंकी तपस्या, भगवतीका उन्हें मन्वन्तराधिपति होनेका वरदान देना, दैत्यराज अरुणकी तपस्या और ब्रह्माजीका वरदान, देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति और भगवतीका भ्रामरीके रूपमें अवतार लेकर अरुणका वध करना
  13. [अध्याय 13] स्वारोचिष, उत्तम, तामस और रैवत नामक मनुओंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] भगवान् नारायणका नारदजीसे देवीको प्रसन्न करनेवाले सदाचारका वर्णन
  2. [अध्याय 2] शौचाचारका वर्णन
  3. [अध्याय 3] सदाचार-वर्णन और रुद्राक्ष धारणका माहात्म्य
  4. [अध्याय 4] रुद्राक्षकी उत्पत्ति तथा उसके विभिन्न स्वरूपोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] जपमालाका स्वरूप तथा रुद्राक्ष धारणका विधान
  6. [अध्याय 6] रुद्राक्षधारणकी महिमाके सन्दर्भमें गुणनिधिका उपाख्यान
  7. [अध्याय 7] विभिन्न प्रकारके रुद्राक्ष और उनके अधिदेवता
  8. [अध्याय 8] भूतशुद्धि
  9. [अध्याय 9] भस्म - धारण ( शिरोव्रत )
  10. [अध्याय 10] भस्म - धारणकी विधि
  11. [अध्याय 11] भस्मके प्रकार
  12. [अध्याय 12] भस्म न धारण करनेपर दोष
  13. [अध्याय 13] भस्म तथा त्रिपुण्ड्र धारणका माहात्म्य
  14. [अध्याय 14] भस्मस्नानका महत्त्व
  15. [अध्याय 15] भस्म-माहात्यके सम्बन्धर्मे दुर्वासामुनि और कुम्भीपाकस्थ जीवोंका आख्यान, ऊर्ध्वपुण्ड्रका माहात्म्य
  16. [अध्याय 16] सन्ध्योपासना तथा उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] गायत्री-महिमा
  18. [अध्याय 18] भगवतीकी पूजा-विधिका वर्णन, अन्नपूर्णादेवीके माहात्म्यमें राजा बृहद्रथका आख्यान
  19. [अध्याय 19] मध्याह्नसन्ध्या तथा गायत्रीजपका फल
  20. [अध्याय 20] तर्पण तथा सायंसन्ध्याका वर्णन
  21. [अध्याय 21] गायत्रीपुरश्चरण और उसका फल
  22. [अध्याय 22] बलिवैश्वदेव और प्राणाग्निहोत्रकी विधि
  23. [अध्याय 23] कृच्छ्रचान्द्रायण, प्राजापत्य आदि व्रतोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] कामना सिद्धि और उपद्रव शान्तिके लिये गायत्रीके विविध प्रयोग
  1. [अध्याय 1] गायत्रीजपका माहात्म्य तथा गायत्रीके चौबीस वर्णोंके ऋषि, छन्द आदिका वर्णन
  2. [अध्याय 2] गायत्रीके चौबीस वर्णोंकी शक्तियों, रंगों एवं मुद्राओंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] श्रीगायत्रीका ध्यान और गायत्रीकवचका वर्णन
  4. [अध्याय 4] गायत्रीहृदय तथा उसका अंगन्यास
  5. [अध्याय 5] गायत्रीस्तोत्र तथा उसके पाठका फल
  6. [अध्याय 6] गायत्रीसहस्त्रनामस्तोत्र तथा उसके पाठका फल
  7. [अध्याय 7] दीक्षाविधि
  8. [अध्याय 8] देवताओंका विजयगर्व तथा भगवती उमाद्वारा उसका भंजन, भगवती उमाका इन्द्रको दर्शन देकर ज्ञानोपदेश देना
  9. [अध्याय 9] भगवती गायत्रीकी कृपासे गौतमके द्वारा अनेक ब्राह्मणपरिवारोंकी रक्षा, ब्राह्मणोंकी कृतघ्नता और गौतमके द्वारा ब्राह्मणोंको घोर शाप प्रदान
  10. [अध्याय 10] मणिद्वीपका वर्णन
  11. [अध्याय 11] मणिद्वीपके रत्नमय नौ प्राकारोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] भगवती जगदम्बाके मण्डपका वर्णन तथा मणिद्वीपकी महिमा
  13. [अध्याय 13] राजाजनमेजयद्वाराअम्बायज्ञऔरश्रीमद्देवीभागवतमहापुराणका माहात्म्य
  14. [अध्याय 14] श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणकी महिमा
  15. [अध्याय 15] सप्तश्लोकी दुर्गा
  16. [अध्याय 16] देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्
  17. [अध्याय 17] श्रीदुर्गाजीकी आरती