जनमेजय बोले- सम्पूर्ण शास्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ तथा समस्त धर्मोंको जाननेवाले हे भगवन्! सभी द्विजातियोंके लिये शक्तिकी उपासना नित्य होनेके कारण तीनों सन्ध्या- कालोंमें तथा अन्य समयमें भी करणीय है-ऐसा श्रुतिका कथन है तो फिर हे विभो ! उन भगवतीको छोड़कर द्विजगण अन्य देवताओंकी उपासना क्यों करते हैं ? ॥ 1-2 ॥
कुछ विष्णुके उपासक, कुछ गणपतिके उपासक, कुछ कापालिक, कुछ चीनमार्गी, कुछ वल्कलधारी, कुछ दिगम्बर, कुछ बौद्ध, कुछ चार्वाक आदि दिखायी पड़ते हैं। इसी प्रकार लोकमें बहुतसे ऐसे लोग भी दिखायी देते हैं, जो वेदोंके प्रति श्रद्धा भावसे रहित हैं। हे ब्रह्मन् इसमें क्या कारण है? वह मुझे बतानेकी आप कृपा कीजिये ।। 3-43 ॥
कुछ बुद्धिमान् पण्डित और अनेक प्रकारके तर्क करनेमें दक्ष विद्वान् लोग भी हैं, जो वेदोंके प्रति श्रद्धा विहीन हैं। कोई भी व्यक्ति जान-बूझकर अपने कल्याणका परित्याग नहीं करना चाहता है, तो फिर वे ऐसा क्यों करते हैं? हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! इसमें क्या कारण है; मुझे बतलाइये ॥ 5-63 ॥
आपने पहले मणिद्वीपकी महिमाका वर्णन किया था। भगवतीका वह परम उत्तम स्थान कैसा है ? हे अनघ ! आप मुझ श्रद्धावान् भक्तको इसे भी बताइये; क्योंकि प्रसन्न गुरुजन गुप्त बात भी बता देते हैं ।। 7-83 ॥सूतजी बोले- हे मुनीश्वरो ! महाराज जनमेजयकी यह बात सुनकर भगवान् वेदव्यासने उन्हें क्रमसे वह सब कुछ बतला दिया, जिसे सुनकर द्विजातियोंके मनमें वेदोंके प्रति श्रद्धा बढ़ जाती है ॥ 9-10 ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! इस समय आपने पूछा है, वह अत्युत्तम तथा कालके अनुरूप ही है। आप बुद्धिमान् तथा वेदोंमें श्रद्धा रखनेवाले प्रतीत होते हैं ॥ 11 ॥
हे महाराज ! पूर्वकालमें मदसे उन्मत्त दानवोंने देवताओंके साथ सौ वर्षोंतक एक अत्यन्त विस्मयकारक युद्ध किया था ॥ 12 ॥
हे नृप ! अनेक प्रकारके शस्त्रोंके प्रहार तथा अनेक प्रकारकी मायाओंके प्रयोगसे भरा उनका वह युद्ध जगत्के लिये अत्यन्त विनाशकारी सिद्ध हुआ ॥ 13 ॥ उस समय पराशक्ति भगवतीकी कृपासे देवताओंने युद्धमें दैत्योंको जीत लिया और वे दैत्य भूलोक तथा स्वर्ग छोड़कर पाताललोकमें चले गये ॥ 14 ॥
इस विजयसे अत्यन्त हर्षित देवतागण मोहके कारण अभिमानयुक्त होकर चारों ओर परस्पर अपने पराक्रमकी इस प्रकार चर्चा करने लगे- हमारी विजय क्यों न हो? क्योंकि हमारी महिमा सर्वोत्तम है कहाँ ये अधम और पराक्रमहीन दैत्य तथा कहाँ सृजन, पालन तथा संहार करनेवाले हम यशस्वी देवता! तो फिर हमारे सामने असहाय दैत्योंकी बात ही क्या ॥ 15 - 17 ॥
हे राजन् ! पराशक्तिके प्रभावको न जाननेके कारण ही वे देवता मोहित हो गये थे। तब उनके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये दयामयी जगदम्बा एक यक्षके रूपमें प्रकट हुईं ॥ 183 ॥
करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशवाले, करोड़ों चन्द्रमाओंके समान अत्यन्त शीतल, करोड़ों विद्युत्के समान आभावाले और हाथ-पैर आदि अवयवोंसे रहित, पहले कभी न देखे गये उस परम सुन्दर तेजको | देखकर देवता महान् विस्मयमें पड़ गये और कहने लगे-यह क्या है। यह क्या है। यह दैत्योंकी चेष्टा है अथवा कोई बलवती माया है ? देवताओंको आश्चर्यचकित करनेवाली यह माया किसके द्वारारची गयी है ? तब उन सभी देवताओंने एकत्र होकर उत्तम विचार किया कि यक्षके समीप जाकर पूछना चाहिये कि 'तुम कौन हो ?' इस प्रकार उसके बलाबलकी जानकारी कर लेनेके पश्चात् ही कोई प्रतिक्रिया करनी चाहिये ।। 19 - 23 ॥
तत्पश्चात् देवराज इन्द्रने अग्निको बुलाकर उनसे कहा- 'हे अग्निदेव ! आप जाइये। चूँकि आप ही हम लोगोंके उत्तम मुख हैं, इसलिये वहाँ जाकर इसकी जानकारी कीजिये कि यह यक्ष कौन है' ॥ 243 ॥ हजार नेत्रोंवाले इन्द्रके मुखसे अपने प्रति पराक्रमसे युक्त वचन सुनकर वे अग्निदेव अत्यन्त वेगपूर्वक निकल पड़े और शीघ्र ही यक्षके पास जा पहुँचे ॥ 253 ॥ तब यक्षने उन अग्निसे पूछा- 'तुम कौन हो ? तुममें कौन-सा पराक्रम है ? जो हो वह सब मुझे बतलाओ' ॥ 263 ॥
इसपर उसने कहा-'मैं अग्नि हूँ; मैं जातवेदा हूँ। सम्पूर्ण विश्वको दग्ध कर डालनेका सामर्थ्य मुझमें विद्यमान है' ॥ 273 ॥
तब परम तेजस्वी यक्षने अग्निके समक्ष एक तृण रख दिया और कहा-'यदि विश्वको भस्म करनेकी शक्ति तुममें है, तो इसे जला दो' ॥ 283 ॥
तब अग्निने अपनी सम्पूर्ण शक्तिका प्रयोग करते हुए उस तृणको जलानेका प्रयास किया, किंतु वे उस तृणको भस्म करनेमें समर्थ नहीं हुए और लज्जित | होकर देवताओंके पास लौट गये ॥ 293 ॥
देवताओंके द्वारा वृत्तान्त पूछे जानेपर अग्निदेवने सब कुछ बता दिया और कहा- हे देवताओ! सर्वेश आदि बननेमें हमलोगोंका अभिमान सर्वथा व्यर्थ है ॥ 303 ॥
तत्पश्चात् वृत्रासुरका संहार करनेवाले इन्द्रने वायुको बुलाकर यह कहा - सम्पूर्ण जगत् आपमें व्याप्त है और आपकी ही चेष्टाओंसे यह क्रियाशील है। आप प्राणरूप होकर सभी प्राणियोंमें सम्पूर्ण शक्तिका संचार करते हैं। आप ही जाकर यह जानकारी प्राप्त कीजिये कि यह यक्ष कौन है ? क्योंकि अन्य कोई भी उस परम तेजस्वी यक्षको जाननेमें समर्थ नहीं है ॥ 31-33 ॥गुण और गौरवसे समन्वित इन्द्रकी बात सुनकर वे वायुदेव अभिमानसे भर उठे और शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये, जहाँ यक्ष विराजमान था ॥ 34 ॥
तब वायुको देखकर यक्षने मधुर वाणीमें कहा तुम कौन हो ? तुममें कौन-सी शक्ति है ? यह सब मेरे सामने बतलाओ ॥ 35॥
यक्षका वचन सुनकर वायुने गर्वपूर्वक कहा 'मैं मातरिश्वा हूँ; मैं वायु हूँ। सबको संचालित करने तथा ग्रहण करनेकी शक्ति मुझमें विद्यमान है। मेरी चेष्टासे ही सम्पूर्ण जगत् सब प्रकारके व्यवहार वाला होता है' ॥ 36-37॥
वायुकी यह वाणी सुनकर परम तेजस्वी यक्षने कहा- तुम्हारे सामने यह जो तृण रखा हुआ है, उसे तुम अपनी इच्छाके अनुसार गतिमान् कर दो; अन्यथा इस अभिमान का त्याग करके लज्जित हो इन्द्रके पास लौट जाओ ॥ 383 ॥
यक्षका वचन सुनकर वायुदेवने अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर उस तृणको उड़ानेका प्रयत्न किया, किंतु वह तृण अपने स्थानसे हिलातक नहीं। तब वे पवनदेव लज्जित होकर अभिमानका त्याग करके इन्द्रके पास चले गये । 39-40 ॥
उन्होंने अभिमानको चूर करनेवाला सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाते हुए कहा- 'मिथ्या गर्व तथा अभिमान करनेवाले हमलोग इस यक्षको जाननेमें समर्थ नहीं हैं। परम प्रचण्ड तेजवाला यह यक्ष अलौकिक प्रतीत हो रहा है ' ॥ 413 ॥
तत्पश्चात् सभी देवताओंने सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रसे कहा-' आप देवताओंके स्वामी हैं, अतः अब आप ही यक्षके विषयमें ठीक-ठीक जाननेका प्रयत्न कीजिये ' ॥ 423 ॥
तब इन्द्र अत्यन्त अभिमानपूर्वक उस यक्षके पास गये। उनके पहुँचते ही यक्षरूप परात्पर परम तेज शीघ्र ही अदृश्य हो गया। जब वह यक्ष इन्द्रके सामनेसे अन्तर्हित हो गया तब देवराज इन्द्र अत्यन्त लज्जित हो गये और यक्षके उनसे बाततक न करनेके कारण वे मनमें अपनेको छोटा समझने लगे। वे | सोचने लगे कि अब मुझे देवताओंके समाजमें नहीं जाना चाहिये; क्योंकि वहाँ देवताओंके समक्ष अपनीइस हीनताके विषयमें क्या बताऊँगा। अतः शरीरका त्याग कर देना ही मेरे लिये अच्छा होगा; क्योंकि मान ही महापुरुषोंका धन होता है। मानके नष्ट हो जानेपर मनुष्यका जीवित रहना मृत्युके समान है, इसमें संशय नहीं है ll 43 - 47 ll
यह निश्चय करके देवराज इन्द्र अभिमान त्यागकर उन्हीं पराशक्तिकी शरणमें गये, जिनकी ऐसी अद्भुत लीला है ॥ 48 ॥ उसी क्षण गगन मण्डलमें यह आकाशवाणी
हुई— 'हे सहस्राक्ष ! तुम मायाबीजका जप करो और उससे सुखी हो जाओ' ॥ 49 ll तब इन्द्रने नेत्र बन्द करके देवीका ध्यान करते हुए निराहार रहकर एक लाख वर्षतक अतिश्रेष्ठ परम मायाबीजका जप किया ॥ 50 ॥
एक दिन चैत्रमासके शुक्ल पक्षमें नवमी तिथिको
मध्याह्नकालमें उसी स्थलपर सहसा एक महान् तेज
प्रकट हुआ ॥ 51 ॥
इन्द्रने उस तेजमण्डलके मध्यमें नूतन यौवनसे सम्पन्न, कुमारी अवस्थामें विद्यमान, प्रभायुक्त जपाकुसुमकी कान्तिसे सम्पन्न, प्रातः कालीन करोड़ों सूर्यकी प्रभासे सुशोभित, द्वितीयाके चन्द्रमासदृश मुकुट धारण किये हुई, वस्त्रके अन्दरसे परिलक्षित होते हुए वक्षःस्थलवाली, अपने चारों श्रेष्ठ हाथोंमें वर-पाश अंकुश और अभयमुद्रा धारण करनेवाली, अत्यन्त मनोहर अंगोंसे सम्पन्न, कोमल लताके समान अंगोंवाली, कल्याणस्वरूपिणी, भक्तोंके लिये कल्पवृक्षस्वरूपा, नानाविध आभूषणोंसे सुशोभित, तीन नेत्रोंवाली, अपनी वेणीमें चमेलीकी माला धारण की हुई, चारों दिशाओंमें स्थित होकर मूर्तिमान् चारों वेदोंद्वारा स्तुत होती हुई, अपने दाँतोंकी प्रभासे वहाँकी भूमिको पद्मरागमय बना देनेवाली, प्रसन्नता तथा मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाली, करोड़ों कामदेवके समान सुन्दर | रक्तवर्णके वस्त्र धारण की हुई, लालचन्दनसे अनुलिप्त विग्रहवाली, समस्त कारणोंकी भी कारण तथा बिना किसी हेतुके साक्षात् करुणाकी मूर्तिस्वरूपा उमा नामसे विख्यात जगदम्बा हैमवती भगवती शिवाको | अपने समक्ष देखा। इससे इन्द्रका अन्तःकरण प्रेमसे | गद्गद हो उठा ॥ 52 - 58 ॥प्रेमाश्रुओंसे पूर्ण नयनवाले तथा रोमांचित शरीरवाले इन्द्रने उन जगदीश्वरीके चरणोंमें दण्डकी भाँति गिरकर प्रणाम किया और अनेक प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति की। भक्ति भावसे सम्पन्न हो सिर | झुकाकर परम प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रने देवीसे कहा- हे सुशोभने ! यह यक्ष कौन था और किसलिये प्रकट हुआ था? यह सब आप मुझे बतलाइये ॥ 59-603 ॥
उनकी यह बात सुनकर करुणासागर भगवतीने कहा- यह मेरा ही रूप है; यही ब्रह्म है जो मायाका अधिष्ठानस्वरूप, सबका साक्षी, निर्विकार और समस्त कारणोंका भी कारण है ॥ 61-62 ॥
सभी वेद जिस पदका बार-बार प्रतिपादन करते हैं, समस्त तप भी तपश्चरणके द्वारा जिस पदकी प्राप्तिको बताते हैं और साधकगण जिसकी प्राप्तिकी अभिलाषासे ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, उसी पदको मैं तुम्हें नामपूर्वक बतलाती हूँ ॥ 63 ॥
उसीको 'ॐ' एक अक्षरवाला ब्रह्म कहते हैं और वही 'ह्रीं' रूप भी है। हे सुरश्रेष्ठ! ह्रीं और ॐ ये दो मेरे मुख्य बीजमन्त्र हैं। इन्हीं दो भागोंसे सम्पन्न होकर मैं सम्पूर्ण जगत्का सृजन करती हूँ। उनमें एक भाग सच्चिदानन्द नामवाला कहा गया है और दूसरा भाग मायाप्रकृति संज्ञावाला कहा गया है। वह माया ही परा शक्ति है और सम्पूर्ण जगत्पर प्रभुत्व रखनेवाली वह शक्तिशालिनी देवी मैं ही हूँ॥ 64–66 ॥
यह माया चन्द्रमाकी चाँदनीकी भाँति अभिन्नरूपसे सर्वदा मुझमें विराजमान रहती है। हे सुरोत्तम! साम्यावस्थास्वरूपिणी मेरी यह माया सम्पूर्ण जगत्के प्रलय होते समय भी मुझसे भिन्न नहीं रहती है। प्राणियोंके कर्मपरिपाकवश मायाका वही अव्यक्तरूप पुनः व्यक्तरूप धारण कर लेता है । 67-683 ॥
जो अवस्था अन्तर्मुखी है, वह माया कही जाती है और जो बहिर्मुखी अवस्थावाली माया है, वह तम (अविद्या) नामसे कही जाती है। तमोरूपिणी उस बहिर्मुखी मायासे प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है। हे सुरश्रेष्ठ! सृष्टिके आदिमें यह माया रजोगुणरूपसे विद्यमान रहती है ॥ 69-70 3 ।।ब्रह्मा, विष्णु और महेश- ये देवता त्रिगुणात्मक कहे गये हैं। ब्रह्मामें रजोगुणकी अधिकता, विष्णुमें सत्त्वगुणकी अधिकता तथा सभी कारणोंके स्वरूपवाले रुद्रमें तमोगुणकी अधिकता रहती है ॥ 71-72 ॥
ब्रह्मा स्थूलदेहवाले हैं। विष्णु लिंगदेहवाले तथा रुद्र कारणदेहवाले कहे गये हैं। जो सर्वान्तर्यामिस्वरूपिणी साम्यावस्था कही गयी है, वह तुरीयरूपा मैं ही हूँ और इसके भी ऊपर जो निराकार परब्रह्म है, वह भी मेरा ही रूप है ।। 73-74 ।।
निर्गुण तथा सगुण - यह मेरा दो प्रकारका रूप कहा जाता है। मायासे रहित रूप निर्गुण और मायायुक्त रूप सगुण है। वहीं मैं सम्पूर्ण जगत्की रचना करके उसके भीतर भलीभाँति प्रविष्ट होकर जीवको उसके कर्म तथा शास्त्रके अनुसार निरन्तर प्रेरित करती रहती हूँ ॥ 75-76 ॥
ब्रह्माको सृष्टि करने, विष्णुको जगत्का पालन करने और कारणरूप रुद्रको संहार करनेके लिये मैं ही प्रेरणा प्रदान करती हूँ ॥ 77 ॥
वायु मेरे भयसे प्रवाहित होता है और सूर्य मेरा भय मानकर निरन्तर गति करता रहता है। उन्हींकी भाँति इन्द्र, अग्नि और यम भी मेरे भयसे अपने-अपने कार्य सम्पन्न करते हैं। इसीलिये मैं सर्वश्रेष्ठ कही गयी हूँ ॥ 78 ॥
आप सभी देवताओंने मेरी ही कृपासे सब प्रकारकी विजय प्राप्त की है। मैं आपलोगोंको कठपुतलीके समान नचाती रहती हूँ ॥ 79 ॥
मैं कभी देवताओंकी विजय कराती हूँ और कभी दैत्योंकी। मैं स्वतन्त्र होकर अपनी इच्छासे सभीके कर्म विपाकके अनुसार सब कुछ सम्पादित करती हूँ ॥ 80 ॥
अहंकारसे आवृत बुद्धिवाले तुमलोग अपने गर्वसे वैसी प्रभाववाली मुझ सर्वात्मिका भगवतीको भूलकर दुःखदायी मोहको प्राप्त हो गये थे। इसलिये तुमलोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये तुमलोगोंके शरीरसे मेरा दिव्य तेज निकलकर यक्षके रूपमें प्रकट हो गया था ।। 81-82 ।।अब तुमलोग अपने देहसे उत्पन्न गर्वका सब प्रकारसे त्याग करके मुझ सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवतीकी ही शरणमें आ जाओ ॥ 83 ॥
व्यासजी बोले – [हे जनमेजय!] ऐसा कहकर मूलप्रकृतिरूपा सर्वेश्वरी महादेवी देवताओंके द्वारा भक्ति पूर्वक सुपूजित होकर तत्काल अन्तर्धान हो गयीं ॥ 84 ॥
तत्पश्चात् सभी देवता अपने अभिमानका त्याग करके भगवतीके परात्पर चरणकमलकी विधिवत् आराधना करने लगे। वे सब तीनों सन्ध्याओंमें सदा गायत्री जपमें संलग्न रहते थे और यज्ञ-भाग आदिके द्वारा नित्य भगवतीकी उपासना करते थे । 85-86 ॥
इस प्रकार सत्ययुगमें सभी लोग गायत्री-जपमें तत्पर थे और वे प्रणव तथा हल्लेखाके जपमें भी दत्तचित्त रहते थे ॥ 87 ॥
वेदके द्वारा कहीं भी विष्णुकी उपासना तथा विष्णु-दीक्षा नित्य नहीं कही गयी है; उसी प्रकार शिवकी भी उपासना तथा दीक्षा नित्य नहीं कही गयी है, किंतु गायत्रीकी उपासना सभी वेदोंके द्वारा नित्य कही गयी है, जिसके बिना ब्राह्मणका सब प्रकार अध: पतन हो जाता है। द्विज केवल उतनेसे ही कृतकृत्य हो जाता है, उसे किसी अन्य साधनकी अपेक्षा नहीं रहती। केवल गायत्री उपासनामें ही तत्पर रहकर द्विज मोक्ष प्राप्त कर लेता है, चाहे वह अन्य कार्य करे अथवा न करे- ऐसा मनुने स्वयं कहा है। उन गायत्रीके बिना विष्णु तथा शिवकी उपासनामें संलग्न रहनेवाला विप्र सब प्रकारसे नरकगामी होता है। इसीलिये हे राजन् ! सत्ययुगमें सभी उत्तम द्विजगण गायत्रीजप तथा भगवतीके चरणकमलकी उपासनामें निरन्तर संलग्न रहते थे ॥ 88-92॥