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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 3, अध्याय 10 - Skand 3, Adhyay 10

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देवीके बीजमन्त्रकी महिमाके प्रसंगमें सत्यव्रतका आख्यान

जनमेजय बोले- वह द्विजश्रेष्ठ सत्यव्रत नामक ब्राह्मण कौन था, वह किस देशमें पैदा हुआ था तथा कैसा था? यह मुझे बताइये 1

उस ब्राह्मणने 'ऐ' शब्द कैसे सुना और फिर स्वयं भी कैसे उसका उच्चारण किया ? उच्चारण करते ही उसी क्षण उस ब्राह्मणको कैसी सिद्धि प्राप्त हुई? सर्वत्र विराजमान रहनेवाली तथा सब कुछ जाननेवाली वे भवानी उसपर किस प्रकार प्रसन्न हो गर्यो ? अब आप यह मनोरम कथा विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये ॥ 2-3 ॥

सूतजी बोले- राजा जनमेजयके यह पूछनेपर सत्यवतीसुत व्यासजी सरस, पवित्र एवं परम उदार वचन कहने लगे ॥ 4 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन् सुनिये, मैं वह पवित्र पौराणिक कथा कह रहा हूँ। हे कुरुनन्दन ! पूर्वकालमें मुनियोंके समाजमें मैंने यह कथा सुनी थी ॥ 5 ॥हे कुरुश्रेष्ठ! एक बार तीर्थाटन करता हुआ मैं मुनियोंद्वारा सेवित पवित्र क्षेत्र नैमिषारण्यमें जा पहुँचा। वहाँ सभी मुनियोंको प्रणाम करके मैं एक उत्तम आश्रम में ठहर गया, जहाँ ब्रह्माके पुत्र महाव्रती एवं जीवन्मुक्त मुनि निवास कर रहे थे॥ 6-7 ॥

उस ब्राह्मणसमाजमें कथाका ही प्रसंग चल रहा था। सभामें उपस्थित महर्षि जमदग्निने सब मुनियोंसे यह पूछा- ॥ 8 ॥

जमदग्नि बोले- हे महाभाग तपस्वियो! मेरे मनमें एक शंका है। निश्चय ही इस मुनिसमाजमें मैं शंकारहित हो जाऊँगा। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र, वरुण, अग्नि, कुबेर, वायु, विश्वकर्मा, कार्तिकेय, गणेश, सूर्य, दोनों अश्विनीकुमार, भग, पूषा, चन्द्रमा | और सभी ग्रह इन सबमें सबसे अधिक आराधनीय तथा अभीष्ट फल प्रदान करनेवाला कौन है ? उनमें कौन देवता सदा सेव्य और शीघ्र प्रसन्न होनेवाला है? हे मानद हे सर्वज्ञ हे व्रतधारी मुनिगण! आप हमें शीघ्र बतायें 9-12 ॥

इस प्रकार जमदग्निके प्रश्न करनेपर लोमश ऋषिने कहा- हे जमदग्ने! आपने इस समय जो पूछा है, उसे सुनिये अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले सभी लोगोंके लिये वे एकमात्र महाशक्ति ही आराधनीय हैं। वे ही परा प्रकृति आदिस्वरूपा, सर्वगामिनी, सर्वदायिनी और कल्याणकारिणी हैं। वे ही ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवताओंकी जननी हैं और वे ही संसाररूपी वृक्षको मूलरूपिणी आदिप्रकृति हैं ॥ 13-15 ॥

वे भगवती केवल नामका उच्चारण तथा स्मरण करते हो निश्चितरूपसे अभीष्ट फल प्रदान करती हैं। जो लोग उनकी उपासना करते हैं, उन्हें वरदान देनेके लिये वे सर्वदा दयालुचित्त रहती हैं॥ 16 ॥

हे मुनिगण! उनके नामाक्षरके उच्चारण मात्रसे ही एक ब्राह्मणने जिस प्रकार सिद्धि प्राप्त की थी, वह पवित्र वृत्तान्त मैं आपलोगोंसे कहता हूँ, | सुनिये - ॥ 17 ॥

