नारदजी बोले - हे तात! देवीके आराधनरूपी धर्मका स्वरूप क्या है? किस प्रकारसे उपासना करनेपर वे देवी परम पद प्रदान करती हैं? उनकी आराधनाकी विधि क्या है? कैसे, कब और किस स्तोत्रसे आराधना करनेपर वे भगवती दुर्गा कष्टप्रद नरकरूपी दुर्गसे उद्धार करके त्राणदायिनी होती हैं ? ॥ 1-2 ॥
श्रीनारायण बोले- हे विद्वद्वर! हे देवर्षे ! जिस प्रकार धर्मपूर्वक आराधना करनेसे देवी स्वयं प्रसन्न हो जाती हैं, उसे अब आप एकाग्रचित्त होकर मुझसे सुनिये। हे नारद! जैसा स्वधर्मका स्वरूप बताया गया है, उसे भी आप मुझसे सुनिये ॥ 36 ॥
हे मुने! इस अनादि संसारमें सम्यरूपसे पूजित होनेपर वे देवी घोर संकटोंमें स्वयं रक्षा करती हैं। वे भगवती जिस प्रकार लोकमें पूजी जाती हैं, वह विधि सुनिये ।। 4-5 ।।
[शुक्लपक्षकी] प्रतिपदा तिथिमें घृतसे देवीकी पूजा करनी चाहिये और ब्राह्मणको घृतका दान करना चाहिये; ऐसा करनेवाला सदा निरोग रहता है ॥ 6 ॥ द्वितीया तिथिको शर्करासे जगदम्बाका पूजन करना चाहिये और विप्रको शर्कराका ही दान करना चाहिये; ऐसा करनेवाला मनुष्य दीर्घजीवी होता है ॥ 7 ॥
तृतीया तिथिको भगवतीके पूजनकर्ममें उन्हें दुग्ध अर्पण करना चाहिये और श्रेष्ठ ब्राह्मणको | दुग्धका दान करना चाहिये; ऐसा करनेसे मनुष्य सभी प्रकारके दुःखोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 8 ॥
चतुर्थीके दिन पूआ अर्पण करके देवीका पूजन करना चाहिये और ब्राह्मणको पूआ ही दान करना चाहिये; ऐसा करनेसे मनुष्य विघ्न-बाधाओंसे आक्रान्त नहीं होता ॥ 9 ॥पंचमी तिथिको भगवतीका पूजन करके उन्हें केला अर्पण करे और ब्राह्मणको केलेका ही दान करे; । ऐसा करनेसे मनुष्य बुद्धिमान् होता है ॥ 10 ॥ षष्ठी तिथिको भगवतीके पूजनकर्ममें मधुको प्रधान बताया गया है। ब्राह्मणको मधु ही देना चाहिये ऐसा करनेसे मनुष्य दिव्य कान्तिवाला हो जाता है ॥ 11 ॥ हे मुनिश्रेष्ठ सप्तमी तिथिको भगवतीको गुड़का नैवेद्य अर्पण करके ब्राह्मणको गुड़का दान करनेसे मनुष्य सभी प्रकारके शोकोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 12 ॥ अष्टमीको भगवतीको नारियलका नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और ब्राह्मणको भी नारियलका दान करना चाहिये ऐसा करनेवाला मनुष्य सभी सन्तापोंसे रहित हो जाता है ॥ 13 ॥ नवमीके दिन भगवतीको लावा अर्पण करनेके | बाद ब्राह्मणको भी लावाका दान करनेसे मनुष्य इस लोकमें तथा परलोकमें परम सुखी रहता है ॥ 14 ॥ हे मुने! दशमी तिथिको भगवतीको काले तिल अर्पित करने और ब्राह्मणको उसी तिलका दान करनेसे मनुष्यको यमलोकका भय नहीं रह जाता। 15 ।।
