श्रीनारायण बोले- ब्रह्माके पुत्र महाभाग नारद ब्रह्मदेवकी सभामें उन भगवान् शेषकी महिमाका गान करते हुए उनकी उपासना करते हैं ॥ 1 ॥
जिनका दर्शन पाकर इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके हेतुभूत सत्त्वादि प्राकृतिक गुणोंमें अपने कार्य करनेकी क्षमता आ जाती है, जिनका रूप अनन्त तथा अनादि है, जो अकेले होते हुए ही इस नानात्मक प्रपंचको धारण किये हुए हैं उन भगवान् संकर्षणके तत्त्वको कोई कैसे जान सकता है ? ॥ 2 ॥
जिनमें यह सत्-असत्रूप सारा प्रपंच भास रहा है तथा स्वजनोंका चित्त आकर्षित करनेके लिये की हुई जिनकी वीरतापूर्ण लीलाको परम पराक्रमी मृगराज सिंहने आदर्श मानकर अपनाया है, उन उदारवीर्य भगवान् संकर्षणने हमपर बड़ी कृपा करके यह विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप धारण किया है ॥ 3 ॥यदि कोई दुःखी अथवा पतित मनुष्य अकस्मात् अथवा हँसी-हँसीमें उनके सुने हुए नामका एक बार भी उच्चारण कर लेता है तो वह दूसरे मनुष्योंके भी | सभी पापोंको शीघ्र ही नष्ट कर देता है-ऐसे भगवान् शेषको छोड़कर मोक्षकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य अन्य किसका आश्रय ग्रहण करे ? ॥ 4 ॥
पर्वत, नदी और समुद्र आदिसे पूर्ण यह सम्पूर्ण भूमण्डल उन हजार सिरोंवाले भगवान् शेषके एक मस्तकपर धूलके एक कणके समान स्थित है। वे अनन्त हैं, इसलिये उनके पराक्रमका कोई परिमाण नहीं है। किसीके हजार जीमें हों, तो भी उन सर्वव्यापक भगवान्के पराक्रमकी गणना वह कैसे कर सकता है ? ॥ 5 ॥
वास्तवमें उनका वीर्य, अतिशय गुण और प्रभाव असीम है। ऐसे प्रभावशाली भगवान् अनन्त रसातलके मूलमें अपनी ही महिमामें स्थित होकर स्वतन्त्र हैं और सम्पूर्ण लोकोंकी स्थितिके लिये पृथ्वीको अपनी लीलासे धारण किये हुए हैं ॥ 6 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! निरन्तर भोगोंकी कामना करनेवाले पुरुषोंकी अपने कर्मोके अनुसार प्राप्त होनेवाली रची हुई ये ही गतियाँ कही गयी हैं। जैसा मुझे उपदेश प्राप्त हुआ, वैसा कह दिया हे राजेन्द्र ! मनुष्यों, पशुओं और पक्षियोंके प्रवृत्तिधर्मके परिणामस्वरूप प्राप्त होनेवाली परस्पर विलक्षण ऊँच-नीच गतियाँ इतनी ही हैं जो आपने पूछा था, उसे मैंने बता दिया और आगे भी सुनिये ।। 7-9 ॥
नारदजी बोले - सभी प्राणियोंके कर्म समान होनेपर भी भगवान्ने उन लोगोंमें यह विभिन्नता क्यों की है? इसे आप यथार्थरूपमें बताइये ॥ 10 ॥
श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] कर्ताकी श्रद्धाके सात्त्विक, राजस और तामस इन तीन भिन्न-भिन गुणोंके कारण गतियाँ भी अलग-अलग होती हैं और इसीलिये उनका फल भी भिन्न-भिन्न होता है ॥ 11 ॥
सात्विक श्रद्धाके द्वारा कर्ताको सदा सुखकी प्राप्ति होती है, राजसी श्रद्धासे कर्ताको दुःख मिलता है और | तामसी श्रद्धाके प्रभावसे कर्तामें दुःख और मूढ़ता दोनोंका उदय होता है। इस प्रकार श्रद्धाओंके तारतम्यसे फलोंमें भी विचित्रता बतायी गयी है। ll 12-13 llहे मुनिश्रेष्ठ! अनादि मायाके बनाये हुए कर्मोंके परिणामस्वरूप हजारों प्रकारकी गतियाँ प्रवृत्त होती हैं। हे द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं उन गतियोंके भेदोंका विस्तारसे वर्णन करूँगा 146 ॥
हे नारद! त्रिलोकीके भीतर दक्षिण दिशामें अग्निष्वात्ता नामक पितृगण तथा अन्य पितर निवास करते हैं। यह स्थान पृथ्वीसे नीचे तथा अतल लोकसे ऊपर है। सत्यस्वरूप ये पितृगण सदा परम समाधिसे युक्त होकर अपने वंशजोंके परम कल्याणकी आशा करते हुए यहाँ रहते हैं ll 15-17॥
वहाँ पितृराज भगवान् यम अपने गणोंके साथ विराजमान रहते हैं। सम्यक् विचार दृष्टिवाले तथा दण्डधारी वे यमराज भगवान्की कही गयी आज्ञाका पालन करते हुए अपने दूतोंद्वारा वहाँ लाये गये मृत प्राणियोंके लिये उनके कर्मों तथा दोषोंके अनुसार वैसे ही फलका विधान करते हैं ॥ 18-19 ॥
वे परम ज्ञानी यमराज धर्मतत्त्वको जाननेवाले, यथास्थान नियुक्त किये गये तथा आज्ञाकारी अपने सभी गणोंको सदा प्रेरित करते रहते हैं ॥ 20 ॥ संख्यामें कुल इक्कीस नरक बताये गये हैं। कुछ लोग नरकोंकी संख्या अट्ठाईस बताते हैं। मैं क्रमशः उनका वर्णन कर रहा हूँ ॥ 21 ॥
हे देवर्षे! तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तमूर्ति, वज्रकण्टक शाल्मली, वैतरणी, पयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि, अयः पान, क्षारकर्दम, रक्षोगणसंभोज, शूलप्रोत, दंदशूक, अवटारोध, पर्यावर्तनक और सूचीमुख- ये अट्ठाईस नरक बताये गये हैं। हे ब्रह्मापुत्र ! इन नामोंवाले ये नरक यातना भोगनेके परम स्थान हैं; जहाँ प्राणी अपने-अपने कर्मोंके अनुसार जाते हैं । 22-28 ॥