कोसलदेशमें देवदत्त नामक एक विद्वान् ब्राह्मण रहता था। वह निःसन्तान था, इसलिये उसने पुत्रप्राप्तिके लिये विधिपूर्वक यज्ञ किया ॥ 18 ॥तमसानदीके तटपर पहुँचकर उसने उत्तम यज्ञ मण्डप बनवाया और वेदज्ञ तथा यज्ञकर्ममें निपुण ब्राह्मणोंको आमन्त्रित करके विधिपूर्वक यज्ञवेदी बनवाकर तथा अग्नि स्थापन करके उस श्रेष्ठ ब्राह्मणने विधिवत् पुत्रेष्टि यज्ञ आरम्भ कर दिया 19-20

उसने उस यज्ञमें मुनिवर सुहोत्रको 'ब्रह्मा', याज्ञवल्क्यको 'अध्वर्यु' तथा बृहस्पतिको 'होता', पैलमुनिको 'प्रस्तोता' तथा गोभिलको 'उद्गाता बनाया एवं अन्यान्य उपस्थित मुनियोंको यज्ञका सभासद् बनाकर उन्हें विधिवत् प्रचुर धन प्रदान किया । 21-22 ॥

सामवेदका गान करनेवाले श्रेष्ठ उद्गाताvगोभिलमुनि सातों स्वरोंसे युक्त तथा स्वरितसे समन्वित रथन्तर सामका गान करने लगे ॥ 23 ॥ बार-बार श्वास लेनेके कारण गोभिलका स्वर भंग हो गया। तब देवदत्तको क्रोध आ गया और उसने तुरंत गोभिलमुनिसे कहा- हे मुनिमुख्य! तुम मूर्ख हो, तुमने आज मेरेद्वारा पुत्रप्राणिके लिये किये जाते हुए इस काम्यकर्ममें स्वरभंग कर दिया ।। 24-25 ।।

तब गोभिलमुनि अत्यन्त क्रोधित होकर | देवदत्तसे कहने लगे- [ इस यज्ञके फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाला] तुम्हारा पुत्र मूर्ख शठ और गंगा होगा। हे महामते ! सभी प्राणियोंके शरीरमें श्वास आता जाता रहता है। इसे रोक पाना बड़ा कठिन है। अतः ऐसी स्थिति स्वरभंग हो जानेमें मेरा कुछ भी दोष नहीं है ।। 26-27 ॥

गोभिलका यह वचन सुनकर शापसे भयभीत देवदत्तने अत्यन्त दुःखी होकर उनसे कहा- हे विप्रवर! आप मुझ निर्दोषपर व्यर्थ ही क्यों क्रुद्ध हैं? मुनिलोग तो सदा क्रोधरहित और सुखदायक होते हैं ॥ 28-29 ॥

हे विप्र थोडेसे अपराधपर आपने मुझे शाप क्यों दे दिया? पुत्रहीन होनेके कारण मैं तो पहलेसे | ही बहुत दुःखी था, उसपर भी शाप देकर आपने मुझे और भी दुःखी कर दिया। वेदके विद्वानोंने कहा है कि मूर्ख पुत्रकी अपेक्षा पुत्रहीन रहना अच्छा है। उसपर भी मूर्ख ब्राह्मण तो सबके लिये निन्दनीय होताहै। वह पशु एवं शूद्रके समान सभी कार्योंमें अयोग्य माना जाता है। अतः हे विप्रवर! मूर्ख पुत्रको लेकर मैं क्या करूँगा ? ॥ 30-32 ॥

मूर्ख ब्राह्मण शूद्रतुल्य होता है; इसमें सन्देह नहीं है; क्योंकि वह न तो पूजाके योग्य होता है और न दान लेनेका पात्र ही होता है। वह सब कार्यों में निन्द्य होता है ॥ 33 ॥

किसी देशमें रहता हुआ वेदशास्त्रविहीन ब्राह्मण कर देनेवाले शूद्रकी भाँति एक राजाके द्वारा समझा जाना चाहिये ॥ 34 ॥

फलकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको चाहिये कि देव तथा पितृकार्योंके अवसरपर उस मूर्ख ब्राह्मणको आसनपर न बैठाये ॥ 35 ॥

राजा भी वेदविहीन ब्राह्मणको शूद्रके समान समझे और उसे शुभ कार्योंमें नियुक्त न करे, बल्कि उसे कृषिके काममें लगा दे ॥ 36 ॥

