देवी बोलीं- सभी देवता मेरे द्वारा कहे जानेवाले वचनको सुनें, जिसके श्रवणमात्रसे मनुष्य मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है ॥ 1 ॥
हे पर्वतराज! पूर्वमें केवल मैं ही थी और कुछ भी नहीं था। उस समय मेरा रूप चित्, संवित् (ज्ञानस्वरूप) और परब्रह्म नामवाला था। उसके सम्बन्धमें कोई तर्क नहीं किया जा सकता, इदमित्थं रूपसे उसका निर्देश नहीं किया जा सकता, उसकी कोई उपमा नहीं है तथा वह विकाररहित है ॥ 23 ॥
भगवतीकी कोई स्वतः सिद्ध शक्ति है, जो माया नामसे प्रसिद्ध है। वह शक्ति न सत् है, न असत् है और दोनोंमें विरोध होनेके कारण वह सत्-असत् उभयरूप भी नहीं है। सत्-असत् इन दोनोंसे विलक्षण वह माया कोई अन्य ही वस्तु है ॥ 3-4 ॥जैसे अग्निमें उसकी उष्णता सदा रहती है, सूर्यमें प्रकाशकी किरण रहती है और चन्द्रमामें उसकी चन्द्रिका विद्यमान रहती है, उसी प्रकार यह माया निश्चितरूपसे सदा मेरी सहचरी है ॥ 5 ॥
जैसे सुषुप्ति अवस्थामें व्यवहार समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार प्रलयकालमें समस्त जीव, काल तथा जीवोंके कर्म उन्हीं भगवतीमें अभेदरूपसे विलीन हो जाते हैं ॥ 6 ॥
मैं अपनी उसी शक्तिके समायोगसे बीजरूपको प्राप्त हुई अर्थात् मुझमें सृष्टिके कर्तृत्वका उदय हुआ। उस मायाके अपने आधाररूपी आवरणके कारण मुझमें उसका कुछ दोष आ गया अर्थात् चैतन्यादिका तिरोधान हो गया ॥ 7 ॥
चैतन्यके सम्बन्धसे मुझे संसारका निमित्तकारण | कहा जाता है और मेरा परिणामरूप यह सृष्टिप्रपंच मुझसे ही उत्पन्न होता है तथा मुझमें ही विलीन होता है, अतः मुझे समवायिकारण कहा जाता है॥ 8 ॥
कुछ लोग उस शक्तिको तप, कुछ लोग तम तथा दूसरे लोग उसे जड-ऐसा कहते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग उसे ज्ञान, माया, प्रधान, प्रकृति, शक्ति तथा अजा कहते हैं और शैवशास्त्रके मनीषी उसे विमर्श भी कहते हैं। वेदतत्वार्थको जाननेवाले अन्य पुरुष उसे अविद्या कहते हैं। इस प्रकार वेद आदिमें उस शक्तिके नानाविध नाम प्रतिपादित हैं॥ 9-1030 ll
केवल दिखायी देनेके कारण वह जड है और ज्ञानप्राप्तिसे नष्ट होनेके कारण वह असत् है। चैतन्य दिखायी नहीं पड़ता और जो दिखायी पड़ता है, वह जड़ ही है। चैतन्य स्वयं प्रकाशस्वरूप है, वह दूसरेसे प्रकाशित नहीं होता। वह अपने द्वारा भी प्रकाशित नहीं है; क्योंकि इससे अनवस्थाका दोष आ जायगा । कर्मत्व और कर्तृत्व-ये दोनों विरुद्ध धर्म एक अधिकरणमें नहीं रह सकते, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि वह चैतन्य अपने द्वारा प्रकाशित होता है। प्रत्युत हे पर्वत ! दीपककी भाँति प्रकाशमान उसे सूर्य आदि दूसरोंका प्रकाशक समझिये। अतएव मेरे ज्ञानरूप शरीरका नित्यत्व स्पष्टतः सिद्ध है। 11-14॥जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में | संवित् (ज्ञानस्वरूप स्वयं) का अभाव प्रतीत न होकर प्रत्युत तीनों अवस्थाओंका अभाव अनुभव आता है, इस प्रकार कभी भी संवित्का अभाव अनुभवमें नहीं आता है। अतः संवित्के अभावका अनुभव न होनेके कारण उसका नित्यत्व स्वतः सिद्ध है। यदि किसीको | संवित्के अभावका अनुभव होता है तो जिस साक्षीके द्वारा उस संविद्रूपके अभावका अनुभव होता है, वही संवित्का स्वरूप होगा। अतः उत्तम शास्त्रोंके ज्ञाता विद्वानोंने उसे नित्य कहा है। वह परम प्रेमास्पद है, अतः उसमें आनन्दरूपता भी है ॥ 15–17 ॥
