नारदजी बोले – [हे भगवन्!] वे श्रेष्ठ महालक्ष्मी भगवान् नारायणकी प्रिया होकर वैकुण्ठमें निवास करती हैं। वे सनातनी भगवती वैकुण्ठकी अधिष्ठात्री देवी हैं। वे महालक्ष्मी पूर्व कालमें पृथ्वीलोकमें सिन्धुकी पुत्री कैसे बनीं और सर्वप्रथम किसके द्वारा उनकी स्तुति की गयी, वह सब मुझे बताइये ॥ 1-2 ॥
श्रीनारायण बोले- हे नारद! पूर्व कालमें दुर्वासाके शापके कारण इन्द्र श्रीविहीन हो गये थे और सम्पूर्ण देवसमुदाय मृत्युलोकमें भटकने लगा। हे नारद! तब कुपित लक्ष्मीने स्वर्गका परित्याग करके अत्यन्त दुःखित हो वैकुण्ठलोक पहुँचकर वहाँ महालक्ष्मीमें अपनेको विलीन कर दिया ॥ 3-4॥
उस समय शोकसे संतप्त सभी देवता ब्रह्माकी सभामें गये और वहाँसे ब्रह्माजीको आगे करके वैकुण्ठलोकको गये वहाँपर सभी देवताओंने भगवान् नारायण श्रीविष्णुकी शरण ग्रहण की। उस समय अत्यन्त दीनतायुक्त सभी देवताओंके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे ॥ 5-6 ।।
तब पुराणपुरुष भगवान् श्रीहरिकी आज्ञासे वे सर्वसम्पत्तिस्वरूपा लक्ष्मी अपनी कलासे सिन्धुकी कन्या हुई थीं। उस समय सभी देवताओंने दैत्योंके साथ मिलकर समुद्रमन्थन करके महालक्ष्मीकी प्राप्ति की थी। भगवान् विष्णुने महालक्ष्मीको प्रेमपूर्वक | देखा। तब प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डलवाली परम सन्तुष्ट भगवती महालक्ष्मीने देवता आदिको वर प्रदान करके क्षीरसागरमें शयन करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुको वनमाला अर्पित कर दी । 7-9 ॥हे नारद देवताओंने असुरोंके द्वारा अपहृत किया गया अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया। तत्पश्चात् उन भगवती महालक्ष्मीको भलीभाँति पूजा करके वे देवता सब प्रकारसे विपत्तिरहित हो गये॥ 10 ॥
नारदजी बोले हे ब्रह्मन्! पूर्वकालमें ब्रह्मनिष्ठ तथा तत्त्वज्ञानी मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाने कब, क्यों और किस अपराधके कारण इन्द्रको शाप दिया था? उन देवता आदिने किस रूपसे समुद्रका मन्थन किया, किस स्तोत्रसे प्रसन्न होकर भगवती | लक्ष्मी इन्द्रके समक्ष प्रकट हुई और उन दोनोंके बीच क्या संवाद हुआ? हे प्रभो! यह सब आप मुझे बताइये ।। 11-123 ।।
श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] प्राचीन कालकी | बात है-तीनों लोकोंके अधिपति इन्द्र मधुपानसे प्रमत्त और कामासक्त होकर रम्भाके साथ एकान्तमें बिहार कर रहे थे उस कामुकी अप्सराके साथ क्रीडा करनेसे उनका मन मोहित हो गया था। इस प्रकार कामदेवसे मथित मनवाले वे इन्द्र उसी महावनमें स्थित हो गये ।। 13-14 ॥