ब्राह्मणके अभाव में कुशके चटसे स्वयं श्राद्धकार्य कर लेना ठीक है, किंतु मूर्ख ब्राह्मणसे कभी भी श्राद्धकार्य नहीं कराना चाहिये 37 ॥

मूर्ख ब्राह्मणको भोजनसे अधिक अन्न नहीं देना चाहिये क्योंकि देनेवाला व्यक्ति नरकमें जाता है और लेनेवाला तो विशेषरूपसे नरकगामी होता है ॥ 38 ॥

उस राजाके राज्यको धिक्कार है, जिसके राज्यमें मूर्खलोग निवास करते हैं और मूर्ख ब्राह्मण भी दान, सम्मान आदिसे पूजित होते हैं, साथ ही जहाँ मूर्ख और पण्डितके बीच आसन, पूजन और दानमें रंचमात्र भी भेद नहीं माना जाता। अतः विज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह मूर्ख और पण्डितको जानकारी अवश्य कर ले ॥ 39-40 ।।

जहाँ दान, मान तथा परिग्रहसे मूर्खलोग महान् गौरवशाली माने जाते हैं, उस देशमें पण्डितजनको किसी प्रकार भी नहीं रहना चाहिये। दुर्जन व्यक्तियोंकी | सम्पत्तियाँ दुर्जनोंके उपकारके लिये ही होती हैं। जैसे अधिक फलोंसे लदे हुए नीमके वृक्षका उपभोग | केवल कौए ही करते हैं ।। 41-42 ॥वेदज्ञ ब्राह्मण जिसका अन्न खाकर वेदाभ्यास करता है, उसके पूर्वज परम प्रसन्न होकर स्वर्गमें विहार करते हैं ।। 43 ।।

अतएव हे वेदज्ञोंमें श्रेष्ठ गोभिल मुने! आपने यह क्या कह दिया। इस संसारमें मूर्ख पुत्रका पिता होना तो मृत्युसे भी बड़कर कष्टप्रद होता है॥ 44 ॥

हे महाभाग ! अब आप इस शापसे मेरा उद्धार करनेकी कृपा कीजिये आप दीनोंका उद्धार करनेमें समर्थ हैं। मैं आपके पैरोंपर पड़ता हूँ ॥ 45

लोमश बोले- यह कहकर देवदत्त अत्यन्त दीनहृदय तथा असहाय होकर नेत्रोंमें आँसू भरकर स्तुति करता हुआ मुनिके पैरोंपर गिर पड़ा ॥ 46 ॥

तब उस दीनहृदय देवदत्तको देखकर गोभिल मुनिको दया आ गयी। महात्मालोग क्षणभरके लिये ही कोप करते हैं, किंतु पापियोंका कोप कल्पपर्यन्त बना रहता है। जल स्वभावतः शीतल होता है। वही जल अग्नि तथा धूपके संयोगसे गर्म हो जाता है, किंतु पुनः उनका संयोग हटते ही वह शीघ्र शीतल हो जाता है तब दयालु गोभिलमुनिने अत्यन्त दुःखित देवदत्तसे कहा- तुम्हारा पुत्र मूर्ख होकर भी बादमें विद्वान् हो जायगा ॥ 47–49 ।।

इस प्रकार वर पा लेनेपर द्विजवर देवदत्त प्रसन्न हो गये। उन्होंने विधिवत् पुत्रेष्टि यज्ञ समाप्त करके ब्राह्मणोंको विदा किया ।। 50 ।। कुछ समय बीतनेपर देवदत्तकी पतिव्रता तथा रूपवती भार्या रोहिणी जो रोहिणीके समान शुभ लक्षणोंवाली थी, उसने यथासमय गर्भधारण किया ॥ 51 ॥ देवदत्तने विधि-विधानके साथ गर्भाधान आदि कर्म किये। तत्पश्चात् पुंसवन, श्रृंगारकरण तथा सीमन्तोन्नयन संस्कार वेद-विधिके साथ सम्पन्न किये। उस समय अपने यज्ञको सफल जानकर प्रसन्न मनसे उन्होंने -से दान दिये ।। 52-53 ॥