जो मनुष्य एकादशी तिथिको भगवतीको दधि अर्पित करता है और ब्राह्मणको भी दधि प्रदान करता है, वह देवीका परम प्रिय हो जाता है ॥ 16 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! जो द्वादशीके दिन भगवतीको चिउड़ेका भोग लगाकर आचार्यको भी चिउड़ेका दान करता है, वह भगवतीका प्रियपात्र बन जाता है ॥ 17 ॥ जो त्रयोदशीको भगवतीको चना अर्पित करता है और ब्राह्मणको चनेका दान करता है, वह प्रजाओं तथा सन्तानोंसे सदा सम्पन्न रहता है ॥ 18 ॥ हे देवर्षे जो मनुष्य चतुर्दशी के दिन भगवतीको सत्तू अर्पण करता है और ब्राह्मणको भी सत्तू प्रदान करता है, वह भगवान् शंकरका प्रिय हो जाता है ॥ 19 ॥
जो पूर्णिमा तिथिको भगवती अपर्णाको खीरका भोग लगाता है और श्रेष्ठ ब्राह्मणको खोर प्रदान करता है, वह अपने सभी पितरोंका उद्धार कर देता है ॥ 20 ॥हे महामुने! देवीकी प्रसन्नताके लिये उसी तिथिको हवन भी बताया गया है। जिस तिथिमें नैवेद्यके लिये जो वस्तु बतायी गयी है, उसी वस्तुसे उन-उन तिथियोंमें हवन करनेसे सभी विपत्तियोंका नाश हो जाता है ॥ 21 ॥
रविवारको खीरका नैवेद्य अर्पण करना चाहिये। सोमवारको दूध और मंगलवारको कैलेका भोग लगाना बताया गया है ॥ 22 ॥
हे द्विज! बुधको ताजा मक्खन भोगके लिये कहा गया है। गुरुवारको रक्त शर्करा, शुक्रवारको श्वेत शर्करा और शनिवारको गायका घृत नैवेद्यके रूपमें बताया गया है॥ 233 ॥
हे मुने! अब सत्ताईस नक्षत्रोंमें दिये जानेवाले नैवेद्यके विषयमें सुनिये घी, तिल, चीनी, दही, दूध, | मलाई, लस्सी, लड्डू, फेणिका, घृतमण्ड (शक्करपारा), कंसार (गेहूँके आटे तथा गुड़से निर्मित पदार्थ विशेष), वटपत्र (पापड़), घेवर, वटक (बड़ा), कोकरस (खजूरका रस), घृतमिश्रित चनेका चूर्ण, मधु, सूरन, गुड़, चिउड़ा, दाख, खजूर, चारक, पूआ, मक्खन, मूंगका लड्डू और विजौरा नींबू-हे नारद! ये सत्ताईस नक्षत्रोंके नैवेद्य बताये गये हैं । 24- 276 ॥
अब विष्कम्भ आदि योगोंमें नैवेद्य अर्पणके विषयमें कहूँगा। इन पदार्थोंको अर्पित करनेसे जगदम्बिका प्रसन्न होती हैं। गुड़, मधु, घी, दूध, दही, मट्ठा, पूआ, मक्खन, ककड़ी, कोहड़ा, लड्डू, कटहल, केला, जामुन, आम, तिल, संतरा, अनार, बेरका फल, आमला, खीर, चिठड़ा, चना, नारियल, जम्भफल ( जम्भीरा), कसेरू और सूरन हे विप्र ये शुभ नैवेद्य क्रमशः विष्कम्भ - ! आदि योगोंमें [भगवतीको] अर्पण करनेके लिये विद्वानोंके द्वारा निश्चित किये गये हैं ।। 28-323 ll
हे मुने! इसके बाद अब मैं भिन्न-भिन्न करणोंके नैवेद्यके बारेमें बताऊँगा। कंसार, मण्डक, फेनी, मोदक, वटपत्र, लड्डू, घृतपूर, तिल, दही, घी और मधु-ये करणोंके नैवेद्य बताये गये हैं, जिन्हें आदरपूर्वक भगवतीको अर्पण करना चाहिये ।। 33-343 ॥हे नारदमुने! अब मैं देवीको प्रसन्न करनेवाले दूसरे श्रेष्ठ विधानका वर्णन करूँगा, उस सम्पूर्ण विधानको आदरपूर्वक सुनिये। चैत्रमासके शुक्ल पक्षमें तृतीया तिथिको महुएके वृक्षमें भगवतीकी भावना करके उनका पूजन करे और नैवेद्यमें पाँच प्रकारके भोज्य पदार्थ अर्पित करे। इसी प्रकार बारहों महीनोंके शुक्लपक्षकी तृतीया तिथिको पूजन-विधानके साथ क्रमशः नैवेद्य अर्पित करे। हे नारद! वैशाख मासमें गुड़मिश्रित पदार्थ निवेदित करना चाहिये । ज्येष्ठ महीनेमें भगवतीकी प्रसन्नताके लिये मधु अर्पित करना चाहिये। आषाढ़ महीनेमें नवनीत और महुएके रससे बना हुआ पदार्थ अर्पित करना चाहिये ।। 35-39 ॥
श्रावण मासमें दही, भाद्रपद मासमें शर्करा, आश्विन मासमें खीर तथा कार्तिक मासमें दूधका नैवेद्य उत्तम कहा गया है। मार्गशीर्ष महीनेमें फेनी एवं पौष माह में दधिकूर्चिका (लस्सी)- का नैवेद्य उत्तम कहा गया है । माघके महीनेमें गायके घीका नैवेद्य अर्पण करना चाहिये; फाल्गुनके महीनेमें नारियलका नैवेद्य बताया गया है। इस प्रकार बारह महीनोंमें बारह नैवेद्योंसे क्रमशः भगवतीकी पूजा करनी चाहिये ॥ 40 - 42 ॥
मंगला, वैष्णवी, माया, कालरात्रि, दुरत्यया, महामाया, मतंगी, काली, कमलवासिनी, शिवा, सहस्रचरणा और सर्वमंगलरूपिणी-इन नामोंका उच्चारण करते हुए महुएके वृक्षमें भगवतीकी पूजा करनी चाहिये तत्पश्चात् सभी कामनाओंकी सिद्धि तथा व्रतकी पूर्णताके लिये महुएके वृक्षमें स्थित देवेशी महेश्वरीकी इस प्रकार स्तुति करनी चाहिये ॥ 43-45 ॥
कमलके समान नेत्रोंवाली आप जगद्धात्रीको नमस्कार है। आप महामंगलमूर्तिस्वरूपा महेश्वरी महादेवीको नमस्कार है। [ हे देवि !] परमा, पापहन्त्री, परमार्गप्रदायिनी, परमेश्वरी, प्रजोत्पत्ति, परब्रह्मस्वरूपिणी, मददात्री, मदोन्मत्ता, मानगम्या, महोन्नता, मनस्विनी, मुनिध्येया, मार्तण्डसहचारिणी—ये आपके नाम हैं। हेलोकेश्वरि! हे प्राज्ञे! आपकी जय हो। हे प्रलयकालीन मेघके समान प्रतीत होनेवाली देवता और दानव महामोहके विनाशके लिये आपकी उपासना करते हैं ।। 46-49 ।।
आप यमलोक मिटानेवाली, यमराजपूज्या, यमकी अग्रजा और यमनिग्रहस्वरूपिणी हैं। हे परमाराध्ये! | आपको बार-बार नमस्कार है। आप समस्वभावा, सर्वेशी, सर्वसंगविवर्जिता, संगनाशकरी, काम्यरूप कारुण्यविग्रहा कंकालक्रूरा, कामाक्षी, मीनाक्षी, मर्मभेदिनी, माधुर्यरूपशीला, मधुरस्वरपूजिता, महामन्त्रवती, मन्त्रगम्या, मन्त्रप्रियंकरी, मनुष्य मानसगमा और मन्मथारिप्रियंकरी-इन नामोंसे विख्यात हैं ॥ 50-53
पीपल, वट, नीम, आम, कैथ एवं बेरमें निवास करनेवाली आप कटहल, मदार, करील, जामुन आदि | क्षीरवृक्षस्वरूपिणी है। दुग्धवल्लीमें निवास करनेवाली, दयनीय, महान् दयालु, कृपालुता एवं करुणाकी साक्षात् मूर्तिस्वरूपा एवं सर्वज्ञजनोंकी प्रियस्वरूपिणि! आपकी जय हो 54-55 ।।
इस प्रकार पूजनके पश्चात् इस स्तोत्रसे उन देवेश्वरीकी स्तुति करनी चाहिये। ऐसा करनेवाला मनुष्य व्रतका सम्पूर्ण पुण्य प्राप्त कर लेता है 56 ॥
जो मनुष्य भगवतीको प्रसन्न करनेवाले इस स्तोत्रका नित्य पाठ करता है, उसे किसी प्रकारके शारीरिक वा मानसिक रोगका भय नहीं होता और उसे शत्रुओंका भी कोई भय नहीं रहता। इस स्तोत्रके प्रभावसे अर्थ चाहनेवाला अर्थ प्राप्त कर लेता है, धर्मके अभिलाषीको धर्मको प्राप्ति हो जाती है, कामीको काम सुलभ हो जाते हैं और मोक्षकी इच्छा रखनेवालेको मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इस स्तोत्रके पाठसे ब्राह्मण वेदसम्पन्न, क्षत्रिय विजयी, वैश्य धनधान्यसे परिपूर्ण और शूद्र परम सुखी हो जाता है। जो मनुष्य श्राद्धके समय मनको एकाग्र करके इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसके पितरोंकी एक कल्पतक स्थायी रहनेवाली अक्षय तृप्ति हो जाती है ।। 57-60 ll[हे नारद!] इस प्रकार मैंने देवताओंके द्वारा देवीकी की गयी आराधना तथा पूजाके विषयमें आपको भलीभाँति बता दिया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक भगवतीकी उपासना करता है, वह देवीलोकका अधिकारी हो जाता है ॥ 61 ॥ हे विप्र ! भगवतीके पूजनसे मनुष्यकी सभी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं और अन्तमें उसकी बुद्धि सभी पापोंसे रहित होकर निर्मल हो जाती है ॥ 62 ॥ हे ब्रह्मपुत्र ! भगवतीके अनुग्रहसे मनुष्य जहाँ-तहाँ पूजित होता है और मानको ही धन माननेवाले पुरुषोंमें सम्माननीय हो जाता है। उसे स्वप्नमें भी नरकोंका भय नहीं रहता। महामाया भगवतीकी कृपासे देवीका भक्त पुत्र तथा पौत्रोंसे सदा सम्पन्न रहता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं करना चाहिये ।। 63-643 ॥
[हे नारद!] यह जो मैंने आपसे महादेवीके पूजनका वर्णन किया है, वह नरकसे उद्धार करनेवाला तथा सम्पूर्ण रूपसे मंगलकारी है। हे मुने! चैत्र आदि महीनोंमें क्रमसे महुएके वृक्षमें भगवतीकी पूजा करनी चाहिये। हे अनघ ! जो मनुष्य मधूक नामक वृक्षमें सम्यक्रूपसे पूजन करता है; उसे रोग, बाधा आदिका कोई भय उत्पन्न नहीं होता ।। 65 - 67 ॥
अब मैं देवी मूलप्रकृतिके श्रेष्ठ पंचकसे सम्बन्धित अन्य प्रसंगका वर्णन कर रहा हूँ। यह प्रसंग अपने नाम, रूप और प्रादुर्भावसे सम्पूर्ण जगत्को आनन्दित कर देनेवाला है। हे मुने! यह प्रकृतिपंचक कुतूहल उत्पन्न करनेवाला तथा मुक्तिप्रदायक है; आख्यान तथा माहात्म्यसहित इसका श्रवण कीजिये ।। 68-69 ॥