उसी समय इन्द्रने वैकुण्ठधामसे कैलासपर्वतकी ओर जाते हुए महर्षि दुर्वासाको देखा। उनका शरीर ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान था, ऐश्वर्यसम्पन्न वे ग्रीष्मऋतुके मध्याहकालीन हजारों सूर्योकी प्रभासे युक्त थे, उनका अत्यन्त स्वच्छ जटाजूट प्रतप्त सुवर्णके समान प्रकाशमान था, वे श्वेतवर्णका यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे, उन्होंने अपने हाथोंमें चीर, दण्ड तथा कमण्डलु धारण कर रखा था, वे अपने ललाटपर चन्द्रमाके समान प्रतीत होनेवाला अत्यन्त उज्ज्वल तिलक धारण किये हुए थे। वेदवेदांगके पारगामी लाखों शिष्य उनके साथ विद्यमान थे ll 15 - 18 ll
उन्हें देखकर अति प्रमत्त इन्द्रने सिर झुकाकर मुनि तथा शिष्यवर्गको प्रणाम किया और प्रसन्न होकर उनकी स्तुति की तब शिष्यों सहित मुनि दुर्वासाने इन्द्रको शुभाशीर्वाद दिया, साथ ही उन्होंने भगवान् विष्णुद्वारा प्रदत्त परम मनोहर पारिजात पुष्प भी उन्हें समर्पित किया ॥ 19-20 ॥तब बुढ़ापा, रोग, मृत्यु तथा शोकका नाश करनेवाले और मोक्ष प्रदान करनेवाले उस पुष्पको लेकर राज्यसम्पदासे मदोन्मत्त इन्द्रने उसे ऐरावत हाथीके मस्तकपर फेंक दिया ॥ 213 ॥
उस पुष्पका स्पर्श होते ही वह ऐरावत हाथी रूप, गुण, तेज तथा आयुमें अकस्मात् भगवान् विष्णुके तुल्य हो गया। तब इन्द्रको छोड़कर वह गजराज घोर वनमें चला गया। हे मुने! अपने तेजोबलसे सम्पन्न इन्द्र उस ऐरावतको रोक पानेमें | समर्थ नहीं हो सके ॥ 22-236 ॥
इन्द्रने उस पुष्पका तिरस्कार किया है ऐसा जानकर मुनीश्वर दुर्वासा अत्यन्त कुपित हो उठे और रोषमें आकर उन्हें शाप देते हुए कहने लगे ॥ 243 ॥
मुनि बोले- अरे ! राज्य श्रीके अभिमानसे प्रमत्त होकर तुम मेरा अपमान क्यों कर रहे हो? मेरे द्वारा दिये गये पुष्पको तुमने गर्वित होकर हाथीके मस्तकपर फेंक दिया? श्रीविष्णुको समर्पित किये हुए नैवेद्य, फल अथवा जलके प्राप्त होते ही उनका उपभोग कर लेना चाहिये, उनका त्याग करनेसे वह ब्रह्महत्या के पापका भागी होता है ।। 25-263
जो मनुष्य सौभाग्यसे प्राप्त हुए भगवान् विष्णुके पावन नैवेद्यका त्याग करता है; वह श्री, बुद्धि तथा राज्य - इन सबसे वंचित हो जाता है ॥ 273 ॥
जो भक्त श्रीविष्णुके लिये अर्पित किये गये | नैवेद्यको पाते ही उसे ग्रहण कर लेता है, वह अपने | सौ पूर्वजोंका उद्धार करके स्वयं जीवन्मुक्त हो जाता है ।। 283 ।।
जो मनुष्य प्रतिदिन भगवान् श्रीहरिके नैवेद्यको ग्रहण करके उन्हें प्रणाम करता है तथा भक्तिपूर्वक उनका पूजन एवं स्तवन करता है, वह भगवान् विष्णुके समान हो जाता है। हे मूर्ख! उसका स्पर्श करके चलनेवाली वायुका संयोग पाकर तीर्थसमुदाय शीघ्र ही शुद्ध हो जाता है और उसकी चरणरजसे पृथ्वी शीघ्र ही पवित्र हो जाती है ।। 29-303 ।।भगवान् श्रीहरिको भोग न लगाया हुआ अन्न व्यभिचारिणी स्त्री, पतिपुत्रहीन स्त्री तथा शूद्रके श्राद्धान्नके समान व्यर्थ होता है और वह मांस भक्षणके समान है ॥ 313 ॥