बहुत रोहिणी नक्षत्रयुक्त शुभ दिनमें रोहिणीने पुत्रको जन्म दिया । देवदत्तने शुभ दिन और मुहूर्तमें नवजात शिशुका जातकर्म संस्कार किया और पुत्रदर्शन | करके यथासमय उसका नामकरण भी कर दिया। पूर्व बातोंको जाननेवाले देवदत्तने अपने पुत्रका नाम 'उतथ्य' रखा ।। 54-55 ।।आठवें वर्ष में शुभ योग तथा शुभ दिनमें पिता | देवदत्तने अपने उस पुत्रका विधिवत् उपनयन संस्कार सम्पन्न किया ॥ 56 ॥

ब्रह्मचर्यव्रतमें स्थित उतथ्यको आचार्य वेद पढ़ाने लगे, किंतु वह एक शब्दका भी उच्चारण नहीं कर सका, मूढकी भाँति चुपचाप बैठा रहा ॥ 57 ॥

उसके पिताने उसे अनेक प्रकारसे पढ़ानेका प्रयत्न किया, किंतु उस मूर्खकी बुद्धि उस ओर प्रवृत्त नहीं होती थी वह मूर्खके समान पड़ा रहता था। इससे उसके पिता देवदत्त उसके लिये बहुत चिन्तित हुए ॥ 58 ॥

इस प्रकार निरन्तर वेदाभ्यास करते हुए वह बालक बारह वर्षका हो गया, किंतु भलीभाँति सन्ध्यावन्दन करनेतककी विधि भी न जान पाया ॥ 59 ॥

सभी ब्राह्मणों, तपस्वियों तथा अन्यान्य लोगों में यह बात विस्तृतरूपसे फैल गयी कि देवदत्तका पुत्र महामूर्ख निकल गया 60 ॥

हे मुने! वह जहाँ कहीं जाता, लोग उसकी हँसी उड़ाते थे यहाँतक कि उसके माता-पिता भी उस मूर्खको कोसते हुए उसकी निन्दा किया करते थे ॥ 61 ॥

इस प्रकार जब सभी लोग, माता-पिता तथा बन्धुबान्धव उसकी निन्दा करने लगे, तब उस ब्राह्मणबालकके मनमें वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह वनमें चला गया ॥ 62 ॥

अन्धा या पंगु पुत्र ठीक है, किंतु मूर्ख पुत्र ठीक नहीं है— माता-पिताके ऐसा कहनेपर वह वनमें चला गया ।। 63 ।।

गंगाके किनारे एक उत्तम स्थानपर सुन्दर पर्णकुटी बनाकर वह वनवासीका जीवन व्यतीत करते हुए एकनिष्ठ होकर वहीं रहने लगा ॥ 64 ॥

'मैं असत्य नहीं बोलूंगा' - ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा करके ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए वह उसी सुन्दर आश्रममें रहने लगा ।। 65 ।।