पूर्वमें मेरा अभाव था, ऐसा नहीं; मैं तब भी थी और प्रेमरूपमें सबकी आत्मामें स्थित थी। अन्य सभी वस्तुओंके मिथ्या होनेके कारण मेरा उन वस्तुओंसे सम्बन्ध न रहना स्वयं स्पष्ट है; अतः यह मेरे रूपको अपरिच्छिन्नता (व्यापकता) भी कही गयी है। वह ज्ञान आत्माका धर्म नहीं है, अन्यथा धर्मत्व होनेसे उसमें जड़ता आ सकती है। ज्ञानके किसी भी अंशमें जडता और अनित्यताको न कभी देखा गया और न देखा जा सकता है। ज्ञानरूप चित् आत्मरूप चितृका धर्म नहीं है क्योंकि आत्मरूप चित् और ज्ञानरूप चित् एक ही हैं और धर्मिधर्मीभाव एकत्र सम्भव नहीं है। अतः आत्मा सर्वदा ज्ञानरूप तथा सुखरूप है; वह सत्य, पूर्ण और असंग है तथा जलसे रहित है ॥ 18-21 ॥
वही आत्मा काम अर्थात् इच्छा तथा कर्म अर्थात् अदृष्ट आदिके साथ युक्त होकर अपनी मायासे पूर्वमें किये गये अनुभवोंके संस्कार, कालके द्वारा किये गये कर्मके परिपाक और तत्त्वोंके अविवेकसे सृष्टि करनेकी इच्छावाला हो जाता है। हे पर्वतराज हिमालय। मैंने आपसे अबुद्धिपूर्वक (शयनके अनन्तर परमात्माकी जो जागरणरूप अवस्था है वह बुद्धिपूर्वक नहीं है) हुए इस सृष्टिक्रमका वर्णन किया है ।। 22-23॥
यह मैंने आपसे अपने जिस रूपके विषयमें कहा है; वह अलौकिक, अव्याकृत (प्रारम्भिक), अव्यक्त (सृष्टिका आदिकारण) तथा मायाशबल (मायासे आवृत) भी है ॥ 24 ॥समस्त शास्त्रोंमें इसे सभी कारणोंका कारण; महत्, अहंकार आदि तत्त्वोंका आदिकारण तथा सत् चित्-आनन्दमय विग्रहवाला बताया गया है ॥ 25 ॥ उस रूपको सम्पूर्ण कमका साक्षी, इच्छा-ज्ञान तथा क्रियाशक्तिका अधिष्ठान, ह्रींकार मन्त्रका वाच्य (अर्थ) और आदितत्त्व कहा गया है ॥ 26 ॥
उसीसे शब्दतन्मात्रावाला आकाश, स्पर्शतन्मात्रावाला वायु और पुनः रूपतन्मात्रावाला तेज उत्पन्न हुआ। इसके बाद रसात्मक जल तथा पुनः गन्धात्मक पृथ्वीकी [क्रमशः] उत्पत्ति हुई। आकाश शब्द नामक एक गुणसे; वायु शब्द तथा स्पर्श- इन दो गुणोंसे और तेज शब्द, स्पर्श, रूप इन तीन गुणोंसे युक्त हुए ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं। इसी प्रकार शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस- ये चार गुण जलके कहे गये हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-इन पाँच गुणोंसे युक्त पृथ्वी है ।। 27- 293 ॥
उन्हीं पृथ्वी आदि सूक्ष्म भूतोंसे महान् व्यापक सूत्र उत्पन्न हुआ, जिसे लिंग शब्दसे कहा जाता है; वह सर्वात्मक कहा गया है। यही परमात्माका सूक्ष्म शरीर है जिसमें यह जगत् बीजरूपमें स्थित है और जिससे लिंगदेहकी उत्पत्ति हुई है, वह अव्यक्त कहा जाता है और वह परब्रह्मका कारणशरीर है; उसके विषयमें पहले ही कहा जा चुका है 30-313 ॥ तदनन्तर उसी अव्यक्तशरीर (लिंगशरीर) से पंचीकरणप्रक्रिया के द्वारा पाँच स्थूल भूत उत्पन्न होते हैं अब उस पंचीकरणप्रक्रियाका वर्णन किया जा रहा है। पूर्वमें कहे गये पाँच भूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश ) में प्रत्येक भूतके दो बराबर बराबर भाग करके प्रत्येक भूतके प्रथम आधे भागको पुनः चार भागों में विभक्त कर दे। इस प्रकार प्रथम भागके विभक्त चतुर्थांशको अन्य चार भूतोंके अवशिष्ट अर्धाशमें संयोजित कर दे। इस प्रकार प्रत्येक भूतके अशिमें तदतिरिक्त चार भूतोंके अंशका योग होनेसे पाँचों स्थूल भूतोंका निर्माण हो जाता है। इस प्रकार | पंचीकृत भूतरूपी कारणके द्वारा जो कार्य (सृष्टिप्रपंच) उत्पन्न हुआ, वही विराट् शरीर है और वही परमात्माका स्थूल देह है। हे राजेन्द्र पंचभूतोंमेंस्थित सत्त्वांशोंके परस्पर मिलनेसे श्रोत्र आदि पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा एक अन्त: करणकी उत्पत्ति हुई, जो वृत्तिभेदसे चार प्रकार (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) का हो जाता है ॥ 32-36 ॥
जब उसमें संकल्प-विकल्पवृत्तिका उदय होता है, तब उस अन्तःकरणको मन कहा जाता है। जब | वह अन्तःकरण संशयरहित निश्चयात्मक वृत्तिसे युक्त होता है, तब उसकी बुद्धि संज्ञा होती है। अनुसन्धान (चिन्तन) - वृत्तिके आनेपर वही अन्तःकरण चित्त कहा जाता है और अहंकृतिवृत्तिसे संयुक्त होनेपर वह अन्तःकरण अहंकारसंज्ञक हो जाता है ।। 37-38 ।। तदनन्तर उन पाँच भूतोंके राजस अंशोंसे क्रमशः पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न हुईं। प्रत्येक राजस अंशोंके मिलनेसे पाँच प्रकारके प्राण उत्पन्न हुए। प्राण हृदयमें अपान गुदामें, समान नाभिमें, उदान कंठमें तथा व्यान सम्पूर्ण शरीरमें व्याप्त हुआ। इस प्रकार पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, प्राण आदि पाँच वायु और बुद्धिसहित मन-इन्हीं सत्रह अवयवोंवाला मेरा सूक्ष्म शरीर है, जिसे लिंग शब्दसे भी कहा जाता है ॥ 39-413 ।।
हे राजन्! जो प्रकृति कही गयी है, वह भी दो भेदोंवाली बतायी गयी है। शुद्धसत्त्वप्रधान प्रकृति माया है तथा मलिनसत्त्वप्रधान प्रकृति अविद्या है। जो प्रकृति अपने आश्रित रहनेवालेकी | रक्षा करती है अर्थात् आवरण या व्यामोह नहीं करती, उसे माया कहा जाता है। उस शुद्ध सत्त्वप्रधान मायामें विम्बरूप परमात्माका जो प्रतिबिम्ब होता है, वही ईश्वर कहा गया है। वह ईश्वर अपने आश्रय अर्थात् व्यापक ब्रह्मको जाननेवाला, परात्पर, सर्वज्ञ, सब कुछ करनेवाला तथा समस्त प्राणियोंके ऊपर कृपा करनेवाला है। 42-43 हे पर्वतराज हिमालय! [मलिनसत्त्वप्रधान] अविद्यामें जो परमात्माका प्रतिबिम्ब है, वही जीव कहा जाता है और वही जीव अविद्याके द्वारा आनन्दांशका आवरण कर देनेके कारण सभी दुःखों का | आश्रय हो जाता है। माया-अविद्याके कारण ईश्वर और जीव- इन दोनोंके तीन देह तथा देहत्रयके अभिमानके कारण तीन नाम कहे जाते हैं। कारणदेहाभिमानी जीवको प्राज्ञ, सूक्ष्मदेहाभिमानीको तैजस तथा स्थूलदेहाभिमानीको विश्व - इन तीन प्रकारवाला कहा गया है। इसी प्रकार ईश्वर भी ईश, सूत्र तथा विराट् नामोंसे कहा गया है। जीवको व्यष्टिरूप तथा परमेश्वरको समष्टिरूप कहा गया है। वे सर्वेश्वर मेरी मायाशक्तिसे प्रेरित होकर जीवोंपर कृपा करनेकी कामनासे विविध भोगोंसे युक्त विश्वोंकी सृष्टि करते हैं। हे राजन् ! मेरी शक्तिके अधीन होकर वे ईश्वर रज्जुमें सर्पकी भाँति मुझ ब्रह्मरूपिणीमें नित्य कल्पित हैं ॥ 45-50॥