शिवलिंगके लिये अर्पण किया हुआ अन्न, शूद्रोंके यहाँ यजन करानेवाले ब्राह्मणके द्वारा प्रदत्त अन्न, चिकित्सावृत्तिमें लगे ब्राह्मणका अन्न; देवल, कन्याविक्रयी तथा वेश्याओंकी वृत्तिपर आश्रित रहनेवाले पुरुषोंका अन; उच्छिष्ट, बासी तथा सबके भोजन कर लेनेपर बचा हुआ अन्न; शूद्रापति द्विज, वृषवाही द्विज, दीक्षाहीन द्विन, शवदाही, अगम्या स्त्रीके साथ गमन करनेवाले द्विज, मित्रद्रोही, विश्वासघाती, कृतघ्न तथा झूठी गवाही देनेवाले और तीर्थप्रतिग्राही ब्राह्मणोंका अन्न ग्रहण करनेवाले- ये सभी भगवान् विष्णुका नैवेद्य भक्षण करनेसे शुद्ध हो जाते हैं ।। 32-363
यदि चाण्डाल भी भगवान् विष्णुकी उपासना करता है, तो वह अपनी करोड़ों पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। भगवान् श्रीहरिकी भक्ति न करनेवाला मनुष्य स्वयं अपनी भी रक्षा करनेमें असमर्थ रहता है ।॥ 376 ॥
यदि कोई मनुष्य अनजानमें भी श्रीविष्णुका नैवेद्य ग्रहण कर लेता है, वह अपने सात जन्मोंके अर्जित पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है जो ज्ञानपूर्वक भक्तिके साथ भगवान् विष्णुका नैवेद्य ग्रहण करता है, वह तो करोड़ों जन्मोंके अर्जित पापोंसे मुक्त हो जाता है—यह निश्चित है। हे इन्द्र ! तुमने जो अभिमानवश इस पारिजात पुष्पको हाथीके मस्तकपर फेंक दिया है, इस अपराधके कारण लक्ष्मीजी तुमलोगोंका परित्याग करके भगवान् श्रीहरिके लोकमें चली जायें॥ 38-40 ॥
मैं नारायणका भक्त हूँ। मैं देवता, ब्रह्मा, काल, मृत्यु तथा जरासे भी भयभीत नहीं होता तो फिर अन्य किन लोगोंकी गिनती करूँ। हे इन्द्र तुम्हारे पिता प्रजापति कश्यप और गुरु बृहस्पति मुझ निःशंकका क्या कर लेंगे? यह पारिजात पुष्प जिसके सिरपर रहता है, | उसीकी पूजा श्रेष्ठ मानी जाती है ॥ 41-43 ॥यह सुनकर देवराज इन्द्र मुनि दुर्वासाके चरण पकड़कर शोकसन्तप्त तथा भयसे व्याकुल हो उच्च स्वरसे रोने लगे और उनसे कहने लगे ॥ 44
महेन्द्र बोले- हे प्रभो! आपने मुझे अत्यन्त उचित शाप दिया है; क्योंकि यह मायाका नाश कर देनेवाला है। मैं अपनी अपहृत सम्पत्तिकी याचना नहीं कर रहा हूँ, आप मुझे कुछ ज्ञानोपदेश दीजिये। [ क्योंकि यह लौकिक ] ऐश्वर्य समस्त विपत्तियोंका बीजस्वरूप है, ज्ञानका आच्छादन कर देनेवाला है. मुक्तिमार्गका कुठार है तथा भक्तिमें व्यवधान उत्पन्न करनेवाला है ।। 45-46 ॥
मुनि बोले- यह ऐश्वर्य जन्म, मृत्यु, जरा, शोक और रोगके बीजका महान् अंकुर है। सम्पत्तिके घोर अन्धकारसे अन्धा बना हुआ मानव मुक्तिका मार्ग नहीं देख पाता है ।। 47 ।।
हे इन्द्र जो मूर्ख सम्पत्तिसे उन्मत्त है, उसको वास्तवमें मदिरापानसे भी प्रमत्त समझना चाहिये। बन्धु बान्धव उसे बन्धु समझकर सदा घेरे रहते हैं ॥ 48 ॥
सम्पत्तिके मदमें उन्मत्त वह व्यक्ति विषयान्ध, विह्वल, महाकामी और राजसिक होकर सात्त्विक | मार्गका अवलोकन नहीं कर पाता है ।। 49 ।। विषयान्ध भी राजस तथा तामस भेदसे दो प्रकारका बताया गया है। शास्त्रज्ञानसे हीन व्यक्तिको तामस तथा शास्त्रज्ञको राजस कहा गया है ॥50॥
हे सुरश्रेष्ठ! शास्त्र भी दो प्रकारके मार्ग दिखलाता है। एक संसृतिका हेतु है तथा दूसरा निवृत्तिका कारण कहा गया है ॥ 51 ॥
पहले प्रवृत्तिबीजरूपी दुःखमय मार्गपर सभी प्राणी स्वच्छन्द तथा प्रसन्न होकर निर्विरोधभावसे निरन्तर चलते रहते हैं। जैसे मधुके लोभसे भरा अत्यन्त सुख मानकर क्लेशके साथ पुष्पोंपर आता है, वैसे ही मनुष्य परिणाममें विनाशके बीजस्वरूप तथा जन्म-मृत्यु जराके आश्रयस्वरूप इस प्रवृत्तिमार्गपर अग्रसर होता है । ll52-53 ॥प्रसन्नतापूर्वक अनेक जन्मोंतक अपने किये कर्मके परिणामस्वरूप नाना प्रकारकी योनियोंमें क्रमशः भ्रमण करनेके पश्चात् भगवान्की कृपासे ही सैकड़ों तथा हजारों प्राणियोंमेंसे कोई बिरला ही संसारसागरसे पार करनेवाले सत्संगको प्राप्त कर पाता है 54-55
जब कोई साधु तत्त्वज्ञानरूपी दीपकसे उसे मुक्तिमार्ग दिखा देता है, तब संसारबन्धनको तोड़नेके लिये जीव प्रयत्न करने लगता है। अनेक जन्मोंमें किये गये तप तथा उपवाससे जब मानवका पुण्योदय होता है, तब वह निर्विघ्न तथा परम सुखप्रद मुक्तिमार्गको प्राप्त कर पाता है। हे इन्द्र ! तुम जो बात पूछ रहे हो, उसे मैंने गुरुके मुखसे सुना है ।। 56-573 ।।
हे ब्रह्मन् मुनि दुर्वासाका यह वचन सुनकर देवराज इन्द्र रागरहित हो गये और उनके हृदयमें दिनोंदिन वैराग्यकी भावना बढ़ने लगी ॥ 58 ॥
तत्पश्चात् मुनिके स्थानसे अपने भवन पहुँचकर इन्द्रने देखा कि अमरावतीपुरी दैत्यों तथा असुरोंसे भरी हुई है, चारों ओर भय व्याप्त है, सर्वत्र विषमता तथा उपद्रवकी स्थिति है, कहीं किसीके पुत्र तथा बन्धु बान्धव नहीं थे, कहीं किसीके माता-पिता और स्त्री आदिने उसका साथ छोड़ दिया है, चारों ओर हलचल मची हुई है तथा सम्पूर्ण नगरी शत्रुओंसे पूर्णतया आक्रान्त है। उस अमरावतीको इस स्थितिमें देखकर इन्द्र देवगुरु बृहस्पतिके पास गये ।। 59-61 ॥
मन्दाकिनीनदीके तटपर पहुँचकर देवराज इन्द्रने देखा कि गुरुदेव बृहस्पति पूरबकी ओर सूर्यके अभिमुख हो गंगाजलमें खड़े होकर सर्वतोमुख परब्रह्म परमात्माका ध्यान कर रहे हैं और पुलकित तथा प्रसन्नतायुक्त उनके नेत्रोंसे अश्रु गिर रहे हैं। परम श्रेष्ठ, आदरणीय, धर्मनिष्ठ, श्रेष्ठ जनोंद्वारा सेवित, बन्धुवर्गों में अति महान्, ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ, भाई-बन्धुओंमें ज्येष्ठ तथा देवशत्रुओंके लिये अनिष्टकारी गुरु बृहस्पतिको जप करते हुए देखकर सुरेश्वर इन्द्र वहींपर स्थित हो गये ॥ 62-65 ॥एक प्रहरके बाद गुरुको ध्यानसे उपरत देखकर इन्द्रने उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात् उनके चरणकमलमें | मस्तक झुकाकर इन्द्र उच्च स्वरसे बार-बार विलाप | करने लगे। देवराज इन्द्रने गुरु बृहस्पतिसे दुर्वासाके द्वारा प्रदत्त शाप आदिसे सम्बन्धित सारा वृतान्त वरकी उपलब्धि, दुर्वासासे अत्यन्त दुर्लभ ज्ञानको प्राप्ति और शत्रुओंसे आक्रान्त अपनी नगरीके विषयमें सभी बातें क्रमसे कहीं ॥ 66-676 ॥
अपने शिष्य इन्द्रकी बात सुनकर क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले परम बुद्धिमान् तथा वक्ताओंमें श्रेष्ठ बृहस्पति | इस प्रकार कहने लगे- ॥ 68 ॥
गुरु बोले- हे सुरश्रेष्ठ! मैंने सब कुछ सुन लिया, मत रोओ, मेरी बात सुनो नीतिज्ञ पुरुष विपत्तिकालमें कभी भी घबराता नहीं; क्योंकि सम्पत्ति अथवा विपत्ति नश्वर हैं। ये दोनों ही श्रमसाध्य हैं। सम्पति अथवा विपत्ति अपने पूर्व जन्ममें किये गये कर्मका फल है और उन्हींके अधीन होकर कर्ताको स्वयं फल भोगना पड़ता है। सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये प्रत्येक जन्ममें यही स्थिति है, जो चक्रमण्डलकी भाँति निरन्तर आती-जाती रहती है, अतः इस विषयमें चिन्ताकी क्या आवश्यकता है ? ॥ 69-713 ॥
ऐसा कहा गया है कि सम्पूर्ण भारतमें अपने द्वारा किये गये कर्मका फल भोगना ही पड़ता है। शुभ अथवा अशुभ जो कुछ भी कर्म मनुष्य करता है, वह उसे भोगता ही है। सैकड़ों करोड़ों कल्प बीत जानेके बाद भी बिना भोगे हुए कर्मोंका क्षय नहीं होता ॥ 72-73 ॥
अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मका फल अवश्य भोगना पड़ता है—ऐसा परमात्मा श्रीकृष्णने ब्रह्माजीको सम्बोधित करके सामवेदकी शाखामें कहा है किये हुए सम्पूर्ण कर्मोंका भोग शेष रह जानेपर उन प्राणियोंका कर्मानुसार भारतवर्षमें अथवा अन्यत्र जन्म होता है ।। 74-753 ।।
प्राणी कर्मसे ही ब्रह्मशाप, कर्मसे ही शुभाशीर्वाद, कर्मसे ही महालक्ष्मी और कर्मसे ही दरिद्रता प्राप्त करता है। हे पुरन्दर! करोड़ों जन्मोंके संचित कर्म प्राणी के पीछे उसको छायाकी भाँति लगे रहते हैं और बिना भोगे उस प्राणीको नहीं छोड़ते ॥ 76-776॥काल, देश और पात्रके भेदसे कर्मोंका न्यूनाधिक भाव हुआ ही करता है। साधारण समयमें दानमें दी गयी वस्तुओंका साधारण फल होता है। यदि किसी विशेष पुण्य दिनमें कोई वस्तु दानमें दी जाती है तो | उसका फल साधारण दिनकी अपेक्षा करोड़ों गुना उससे भी अधिक या असंख्य गुना प्राप्त होता है ।। 78-79 ।।
उसी प्रकार हे इन्द्रदेव! साधारण स्थानमें दानमें दी गयी वस्तुका साधारण पुण्य होता है, किंतु देशभेदके अनुसार किसी विशेष स्थानमें दानका फल करोड़ गुना या उससे भी अधिक असंख्य गुना होता है ॥ 80 ॥
साधारण पात्रको दान करनेपर उन वस्तुओंका दान करनेवालेको उसका साधारण पुण्य मिलता है, किंतु किसी विशेष पात्रको दान देनेसे उसकी अपेक्षा सौ गुना या उससे अधिक असंख्य गुना पुण्य होता है । 813 ॥ जैसे क्षेत्रभेदसे भिन्न-भिन्न खेतोंमें बीज बोनेपर किसानोंके लिये कम या अधिक धान्य उत्पन्न होते हैं, वैसे ही पात्रभेदसे दान देनेपर दाता न्यूनाधिक फल प्राप्त करता है ॥ 823 ॥
सामान्य दिनमें ब्राह्मणको दिये गये दानका सामान्य फल होता है, किंतु अमावास्या तथा सूर्यसंक्रान्तिको दान देनेसे सौ गुना फल होता है और चातुर्मास्यमें तथा पूर्णिमा तिथिको दिये गये दानका अनन्त फल होता है। चन्द्रग्रहणके अवसरपर दान देनेसे करोड़ गुना फल प्राप्त होता है तथा सूर्यग्रहणके समयपर दिये गये दानका फल उससे भी दस गुना अधिक होता है। अक्षय तृतीयाको दिया गया दान अक्षय होता है और उसका अनन्त फल कहा गया है। इसी प्रकार अन्य पर्वदिनोंमें भी फलोंकी अधिकता हो जाती है। जिस प्रकार दानके फलमें आधिक्य हो जाता है, उसी प्रकार स्नान, जप तथा अन्य पुण्यकार्यों में भी होता है। मनुष्योंके लिये कर्मफलके विषयमें इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये ।। 83-87 ॥
जिस प्रकार पृथ्वीलोकमें कुम्भकार दण्ड, चक्र, शराव और भ्रमणके द्वारा मिट्टीसे कुम्भका निर्माण करता है, उसी प्रकार विधाता कर्मसूत्रसे प्राणियोंको फल प्रदान करते हैं ।। 88 ।।[ अतः हे देवराज !] जिनकी आज्ञासे इस जगत्की सृष्टि हुई है, उन भगवान् नारायणकी आप आराधना कीजिये । वे भगवान् नारायण त्रिलोकीमें विधाताके भी विधाता, पालन करनेवालेके भी पालक, सृष्टि करनेवालेके भी स्रष्टा, संहार करनेवालेके भी संहारक और कालके भी काल हैं ॥ 89-90॥
जो मनुष्य इस संसारमें घोर विपत्तिके समयमें भगवान् मधुसूदनका स्मरण करता है, उसके लिये उस विपत्तिमें भी सम्पत्ति उत्पन्न हो जाती है - ऐसा भगवान् शंकरने कहा है । ॥ 91 ॥
हे नारद! ऐसा कहकर तत्त्वज्ञानी बृहस्पतिने देवराज इन्द्रको हृदयसे लगाकर और शुभाशीर्वाद देकर उन्हें अभीष्ट बात समझा दी ॥ 92 ॥