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] राजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना
  2. [अध्याय 2] भगवती आद्याशक्तिके प्रभावका वर्णन
  3. [अध्याय 3] ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन
  4. [अध्याय 4] भगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना
  5. [अध्याय 5] ब्रह्मा और शिवजीका भगवतीकी स्तुति करना
  6. [अध्याय 6] भगवती जगदम्बिकाद्वारा अपने स्वरूपका वर्णन तथा 'महासरस्वती', 'महालक्ष्मी' और 'महाकाली' नामक अपनी शक्तियोंको क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिवको प्रदान करना
  7. [अध्याय 7] ब्रह्माजीके द्वारा परमात्माके स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपका वर्णन; सात्त्विक, राजस और तामस शक्तिका वर्णन; पंचतन्मात्राओं, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा पंचीकरण क्रियाद्वारा सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका वर्णन
  9. [अध्याय 9] गुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा
  10. [अध्याय 10] देवीके बीजमन्त्रकी महिमाके प्रसंगमें सत्यव्रतका आख्यान
  11. [अध्याय 11] सत्यव्रतद्वारा बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण तथा उससे प्रसन्न होकर भगवतीका सत्यव्रतको समस्त विद्याएँ प्रदान करना
  12. [अध्याय 12] सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञोंका वर्णन मानसयज्ञकी महिमा और व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको देवी यज्ञके लिये प्रेरित करना
  13. [अध्याय 13] देवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना, ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सृष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्या शक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना
  14. [अध्याय 14] देवीमाहात्म्यसे सम्बन्धित राजा ध्रुवसन्धिकी कथा, ध्रुवसन्धिकी मृत्युके बाद राजा युधाजित् और वीरसेनका अपने-अपने दौहित्रोंके पक्षमें विवाद
  15. [अध्याय 15] राजा युधाजित् और वीरसेनका युद्ध, वीरसेनकी मृत्यु, राजा ध्रुवसन्धिकी रानी मनोरमाका अपने पुत्र सुदर्शनको लेकर भारद्वाजमुनिके आश्रममें जाना तथा वहीं निवास करना
  16. [अध्याय 16] युधाजित्का भारद्वाजमुनिके आश्रमपर आना और उनसे मनोरमाको भेजनेका आग्रह करना, प्रत्युत्तरमें मुनिका 'शक्ति हो तो ले जाओ' ऐसा कहना
  17. [अध्याय 17] धाजित्का अपने प्रधान अमात्यसे परामर्श करना, प्रधान अमात्यका इस सन्दर्भमें वसिष्ठविश्वामित्र प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजित्‌का वापस लौट जाना, बालक सुदर्शनको दैवयोगसे कामराज नामक बीजमन्त्रकी प्राप्ति, भगवतीकी आराधनासे सुदर्शनको उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराजकी कन्या शशिकलाको स्वप्नमें भगवतीद्वारा सुदर्शनका वरण करनेका आदेश देना
  18. [अध्याय 18] राजकुमारी शशिकलाद्वारा मन-ही-मन सुदर्शनका वरण करना, काशिराजद्वारा स्वयंवरकी घोषणा, शशिकलाका सखीके माध्यमसे अपना निश्चय माताको बताना
  19. [अध्याय 19] माताका शशिकलाको समझाना, शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओंका स्वयंवरमें आगमन, युधाजित्द्वारा सुदर्शनको मार डालनेकी बात कहनेपर केरलनरेशका उन्हें समझाना
  20. [अध्याय 20] राजाओंका सुदर्शनसे स्वयंवरमें आनेका कारण पूछना और सुदर्शनका उन्हें स्वप्नमें भगवतीद्वारा दिया गया आदेश बताना, राजा सुबाहुका शशिकलाको समझाना, परंतु उसका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  21. [अध्याय 21] राजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजित्‌का क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  22. [अध्याय 22] शशिकलाका गुप्त स्थानमें सुदर्शनके साथ विवाह, विवाहकी बात जानकर राजाओंका सुबाहुके प्रति क्रोध प्रकट करना तथा सुदर्शनका मार्ग रोकनेका निश्चय करना
  23. [अध्याय 23] सुदर्शनका शशिकलाके साथ भारद्वाज आश्रमके लिये प्रस्थान, युधाजित् तथा अन्य राजाओंसे सुदर्शनका घोर संग्राम, भगवती सिंहवाहिनी दुर्गाका प्राकट्य, भगवतीद्वारा युधाजित् और शत्रुजित्का वध, सुबाहुद्वारा भगवतीकी स्तुति
  24. [अध्याय 24] सुबाहुद्वारा भगवती दुर्गासे सदा काशीमें रहनेका वरदान माँगना तथा देवीका वरदान देना, सुदर्शनद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीका उसे अयोध्या जाकर राज्य करनेका आदेश देना, राजाओंका सुदर्शनसे अनुमति लेकर अपने-अपने राज्योंको प्रस्थान
  25. [अध्याय 25] सुदर्शनका शत्रुजित्की माताको सान्त्वना देना, सुदर्शनद्वारा अयोध्या में तथा राजा सुबाहुद्वारा काशीमें देवी दुर्गाकी स्थापना
  26. [अध्याय 26] नवरात्रव्रत विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन
  27. [अध्याय 27] कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन, नवरात्रव्रतके माहात्म्यके प्रसंग में सुशील नामक वणिक्की कथा
  28. [अध्याय 28] श्रीरामचरित्रवर्णन
  29. [अध्याय 29] सीताहरण, रामका शोक और लक्ष्मणद्वारा उन्हें सान्त्वना देना
  30. [अध्याय 30] श्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रव्रतकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना