हिमालय बोले - हे देवेश्वरि ! हे महेश्वरि ! हे करुणासागरे ! हे अम्बिके! अब आप यथार्थरूपसे अपने पूजनकी विधिको भलीभाँति बतलाइये ॥ 1 ॥
श्रीदेवी बोलीं- हे राजन्! हे पर्वतश्रेष्ठ ! मैं यथार्थरूपमें जगदम्बाको प्रसन्न करनेवाली पूजाविधि बता रही हूँ, महती श्रद्धाके साथ आप इसे सुनिये ॥2॥मेरी पूजा दो प्रकारकी है-बाह्य और आभ्यन्तर । | बाह्य पूजा भी वैदिकी और तान्त्रिकी-दो प्रकारकी कही गयी है ॥ 3 ॥
हे भूधर ! वैदिकी पूजा भी मूर्तिभेदसे दो प्रकारकी होती है। वेददीक्षासे सम्पन्न वैदिकोंद्वारा वैदिकी पूजा की जानी चाहिये और तन्त्रोक्त दीक्षासे युक्त पुरुषोंके द्वारा तान्त्रिकी पूजा की जानी चाहिये । इस प्रकार पूजाके रहस्यको न समझकर जो अज्ञानी मनुष्य इसके विपरीत करता है, उसका सर्वथा अधःपतन हो जाता है ॥ 4-53 ॥
उसमें जो पहली वैदिकी पूजा कही गयी है, उसे मैं बता रही हूँ, हे भूधर! तुम अनन्त मस्तक, नेत्र तथा चरणवाले मेरे जिस महान् रूपका साक्षात् दर्शन कर चुके हो और जो समस्त शक्तियोंसे सम्पन्न, प्रेरणा प्रदान करनेवाला तथा परात्पर है; उसी रूपका नित्य पूजन, नमन, ध्यान तथा स्मरण करना चाहिये। हे नग ! मेरी प्रथम पूजाका यही स्वरूप बताया गया है। आप शान्त होकर समाहित मनसे और दम्भ तथा अहंकारसे रहित होकर उसके परायण होइये, उसीका यजन कीजिये, उसीकी शरणमें जाइये और चित्तसे सदा उसीका दर्शन-जप ध्यान कीजिये ॥ 6-10 ॥
अनन्य एवं प्रेमपूर्ण भक्तिसे मेरे उपासक बनकर यज्ञोंके द्वारा मेरी पूजा कीजिये और तपस्या तथा दानके द्वारा मुझे पूर्णरूपसे सन्तुष्ट कीजिये। ऐसा करनेपर मेरी कृपासे आप भवबन्धनसे छूट जायँगे ॥ 113 ॥
जो मेरे ऊपर निर्भर रहते हैं और अपना चित्त मुझमें लगाये रखते हैं, वे मेरे उत्तम भक्त माने गये हैं। यह मेरी प्रतिज्ञा है कि मैं शीघ्र ही इस भवसागरसे उनका उद्धार कर देती हूँ ॥ 123 ॥
हे राजन् ! मैं सर्वथा कर्मयुक्त ध्यानसे अथवा भक्तिपूर्ण ज्ञानसे ही प्राप्त हो सकती हूँ। केवल कर्मोंसे ही मेरी प्राप्ति सम्भव नहीं है ॥ 133 ॥धर्मसे भक्ति उत्पन्न होती है और भक्तिसे परब्रह्मका ज्ञान प्राप्त होता है। श्रुति और स्मृति द्वारा जो कुछ भी प्रतिपादित है, वही धर्म कहा गया है। अन्य शास्त्रोंके द्वारा जो निरूपित किया गया है, उसे धर्माभास कहा जाता है ॥ 14-15 ॥
मुझ सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिसम्पन्न भगवतीसे वेद उत्पन्न हुआ है और इस प्रकार मुझमें अज्ञानका अभाव रहनेके कारण श्रुति भी अप्रामाणिक नहीं है। श्रुतिके अर्थको लेकर ही स्मृतियाँ निकली हुई हैं। अतः श्रुतियों और मनु आदि स्मृतियोंकी प्रामाणिकता स्वयंसिद्ध है ॥ 16-17 ॥
स्मृति आदिमें कहीं-कहीं कटाक्षपूर्वक वामाचार सम्बन्धी वेदविरुद्ध कही गयी बातको भी लोग धर्मके रूपमें स्वीकार करते हैं, किंतु वैदिक विद्वानोंके द्वारा वह अंश कभी भी ग्राह्य नहीं है ॥ 18 ॥
अन्य शास्त्रकर्ताओंके वाक्य अज्ञानमूलक भी हो सकते हैं। अतः अज्ञानदोषसे दूषित होनेके कारण | उनकी उक्तिकी कोई प्रामाणिकता नहीं है। इसलिये मोक्षकी अभिलाषा रखनेवालेको धर्मकी प्राप्तिके लिये सदा वेदका आश्रय ग्रहण करना चाहिये ॥ 193॥ जिस प्रकार लोकमें राजाकी आज्ञाकी अवहेलना कभी नहीं की जाती, वैसे ही मनुष्य मुझ सर्वेश्वरी भगवतीकी आज्ञास्वरूपिणी उस श्रुतिका त्याग कैसे कर सकते हैं? मेरी आज्ञाके पालनके लिये ही तो ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि जातियाँ मेरे द्वारा सृजित की गयी हैं। अब मेरी श्रुतिकी वाणीका रहस्य समझ | लीजिये ॥ 20-213 ॥
हे भूधर! जब-जब धर्मकी हानि होती है और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब मैं विभिन्न अवतार धारण करती हूँ। हे राजन् इसीलिये देवताओं और दैत्योंका विभाग हुआ है ।। 22-23 ॥
जो लोग उन धर्मोका सदा आचरण नहीं करते, उन्हें शिक्षा देनेके लिये मैंने अनेक नरकोंकी | व्यवस्था कर रखी है, जिनके सुननेमात्रसे भय उत्पन्न हो जाता है ।। 24 ॥जो लोग वेदप्रतिपादित धर्मका परित्याग करके अन्य धर्मका आश्रय लेते हैं, राजाको चाहिये कि वह ऐसे अधर्मियोंको अपने राज्यसे निष्कासित कर दे। ब्राह्मण उन अधार्मिकोंसे सम्भाषण न करें और द्विजगण उन्हें अपनी पंक्तिमै न बैठायें ॥ 253 ॥
इस लोकमें श्रुतिस्मृतिविरुद्ध नानाविध अन्य जो भी शास्त्र हैं, वे हर प्रकारसे तामस हैं। वाम, कापालक, कौलक और भैरवागम-ऐसे ही शास्त्र हैं, जो मोहमें डाल देनेके लिये शिवजीके द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं- इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी कारण नहीं है ll 26-273 ॥
वेदमार्गसे च्युत होनेके कारण जो उच्च कोटिके ब्राह्मण दक्षप्रजापतिके शापसे, महर्षि भृगुके शापसे और महर्षि दधीचिके शापसे दग्ध कर दिये गये थे; उनके उद्धारके लिये भगवान् शंकरने सोपान क्रमसे शशैव, वैष्णव, सौर, शाक्त तथा गाणपत्य आगमोंकी रचना की। उनमें कहीं-कहीं वेदविरुद्ध अंश भी कहा गया है। वैदिकोंको उस अंशके ग्रहण कर लेनेमें कोई दोष नहीं होता है ॥ 28-31 ॥
वेदसे सर्वथा भिन्न अर्थको स्वीकार करनेके लिये द्विज अधिकारी नहीं है। वेदाधिकारसे रहित व्यक्ति ही | उसे ग्रहण करनेका अधिकारी है। अतः वैदिक पुरुषको पूरे प्रयत्नके साथ वेदका ही आश्रय ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि वेद प्रतिपादित धर्मसे युक्त ज्ञान ही परब्रह्मको प्रकाशित कर सकता है॥ 32-33 ॥
सम्पूर्ण इच्छाओंको त्यागकर मेरी ही शरणको प्राप्त सभी प्राणियोंपर दया करनेवाले, मान-अहंकारसे रहित, मनसे मेरा ही चिन्तन करनेवाले, मुझमें ही अपना प्राण समर्पित करनेवाले तथा मेरे स्थानोंका वर्णन करनेमें संलग्न रहनेवाले जो संन्यासी, वानप्रस्थ, गृहस्थ और ब्रह्मचारी मेरे ऐश्वरसंज्ञक योगकी सदा भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं—मुझमें निरन्तर अनुरक्त | रहनेवाले उन साधकोंके अज्ञानजनित अन्धकारको मैं | ज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाशसे नष्ट कर देती हूँ; इसमें सन्देह नहीं है । ll34-363 ॥हे पर्वतराज ! इस प्रकार मैंने पहली वैदिक पूजाके स्वरूपका संक्षेपमें वर्णन कर दिया। अब दूसरी पूजाके विषयमें बता रही हूँ ॥ 373 ॥
मूर्ति, वेदी, सूर्य-चन्द्रमण्डल, जल, बाणलिंग, यन्त्र, महापट अथवा हृदयकमलमें सगुण रूपवाली परात्पर भगवतीका इस प्रकार ध्यान करे कि वे करुणासे परिपूर्ण हैं, तरुण अवस्थामें विद्यमान हैं, अरुणके समान अरुण आभासे युक्त हैं और सौन्दर्यके सारतत्त्वकी सीमा हैं। इनके सम्पूर्ण अंग परम मनोहर हैं, वे शृंगाररससे परिपूर्ण हैं तथा सदा भक्तोंके दुःखसे दुःखी रहा करती हैं। इन जगदम्बाका मुखमण्डल प्रसन्नतासे युक्त रहता है; वे मस्तकपर बालचन्द्रमा तथा मयूरपंख धारण की हुई हैं; उन्होंने पाश, अंकुश, वर तथा अभयमुद्रा धारण कर रखा है; वे आनन्दमयरूपसे सम्पन्न हैं - इस प्रकार ध्यान करके अपने वित्त सामर्थ्यके अनुसार विभिन्न उपचारोंसे भगवतीकी पूजा करनी चाहिये ॥ 38-42 ll
जबतक अन्तः पूजामें अधिकार नहीं हो जाता, तबतक यह बाह्यपूजा करनी चाहिये । पुनः अन्तः पूजामें अधिकार हो जानेपर उस बाह्यपूजाको छोड़ देना चाहिये। जो आभ्यन्तरपूजा है, उसे ज्ञानरूप मुझ ब्रह्ममें चित्तका लय होना कहा गया है। उपाधिरहित ज्ञान ही मेरा परम रूप है, अतः मेरे ज्ञानमयरूपमें अपना आश्रयहीन चित्त लगा देना चाहिये ॥ 43-443 ॥
इस ज्ञानमयरूपके अतिरिक्त यह मायामय जगत् पूर्णत: मिथ्या है। अतः भव-बन्धनके नाशके | लिये एकनिष्ठ तथा योगयुक्त चित्तसे मुझ सर्व साक्षिणी तथा आत्मस्वरूपिणी भगवतीका चिन्तन करना चाहिये ॥ 45-46 ॥
हे पर्वत श्रेष्ठ! इसके बाद मैं बाह्यपूजाका विस्तारपूर्वक वर्णन कर रही हूँ, आप सावधान मनसे सुनिये ॥ 47 ॥